April 28, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-षष्ठ स्कन्धः-अध्याय-01 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ पूर्वार्द्ध-षष्ठ स्कन्धः-प्रथमोऽध्यायः पहला अध्याय त्रिशिरा की तपस्या से चिन्तित इन्द्र द्वारा तपभंग हेतु अप्सराओं को भेजना त्रिशिरसस्तपोभङ्गाय देवराजेन्द्रद्वारा नानोपायचिन्तनवर्णनम् ऋषिगण बोले — हे महाभाग सूतजी ! आपकी वाणीरूपी अत्यन्त मधुर सुधा का पान करके अभी हम सन्तृप्त नहीं हुए हैं। कृष्णद्वैपायन वेदव्यासजीने जिस उत्तम श्रीमद्देवीभागवत- महापुराणका प्रणयन किया है; उस पुराणकी मंगलमयी, वेदवर्णित, मनोहर, प्रसिद्ध और पापों का नाश करने वाली कथा को हम आपसे पुनः पूछना चाहते हैं ॥ १-२ ॥ त्वष्टा का वृत्रासुर नाम से विख्यात पराक्रमी पुत्र महात्मा इन्द्र के द्वारा क्यों मारा गया ? त्वष्टा तो देवपक्ष के थे और उनका पुत्र अत्यन्त बलवान् था, ब्राह्मणवंश में उत्पन्न उस महाबली का इन्द्र के द्वारा क्यों वध किया गया ? पुराणों और शास्त्रों के तत्त्वज्ञ लोगों ने देवताओं को सत्त्वगुण से, मनुष्यों को रजोगुण से और पशु-पक्षी आदि तिर्यक् योनियों को तमोगुण से उत्पन्न कहा है, परंतु यहाँ तो महान् विरोध प्रतीत होता है कि बलवान् वृत्रासुर सौ यज्ञों के कर्ता इन्द्र के द्वारा छलपूर्वक मारा गया और इसके लिये भगवान् विष्णु द्वारा प्रेरणा दी गयी जो कि स्वयं महान् सत्त्वगुणी हैं तथा वे परम प्रभु छलपूर्वक वज्र में प्रविष्ट हुए ! सन्धि करके उस महाबली वृत्र को पहले आश्वस्त कर दिया गया, किंतु पुनः विष्णु और इन्द्र ने सत्य ( सन्धि की बात ) – को छोड़कर जल के फेन से उसे मार डाला ! ॥ ३-८ ॥ हे सूतजी ! इन्द्र और विष्णु के द्वारा ऐसा दुःसाहस क्यों किया गया ? महान् लोग भी मोह में फँसकर पापबुद्धि हो जाते हैं ॥ ९ ॥ श्रेष्ठ देवगण भी घोर अन्याय मार्ग के अनुगामी हो जाते हैं, जबकि सदाचार के कारण ही देवताओं को विशिष्टता प्राप्त है ॥ १० ॥ इन्द्र द्वारा विश्वास में लेकर वृत्रासुर की हत्या कर दी गयी – ऐसे विशिष्ट धर्म के द्वारा उनका सदाचार कहाँ रह गया? उन्हें इस ब्रह्म-हत्या-जनित पाप का फल मिला या नहीं ? आपने पहले कहा था कि वृत्रासुर का वध स्वयं देवी ने ही किया था — इससे हमारा चित्त और भी मोह में पड़ गया है ॥ ११-१२१/२ ॥ सूतजी बोले — हे मुनिगण ! वृत्रासुर के वध से सम्बन्धित और उस हत्या से इन्द्र को प्राप्त महान् दुःख की कथा सुनें। ऐसा ही पूर्वकाल में परीक्षित् पुत्र राजा जनमेजय ने सत्यवतीनन्दन व्यासजी से पूछा था; तब उन्होंने जो कहा, उसे मैं कहता हूँ ॥ १३-१४१/२ ॥ जनमेजय बोले — हे मुने! सत्त्वगुण से सम्पन्न इन्द्र ने भगवान् विष्णु की सहायता लेकर वृत्रासुर को पूर्वकाल में छलपूर्वक क्यों मारा ? देवी के द्वारा उस दैत्य का क्यों और किस प्रकार वध किया गया ? हे मुनिश्रेष्ठ ! एक व्यक्ति का दो लोगों के द्वारा कैसे वध किया गया — इसे मैं सुनना चाहता हूँ; मुझे महान् कौतूहल है ॥ १५-१७ ॥ कौन मनुष्य महापुरुषों के चरित्र को नहीं सुनना चाहेगा ! अतः आप वृत्रासुर के वध पर आधारित जगदम्बा के माहात्म्य को कहिये ॥ १८ ॥ व्यासजी बोले — हे राजन्! आप धन्य हैं, जो कि आपकी इस प्रकार की बुद्धि पुराणश्रवण में अत्यन्त आदरपूर्वक लगी हुई है। श्रेष्ठ देवगण अमृत का पान करके पूर्ण तृप्त हो जाते हैं, परंतु आप इस कथामृत का बार-बार पान करके भी अतृप्त ही हैं। हे राजन् ! महान् कीर्तिवाले आपका भक्तिभाव कथाओं में दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है। श्रोता जब एकाग्रमन से सुनता है तब वक्ता भी प्रसन्न-मन से कथा कहता है ॥ १९-२० ॥ पूर्वकाल में इन्द्र तथा वृत्रासुर का युद्ध और निरपराध शत्रु वृत्रासुर का वध करके देवराज इन्द्र द्वारा प्राप्त दु:ख की कथा वेद और पुराण में प्रसिद्ध है ॥ २१ ॥ जब माया के बल से मुनिगण भी मोह में पड़ जाते हैं और वे पापभीरु होकर निरन्तर निन्दनीय कर्म करने लग जाते हैं तब हे राजन् ! विष्णु और वज्रधारी इन्द्र ने छल से त्रिशिरा और वृत्रासुर का वध कर दिया तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है ? ॥ २२ ॥ सत्त्वगुण के मूर्तिमान् विग्रह होते हुए भी भगवान् विष्णु ने जिनकी माया से मोहित होकर सदैव छलपूर्वक दैत्यों का संहार किया तब भला ऐसा कौन प्राणी होगा जो सब लोगों को मोह में डाल देने वाली उन भगवती भवानी को अपने मनोबल से जीतने में सक्षम हो सके ! ॥ २३ ॥ भगवती की ही प्रेरणा से नरऋषि के सखा नारायण- भगवान् अनन्त हजारों युगों से मत्स्यादि योनियों में अवतार लेते हैं और कभी अनुकूल तथा कभी प्रतिकूल कार्य करते हैं ॥ २४ ॥ यह मेरा शरीर है, यह मेरा धन है, यह मेरा घर है, ये मेरे स्त्री- पुत्र और बन्धु-बान्धव हैं – इस मोह में पड़कर सभी प्राणी पुण्य तथा पापकर्म करते रहते हैं; क्योंकि अत्यन्त बलशाली मायागुणों से वे मोहित कर दिये गये हैं ॥ २५ ॥ हे राजन् ! इस पृथ्वी पर कार्य और कारण का विज्ञ कोई भी व्यक्ति [उन जगदम्बा की माया के] मोह से छुटकारा नहीं पा सकता; क्योंकि भगवती महामाया के तीनों गुणों से मोहित होकर वह पूर्णरूप से सदा उनके अधीन रहता है ॥ २६ ॥ इसलिये [ उन्हीं देवी की] माया से मोहित होकर अपना स्वार्थ साधने में तत्पर रहने वाले विष्णु और इन्द्र छलपूर्वक वृत्रासुर को मार डाला । हे पृथ्वीपते ! अब मैं वृत्रासुर और इन्द्र के पारस्परिक पूर्ववैर के कारण की कथा बताता हूँ ॥ २७-२८ ॥ देवताओं में श्रेष्ठ त्वष्टा नाम के एक प्रजापति थे । वे महान् तपस्वी, देवताओं का कार्य करने वाले, अति कुशल तथा ब्राह्मणों के प्रिय थे ॥ २९ ॥ उन्होंने इन्द्र से द्वेष के कारण तीन मस्तकों से सम्पन्न एक पुत्र उत्पन्न किया, जो विश्वरूप नाम से विख्यात हुआ । वह परम मनोहर रूपवाला था ॥ ३० ॥ अपने तीन श्रेष्ठ तथा मनोहर मुखों के कारण वह अत्यन्त शोभासम्पन्न दिखायी देता था। वह मुनि अपने तीन मुखों से तीन भिन्न-भिन्न कार्य करता था । वह एक मुख से वेदाध्ययन करता था, एक मुख से मधुपान करता था और तीसरे मुख से सब दिशाओं का एक साथ निरीक्षण करता था ॥ ३१-३२ ॥ वह त्रिशिरा भोग का त्याग करके मृदु, संयमी और धर्मपरायण तपस्वी होकर अत्यन्त कठोर तप करने लगा ॥ ३३ ॥ ग्रीष्मकाल में पंचाग्नि तापते हुए, वर्षाऋतु में वृक्षों के नीचे रहकर, हेमन्त और शिशिर ऋतु में जल में स्थित होकर सब कुछ त्याग करके जितेन्द्रिय भाव से निराहार रहकर उस बुद्धिमान् [त्रिशिरा ] -ने मन्दबुद्धि प्राणियों के लिये अत्यन्त दुष्कर तपस्या आरम्भ कर दी ॥ ३४-३५ ॥ उसको तप करते देखकर शचीपति इन्द्र दुःखित हुए । उन्हें यह विषाद हुआ कि कहीं यह इन्द्र न बन जाय ॥ ३६ ॥ उस अत्यन्त तेजस्वी [ विश्वरूप] का तप, पराक्रम और सत्य देखकर इन्द्र निरन्तर इस प्रकार चिन्तित रहने लगे — उत्तरोत्तर वृद्धि को प्राप्त होता हुआ यह त्रिशिरा मुझे ही समाप्त कर देगा, इसीलिये बुद्धिमानों ने कहा है कि बढ़ते हुए पराक्रमवाले शत्रु की कभी भी उपेक्षा नहीं करनी चाहिये। इसलिये इसके तप के नाश का उपाय इसी समय करना चाहिये। कामदेव तपस्वियों का शत्रु है, काम से ही तप का नाश होता है। अतः मुझे वैसा ही करना चाहिये, जिससे यह भोगों में आसक्त हो जाय ॥ ३७ – ३९१/२ ॥ ऐसा मन में विचारकर बल नामक दैत्य का नाश करनेवाले उन बुद्धिमान् इन्द्र ने त्वष्टा के पुत्र त्रिशिरा को प्रलोभन में डालने के लिये अप्सराओं को आज्ञा दी। उन्होंने उर्वशी, मेनका, रम्भा, घृताची, तिलोत्तमा आदि को बुलाकर कहा — अपने रूप पर गर्व करने वाली हे अप्सराओ! आज मेरा कार्य आ पड़ा है, तुम सब मेरे उस प्रिय कार्य को सम्पन्न करो ॥ ४०-४२ ॥ मेरा एक महान् दुर्धर्ष शत्रु तपस्या कर रहा है। शीघ्र ही उसके पास जाओ और उसे प्रलोभित करो; इस प्रकार शीघ्र ही मेरा कार्य करो ॥ ४३ ॥ अनेक प्रकार के श्रृंगार-वेषों तथा शरीर के हाव-भावोंसे उसे प्रलोभित करो और मेरे मानसिक सन्ताप को शान्त करो; तुम लोगों का कल्याण हो ॥ ४४ ॥ हे महाभागा अप्सराओ! उसके तपोबल को जानकर मैं व्याकुल हो गया हूँ, वह बलवान् शीघ्र ही मेरा पद छीन लेगा ॥ ४५ ॥ हे अबलाओ! मेरे सामने यह भय आ गया है, तुम लोग शीघ्र ही इसका नाश कर दो। इस कार्य के आ पड़ने पर तुम सब मिलकर आज मेरा उपकार करो ॥ ४६ ॥ उनके इस वचन को सुनकर नारियों ( अप्सराओं ) – ने उन्हें नमन करते हुए कहा —- हे देवराज! आप भय न करें, हम उसे प्रलोभन में डालने का प्रयत्न करेंगी ॥ ४७ ॥ हे महातेजस्विन्! जिस प्रकार से आपको भय न हो, हम वैसा ही करेंगी। उस मुनि को लुभाने के लिये हम नृत्य, गीत और विहार करेंगी। हे विभो ! कटाक्षों और अंगों की विविध भंगिमाओं से मुनि को मोहित करके उन्हें लोलुप, अपने वशीभूत तथा नियन्त्रण में कर लेंगी ॥ ४८-४९ ॥ व्यासजी बोले — इन्द्र से ऐसा कहकर वे अप्सराएँ त्रिशिरा के समीप गयीं और कामशास्त्र में कहे गये विभिन्न प्रकार के हाव-भाव का प्रदर्शन करने लगीं ॥ ५० ॥ वे अप्सराएँ मुनि के सम्मुख अनेक प्रकार के तालों में गाती और नाचती हुई उन्हें मोहित करने के लिये विविध प्रकार के हाव-भाव करती थीं ॥ ५१ ॥ किंतु उन तपस्वी ने अप्सराओं की चेष्टा को देखा तक नहीं और इन्द्रियों को वश में करके वे गूँगे, अन्धे और बहरे की तरह बैठे रहे ॥ ५२ ॥ वे अप्सराएँ गान, नृत्य आदि मोहित करने वाले प्रपंच करती हुई कुछ दिनों तक उनके श्रेष्ठ आश्रम में रहीं ॥ ५३ ॥ जब उनकी कामचेष्टाओं से मुनि त्रिशिरा का ध्यान विचलित नहीं हुआ, तब वे अप्सराएँ पुनः लौटकर इन्द्र के सम्मुख उपस्थित हुईं ॥ ५४ ॥ अत्यन्त थकी हुई, दीन अवस्थावाली, भयभीत और उदास मुखवाली उन सबने हाथ जोड़कर देवराजसे इस प्रकार कहा —– ॥ ५५ ॥ हे सुरेश्वर ! हे महाराज ! हे विभो ! हमने बहुत प्रयत्न किये, परंतु हम उस दुर्धर्ष मुनि को धैर्य से विचलित करने में समर्थ नहीं हो पायीं ॥ ५६ ॥ हे पाकशासन ! आपको कोई दूसरा ही उपाय करना चाहिये, उन जितेन्द्रिय तपस्वी पर हमारा कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ सकता ॥ ५७ ॥ हमारा बड़ा भाग्य है कि तपस्या से अग्नि के समान प्रकाशित होने वाले उन महात्मा मुनि ने हमें शाप नहीं दिया ॥ ५८ ॥ अप्सराओं को विदा करके क्षुद्रबुद्धि तथा पापबुद्धि इन्द्र उसके ही वध का अनुचित उपाय सोचने लगे ॥ ५९ ॥ हे राजन् ! लोक-लज्जा और महान् पाप के भय को छोड़कर उन्होंने उसके वध के लिये अपनी बुद्धि को पापमय बना दिया ॥ ६० ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत षष्ठ स्कन्ध का ‘त्रिशिरा के तप को भंग करने के लिये देवराज इन्द्र द्वारा अनेक प्रकार के उपायों के चिन्तन का वर्णन’ नामक पहला अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १ ॥ Content is available only for registered users. 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