श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-पंचम स्कन्धः-अध्याय-32
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
पूर्वार्द्ध-पंचम स्कन्धः-द्वात्रिंशोऽध्यायः
बत्तीसवाँ अध्याय
देवीमाहात्म्य के प्रसंग में राजा सुरथ और समाधि वैश्य की कथा
शुम्भवध

जनमेजय बोले — हे मुने! आपने भगवती चण्डिका की महिमा का भलीभाँति वर्णन किया। अब आप यह बताने की कृपा करें कि तीन चरित्रों का प्रयोग करके पहले किसने भगवती की आराधना की थी ? ॥ १ ॥ वे वरदायिनी भगवती किसके ऊपर प्रसन्न हुई ? सम्पूर्ण कामनाओं को पूर्ण करने वाली देवी की उपासना करके किसने महान् फल प्राप्त किया? हे कृपानिधान! यह सब बताइये ॥ २ ॥ उपासनाविधि, हे ब्रह्मन् ! हे महाभाग ! जगदम्बा की पूजाविधि तथा हवन-विधि का भी विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये ॥ ३ ॥

सूतजी बोले — राजा की यह बात सुनकर सत्यवतीनन्दन कृष्णद्वैपायन प्रसन्न होकर उन्हें महामाया भगवती का पूजन- विधान बताने लगे ॥ ४ ॥

व्यासजी बोले — पूर्वकाल में स्वारोचिष- मन्वन्तर में सुरथ नामक एक राजा हुए; जो परम उदार, प्रजापालन में तत्पर, सत्यवादी, कर्मनिष्ठ, ब्राह्मणों के उपासक, गुरुजनों के प्रति भक्ति रखने वाले, सदा अपनी ही भार्या में अनुरक्त, दानशील, किसी के साथ विरोधभाव न रखनेवाले तथा धनुर्विद्या में पूर्ण पारंगत थे ॥ ५-६१/२

इस प्रकार प्रजापालन में तत्पर रहने वाले राजा सुरथ से कुछ पर्वतवासी म्लेच्छों ने अनायास ही शत्रुता ठान ली। हाथी, घोड़े, रथ तथा पैदल सैनिकों से सुसज्जित चतुरंगिणी सेना लेकर अभिमान में चूर वे कोलाविध्वंसी सुरथ के राज्य पर अधिकार करने की लालसा से वहाँ आ पहुँचे । सुरथ भी अपनी सेना लेकर सामने डट गये। उन महाभयंकर म्लेच्छों के साथ राजा सुरथ का भीषण युद्ध होने लगा ॥ ७–९१/२

यद्यपि म्लेच्छों की सेना बहुत थोड़ी थी तथा राजा की सेना अत्यन्त विशाल थी, फिर भी दैवयोग से उन्होंने राजा सुरथ को युद्ध में जीत लिया। इस प्रकार उनसे पराजित हुए राजा सुरथ हताश होकर अपने दुर्गवेष्टित सुरक्षित नगर में आ गये ॥ १०-११ ॥ तत्पश्चात् प्रतिभासम्पन्न तथा नीति-विशारद राजा सुरथ अपने मन्त्रियों को शत्रुपक्ष के अधीन देखकर अत्यन्त खिन्नमनस्क होकर विचार करने लगे कि मैं खाईं तथा किले से सुरक्षित किसी बड़े स्थान पर रहकर समय की प्रतीक्षा करूँ अथवा मेरे लिये युद्ध करना उचित होगा। मेरे मन्त्री शत्रु के वशीभूत हो गये हैं, इसलिये वे अब परामर्श करने योग्य नहीं रह गये हैं, तो अब मैं क्या करूँ ? वे राजा सुरथ पुनः मन-ही-मन विचार करने लगे। कदाचित् वे पापी तथा शत्रु के साथ मिले हुए मन्त्री मुझे पकड़कर शत्रु को सौंप देंगे, तब क्या होगा ? पापबुद्धि पुरुषों पर कभी भी विश्वास नहीं करना चाहिये; क्योंकि जो मनुष्य लोभ के वशीभूत होते हैं वे क्या-क्या नहीं कर बैठते ? लोभपरायण मनुष्य अपने भाई, पिता, मित्र, सुहृद् बन्धु-बान्धव, पूजनीय गुरु तथा ब्राह्मण से भी सदा द्वेष करता है । अतएव इस समय शत्रुपक्ष के आश्रय को प्राप्त अत्यन्त पापपरायण अपने मन्त्रिसमुदायपर मुझे बिलकुल विश्वास नहीं करना चाहिये ॥ १२-१८ ॥

इस प्रकार अपने मन में भलीभाँति विचार करके अत्यन्त दुःखीचित्त राजा सुरथ घोड़े पर आरूढ होकर अकेले ही उस नगर से निकल पड़े ॥ १९ ॥ वे बिना किसी सहायक को साथ लिये ही नगर से बाहर निकलकर एक घने जंगल में चले गये । प्रतिभासम्पन्न राजा सुरथ सोचने लगे कि अब मुझे कहाँ चलना चाहिये ? ॥ २० ॥

तपस्वी सुमेधा का पवित्र आश्रम यहाँ से मात्र तीन योजन की दूरी पर है — यह जानकर राजा सुरथ वहाँ चले गये ॥ २१ ॥ बहुत प्रकार के वृक्षों से युक्त, नदी के तट पर विराजमान, वैरभाव से रहित होकर विचरण करने वाले पशुओं से समन्वित, कोयलों की मधुर ध्वनि से मण्डित, अध्ययनरत शिष्यों के स्वर से निनादित, सैकड़ों मृगसमूहों से घिरे हुए, भलीभाँति पके हुए नीवारान्न से परिपूर्ण, सुन्दर फल-फूल से लदे हुए पादपों से सुशोभित, होम के सुगन्धित धूम से प्राणियों को सदा आनन्दित करने वाले, निरन्तर वेदध्वनि से परिव्याप्त तथा स्वर्ग से भी मनोहर उस आश्रम को देखकर वे राजा अत्यन्त आनन्दित हुए और उन्होंने भय त्यागकर मुनि के आश्रम में विश्राम करने का निश्चय कर लिया ॥ २२–२५ ॥ तत्पश्चात् अपने घोड़े को एक वृक्ष में बाँधकर उन्होंने विनम्रतापूर्वक आश्रम में प्रवेश किया। वहाँ उन्होंने देखा कि मुनि एक सालवृक्ष की छाया में मृगचर्म के आसन पर बैठे हुए हैं, उनकी आकृति शान्त है, तपस्या करने के कारण उनका शरीर क्षीण हो गया है, उनका स्वभाव अति कोमल है, वे शिष्यों को पढ़ा रहे हैं, वे वेद-शास्त्रों के तत्त्वदर्शी विद्वान् हैं, क्रोध-लोभ आदि विकारों से मुक्त हैं, सुख-दुःख आदि द्वन्द्वों से परे हैं, ईर्ष्यारहित हैं, आत्मज्ञान के चिन्तन में संलग्न हैं, सत्यवादी तथा जितेन्द्रिय हैं। उन्हें देखकर अश्रुपूरित नयनोंवाले राजा सुरथ प्रेमपूर्वक उनके आगे दण्ड की भाँति भूतल पर गिर पड़े ॥ २६-२९ ॥

तब मुनि ने उनसे कहा — उठिये उठिये, आपका कल्याण हो । तत्पश्चात् गुरु से आदेश पाकर एक शिष्य ने उन्हें आसन प्रदान किया ॥ ३० ॥

तब वे उठकर मुनि से आज्ञा लेकर उस आसन पर बैठ गये। इसके बाद सुमेधाऋषि ने अर्घ्य -पाद्य आदि से उनका विधिपूर्वक सत्कार किया। मुनि ने उनसे पूछा कि आप यहाँ कहाँ से आये हैं? आप कौन हैं तथा चिन्तित क्यों हैं? यहाँ आने का जो भी कारण हो, उसे आप यथारुचि बतायें। आपके आगमन का प्रयोजन क्या है? आप अपने मन के विचारों को अवश्य बताइये। आपका कोई असाध्य मनोरथ होगा तो उसे भी मैं पूर्ण करूँगा ॥ ३१–३३ ॥

राजा बोले — मैं सुरथ नाम वाला राजा हूँ। शत्रुओं से पराजित होकर मैं राज्य, महल तथा स्त्री — सब कुछ छोड़कर आपकी शरण में आया हूँ ॥ ३४ ॥ हे ब्रह्मन्! अब आप मुझे जो भी आज्ञा देंगे, मैं श्रद्धापूर्वक वही करूँगा। इस पृथ्वीतल पर आपके अतिरिक्त अब कोई दूसरा मेरा रक्षक नहीं है ॥ ३५ ॥ हे मुनिराज ! हे शरणागतवत्सल ! शत्रुओं से मुझे महान् भय उपस्थित है, अतएव मैं आपके पास आया हूँ; अब आप मेरी रक्षा कीजिये ॥ ३६ ॥

ऋषि बोले — हे राजेन्द्र ! आप निर्भीक होकर यहाँ रहिये। यह निश्चित है कि मेरी तपस्या के प्रभाव से आपके पराक्रमी शत्रु यहाँ नहीं आ सकेंगे ॥ ३७ ॥ हे नृपश्रेष्ठ ! यहाँ पर आपको हिंसा नहीं करनी चाहिये और वनवासियों की भाँति पवित्र नीवार तथा फल- मूल आदि के द्वारा जीवन निर्वाह करना चाहिये ॥ ३८ ॥

व्यासजी बोले — तब मुनि की यह बात सुनकर राजा सुरथ निर्भय हो गये। अब वे फल- मूल का आहार करते हुए पवित्रता के साथ उस आश्रम में ही रहने लगे ॥ ३९ ॥ किसी समय उस आश्रम में एक वृक्ष की छाया में बैठे हुए चिन्ताकुल राजा सुरथ का चित्त घर की ओर चला गया और वे सोचने लगे — ॥ ४० ॥

निरन्तर पापकर्म में लगे रहने वाले म्लेच्छ शत्रुओं ने मेरा राज्य छीन लिया है। उन दुराचारी तथा निर्लज्ज म्लेच्छों के द्वारा मेरी प्रजा बहुत सतायी जाती होगी ॥ ४१ ॥ मेरे सभी हाथी तथा घोड़े आहार न पाने तथा शत्रु से प्रताड़ित किये जाने के कारण अत्यन्त दुर्बल हो गये होंगे; इसमें तो कोई सन्देह नहीं है ॥ ४२ ॥ अपने जिन सेवकों का मैंने पहले पालन-पोषण किया था, वे सब शत्रुओं के अधीन हो जाने के कारण कष्ट का अनुभव करते होंगे ॥ ४३ ॥ उन अति दुराचारी तथा अपव्यय करने के स्वभाववाले शत्रुओं ने मेरा धन द्यूत, मदिरालय एवं वेश्यालयों में निश्चित- रूप से खर्च कर दिया होगा ॥ ४४ ॥ वे पापबुद्धि मेरा समस्त राजकोष व्यसनों में नष्ट कर डालेंगे, सत्पात्रों को दान देने की योग्यता भी उन म्लेच्छों में नहीं है और मेरे मन्त्री भी अधीनता में रहने के कारण उन्हीं के जैसे हो गये होंगे ॥ ४५ ॥

महाराज सुरथ वृक्ष के नीचे बैठकर इसी चिन्ता में पड़े हुए थे कि उसी समय एक विषादग्रस्त वैश्य वहाँ आ पहुँचा ॥ ४६ ॥ राजा ने उस वैश्य को सामने देख लिया। उन्होंने उसे अपने समीप में बैठा लिया और पुनः उससे पूछा — आप कौन हैं तथा इस वन में कहाँ से आये हैं? आप कौन हैं, आप उदास क्यों हैं ? चिन्ताग्रस्त रहने के कारण आप तो पीले वर्ण के हो गये हैं? हे महाभाग ! सात पग एक साथ चलने पर ही मैत्री समझ ली जाती है, अतः आप मुझे सब कुछ सच सच बता दीजिये ॥ ४७-४८ ॥

व्यासजी बोले — राजा का वचन सुनकर वह वैश्य श्रेष्ठ उनके पास बैठ गया और इसे सज्जन-समागम समझकर शान्तचित्त होकर उनसे कहने लगा — ॥ ४९ ॥

वैश्य बोला — हे मित्र ! मैं वैश्यजाति में उत्पन्न हूँ और समाधि नाम से प्रसिद्ध हूँ। मैं धनवान्, धर्मकार्यों में निपुण, सत्यवादी और ईर्ष्या से रहित हूँ, फिर भी धन के लोभी और कुटिल स्त्री- पुत्रों ने मुझे घर से निकाल दिया ( उन्होंने मुझे कृपण कहकर कठिनाई से टूटने वाला माया- बन्धन भी तोड़ दिया), अतः अपने कुटुम्बियों से परित्यक्त होकर मैं अभी-अभी इस वन में आया हूँ। हे प्रिय ! आप कौन हैं ? मुझे बतायें; आप भाग्यवान् प्रतीत होते हैं ॥ ५०-५११/२

राजा बोले — मैं सुरथ नाम का राजा हूँ, मैं दस्युओं से पीड़ित हूँ । मन्त्रियों के द्वारा ठगे जाने के कारण राज्यविहीन होकर मैं यहाँ आया हूँ। हे वैश्य श्रेष्ठ ! भाग्यवश आप मुझे यहाँ मित्र के रूप में मिल गये हैं। अब हम दोनों सुन्दर वृक्षों से युक्त इस वन में विहार करेंगे। हे महाबुद्धिमान् वैश्य-श्रेष्ठ ! चिन्ता छोड़िये और प्रसन्नचित्त होइये ( अब आप मेरे साथ यहीं पर इच्छानुसार सुखपूर्वक रहिये) ॥ ५२–५४ ॥

वैश्य बोला — मेरा परिवार आश्रयरहित है, मेरे बिना परिवार के लोग अत्यन्त दुःखी होंगे। मेरे बारे में चिन्ता करते हुए वे रोग तथा शोक से व्याकुल हो जायँगे ॥ ५५ ॥ हे राजन्! मेरी पत्नी तथा पुत्र शारीरिक सुख पा रहे होंगे अथवा नहीं, इसी चिन्ता से व्याकुल रहने के कारण मेरा मन शान्त नहीं रह पाता ॥ ५६ ॥ हे राजन् ! मैं पुत्र, पत्नी, घर और स्वजनों को कब देख सकूँगा ? गृह की चिन्ता से अत्यन्त व्याकुल मेरा मन स्वस्थ नहीं हो पाता है ॥ ५७ ॥

राजा बोले — हे महामते ! जिन दुराचारी तथा महामूर्ख पुत्र आदि के द्वारा आप घर से निकाल दिये गये, उन्हें देखकर अब आपको कौन-सा सुख मिलेगा ? दुःख देनेवाले सुहृदों की अपेक्षा सुख देने वाला शत्रु श्रेष्ठ है; अतः अपने मन को स्थिर करके आप मेरे साथ आनन्द कीजिये ॥ ५८-५९ ॥

वैश्य बोला — हे राजन् ! दुर्जनों के द्वारा भी अत्यन्त कठिनता से त्यागे जाने वाले कुटुम्ब की चिन्ता से अत्यन्त दुःखित मेरा मन इस समय स्थिर नहीं हो पा रहा है ॥ ६० ॥

राजा बोले — राज्यसम्बन्धी चिन्ता मेरे मन को भी दुःखी करती रहती है। अतः अब हम दोनों शान्त प्रकृतिवाले मुनि से शोक के नाश की औषधि पूछें ॥ ६१ ॥

व्यासजी बोले — ऐसा विचार करके राजा और वैश्य – दोनों ही अत्यन्त विनम्र होकर शोक का कारण पूछने के लिये मुनि के पास गये ॥ ६२ ॥ वहाँ जाकर राजा सुरथ आसन लगाकर शान्त बैठे हुए मुनिश्रेष्ठ को प्रणाम करके स्वयं भी सम्यक् रूप से आसन पर बैठकर शान्तिपूर्वक उनसे कहने लगे ॥ ६३ ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकोंवाली श्रीमद्देवीभागवतमहापुराणसंहिताके अन्तर्गत पंचम स्कन्धका ‘राजा सुरथ और समाधि वैश्यका मुनिके पास गमन’ नामक बत्तीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३२ ॥

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