October 28, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीगणेशपुराण-क्रीडाखण्ड-अध्याय-083 ॥ श्रीगणेशाय नमः ॥ तिरासीवाँ अध्याय पार्वती को पुत्र की प्राप्ति होने पर हिमवान् का शिशु के दर्शन के लिये आना और उसे अनेक प्रकार से आभूषणों से अलंकृतकर उसका ‘हेरम्ब’ यह नाम रखना, फिर हिमालय का प्रस्थान, गृध्रासुर द्वारा बालक हेरम्ब का हरणकर आकाश में ले चलना, पार्वती का शोक, बालक हेरम्ब द्वारा गृधासुर का वध अथः त्र्यशीतितमोऽध्यायः गृध्रासुरवध ब्रह्माजी बोले — हे ब्रह्मन् व्यासजी! वह बालक गुणेश शुक्लपक्ष के चन्द्रमा की भाँति दिन-प्रतिदिन बढ़ने लगा। पार्वती को सुन्दर पुत्र की प्राप्ति हुई है — यह समाचार जानकर पार्वती के पिता हिमालय भी बहुत सारे अनमोल रत्नों से समन्वित अलंकारों को लेकर वहाँ गये । पिता हिमालय को अपने आँगन में आया देखकर [उनकी] पुत्री पार्वतीजी दौड़कर उनके पास गयीं ॥ १-२ ॥ बहुत समय बाद आये हुए पिता का गौरी ने आनन्दपूर्वक आलिंगन किया। आनन्द के कारण उन दोनों पिता-पुत्री की आँखों से आँसू निकल पड़े, तदनन्तर गौरी ने अपने पिता हिमालय से कहा — ॥ ३ ॥ गौरी बोली — हे निर्दय पिताजी! आप इतने निष्ठुर क्यों हो गये हैं, आप न तो कभी मेरा समाचार ही लेते हैं और न अपना समाचार ही भेजते हैं ? ॥ ४ ॥ हिमवान् बोले — हे गौरी! तुम सत्य ही कह रही हो। तुम्हारे बिना मेरे प्राण तो कण्ठ में आकर रुक गये हैं, अतः हे हरप्रिये! तुम्हें देखने की अभिलाषा वाला मैं यहाँ आया हूँ। जैसे गौ का मन हर समय अपने बछड़े पर लगा रहता है, वैसे ही मेरा मन भी निरन्तर तुममें ही लगा रहता है ॥ ५१/२ ॥ ब्रह्माजी बोले — पिता के इस प्रकार के वचनों को सुनने के पश्चात् पार्वतीजी ने उन्हें बैठने के लिये सुन्दर आसन प्रदान किया। आसन पर बैठने के अनन्तर गिरिवर हिमालय पुनः अपनी पुत्री से कहने लगे — ‘मैंने देवर्षि नारदजी के मुख से सुना है कि तुम्हें परम अद्भुत पुत्र की प्राप्ति हुई है, इसी कारण मैं सभी प्रकार विघ्नों का हरण करने वाले उस मंगलमय बालक को देखने के लिये आया हूँ’ ॥ ६–७१/२ ॥ ब्रह्माजी बोले — तदनन्तर पार्वतीजी ने बालक को लाकर पिता की गोद में बैठाया। तब पिता हिमवान् ने उसे नाना प्रकार के अलंकारों से विभूषित किया और फिर वे उसकी महिमा को बतलाने लगे ॥ ८१/२ ॥ वे हिमालय बोले — यह महान् मायासम्पन्न बालक इस पृथ्वी को उसी प्रकार निष्कंटक बना देगा, जैसे कि चन्द्रमा अपनी किरणों से इस पृथिवी को शीतल बना देता है। यह सभी देवताओं को अपने-अपने स्थान पर प्रतिष्ठित करेगा ॥ ९-१० ॥ यह तुम्हारे चरणों की सेवा करेगा और इसके चरणों की सेवा मुनीश्वर करेंगे। सभी स्थावर तथा जंगम प्राणी इसी के रूप हैं। यह ब्रह्मा आदि देवों के लिये सदा ध्येय है। यह हजार नेत्रों वाला, हजार चरणों वाला तथा सभी ब्रह्माण्डों के कारणों का भी कारण है ॥ ११-१२ ॥ यह हजार मुख वाला, अनन्त मूर्तियों वाला तथा समष्टि और व्यष्टिरूप है। मैंने तीनों लोकों में इस प्रकार का तेजोमय बालक कहीं भी नहीं देखा है ॥ १३ ॥ मैं इसके चरणकमल का दर्शनकर उसमें वैसे ही तल्लीन हो गया, जैसे कि जल में छोड़ा गया जल क्षणभर में ही तन्मय अर्थात् उसी रूपवाला हो जाता है। हे शुभे! इसके पालन-पोषण का प्रयत्न करो, यह पुरातन निधि है ॥ १४१/२ ॥ ब्रह्माजी बोले — तदनन्तर पर्वतराज हिमालय ने उसके मस्तक पर मुकुट पहनाया, दोनों भुजाओं पर बाजूबन्द धारण कराये, हृदयदेश में कमल की आकृति का आभूषण पहनाया, दोनों कानों में रत्नजटित कुण्डल पहनाये, कमर में करधनी धारण करवायी और पैरों में छोटी घण्टियों से युक्त बहुमूल्य नूपुरों को धारण करवाया। इस प्रकार विविध आभूषणों से सुसज्जितकर हिमवान् ने उसका ‘हेरम्ब’ यह नाम रखा। यह नाम महान् विघ्नों का हरण करने वाला तथा भक्तों को अभय प्रदान करने वाला है । तदनन्तर भोजन करने के उपरान्त पुत्री पार्वती की अनुमति प्राप्तकर पर्वतराज हिमालय ने अपने स्थान को प्रस्थान कर दिया ॥ १५–१७१/२ ॥ एक दिन की बात है, बालक हेरम्ब अपने भवन में खेल रहे थे, उसी समय गृध्रासुर नामक एक असुर गीध का रूप धारणकर वहाँ आया । वह महान् बलवान् तथा अत्यन्त पराक्रमसम्पन्न था। उसके पंखों की हवा से पर्वतों के समूह चूर-चूर हो जाते थे और उसके पंजों के आघात से विशाल पर्वतशिखर तथा वृक्ष भी गिरकर टूट जाते थे ॥ १८-१९१/२ ॥ उस समय गृध्रासुर ने [हेरम्ब को उठा लिया और ] अपने पंखों की छाया से बालक हेरम्ब को आच्छादित करके आकाश में उड़ने लगा ॥ २० ॥ उसने अपने पंखों की फड़फड़ाहट से उठी हुई धूल के द्वारा सभी के नेत्रों को आच्छादित कर दिया था। [उसके पंखों से होने वाली] महान् ध्वनि से लोगों के कान बधिर हो गये। तदनन्तर उस महान् गृध्रासुर ने अपनी चोंच के द्वारा बालक हेरम्ब को वैसे ही पकड़ लिया, जैसे कि गरुड़ सर्प को पकड़ लेता है और वह आकाशमार्ग में दूर तक चला गया ॥ २१-२२ ॥ बालक के पराक्रम को न जानता हुआ वह दुष्ट असुर आकाश में भ्रमण करने लगा। तभी गिरिपुत्री पार्वती ने देखा कि मेरा बालक कहाँ चला गया ! ॥ २३ ॥ जब उन्होंने आँगन में बालक को नहीं देखा तो वे शोक से अत्यन्त व्याकुल हो गयीं और कहने लगीं — किस दुष्ट दुरात्मा ने मेरे बालक का हरण कर लिया है ? तदनन्तर उन्होंने ऊपर आकाश में गृध्र के मुख में अपने बालक को देखा। वे मूर्च्छित होकर भूमि में गिर पड़ीं और ‘दौड़ो-दौड़ो’ — इस प्रकार से कहने लगीं ॥ २४-२५ ॥ हे सुरेश्वर ! बिना पुत्र के मेरे प्राण निकल जायँगे। क्यों मेरे ऊपर यह आकाश गिर पड़ा है ? जगदीश्वर शंकर क्यों मुझपर ही इस प्रकार से निष्ठुर हो गये हैं? मैंने तो बारह वर्षों तक निराहार रहकर व्रत किया था। तब वे करुणासागर स्वयंप्रकाश प्रभु मेरे घर में अवतरित हुए थे, आज वे ही निधिरूप मुझ अभागिन के पापसंचय के फलस्वरूप चले गये हैं, मेरे बालक के चले जाने पर मेरा जो आत्यन्तिक सुख है, वह सर्वथा चला गया है ॥ २६-२८१/२ ॥ ब्रह्माजी बोले — इस प्रकार से उन पार्वती को शोक में पड़ा देखकर उनकी सखियाँ भी दुखी हो गयीं। तब उन्होंने अपने बुद्धिबल से युक्तियों के द्वारा उनका समाधान किया कि — ‘ [हे देवि !] वह बालक आदि और अन्त से रहित है, अतः उसके लिये आपको शोक नहीं करना चाहिये ॥ २९-३० ॥ आपके तपस्यारूपी महान् अनुष्ठान के फलस्वरूप वे स्वयंप्रकाशस्वरूप आपके यहाँ अवतरित हुए हैं। बतलाओ तो सही, क्या कहीं कोई मिट्टी की मूर्ति सजीव हुई है ? हे शुभे ! आप स्वस्थ हो जायँ, क्षणभर में ही आप अपने पुत्र को देखेंगी, वह बालक काल का भी काल है, वह आपके स्नेहवश शीघ्र ही आयेगा’ ॥ ३१-३२ ॥ जिस समय सखियाँ इस प्रकार से कह रही थीं, उसी समय उस बलवान् बालक ने अपनी मुट्ठी में उस गृध्रासुर की चोंच को पकड़ लिया, जिससे उसकी साँस बाहर न निकल सकी ॥ ३३ ॥ श्वास के रुक जाने से वह गृध्र प्राणहीन हो गया और उस बालक सहित वह भूमितल पर उसी प्रकार गिर पड़ा, जैसे कि वज्र से आहत होकर पर्वत गिर पड़ता है। गिरते हुए उस गृध्रासुर की दस योजन विस्तारवाली देह से बहुत-से घर आदि चूर-चूर हो गये। यह एक महान् आश्चर्यजनक बात हुई! देवालय आदि में स्थित वृक्षों के टूट जाने से पक्षिगण दिशाओं में भाग चले। तब उस बालक को देखकर सखियाँ कहने लगीं — यह पार्वती का पुत्र इस प्रकार से गिरा है कि इसके शरीर में कहीं भी चोट नहीं लगी है ॥ ३४–३६१/२ ॥ ब्रह्माजी बोले — सखीजनों का इस प्रकार का वचन सुनकर गौरी ने शीघ्र ही बालक को पकड़ लिया और उसे अपने हृदय से लगाकर उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्हें बड़ा ही आश्चर्य हुआ। उन्होंने [अरिष्टनिवारणार्थ ] अनेकों प्रकार के दान दिये ॥ ३७-३८ ॥ तदनन्तर उन्होंने ब्राह्मणों से कहा — हे द्विजो ! इस समय तो इस बालक का महान् अरिष्ट चला गया है, आगे भी न हो, ऐसा कहकर ब्राह्मणों को नमस्कार करके पार्वतीजी अपने भवन में चली गयीं ॥ ३९ ॥ कहाँ तो वह दस योजन विस्तार वाला पराक्रमी गृध्रासुर और कहाँ यह कोमल शरीर वाला छोटा बालक ! फिर भी इसने उस असुर को मार डाला ॥ ४० ॥ इस समय बालकपन में जब इसका इतना बल है, तो आगे चलकर यह न जाने क्या करेगा ? इसे छोटा नहीं समझना चाहिये, जिस प्रकार आग की एक चिनगारी विशाल काष्ठसमूह को भस्म कर डालती है, वैसे ही इसने भी उस विशाल असुर को मार डाला है ॥ ४११/२ ॥ गौरीने इस प्रकार की बात अपनी सखियों से कही और फिर उन्होंने प्रसन्न होकर बालक को स्तनपान कराया । तदनन्तर शिवगणों ने उस गृध्रासुर की देह के टुकड़ों को दूर ले जाकर फेंक दिया। जो इस आख्यान का श्रवण करता है, वह असुरों के द्वारा पराजित नहीं होता ॥ ४२-४३ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराण के क्रीडाखण्ड में ‘गृध्रासुरवधवर्णन’ नामक तिरासीवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ८३ ॥ Content is available only for registered users. 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