श्रीमद्‌देवीभागवत-महापुराण-प्रथमःस्कन्धः-अध्याय-08
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
पूर्वार्द्ध-प्रथमःस्कन्धः-अथ अष्टमोऽध्यायः
आठवाँ अध्याय
भगवान् विष्णु योगमाया के अधीन क्यों हो गये – ऋषियोंके इस प्रश्न के उत्तर में सूतजी द्वारा उन्हें आद्याशक्ति भगवती की महिमा सुनाना
आराध्यनिर्णयवर्णनम्

॥ ऋषय ऊचुः ॥
सन्देहोऽत्र महाभाग कथायां तु महाद्‌भुतः ।
वेदशास्त्रपुराणैश्च निश्चितं तु सदा बुधैः ॥ १ ॥
ब्रह्मा विष्णुश्च रुद्रश्च त्रयो देवाः सनातनाः ।
नातः परतरं किञ्चिद्‌ब्रह्माण्डेऽस्मिन्महामते ॥ २ ॥
ब्रह्मा सृजति लोकान्वै विष्णुः पात्यखिलं जगत् ।
रुद्रः संहरते काले त्रय एतेऽत्र कारणम् ॥ ३ ॥
एका मूर्तिस्त्रयो देवा ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः ।
रजःसत्त्वतमोभिश्च संयुताः कार्यकारकाः ॥ ४ ॥
तेषां मध्ये हरिः श्रेष्ठो माधवः पुरुषोत्तमः ।
आदिदेवो जगन्नाथः समर्थः सर्वकर्मसु ॥ ५ ॥
नान्यः कोऽपि समर्थोऽस्ति विष्णोरतुलतेजसः ।
स कथं स्वापितः स्वामी विवशो योगमायया ॥ ६ ॥

ऋषिगण बोले — हे महाभाग ! हमें इस कथानकमें महान् अद्भुत संशय है। हे महामते ! वेदों, शास्त्रों, पुराणों तथा बुद्धिमान् लोगोंकी सदासे यह अवधारणा रही है कि ब्रह्मा, विष्णु तथा शम्भु—ये तीनों देवता सनातन हैं और इस ब्रह्माण्डमें इनसे बढ़कर अन्य कोई नहीं है ॥ १-२ ॥ ब्रह्मा जगत् का सृजन करते हैं, विष्णु पालन करते हैं। और शंकर प्रलयकाल में संहार करते हैं। ये तीनों ही इसमें कारण हैं ॥ ३ ॥ ब्रह्मा, विष्णु और महेश – ये तीनों देवता एक ही मूर्ति के तीन स्वरूप हैं। ये लोग क्रमशः रज, सत्त्व और तम-गुणों से युक्त होकर अपना-अपना कार्य करते हैं ॥ ४ ॥ उन तीनों में माधव, पुरुषोत्तम, आदिदेव जगन्नाथ श्रीहरि श्रेष्ठ हैं और वे सभी कार्य सम्पादित करने में समर्थ हैं। अनुपम तेज वाले विष्णु से बढ़कर सर्वसमर्थ अन्य कोई भी नहीं है। उन जगत्पति विष्णु को योगमाया ने विवश करके भला कैसे सुला दिया ? ॥ ५-६ ॥

क्व गतं तस्य विज्ञानं जीवतश्चेष्टितं कुतः ।
सन्देहोऽयं महाभाग कथयस्व यथाशुभम् ॥ ७ ॥
का सा शक्तिः पुरा प्रोक्ता यया विष्णुजितः प्रभुः ।
कुतो जाता कथं शक्ता का शक्तिर्वद सुव्रत ॥ ८ ॥
यस्तु सर्वेश्वरो विष्णुर्वासुदेवो जगद्‌गुरुः ।
परमात्मा परानन्दः सच्चिदानन्दविग्रहः ॥ ९ ॥
सर्वकृत्सर्वभृत्स्रष्टा विरजः सर्वगः शुचिः ।
स कथं निद्रया नीतः परतन्त्रः परात्परः ॥ १० ॥
एतदाश्चर्यभूतो हि सन्देहो नः परन्तप ।
छिन्धि ज्ञानासिना सूत व्यासशिष्य महामते ॥ ११ ॥

उस समय उन विष्णु की चेतना कहाँ चली गयी और उनके जीवन की चेष्टा कहाँ लुप्त हो गयी ? हे महाभाग ! यह महान् सन्देह उपस्थित है; आप इस विषय में यथोचित बताने की कृपा करें ॥ ७ ॥ जिस शक्ति के विषय में आप पहले बता चुके हैं कि उसने भगवान् विष्णु को भी पराभूत कर दिया था, वह कौन-सी शक्ति है ? वह शक्ति कहाँ से उद्भूत हुई, शक्तिसम्पन्न कैसे हुई तथा उसका स्वरूप क्या है ? हे सुव्रत ! यह सब हमें स्पष्टरूप से बतलाइये ॥ ८ ॥ जो विष्णु हैं वे तो सबके ईश्वर, वासुदेव, जगत् के गुरु, परमात्मा, परम आनन्दस्वरूप तथा सच्चिदानन्द की साक्षात् मूर्ति हैं; सब कुछ करने में समर्थ, सबका पालन करने वाले, सभी चराचर का सृजन करने वाले, रजोगुण से रहित, सर्वव्यापी और पवित्र हैं। वे परात्पर विष्णु निद्रा की हे परन्तप ! हमें इस प्रकार का आश्चर्यजनक सन्देह है। हे सूत ! हे व्यासशिष्य ! हे महामते! आप अपने परतन्त्रता में कैसे आबद्ध हो गये ? ॥ ९-१० ॥ ज्ञानरूपी खड्ग से हमारे इस सन्देह को नष्ट कर दीजिये ॥ ११ ॥

॥ सूत उवाच ॥
कः सन्देहं भिनत्त्येनं त्रैलोक्ये सचराचरे ।
मुह्यन्ति मुनयः कामं ब्रह्मपुत्राः सनातनाः ॥ १२ ॥
नारदः कपिलश्चैव प्रश्नेऽस्मिन्मुनिसत्तमाः ।
किं ब्रवीमि महाभागा दुर्घटेऽस्मिन्विमर्शने ॥ १३ ॥
देवेषु विष्णुः कथितः सर्वगः सर्वपालकः ।
यतो विराडिदं सर्वमुत्पन्नं सचराचरम् ॥ १४ ॥
ते सर्वे समुपासन्ते नत्वा देवं परात्परम् ।
नारायणं हृषीकेशं वासुदेवं जनार्दनम् ॥ १५ ॥
तथा केचिन्महादेवं शङ्करं शशिशेखरम् ।
त्रिनेत्रं पञ्चवक्त्रं च शूलपाणिं वृषध्वजम् ॥ १६ ॥
तथा वेदेषु सर्वेषु गीतं नाम्ना त्रियम्बकम् ।
कपर्दिनं पञ्चवक्त्रं गौरीदेहार्धधारिणम् ॥ १७ ॥
कैलासवासनिरतं सर्वशक्तिसमन्वितम् ।
भूतवृन्दयुतं देवं दक्षयज्ञविघातकम् ॥ १८ ॥

सूतजी बोले — हे मुनिजन! इस चराचर जगत् में कौन ऐसा है, जो इस शंका का समाधान कर सके, जबकि ब्रह्मा के पुत्र सनकादि मुनि तथा नारद, कपिल आदि भी इस विषय में मोहित हो जाते हैं? हे मुनिश्रेष्ठ ! हे महाभाग ! तब इस जटिल समस्या के समाधान में मैं क्या कहूँ ? ॥ १२-१३ ॥ देवताओं में भगवान् विष्णु ही सर्वव्यापी एवं सभी भूतों के रक्षक कहे गये हैं। उन्हीं से इस चराचर समस्त विराट् संसार की सृष्टि हुई है ॥ १४ ॥ वे सभी देवता परात्पर परमात्मा को नमस्कार करके नारायण, हृषीकेश, वासुदेव, जनार्दन रूप में उनकी उपासना करते हैं ॥ १५ ॥ कुछ लोग महादेव, शंकर, शशिशेखर, त्रिनेत्र, पंचवक्त्र, शूलपाणि और वृषभध्वज के रूप में उन्हीं की उपासना करते हैं ॥ १६ ॥ सभी वेदों में भी त्रियम्बक ( त्र्यम्बक), कपर्दी, पंचवक्त्र, गौरीदेहार्धधारी, कैलासवासी, सर्वशक्तिसमन्वित, भूतगणों से सेवित एवं दक्षयज्ञविध्वंसक आदि नामों से उनका गुणगान किया गया है ॥ १७-१८ ॥

तथा सूर्यं वेदविदः सायंप्रातर्दिने दिने ।
मध्याह्ने तु महाभागाः स्तुवन्ति विविधैः स्तवैः ॥ १९ ॥
तथा वेदेषु सर्वेषु सूर्योपासनमुत्तमम् ।
परमात्मेति विख्यातं नाम तस्य महात्मनः ॥ २० ॥
अग्निः सर्वत्र वेदेषु संस्तुतो वेदवित्तमैः ।
इन्द्रश्चापि त्रिलोकेशो वरुणश्च तथापरः ॥ २१ ॥
यथा गङ्गा प्रवाहैश्च बहुभिः परिवर्तते ।
तथैव सर्वदेवेषु विष्णुः प्रोक्तो महर्षिभिः ॥ २२ ॥
त्रीण्येव हि प्रमाणानि पठितानि सुपण्डितैः ।
प्रत्यक्षं चानुमानं च शाब्दं चैव तृतीयकम् ॥ २३ ॥
चत्वार्येवेतरे प्राहुरुपमानयुतानि च ।
अर्थापत्तियुतान्यन्ये पञ्च प्राहुर्महाधियः ॥ २४ ॥
सप्त पौराणिकाश्चैव प्रवदन्ति मनीषिणः ।
एतैः प्रमाणैर्दुर्ज्ञेयं यद्‌ब्रह्म परमं च तत् ॥ २५ ॥
वितर्कश्चात्र कर्तव्यो बुद्ध्या चैवागमेन च ।
निश्चयात्मिकया युक्त्या विचार्य च पुनः पुनः ॥ २६ ॥
प्रत्यक्षतस्तु विज्ञानं चिन्त्यं मतिमता सदा ।
दृष्टान्तेनापि सततं शिष्टमार्गानुसारिणा ॥ २७ ॥

हे महाभागो ! वैदिक विद्वान् लोग सूर्य आदि नामों से भी नित्य प्रातः, सायं तथा मध्याह्नकाल में सन्ध्या करते समय विविध प्रकार की स्तुतियों से उन्हीं की प्रार्थना करते हैं ॥ १९ ॥ सभी वेदों में सूर्योपासना श्रेष्ठ कही गयी है तथा उन महात्मा का नाम ‘परमात्मा’ कहा गया है। वेदों में सर्वत्र वेदज्ञों द्वारा अग्निदेव की भी स्तुति की गयी है । वहाँ त्रिलोकेश इन्द्र, वरुण तथा अन्यान्य देवताओं की भी स्तुति की गयी है ॥ २०-२१ ॥ जिस प्रकार गंगा अनेक धाराओं में विद्यमान रहकर प्रवाहित होती हैं, उसी प्रकार महर्षियों द्वारा भगवान् विष्णु सभी देवताओं में विद्यमान बताये गये हैं ॥ २२ ॥ मनीषी विद्वानों ने तीन प्रकार के मुख्य प्रमाण बताये हैं – प्रत्यक्ष, अनुमान और तीसरा शब्दप्रमाण । अन्य (न्याय) -के पण्डित चार प्रमाण मानते हैं – प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान एवं शब्दप्रमाण । परंतु अन्य ( मीमांसा के) विद्वान् लोग अर्थापत्ति को लेकर पाँच प्रमाण मानते हैं ॥ २३-२४ ॥ पौराणिक विद्वान् सात प्रमाण बताते हैं – इन प्रमाणों से भी जो दुर्ज्ञेय है, वह है – परब्रह्म ॥ २५ ॥ इसलिये इस विषय में बुद्धि, शास्त्र एवं निश्चयात्मिका युक्ति से बार-बार विचार करके अनुमान करना चाहिये । साथ ही सन्मार्ग का अनुसरण करने वाले दृष्टान्त द्वारा इस प्रत्यक्ष विज्ञान का चिन्तन बुद्धिमान्‌ मनुष्य को सर्वदा करते रहना चाहिये ॥ २६-२७ ॥

विद्वांसोऽपि वदन्त्येवं पुराणैः परिगीयते ।
द्रुहिणे सृष्टिशक्तिश्च हरौ पालनशक्तिता ॥ २८ ॥
हरे संहारशक्तिश्च सूर्ये शक्तिः प्रकाशिका ।
धराधरणशक्तिश्च शेषे कूर्मे तथैव च ॥ २९ ॥
साद्या शक्तिः परिणता सर्वस्मिन्या प्रतिष्ठिता ।
दाहशक्तिस्तथा वह्नौ समीरे प्रेरणात्मिका ॥ ३० ॥
शिवोऽपि शवतां याति कुण्डलिन्या विवर्जितः ।
शक्तिहीनस्तु यः कश्चिदसमर्थः स्मृतो बुधैः ॥ ३१ ॥
एवं सर्वत्र भूतेषु स्थावरेषु चरेषु च ।
ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्तं ब्रह्माण्डेऽस्मिन्महातपाः ॥ ३२ ॥
शक्तिहीनं तु निन्द्यं स्याद्वस्तुमात्रं चराचरम् ।
अशक्तः शत्रुविजये गमने भोजने तथा ॥ ३३ ॥
एवं सर्वगता शक्तिः सा ब्रह्मेति विविच्यते ।
सोपास्या विविधैः सम्यग्विचार्या सुधिया सदा ॥ ३४ ॥

प्रायः सभी पुराण तथा विद्वान्‌ ऐसा कहते हैं कि ब्रह्या में सृष्टि करने की शक्ति, विष्णु में पालन करने की शक्ति, शिव में संहार करने की शक्ति, सूर्य में प्रकाश करने की शक्ति तथा शेष और कच्छप में पृथ्वी को धारण करने की शक्ति स्वभावत: विद्यमान रहती है ॥ २८-२९ ॥ इस प्रकार एकमात्र वे आद्याशक्ति ही स्वरूपभेद से सभी में व्याप्त रहती हैं। वे ही अग्नि में दाहकत्व शक्ति तथा वायु में संचारशक्ति हैं ॥ ३० ॥ कुण्डलिनी शक्ति के बिना शिव भी ‘शव’ बन जाते हैं। विद्वान्‌ लोग शक्तिहीन जीव को निर्जीव एवं असमर्थ कहते हैं ॥ ३१ ॥ अतएव हे मुनिजनो! ब्रह्मा से लेकर तृणपर्यन्त सभी पदार्थ इस संसार में शक्ति के बिना सर्वथा हेय हैं; क्योंकि स्थावर-जंगम सभी जीवों में वह शक्ति ही काम करती है। यहाँतक कि शक्तिहीन पुरुष शत्रु पर विजयी होने, चलने-फिरने तथा भोजन करने में भी सर्वथा असमर्थ रहता है ॥ ३२-३३ ॥ वह सर्वत्र व्याप्त रहनेवाली आदिशक्ति ही ‘ब्रह्म’ कहलाती है । बुद्धिमान्‌ मनुष्य को चाहिये कि वह अनेक प्रकार के यत्नों द्वारा सम्यक्‌ रूप से उसकी उपासना करे तथा उसका चिन्तन करे ॥ ३४ ॥

विष्णौ च सात्त्विकी शक्तिस्तया हीनोऽप्यकर्मकृत् ।
द्रुहिणे राजसी शक्तिर्यया हीनो ह्यसृष्टिकृत् ॥ ३५ ॥
शिवे च तामसी शक्तिस्तया संहारकारकः ।
इत्यूह्यं मनसा सर्वं विचार्य च पुनः पुनः ॥ ३६ ॥
शक्तिः करोति ब्रह्माण्डं सा वै पालयतेऽखिलम् ।
इच्छया संहरत्येषा जगदेतच्चराचरम् ॥ ३७ ॥
न विष्णुर्न हरः शक्रो न ब्रह्मा न च पावकः ।
न सूर्यो वरुणः शक्तः स्वे स्वे कार्ये कथञ्चन ॥ ३८ ॥
तया युक्ता हि कुर्वन्ति स्वानि कार्याणि ते सुराः ।
सैव कारणकार्येषु प्रत्यक्षेणावगम्यते ॥ ३९ ॥
सगुणा निर्गुणा सा तु द्विधा प्रोक्ता मनीषिभिः ।
सगुणा रागिभिः सेव्या निर्गुणा तु विरागिभिः ॥ ४० ॥
धर्मार्थकाममोक्षाणां स्वामिनी सा निराकुला ।
ददाति वाच्छितान्कामान्पूजिता विधिपूर्वकम् ॥ ४१ ॥

भगवान्‌ विष्णु में सात्त्विकी शक्ति रहती है, जिसके बिना वे अकर्मण्य हो जाते हैं । ब्रह्मा में राजसी शक्ति है, वे भी शक्तिहीन होकर सृष्टिकार्य नहीं कर सकते और शिव में तामसी शक्ति रहती है, जिसके बल पर वे संहार-कृत्य सम्पादित करते हैं। इस विषय पर मन से बार-बार विचार करके तर्क-वितर्क करते रहना चाहिये ॥ ३५-३६ ॥ शक्ति ही सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की रचना करती है, सबका पालन करती है और इच्छानुसार इस चराचर जगत् का संहार करती हे ॥ ३७ ॥ उसके बिना विष्णु, शिव, इन्द्र, ब्रह्मा, अग्नि, सूर्य और वरुण कोई भी अपने-अपने कार्य में किसी प्रकार भी समर्थ नहीं हो सकते ॥ ३८ ॥ वे देवगण शक्तियुक्त होने पर ही अपने-अपने कार्यों को सम्पादित करते रहते हैं। प्रत्येक कार्य- कारण में वही शक्ति प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होती है ॥ ३९ ॥ मनीषी पुरुषों ने शक्ति को सगुणा और निर्गुणा भेद से दो प्रकार का बताया है। सगुणा शक्ति को उपासना आसक्तजनों और निर्गुणा शक्ति की उपासना अनासक्तजनों को करनी चाहिये ॥ ४० ॥ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-इन चारों पदार्थों को स्वामिनी वे ही निर्विकार शक्ति हैं। विधिवत्‌ पूजा करने से वे सब प्रकार के मनोरथ पूर्ण करती हैं ॥ ४१ ॥

न जानन्ति जना मूढास्तां सदा माययावृताः ।
जानन्तोऽपि नराः केचिन्मोहयन्ति परानपि ॥ ४२ ॥
पण्डिताः स्वोदरार्थं वै पाखण्डानि पूथक्पृथक् ।
प्रवर्तयन्ति कलिना प्रेरिता मन्दचेतसः ॥ ४३ ॥
कलावस्मिन्महाभागा नानाभेदसमुत्थिताः ।
नान्ये युगे तथा धर्मा वेदबाह्याः कथञ्चन ॥ ४४ ॥
विष्णुश्चरत्यसावुग्र तपो वर्षाण्यनेकशः ।
ब्रह्मा हरस्त्रयो देवा ध्यायन्तः कमपि धुवम् ॥ ४५ ॥
कामयानाः सदा कामं ते त्रयः सर्वदैव हि ।
यजन्ति यज्ञान्विविधान्ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः ॥ ४६ ॥
ते वै शक्तिं परां देवीं ब्रह्माख्यां परमात्मिकाम् ।
ध्यायन्ति मनसा नित्यं नित्यां मत्वा सनातनीम् ॥ ४७ ॥

सदा माया से घिरे हुए अज्ञानी लोग उस महाशक्ति को जान नहीं पाते। यहाँतक कि कुछ विद्वान्‌ पुरुष उन्हें जानते हुए भी दूसरों को भ्रम में डालते हैं । कुछ मन्दबुद्धि पण्डित अपने उदर की पूर्ति के लिये कलि से प्रेरित होकर अनेक प्रकार के पाखण्ड करते हैं ॥ ४२-४३ ॥ हे महाभागो! इस कलि में बहुत प्रकार के अवैदिक तथा भेदमूलक धर्म उत्पन्न होते हैं; दूसरे युगों में नहीं होते ॥ ४४ ॥ स्वयं भगवान्‌ विष्णु भी अनेक वर्षो तक कठोर तप करते हैं और ब्रह्मा तथा शिवजी भी ऐसा ही करते हैं। ये तीनों देवता निश्‍चित ही किसी का ध्यान करते हुए कठिन तपस्या करते रहते हैं ॥ ४५ ॥ इसी प्रकार अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिये ब्रह्मा, विष्णु, महेश — ये तीनों ही देवता अनेक प्रकार के यज्ञ सदा करते हैं। वे उन पराशक्ति, ब्रह्म नामवाली परमात्मिका देवी को नित्य एवं सनातन मानकर सर्वदा मन से उन्हीं का ध्यान करते हैं ॥ ४६-४७ ॥

तस्माच्छक्तिः सदा सेव्या विद्वद्‌भिः कृतनिश्चयैः ।
निश्चयः सर्वशास्त्राणां ज्ञातव्यो मुनिसत्तमाः ॥ ४८ ॥
कृष्णाच्छ्रुतं मया चैतत्तेन ज्ञातं तु नारदात् ।
पितुः सकाशात्तेनापि ब्रह्मणा विष्णुवाक्यतः ॥ ४९ ॥
न श्रोतव्यं न मन्तव्यमन्येषां वचनं बुधैः ।
शक्तिरेव सदा सेव्या विद्वद्‌भिः कृतनिश्चयैः ॥ ५० ॥
प्रत्यक्षमपि द्रष्टव्यमशक्तस्य विचेष्टितम् ।
अतः सर्वेषु भूतेषु ज्ञातव्या शक्तिरेव हि ॥ ५१ ॥
॥ इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां प्रथमस्कन्धे आराध्यनिर्णयवर्णनं नामाष्टमोऽध्यायः ॥ ८ ॥

हे मुनिश्रेष्ठ! सब शास्त्रों का यही निश्चय जानना चाहिये कि दृढनिश्चयी विद्वानो के द्वारा वे आदिशक्ति ही सदा सेवनीय हैं ॥ ४८ ॥ यह गुप्त रहस्य मैंने कृष्णद्वैपायन से सुना है जिसे उन्होंने नारदजी से, नारदजी ने अपने पिता ब्रह्माजी से और ब्रह्माजी ने भी भगवान्‌ विष्णु के मुख से सुना था ॥ ४९ ॥ इसलिये विद्वान्‌ पुरुषों को चाहिये कि वे न तो किसी अन्य की बात सुनें और न मानें तथा दृढप्रतिज्ञ होकर सर्वदा शक्ति की ही उपासना करें ॥ ५० ॥ शक्तिहीन असमर्थ पुरुष का व्यवहार तो प्रत्यक्ष ही देखा जाता है [कि वह कुछ कर नहीं पाता] । इसलिये सर्वव्यापिनी आदिशक्ति जगज्जननी भगवती को ही जानने का प्रयत्न करना चाहिये ॥ ५१ ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत प्रथम स्कन्ध का ‘आराध्यनिर्णयवर्णन’ नामक आठवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ८ ॥

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