April 22, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-पंचम स्कन्धः-अध्याय-15 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ पूर्वार्द्ध-पंचम स्कन्धः-पञ्चदशोऽध्यायः पन्द्रहवाँ अध्याय बिडालाख्य और असिलोमा का रणभूमि में आना, देवी से उनका वार्तालाप और युद्ध तथा देवी द्वारा उनका वध असिलोमबिडालाख्यवधवर्णनम् व्यासजी बोले — उस देवी ने चिक्षुराख्य तथा ताम्र का वध कर दिया — यह सुनकर महिषासुर को बड़ा विस्मय हुआ। अब उसने विशाल सेना से युक्त, शस्त्रास्त्र लिये हुए तथा कवच धारण किये हुए असिलोमा, बिडालाख्य आदि प्रमुख युद्धोन्मत्त तथा महाबली दैत्यों को भगवती का वध करने के लिये भेजा ॥ १-२ ॥ वहाँ पर उन्होंने सिंह के ऊपर विराजमान, अठारह भुजाओं से सुशोभित, खड्ग तथा ढाल धारण की हुई दिव्यस्वरूपवाली भगवती को देखा ॥ ३ ॥ तब असिलोमा दैत्यों के वध के लिये उद्यत देवी के पास जाकर विनयावनत होकर शान्तिपूर्वक उनसे हँसते हुए कहने लगा — ॥ ४ ॥ असिलोमा बोला — हे देवि ! सच्ची बात बताइये, आप यहाँ किस प्रयोजन से आयी हैं? हे सुन्दरि ! इन निरपराध दैत्यों को आप क्यों मार रही हैं ? इसका कारण बताइये। मैं अभी आपके साथ सन्धि करने को तैयार हूँ। हे वरारोहे! सुवर्ण, मणि, रत्न और अच्छे-अच्छे पात्र जो भी आप चाहती हैं, उन्हें लेकर यहाँ से शीघ्र चली जाइये। आप युद्ध की इच्छुक क्यों हैं ? महात्मा पुरुष कहते हैं कि युद्ध दुःख तथा सन्ताप को बढ़ाने वाला और सम्पूर्ण सुखों का विघातक होता है ॥ ५–७१/२ ॥ मुझे महान् आश्चर्य हो रहा है कि पुष्प का भी आघात न सह सकने वाले अपने अत्यन्त सुकोमल शरीर में आप शस्त्रों के आघात सहने के लिये क्यों तैयार हैं? चातुर्य का फल तो शान्ति और निरन्तर सुख भोगना है । अतः एकमात्र दुःख के कारणस्वरूप इस संग्राम को आप क्यों करना चाहती हैं ? इस संसार में सुख ग्रहण करना चाहिये और दुःख का परित्याग करना चाहिये — यही सर्वमान्य नियम है ॥ ८-१० ॥ वह सुख भी नित्य और अनित्य के भेद से दो प्रकारका कहा गया है। आत्मज्ञानसम्बन्धी सुख को ‘नित्य’ और भोगजनित सुख को ‘अनित्य’ माना गया है। वेद और शास्त्र के तत्त्व का चिन्तन करने वाले लोगों को चाहिये कि उस विनाशशील अनित्य सुख को त्याग दें । हे वरानने ! यदि आप नास्तिक का मत स्वीकार करती हों तो भी इस यौवन को पाकर उत्तम से उत्तम सुखों का भोग करें। हे कृशोदरि ! हे भामिनि ! यदि परलोक के विषय में आपको सन्देह हो तो इस पृथ्वी पर ही सदाचारपूर्वक रहती हुई स्वर्गीय सुख प्राप्त करने में सदा तत्पर रहें, नहीं तो शरीर में यह यौवन अनित्य है — ऐसा समझकर आपको सदा सत्कर्म करते रहना चाहिये ॥ ११–१४ ॥ बुद्धिमान् पुरुषों को चाहिये कि वे दूसरों को पीड़ित करने के कार्य का त्याग कर दें। अतः बिना विरोध के धर्म, अर्थ और काम का सेवन करना चाहिये। इसलिये हे कल्याणि ! आप अपनी बुद्धि धर्मकृत्य में लगाइये । हे अम्बिके ! आप हम दैत्यों को बिना अपराध के क्यों मार रही हैं? दयाभाव पुरुषमात्र का शरीर है और सत्य में ही उसका प्राण प्रतिष्ठित कहा गया है। अतः बुद्धिमान् पुरुषों को चाहिये कि दया और सत्य की सदा रक्षा करें। हे देवि ! आप दानवों के संहार में अपना प्रयोजन बतायें ? ॥ १५-१७१/२ ॥ देवी बोलीं — हे महाबाहो ! तुमने जो यह पूछा है कि मैं यहाँ क्यों आयी हूँ- उसे बताती हूँ और दानव वध का प्रयोजन भी बताती हूँ। हे दैत्य! मैं सदा साक्षी बनकर सभी प्राणियों के न्याय तथा अन्याय को देखती हुई सब लोकों में निरन्तर विचरती रहती हूँ। मुझे न तो कभी भोगविलास की इच्छा है, न लोभ है और न किसी के प्रति द्वेषभाव ही है ॥ १८-२० ॥ धर्म की मर्यादा रखने के लिये मैं इस संसार में विचरण करती रहती हूँ। साधुपुरुषों की रक्षा करना — अपने इस व्रत का मैं सदा पालन करती हूँ। अनेक अवतार धारण करके मैं सज्जनों की रक्षा करती हूँ, जो असाधु हैं उनका संहार करती हूँ और वेदों का संरक्षण करती हूँ। मैं प्रत्येक युग में उन अवतारों को धारण करती रहती हूँ ॥ २१-२२१/२ ॥ दुराचारी महिषासुर देवताओं को मार डालने के लिये उद्यत है- यह जानकर मैं उसके वध के लिये इस समय यहाँ उपस्थित हुई हूँ। हे दानव! मैं उस दुराचारी तथा सुरद्रोही महाबली महिष को मार डालूँगी ॥ २३-२४ ॥ अब तुम इच्छानुसार जाओ या रुके रहो, मैंने तुमसे यह सब सच-सच बतला दिया। अतः जाकर अपने उस दुराचारी राजा महिष से कह दो — ‘आप अन्य दैत्यों को क्यों भेजते हैं ? स्वयं युद्ध कीजिये।’ यदि तुम्हारे राजा की इच्छा मेरे साथ सन्धि करने की हो, तो सभी दैत्य शत्रुता छोड़कर सुखपूर्वक पाताल चले जायँ । देवताओं को जीतकर जो भी देवद्रव्य असुरों ने छीन लिया है, वह सब वापस करके वे उस पातालपुरी में चले जायँ, जहाँ इस समय प्रह्लाद विराजमान हैं ॥ २५-२७ ॥ व्यासजी बोले — [ हे राजन् ! ] इस प्रकार देवी का वचन सुनकर असिलोमा भगवती के सामने ही महान् शूरवीर बिडालाख्य से प्रीतिपूर्वक पूछने लगा- ॥ २८ ॥ असिलोमा बोला — बिडालाख्य ! देवी ने अभी-अभी जो कहा है, वह तो तुमने सुन लिया, इस स्थिति में हमें सन्धि या विग्रह – क्या करना चाहिये ? ॥ २९ ॥ बिडालाख्य बोला —युद्ध में मृत्यु को निश्चित जानते हुए भी हमारे अभिमानी महाराज सन्धि नहीं करना चाहते। समर में बहुत-से योद्धा मारे जा चुके हैं – यह देखकर भी वे हमें भेज रहे हैं। दैव को टाल सकने में भला कौन समर्थ है ! ॥ ३० ॥ ( सम्मान की भावना से रहित, स्वामी की आज्ञा का पालन करने वाले तथा सदा उनके अधीन रहने वाले सेवकों का सेवाधर्म अत्यन्त कठिन है। सूत के संकेत पर नर्तन करने वाली कठपुतली की भाँति वे सदा परतन्त्र रहते हैं।) अतः उन महिषासुर के सामने जाकर मेरे अथवा तुम्हारे द्वारा ऐसा अप्रिय वचन कैसे कहा जा सकता है कि देवताओं के धन एवं रत्न वापस करके सभी दानव यहाँ से पाताल को लौट चलें ? ॥ ३१ ॥ (सदा प्रिय वचन बोलना चाहिये, किंतु वह असत्य न हो । वचन हितकारक तथा प्रिय होना चाहिये । यदि वचन सत्य होने पर भी प्रिय न हो तो ऐसी दशा में बुद्धिमान् मनुष्यों के लिये मौन ही श्रेष्ठ होता है ।) नीतिशास्त्र का कथन है कि वीर पुरुषों को चाहिये कि वे मिथ्या वचनों द्वारा राजा को धोखे में न डालें ॥ ३२ ॥ [ सत्य बात तो यह है कि] आदर के साथ हित की बात कहने अथवा पूछने के लिये हम लोगों को वहाँ नहीं चलना चाहिये। राजा महिषासुर कोपाविष्ट हो जायँगे। यह विचारकर अब हम लोगों को यहाँ युद्ध ही करना चाहिये। जहाँ प्राण का संशय हो वहाँ स्वामी के कार्य को मुख्य मानकर मृत्यु को तृणसदृश समझना चाहिये ॥ ३३-३४ ॥ व्यासजी बोले — इस प्रकार विचार करके वे दोनों वीर युद्ध के लिये तत्पर हो गये और कवच धारण करके हाथों में धनुष-बाण लेकर रथ पर आरूढ हो देवी के सामने आ डटे ॥ ३५ ॥ सर्वप्रथम बिडालाख्य ने देवी के ऊपर सात बाण चलाये। अस्त्र चलाने में अत्यन्त निपुण असिलोमा दूर जाकर दर्शक के रूप में खड़ा हो गया ॥ ३६ ॥ भगवती जगदम्बा ने अपने बाणों से बिडालाख्य के द्वारा चलाये गये उन बाणों को काट डाला और पत्थर पर घिसकर तीक्ष्ण बनाये गये तीन बाणों से बिडालाख्य पर आघात किया ॥ ३७ ॥ उन बाणों की असह्य वेदना से पीड़ित होकर वह दैत्य समरभूमि में गिर पड़ा, उसे मूर्च्छा आ गयी और कालयोग से वह मर गया ॥ ३८ ॥ इस प्रकार भगवती बाणसमूहों से रण में बिडालाख्य को मारा गया देखकर असिलोमा भी हाथ में धनुष लेकर के युद्ध करने के लिये तैयार होकर सामने आ गया और दाहिना हाथ ऊपर उठाकर अभिमानपूर्वक बोला — हे देवि ! मैं जानता हूँ कि सभी दुराचारी दानव मारे जायँगे, फिर भी पराधीन होने के कारण मुझे युद्ध करना ही होगा। वह मन्दबुद्धि महिषासुर अपने प्रिय तथा अप्रिय के विषय में नहीं जानता ॥ ३९-४१ ॥ उसके सामने हितकर वचन भी यदि अप्रिय है तो मुझे नहीं बोलना चाहिये। अब वीरधर्म के अनुसार मर जाना ही मेरे लिये उचित है — वह चाहे शुभ हो अथवा अशुभ। मैं तो दैव को ही बलवान् मानता हूँ, अनर्थकारी पुरुषार्थ को धिक्कार है, तभी तो आपके बाणों से हत होकर दानव पृथ्वी पर गिरते जा रहे हैं ॥ ४२-४३ ॥ ऐसा कहकर दानवश्रेष्ठ असिलोमा बाणवृष्टि करने लगा। देवी ने अपने पास तक न पहुँचे हुए उन बाणों को अपने बाणों से काट डाला और अपने अन्य शीघ्रगामी बाणों से असिलोमा को शीघ्रतापूर्वक बींध डाला। उस समय आकाश में स्थित देवताओं ने देखा कि भगवती का मुखमण्डल क्रोध से भर उठा है। देवी के बाणों से बिंधे शरीर वाला तथा बहती हुई रुधिर की धारा से युक्त वह दैत्य ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो पुष्पित हुआ पलाश का वृक्ष हो ॥ ४४-४६ ॥ अब असिलोमा लोहे की बनी एक विशाल गदा लेकर बड़ी तेजी से चण्डिका की ओर दौड़ा और क्रोधपूर्वक सिंह के सिर पर उसने गदा से प्रहार कर दिया। परंतु देवी के सिंह ने उस बलवान् दानव के द्वारा किये गये गदा प्रहार की कुछ भी परवाह न करके अपने नखों द्वारा उसके वक्षःस्थल को फाड़ डाला ॥ ४७-४८ ॥ तब उस महाविकराल दैत्य ने हाथ में गदा लिये ही बड़े वेग से उछलकर सिंह के मस्तक पर सवार हो भगवती के ऊपर गदा से प्रहार किया ॥ ४९ ॥ हे राजन् ! उसके द्वारा किये गये प्रहार को रोककर देवी ने तेज धार वाली तलवार से उसका मस्तक गर्दन से अलग कर दिया। इस प्रकार मस्तक कट जाने पर वह दानवराज तुरंत गिर पड़ा। अब उस दुरात्मा की सेना में हाहाकार मच गया ॥ ५०-५१ ॥ हे राजन्! देवी की जय हो ऐसा कहकर देवतागण भगवती की स्तुति करने लगे। देवताओं की दुन्दुभियाँ बज उठीं और किन्नरगण देवी का यशोगान करने लगे ॥ ५२ ॥ मारे गये उन दोनों दैत्यों को समरांगण में गिरा हुआ देखकर शेष सम्पूर्ण सैनिकों को सिंह ने अपने पराक्रम द्वारा मार गिराया और कुछ दानवों को खा डाला और इस प्रकार उस युद्धभूमि को दानवों से रहित कर दिया । कुछ अंग-भंग हुए मूर्ख दानव दुःखी होकर महिषासुर के पास पहुँचे और ‘रक्षा कीजिये- रक्षा कीजिये’- ऐसा कहते हुए वे चीखने-चिल्लाने तथा रोने लगे — ‘हे नृपश्रेष्ठ ! असिलोमा और बिडालाख्य दोनों ही मारे गये । हे राजन् ! अन्य जो भी सैनिक थे, उन्हें सिंह खा गया’ ऐसा कहते हुए वे सब महिषासुर को युद्ध के लिये प्रेरित करने लगे ॥ ५३-५६ ॥ उनकी बात सुनकर महिषासुर खिन्नमनस्क, चिन्ता से व्याकुल, उदास तथा दुःखी हो गया ॥ ५७ ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत पंचम स्कन्ध का ‘असिलोमा और बिडाल के वध का वर्णन’ नामक पन्द्रहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १५ ॥ Content is available only for registered users. 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