श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-पंचम स्कन्धः-अध्याय-20
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
पूर्वार्द्ध-पंचम स्कन्धः-विंशोऽध्यायः
बीसवाँ अध्याय
देवी का मणिद्वीप पधारना तथा राजा शत्रुघ्न का भूमण्डलाधिपति बनना
महिषवधानन्तरं पृथिवीसुखवर्णनम्

जनमेजय बोले — हे मुने! अब मैंने भगवती के अत्यन्त अद्भुत तथा जगत्‌ को शान्ति प्रदान करने वाले प्रभाव को तो देख लिया, फिर भी हे द्विजवर ! आपके मुखारविन्द से निकली हुई सुधामयी कथा को बार-बार सुनते हुए भी मुझे तृप्ति नहीं हो रही है। [ अब आप बतायें] भगवती के अन्तर्धान हो जाने पर उन प्रधान देवताओं ने क्या किया ? देवी का यह परम पावन चरित्र मनुष्यों के अल्प पुण्यों से प्राप्त हो सकना सर्वथा दुर्लभ ही है ॥ १-२ ॥ अल्पभाग्य वाले मनुष्य को छोड़कर भगवती के कथा श्रवण में सदा तत्पर कर्णपुट वाला ऐसा कौन होगा जो देवी के कथामृत से तृप्ति प्राप्त कर लेता है ? जिस कथामृत का पान करने से मनुष्य अमरत्व प्राप्त कर लेता है, उसे जो आदरपूर्वक नहीं पीते, उन मनुष्यों को धिक्कार है ॥ ३ ॥ भगवती जगदम्बा का लीलाचरित्र देवताओं और बड़े- बड़े मुनियों के लिये भी रक्षा का परम साधन है। [यह लीलाचरित्र ] मनुष्यों को संसारसागर से पार करने के लिये एक नौका है। कृतज्ञजन उस चरित्र को भला कैसे त्याग सकते हैं? ॥ ४ ॥

जीवन्मुक्त तथा मोक्ष की कामना करने वाले अथवा रोगग्रस्त जो कोई भी सांसारिक प्राणी हों, उन सबको चाहिये कि वे अपने कर्णपुट से भगवती के इस सर्वार्थदायक कथामृत का पान करते रहें ऐसा वेदवेत्ता कहते हैं । हे मुने! धर्म, अर्थ और काम में तत्पर राजाओं को तो विशेष रूप से कथामृत का पान करना चाहिये। जब मुक्त प्राणी तक उस कथामृत का पान करते हैं, तब मुक्ति से वंचित जन इसका पान क्यों न करें ! ॥ ५-६ ॥ मैं तो यह अनुमान करता हूँ कि जिन लोगों ने अपने पूर्वजन्म में सुन्दर कुन्दपुष्पों, चम्पा के पुष्पों तथा बिल्वपत्रों से भगवती का पूजन किया है, वे ही इस जन्म में भूतल पर भोग तथा ऐश्वर्य से सम्पन्न राजा होते हैं ॥ ७ ॥ जो मनुष्य [पवित्र] भारत भूभाग में यह मानव शरीर पाकर भी भगवती की भक्ति से रहित हैं तथा जिन्होंने उनकी आराधना नहीं की, वे सदा धन-धान्य से हीन, रोगग्रस्त और निःसन्तान रहते हैं; साथ ही वे लोग दूसरों के दास बनकर निरन्तर घूमते रहते हैं और आज्ञाकारी होकर दूसरों का भार ढोया करते हैं। वे दिन-रात स्वार्थसाधन में लगे रहते हैं, फिर भी उन्हें अपना पेट भरने तक के लिये अन्न कभी नहीं मिलता ॥ ८-९ ॥

इस संसार में जो लोग अन्धे, गूँगे, बहरे, लूले और कोढ़ी के रूप में कष्ट भोग रहे हैं, उनके विषय में विद्वानों को यह अनुमान कर लेना चाहिये कि उन्होंने भगवती की निरन्तर आराधना नहीं की है ॥ १० ॥ जो लोग राजोचित भोग से युक्त, ऐश्वर्य से सम्पन्न, अनेक मनुष्यों से सेवित और वैभवशाली दिखायी पड़ते हैं, उनके विषय में यह अनुमान लगाना चाहिये कि उन्होंने अवश्य ही जगदम्बा की उपासना की है ॥ ११ ॥ अतएव हे सत्यवतीनन्दन ! अब आप कृपा करके भगवती के उत्तम चरित्र का वर्णन कीजिये; आप बड़े दयालु हैं ॥ १२ ॥ उस पापी महिषासुर का वध करने के पश्चात् देवताओं से भलीभाँति पूजित होकर सभी देवताओं के तेज से प्रादुर्भूत वे भगवती महालक्ष्मी कहाँ चली गयीं ? ॥ १३ ॥ हे महाभाग ! आपने अभी कहा है कि वे तुरंत अन्तर्धान हो गयीं। स्वर्गलोक अथवा मृत्युलोक किस जगह वे भगवती भुवनेश्वरी प्रतिष्ठित हुईं ? वे वहीं पर विलीन हो गयीं या वैकुण्ठधाम में विराजने लगीं अथवा वे सुमेरुपर्वत पर विराजमान हुईं, अब आप मुझे यह सब यथार्थ रूप में बतायें ॥ १४-१५ ॥

व्यासजी बोले — [ हे राजन्!] इसके पहले मैं आपसे रमणीय मणिद्वीप का वर्णन कर चुका हूँ। वह भगवती का क्रीडास्थल है तथा उनके लिये सदा परम प्रिय बतलाया गया है। जहाँ ब्रह्मा, विष्णु और महेश स्त्रीरूप में परिणत हो गये थे और पुनः पुरुषत्व पाकर वे अपने-अपने कार्यों में संलग्न हो गये। वह परम सुन्दर द्वीप सुधासागर के मध्य में विराजमान है। भगवती जगदम्बा वहाँ अनेक रूपों में सदा विहार करती रहती हैं ॥ १६-१८ ॥ [ महिषासुर वध के पश्चात् ] देवताओं से स्तुत तथा भलीभाँति पूजित होकर वे सनातनी मायाशक्ति भगवती शिवा उसी मणिद्वीप में चली गयीं, जहाँ वे निरन्तर विहार करती रहती हैं ॥ १९ ॥ उन सर्वेश्वरी भगवती को अन्तर्हित देखकर देवताओं ने सूर्यवंश में उत्पन्न, महाबली एवं सभी शुभ लक्षणों से सम्पन्न अयोध्याधिपति शत्रुघ्न नामक पराक्रमी राजा को महिषासुर के सुन्दर आसन पर अभिषिक्त किया। इस प्रकार इन्द्र आदि सभी प्रधान देवता शत्रुघ्न को राज्य प्रदान करके अपने-अपने वाहनों से अपने-अपने स्थानों को चले गये ॥ २०-२२ ॥

हे भूपते ! उन देवताओं के चले जाने पर पृथ्वी पर धर्मराज्य स्थापित हो गया और प्रजाएँ सुखी हो गयीं। मेघ उचित समय पर जल बरसाते थे और पृथ्वी पर उत्तम धान्य उत्पन्न होते थे। वृक्ष फलों तथा फूलों से सदा लदे रहते थे और वे लोगों के लिये बड़े सुखदायक हो गये ॥ २३-२४ ॥ घड़े के समान थनवाली दुधारू गौएँ मनुष्यों को उनकी इच्छा के अनुसार दूध दिया करती थीं। स्वच्छ एवं शीतल जलवाली नदियाँ सुगमतापूर्वक बहती थीं और पक्षियों से सुशोभित रहती थीं ॥ २५ ॥ ब्राह्मण वेदतत्त्वों के ज्ञाता हो गये और यज्ञकर्म में प्रवृत्त  रहने लगे। क्षत्रिय धर्म भावना से ओतप्रोत हो गये और सदा दान तथा अध्ययन में तत्पर रहने लगे। सभी राजा शस्त्रविद्या प्राप्त करने में संलग्न हो गये, वे सदा प्रजाओं की रक्षा करने लगे, उनका दण्ड-विधान न्याय के अनुसार चलने लगा और वे शान्तिगुण सम्पन्न हो गये ॥ २६-२७ ॥ सभी प्राणियों में परस्पर मेल-जोल रहने लगा, खानों से मनुष्यों को अपार धन प्राप्त होने लगा और गोशालाएँ गोसमुदाय से सम्पन्न हो गयीं ॥ २८ ॥ हे नृपश्रेष्ठ ! उस समय धरातल पर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये सब के सब देवी की भक्ति में संलग्न हो गये ॥ २९ ॥ सर्वत्र मनोहर यज्ञमण्डप तथा यज्ञयूप दृष्टिगोचर होते थे । ब्राह्मणों तथा क्षत्रियों द्वारा सम्पन्न किये गये यज्ञों से सारी पृथ्वी सुशोभित होने लगी ॥ ३० ॥

उस समय स्त्रियाँ पातिव्रतधर्मपरायण, सुशील तथा सत्यनिष्ठ थीं और पुत्र पिता के प्रति श्रद्धा रखनेवाले तथा धर्मशील होते थे ॥ ३१ ॥ पृथ्वी तल पर पाखण्ड तथा अधर्म कहीं भी नहीं रह गया। उस समय वेदवाद और शास्त्रवाद के अतिरिक्त अन्य कोई वाद प्रचलित नहीं थे ॥ ३२ ॥ उस समय किसी में भी परस्पर कलह नहीं होता था, दीनता नहीं थी और किसी की अशुभ बुद्धि नहीं रह गयी थी। सभी जगह लोग सुखी थे और आयु पूर्ण होने पर ही उनकी मृत्यु होती थी, किसी की अकालमृत्यु नहीं होती थी ॥ ३३ ॥ मित्रों में वियोग नहीं होता था, किसी पर कभी विपत्तियाँ नहीं आती थीं अनावृष्टि नहीं होती थी, न अकाल पड़ता था और न तो दुःखदायिनी महामारी ही मनुष्यों को ग्रसित करती थी ॥ ३४ ॥ न किसी को रोग था और न तो लोगों का आपस में डाह तथा विरोध ही था। सर्वत्र नर तथा नारी सब प्रकार से सुखी थे। सभी मनुष्य स्वर्ग में रहने वाले देवताओं की भाँति आनन्द भोगते थे । हे राजन् ! उस समय चोर, पाखण्डी, धोखेबाज, दम्भी, चुगलखोर, लम्पट तथा जड़ प्रकृति वाले मनुष्य नहीं रह गये थे । हे भूपते ! वेदों से द्वेष करने वाले तथा पापी मनुष्य उस समय नहीं थे, अपितु सभी लोग धर्मनिष्ठ थे और नित्य ब्राह्मणों की सेवामें लगे रहते थे ॥ ३५-३७१/२

सृष्टिधर्म के तीन प्रकार होने के कारण ब्राह्मण भी तीन प्रकार के थे सात्त्विक, राजस तथा तामस । उनमें सत्त्व वृत्तिवाले सभी सात्त्विक ब्राह्मण वेदों के ज्ञाता तथा [ यज्ञकार्यों में] दक्ष, दान लेने की प्रवृत्ति से रहित, दयालु तथा संयम रखने वाले थे। वे धर्मपरायण रहकर सात्त्विक अन्नों से यज्ञ करते हुए सदा पुरोडाश के द्वारा विधि-विधान से हवन करते थे और पशुबलि के द्वारा कभी भी यज्ञ सम्पन्न नहीं करते थे । हे राजन् ! वे सात्त्विक ब्राह्मण दान, अध्ययन और यज्ञ इन्हीं तीनों कार्यों में सदा अभिरुचि रखते थे 1  ॥ ३८-४११/२

राजस ब्राह्मण वेद के विद्वान् थे और वे क्षत्रियों के पुरोहित होते थे । वे सदा छः कर्मों में ही संलग्न रहते थे। यज्ञ करना, यज्ञ कराना, दान देना, दान लेना, वेद पढ़ना और वेद पढ़ाना ये ही उनके छः कर्म थे ॥ ४२-४३१/२

तामस प्रकृति वाले ब्राह्मण क्रोधी और राग-द्वेषपरायण रहते थे। वे सदा राजाओं के यहाँ कर्मचारी के रूप में कार्य करते थे। वे कुछ-कुछ अध्ययन में भी संलग्न रहते थे ॥ ४४१/२

इस प्रकार महिषासुर का वध हो जाने पर सभी ब्राह्मण सुखी, वेदपरायण, व्रतनिष्ठ तथा दान-धर्म में संलग्न हो गये; क्षत्रिय प्रजापालन में लग गये; वैश्य व्यवसाय में तत्पर हो गये और कुछ अन्य वैश्य कृषि, वाणिज्य, गोरक्षा तथा सूदपर धन देने के कर्म में प्रवृत्त हो गये इस प्रकार महिषासुर के संहार के पश्चात् सारा जनसमुदाय आनन्द से परिपूर्ण हो गया ॥ ४५-४७ ॥ प्रजाओं की व्याकुलता दूर हो गयी, उन्हें पर्याप्त धन प्राप्त होने लगा, गौएँ परम सुन्दर तथा बहुत दूध देने वाली हो गयीं, नदियाँ प्रचुर जल से भर गयीं, वृक्ष बहुत अधिक फलों से लद गये और सभी मनुष्य रोगरहित हो गये। कहीं भी किसी प्राणी को मानसिक व्याधियाँ तथा प्राकृतिक आपदाएँ व्यथित नहीं करती थीं ॥ ४८-४९ ॥ उस समय सभी प्राणी अकालमृत्यु को प्राप्त नहीं होते थे, वे सब प्रकार के वैभव से सम्पन्न तथा नीरोग रहते थे। वेदप्रतिपादित धर्म में तत्पर रहते हुए सभी लोगों ने भगवती चण्डिका के चरणकमलों की सेवामें ही अपना चित्त लगा दिया था ॥ ५० ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत पंचम स्कन्ध का ‘महिषासुर के वध के पश्चात् पृथ्वी के सुख का वर्णन’ नामक बीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २० ॥

1. सात्त्विक ब्राह्मणों द्वारा किये जाने वाले निरामिष यज्ञ की प्रशंसा करने से यह स्पष्ट है कि मांस भक्षणादि तथा काम-क्रोधादि विकार रजोगुण तथा तमोगुण से उत्पन्न हो जाते हैं, अतः सर्वथा त्याज्य हैं; इन्हें भ्रमवश विधि नहीं समझना चाहिये।

Content is available only for registered users. Please login or register

Please follow and like us:
Pin Share

Discover more from Vadicjagat

Subscribe to get the latest posts sent to your email.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.