श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-पंचम स्कन्धः-अध्याय-19
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
पूर्वार्द्ध-पंचम स्कन्धः-एकोनविंशोऽध्यायः
उन्नीसवाँ अध्याय
देवताओं द्वारा भगवती की स्तुति
देवीसान्त्वनम्

व्यासजी बोले — महिषासुर का संहार देखकर इन्द्र आदि प्रधान देवता परम प्रसन्न हुए और वे जगदम्बा की स्तुति करने लगे ॥ १ ॥

देवता बोले — हे देवि ! आपकी ही शक्ति से ब्रह्मा इस जगत् का सृजन करते हैं, भगवान् विष्णु पालन करते हैं और शिवजी प्रलयकाल में संहार करते हैं। आपकी शक्ति से रहित हो जाने पर वे कुछ भी करने में समर्थ नहीं हो सकते। अतः जगत् का सृजन, पालन और संहार करने वाली आप ही हैं ॥ २ ॥ इस संसार में कीर्ति, मति, स्मृति, गति, करुणा, दया, श्रद्धा, धृति, वसुधा, कमला, अजपा, पुष्टि, कला, विजया, गिरिजा, जया, तुष्टि, प्रमा, बुद्धि, उमा, रमा, विद्या, क्षमा, कान्ति और मेधा ये सब शक्तियाँ आप ही हैं। इस त्रिलोकी में आप विख्यात हैं। सम्पूर्ण जगत्‌ को आश्रय देने वाली हे देवि ! आपकी इन शक्तियों के बिना कौन व्यक्ति कुछ भी स्वयं कर सकने में समर्थ है ? ॥ ३-४ ॥ अम्ब! धारणा शक्ति भी निश्चितरूप से आप ही हैं, अन्यथा कच्छप और शेषनाग इस पृथ्वी को धारण कर सकने में कैसे समर्थ हो पाते ? पृथ्वी-शक्ति भी आप ही हैं। यदि आप इस रूप में न होतीं तो प्रचुर भार से सम्पन्न यह सम्पूर्ण जगत् आकाश में कैसे ठहर सकता था ॥ ५ ॥


हे जननि ! जो मनुष्य माया के गुणों से प्रभावित होकर ब्रह्मा, विष्णु, महेश, चन्द्रमा, अग्नि, यम, वायु, गणेश आदि प्रमुख देवताओं की स्तुति करते हैं, वे अज्ञानी ही हैं; क्योंकि क्या वे देवता भी आपकी कृपाशक्ति के बिना उन मनुष्यों को कार्य फल प्रदान करने में समर्थ हो सकते हैं ? ॥ ६ ॥ हे अम्ब! जो लोग सुविस्तृत यज्ञ में देवताओं को अधिकृत करके अग्नि में पुष्कल आहुति देते हैं, वे मन्दमति हैं; क्योंकि यदि स्वाहा के रूप में आप न होतीं, तो वे देवता हविर्द्रव्य को कैसे पाते ? तब फिर वे मूढ़ आपका ही यजन क्यों नहीं करते ? ॥ ७ ॥ आप जगत् के चराचर प्राणियों को भोग प्रदान करती हैं और अपने अंशों से उन्हें नित्य जीवन देती हैं। हे जननि ! जिस प्रकार आप अपने प्रिय देवताओं का पोषण करती हैं, उसी प्रकार अपने शत्रुओं का भी पालन करती हैं ॥ ८ ॥ हे माता ! बुद्धिमान् पुरुष विनोद के लिये उद्यान में लगाये गये वृक्षों में से कुछ वृक्षों के फल और पत्तों से रहित हो जाने अथवा उन वृक्षों का रस कडुवा निकल जाने पर भी उन्हें कभी भी नहीं काटते, उसी प्रकार आप भी [ अपने ही बनाये हुए ] दैत्यों की भलीभाँति रक्षा करती हैं ॥ ९ ॥ करुणारस से ओत-प्रोत हृदय वाली आप रणभूमि में बाणों द्वारा शत्रुओं का जो संहार करती हैं, वह भी उनका मनोरथ पूर्ण करने के लिये ही होता है; क्योंकि दूसरे जन्म में देवांगनाओं के साथ क्रीड़ा-विहार करने की इच्छा वाला उन्हें जानकर ही आपके द्वारा ऐसा किया जाता है; ऐसा आपका अद्भुत चरित्र है ॥ १० ॥

हे माता ! बड़ी विलक्षण बात तो यह है कि विख्यात प्रभावों वाले उन दैत्यों का संहार जो आपके संकल्पमात्र से ही सम्भव था, इसके लिये आपको अवतार लेना पड़ा। यह शरीर धारण करके आप वास्तव में इसी के सहारे लीला करती हैं; इसमें कोई दूसरा कारण नहीं है ॥ ११ ॥ जो मनुष्य इस विकराल कलि के उपस्थित होने पर भी आपकी आराधना नहीं करते, अपितु आपके ही द्वारा निर्मित विष्णु, शिव आदि देवताओं की उपासना में तत्पर रहते हैं, वे लोग पुराण- चतुर धूर्तजनों के द्वारा निश्चित रूप से ठग लिये गये हैं ॥ १२ ॥ यह जानकर भी कि देवता आपके अधीन हैं तथा दैत्यों के द्वारा छिन्न-भिन्न और प्रताड़ित किये जाते हैं — जो मनुष्य श्रद्धापूर्वक भूलोक में अन्य देवताओं की उपासना करते हैं, वे मानो हाथ में अत्यन्त प्रकाशमान दीपक लेकर भी किसी जलरहित भयानक कूप में जा गिरते हैं ॥ १३ ॥ हे माता ! आप ही सुखदायिनी विद्या तथा दुःखदायिनी अविद्या हैं और आप ही मनुष्यों के जन्म-मृत्यु का दुःख दूर करने वाली हैं। हे जननि! मोक्ष की कामना करने वाले लोग तो आपकी आराधना करते हैं, किंतु मन्दबुद्धि अज्ञानी तथा विषयभोगपरायण मनुष्य आपकी आराधना नहीं करते ॥ १४ ॥ ब्रह्मा, विष्णु, महेश तथा अन्य देवतागण आपके शरणदायक चरणकमल की निरन्तर उपासना करते हैं, किंतु जो अल्पबुद्धि मनुष्य भ्रमित होकर मन से आपकी आराधना नहीं करते, वे संसार सागर में बार-बार गिरते हैं ॥ १५ ॥ हे चण्डिके ! आपके चरण कमल से उत्पन्न हुई धूलि के प्रभाव से ही ब्रह्मा सृष्टि के प्रारम्भ में सम्पूर्ण भुवन की रचना करते हैं, विष्णु पालन करते हैं और शिवजी संहार करते हैं। इस लोक में जो मनुष्य आपकी उपासना नहीं करता, वह अभागा है ॥ १६ ॥

हे देवि ! आप ही देवताओं तथा दैत्यों की वाग्देवता हैं। यदि आप मुख में विराजमान न रहतीं, तो बड़े-बड़े देवता भी बोलने में समर्थ नहीं हो सकते थे। मुख होने पर भी मनुष्य उस वाक्शक्ति के बिना बोल नहीं सकता ॥ १७ ॥ हे जननि ! महर्षि भृगु ने कुपित होकर भगवान् विष्णु को शाप दे दिया, जिससे उन्हें पृथ्वी पर बारम्बार मत्स्य, कूर्म, वराह, नृसिंह और छली वामन का अवतार लेना पड़ा। तो फिर [ एक ऋषि के शाप से अपनी रक्षा न कर पाने वाले ऐसे विष्णु आदि 1  ] उन देवताओं की उपासना करने वाले लोगों को मृत्यु का भय क्यों नहीं बना रहेगा ? ॥ १८ ॥ हे माता ! सम्पूर्ण संसार में यह बात प्रसिद्ध है कि भृगुमुनि के कानन में गये हुए भगवान् शिव का लिंग मुनि के शाप के कारण कटकर पृथ्वी पर गिर पड़ा था। अतः जो मनुष्य पृथ्वी पर उन कापालिक शिव को ही भजते हैं, उन्हें इस लोक तथा परलोक में भी सुख कैसे प्राप्त हो सकता है ? ॥ १९ ॥ शिव से जो गणों के अधिपति गणेश उत्पन्न हुए हैं — उन गणेश को जो लोग भजते हैं, उनकी यह शरणागति व्यर्थ है। हे देवि ! वे लोग सभी प्रकार के अभीष्ट फल प्रदान करने वाली तथा सुखपूर्वक आराधनीय आप जगज्जननी को नहीं जानते हैं ॥ २० ॥

यह बड़ी विचित्र बात है कि आपने अपने शत्रु-दैत्यों पर भी दया करके उन्हें तीक्ष्ण बाणों से रण में मारकर स्वर्गलोक भेज दिया। यदि आप ऐसा न करतीं तो वे अपने कर्मों के परिणामस्वरूप प्राप्त होने वाले घोर नरक में बड़े-से-बड़े दुःख और विपत्ति में पड़ जाते ॥ २१ ॥ जब ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि देवता भी अहंकार के कारण आपकी महिमा नहीं जानते, तब आपके अमित प्रभाव वाले गुणों से मोहित तुच्छ मनुष्य आपकी महिमा को कैसे जान सकेंगे ? ॥ २२ ॥ जो मुनिगण आपके स्वरूप को बड़ी कठिनता से ध्यान में आने वाला समझकर आपके चरणकमल की उपासना नहीं करते; अपितु सूर्य, अग्नि आदिकी उपासना में लगे रहते हैं, वे मूढबुद्धि अनेकविध कष्ट पाते हैं। समस्त श्रुतियों के द्वारा प्रतिपादित वेदसारस्वरूप परमार्थतत्त्व को वे नहीं जान पाते ॥ २३ ॥ मैं तो यही समझता हूँ कि अद्भुत प्रभावों वाले जो आपके सत्त्व, रज और तम गुण हैं, वे ही मनुष्यों को उन्हीं की अपनी ही बुद्धि द्वारा विरचित अनेक प्रकार के शास्त्रों में उलझाकर उन्हें विष्णु, शिव, सूर्य, गणेश आदि का उपासक बनाकर आपके भक्तिभाव से सर्वथा विमुख कर देते हैं ॥ २४ ॥

हे अम्बिके! जो लोग विष्णु तथा शिव की पूजा और भक्ति से परिपूर्ण शास्त्रों के उपदेश द्वारा ब्राह्मणों को आपके चरणों से विमुख कर देते हैं, उनके ऊपर भी आप क्रोध नहीं करती हैं, बल्कि दया ही करती हैं और इसके अतिरिक्त मोहन आदि मन्त्रों के ज्ञाताओं को भी आप संसार में बहुत प्रसिद्ध बना देती हैं ॥ २५ ॥ सत्ययुग में सत्त्वगुण की प्रबलता रहती है, अतः उस युग में असत् – शास्त्रों पर आस्था नहीं हो पाती। किंतु कलि में तो कवित्व के अभिमानी लोग आपकी उपेक्षा करते हैं और आप ही के द्वारा बनाये गये देवताओं की स्तुति करते हैं ॥ २६ ॥ इस पृथ्वीतल पर अत्यन्त शुद्ध अन्तःकरण वाले जो सात्त्विक मुनिगण मुक्ति फल प्रदान करने वाली योगसिद्धा एवं पराविद्यास्वरूपिणी आप भगवती का ध्यान करते हैं, वे पुनः माता के गर्भ में आकर कष्ट नहीं पाते। जो मनुष्य आपमें ध्यानमग्न हैं, वे धन्य हैं ॥ २७ ॥ आप चित्-शक्ति हैं और वही चित् शक्ति परमात्मा में विद्यमान है, जिसके कारण वे भी [नाम और रूप से ] अभिव्यक्त होकर इस जगत् के सृजन, पालन एवं संहाररूपी कार्यों के कर्ता के रूप में लोकों में प्रसिद्ध होते हैं। उन परमात्मा के अतिरिक्त दूसरा कौन है, जो आपसे रहित होकर अपनी शक्ति से इस जगत्‌ का सृजन, पालन और संहार करने में समर्थ हो सकता है ? ॥ २८ ॥

हे जगदम्बे ! क्या चित् शून्य तत्त्व जगत् की रचना करने में समर्थ हो सकते हैं? चूँकि तत्त्व जड़ हैं, अतः वे जगत् की रचनायें समर्थ नहीं हैं। हे देवि ! यद्यपि इन्द्रियाँ गुण तथा कर्म से युक्त हैं, फिर भी आपसे रहित होकर क्या वे फल प्रदान कर सकती हैं ? ॥ २९ ॥ हे माता ! यदि आप यज्ञों में ‘स्वाहा’ के रूप में निमित्त न बनतीं तो क्या देवगण उन यज्ञों में मुनियों के द्वारा विधिवत् प्रदत्त आहुति-रूप यज्ञभाग प्राप्त करते ? अतः यह निश्चय हो गया कि आप ही विश्व का पालन करती हैं ॥ ३० ॥ सृष्टि के प्रारम्भ में इस सम्पूर्ण जगत् की रचना आपने ही की है, आप ही विष्णु – शिव आदि प्रमुख देवताओं तथा दिक्पालोंकी रक्षा करती हैं और प्रलयकाल में आप ही सम्पूर्ण विश्व को अपने में विलीन कर लेती हैं। [हे देवि ! ] जब हम देवता आपके चरित्र को नहीं जान पाते, तब मन्दभाग्य लोग भला उसे कैसे जान सकते हैं ? ॥ ३१ ॥ हे माता! आपने महिष का रूप धारण करने वाले अत्यन्त उग्र असुर का वध करके इस देवसमुदाय की रक्षा की है। हे जननि ! जब वेद भी यथार्थरूप से आपकी गति को नहीं जान पाये, तब हम मन्दबुद्धि देवता उसे कैसे जान सकते हैं, हम कैसे आपकी स्तुति करें ? ॥ ३२ ॥ विख्यात प्रभाववाली हे जननि! आपने जगत् में महान् कार्य किया है जो कि आपने संसार के अचिन्त्य कण्टकस्वरूप हमारे शत्रु दुरात्मा महिषासुर का वध कर दिया। ऐसा करके आपने सम्पूर्ण लोकों में अपनी कीर्ति स्थापित कर दी है, अब आप सारे संसार पर अनुग्रह करें और हमारी रक्षा करें ॥ ३३ ॥

व्यासजी बोले — इस प्रकार देवताओं के स्तुति करने पर देवी ने मधुर स्वर में उनसे कहा — हे श्रेष्ठ देवतागण ! इसके अतिरिक्त भी कोई दुःसाध्य कार्य हो तो उसे आपलोग बता दीजिये। जब-जब आप देवताओं के सामने कोई महान् दुःसाध्य कार्य उपस्थित हो, तब-तब आपलोग मेरा स्मरण कीजियेगा; मैं उस संकट को शीघ्र ही दूर कर दूँगी ॥ ३४-३५ ॥

देवता बोले — हे देवि ! इस समय आपने हमारा सारा कार्य पूर्ण कर दिया है जो कि आपके द्वारा हमारा शत्रु यह महिषासुर मार डाला गया ॥ ३६ ॥ हे अम्ब! हे जगज्जननि ! अब आप हमारे मन में अपने प्रति ऐसी अविचल भक्ति स्थापित कीजिये कि हम सदा आपके चरण कमल का स्मरण करते रहें ॥ ३७ ॥ माता ही [ अपनी सन्तान के] हजारों अपराध सह सकती है —ऐसा समझकर लोग जगत् की उत्पत्तिस्वरूपा भगवती की उपासना क्यों नहीं करते ? ॥ ३८ ॥ इस देहरूपी वृक्ष पर जीवात्मा और परमात्मारूपी दो पक्षी रहते हैं। उन दोनों में सर्वदा मित्रता बनी रहती है, किंतु उनका तीसरा सखा ऐसा कोई भी नहीं है, जो अपराध को सह सके। अतएव यह जीव आप जैसे मित्र को त्यागकर क्या करेगा? देवताओं और मानवों की योनि में वह प्राणी पापी, मन्दभागी और अधम है, जो अत्यन्त दुर्लभ देह पाकर भी आपका स्मरण नहीं करता ॥ ३९-४०१/२

हम मन, वाणी और कर्म से बार-बार यह सत्य कह रहे हैं कि सुख अथवा दुःख – प्रत्येक परिस्थिति में एकमात्र आप ही हमारे लिये अद्भुत शरण हैं । हे देवि ! आप अपने समस्त श्रेष्ठ आयुधों द्वारा हमारी निरन्तर रक्षा करें। आपके चरणकमलों की धूलि को छोड़कर हमारे लिये कोई दूसरा शरण नहीं है ॥ ४१-४२१/२

व्यासजी बोले — इस प्रकार देवताओं के स्तुति करने पर भगवती जगदम्बा वहीं अन्तर्धान हो गयीं। तब उन्हें अन्तर्हित देखकर देवता बड़े विस्मय में पड़ गये ॥ ४३ ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत पंचम स्कन्ध का ‘देवी द्वारा सान्त्वना प्रदान’ नामक उन्नीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १९ ॥

1. ‘इस पुराण में जगदम्बा पराशक्ति की विशिष्टता प्रदर्शित करने के लिये ही अन्य देवों की उपासना से विरत रहने की बात कही गयी है। वैसे तो भगवती एवं ब्रह्मा-विष्णु-महेश आदि देवगण भी परमात्मप्रभु के ही स्वरूप हैं; उनमें कोई भेद नहीं है।

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