May 3, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-षष्ठ स्कन्धः-अध्याय-28 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ पूर्वार्द्ध-षष्ठ स्कन्धः-अष्टाविंशोऽध्यायः अट्ठाईसवाँ अध्याय भगवान् विष्णु का नारदजी से माया की अजेयता का वर्णन करना, मुनि नारद को मायावश स्त्री रूप की प्राप्ति तथा राजा तालध्वज का उनसे प्रणय निवेदन करना नारदेन स्वस्त्रीत्वप्राप्तिवर्णनम् नारदजी बोले — हे मुनिवर ! अब आप मेरे द्वारा कही जा रही सत्कथा का श्रवण कीजिये । श्रेष्ठ योगवेत्ता मुनियों के लिये भी माया का बल अत्यन्त दुर्ज्ञेय है ॥ १ ॥ उस अजेय तथा दुश्चिन्त्य माया ने ब्रह्मा से लेकर तृणपर्यन्त समस्त चराचर जगत् को मोहित कर रखा है ॥ २ ॥ किसी समय मैं स्वर तथा तान से विभूषित महती वीणा बजाता हुआ एवं सप्त स्वरों से युक्त गायत्र – साम का गान करता हुआ अद्भुत कर्मवाले भगवान् विष्णु के दर्शन की अभिलाषा से सत्यलोक से मनोहर श्वेतद्वीप में गया था ॥ ३-४ ॥ वहाँ मैंने देवाधिदेव विष्णु भगवान् को देखा। वे हाथ में चक्र तथा गदा धारण किये हुए थे, उनके वक्षःस्थल पर कौस्तुभमणि शोभायमान हो रही थी, वे मेघ- सदृश श्याम वर्णवाले थे, उनकी चार भुजाएँ थीं। वे पीत वस्त्र धारण किये हुए थे, मुकुट तथा बाजूबन्द से सुशोभित थे तथा वे विलासमयी लक्ष्मी के साथ प्रमुदित होकर क्रीडा कर रहे थे ॥ ५-६ ॥ सभी शुभ लक्षणों से सम्पन्न समस्त आभूषणों से अलंकृत, कान्तियुक्त, अपने रूप-यौवन पर गर्व करने वाली, नारियों में सर्वश्रेष्ठ, भगवान् विष्णु को अतिप्रिय तथा स्वर्ण के समान आभावाली भगवती लक्ष्मी मुझे देखकर उनके पास से अन्तः पुर में चली गयीं ॥ ७-८ ॥ व्यंजित अंगों वाली लक्ष्मीजी को भवन में गयी देखकर मैंने वनमाला धारण करने वाले देवाधिदेव जगन्नाथ विष्णु से पूछा — हे भगवन्! हे देवाधिदेव ! हे पद्मनाभ! हे असुरविनाशन ! मुझे आते हुए देखकर माता लक्ष्मीजी आपके पास से क्यों चली गयीं? हे जगद्गुरो ! मैं न तो कोई नीच हूँ और न धूर्त ! हे जनार्दन ! मैं इन्द्रियों, क्रोध तथा माया को जीत लेने वाला एक तपस्वी हूँ ॥ ९-११ ॥ नारदजी बोले — मेरा कुछ-कुछ अभिमानपूर्ण वचन सुनकर भगवान् विष्णु मुसकराकर वीणा के समान मधुर वाणी में मुझसे कहने लगे ॥ १२ ॥ भगवान् विष्णु बोले — हे नारद! ऐसी नीति है कि पति के अतिरिक्त अन्य किसी भी पुरुष के सांनिध्य में स्त्री को कभी नहीं रहना चाहिये ॥ १३ ॥ हे विद्वन्! वायु (श्वास) को जीत लेने वाले योगियों, सांख्यशास्त्र के ज्ञाताओं, निराहार रहने वाले तपस्वियों तथा जितेन्द्रिय पुरुषों एवं देवताओं के लिये भी माया अत्यन्त दुर्जय है । हे मुनिवर ! अभी आपने जो कहा है कि ‘मैंने माया पर विजय प्राप्त कर ली है’ तो हे गीतज्ञ ! आपको ऐसा कभी नहीं बोलना चाहिये ॥ १४-१५ ॥ जब मैं, शिव, ब्रह्मा तथा सनक आदि मुनि भी उस अजन्मा मायापर विजय नहीं प्राप्त कर सके तब आप तथा अन्य कौन हैं, जो उसे जीतने में समर्थ हो सकते हैं ? ॥ १६ ॥ देवता, मानव तथा पशु-पक्षी अथवा जो कोई शरीर धारण करने वाला प्राणी हो, वह उस अजन्मा माया को कैसे जीत सकता है ? ॥ १७ ॥ वेद का ज्ञाता, योगी, सर्वज्ञ, जितेन्द्रिय एवं सत्त्व-रज-तम से युक्त कोई भी पुरुष माया को जीतने में कैसे समर्थ हो सकता है ? ॥ १८ ॥ काल भी उसी माया का ही रूप है। वह रूपहीन होते हुए भी स्वरूप धारण कर लेता है। विद्वान्, मूर्ख अथवा मध्यम श्रेणी का कोई भी व्यक्ति हो, वह उसके वश में रहता है ॥ १९ ॥ कभी-कभी काल धर्मज्ञ पुरुष को भी उद्विग्न कर देता है । स्वभाव अथवा कर्म से उस काल की चेष्टा नहीं जानी जा सकती ॥ २० ॥ नारदजी बोले — ऐसा कहकर विष्णु के चुप हो जाने पर मेरा मन सन्देह से भर गया और मैंने उन जगन्नाथ सनातन वासुदेव से पूछा — हे रमाकान्त ! आप मुझे यह बतायें कि उस माया का रूप क्या है, उसकी आकृति कैसी है, उसमें कितनी शक्ति है, वह कहाँ रहती है तथा उसका आधार क्या है ? हे महीधर ! मैं उस माया को देखना चाहता हूँ, अतः मुझे उसका शीघ्र दर्शन कराइये। हे लक्ष्मीकान्त ! मैं उसके विषय में सम्यक् जानना चाहता हूँ; मुझ पर कृपा कीजिये ॥ २१-२३ ॥ भगवान् विष्णु बोले — अखिल जगत् को धारण करने वाली वह माया त्रिगुणात्मिका, सर्वज्ञा, सर्वसम्मता, अजेया, अनेकरूपा तथा सम्पूर्ण संसार को अपने में व्याप्त करके स्थित है ॥ २४ ॥ हे नारद! यदि तुम्हारे मन में उस माया को देखने की इच्छा है तो मेरे साथ अभी गरुड पर आरूढ़ हो जाओ; हम दोनों अन्य लोक में इसी समय चलते हैं ॥ २५ ॥ हे ब्रह्मपुत्र ! वहाँ मैं तुम्हें अजितात्माओं के लिये अजेय माया का दर्शन कराऊँगा, किंतु उसे देखकर तुम अपने मन को विषादग्रस्त मत होने देना ॥ २६ ॥ मुझसे ऐसा कहकर देवाधिदेव भगवान् विष्णु ने विनतापुत्र गरुड का स्मरण किया। स्मरण करते ही गरुड भगवान् विष्णु के समक्ष उपस्थित हो गये ॥ २७ ॥ गरुड को आया हुआ देखकर भगवान् विष्णु मुझे अत्यन्त आदरपूर्वक पीछे बैठाकर प्रस्थान करने के लिये उसपर आरूढ़ हो गये ॥ २८ ॥ जिस वन- प्रदेश में भगवान् विष्णु जाना चाहते थे, वहाँ के लिये प्रेरित किये गये वायुसदृश वेगवान् विनतापुत्र गरुड ने वैकुण्ठ से प्रस्थान किया ॥ २९ ॥ गरुडपर आसीन हम दोनों बहुत से विशाल वनों, दिव्य सरोवरों, नदियों, ग्राम-नगरों, पर्वत के आस-पास की बस्तियों, गायों के गोष्ठों, मुनियों के मनोहर आश्रमों, सुन्दर बावलियों, छोटे-बड़े तालाबों, कमलों से सुशोभित विस्तृत तथा गहरे ह्रदों एवं मृगों तथा वराहों के बहुतसे समूहों को देखते हुए कान्यकुब्ज नगर के पास पहुँच गये ॥ ३०-३२ ॥ वहाँ कमलों से मण्डित, हंस तथा सारसों से युक्त, चक्रवाकों से सुशोभित, अनेक वर्णोंवाले खिले हुए कमलों से शोभायमान, झुण्ड – के झुण्ड भौरों की ध्वनि से गुंजित एवं पवित्र तथा मधुर जलवाला एक दिव्य तथा रमणीय सरोवर दिखायी पड़ा ॥ ३३-३४ ॥ जल से युक्त उस परम अद्भुत सरोवर को देखकर भगवान् क्षीरसागर के मधुर दुग्ध की समानता करने वाले विशिष्ट विष्णु मुझसे कहने लगे ॥ ३५ ॥ श्रीभगवान् बोले — हे नारद! सर्वत्र कमलों से आच्छादित, स्वच्छ जल से परिपूर्ण तथा सारस की ध्वनि से निनादित हो रहे इस अगाध सरोवर को देखो ॥ ३६ ॥ इसी में स्नान करके हमलोग श्रेष्ठ नगर कान्यकुब्ज में चलेंगे — ऐसा कहकर भगवान् विष्णु मुझे शीघ्र ही गरुड से उतारकर आगे ले गये ॥ ३७ ॥ उन्होंने हँसते हुए मेरी तर्जनी अँगुली पकड़ी और बार-बार उस सरोवर की प्रशंसा करते हुए वे मुझे तीर पर ले गये ॥ ३८ ॥ वृक्षों की घनी छायावाले मनोहर तटभाग पर कुछ समय विश्राम करने के बाद भगवान् विष्णु ने मुझसे कहा — हे मुने! आप इस स्वच्छ जल में पहले स्नान कर लें, तत्पश्चात् मैं इस परम पवित्र सरोवर में स्नान करूँगा । इस सरोवर का जल साधुजनों के चित्त की भाँति निर्मल तथा कमलों के पराग से विशेषरूप से सुगन्धित है ॥ ३९-४०१/२ ॥ भगवान् के ऐसा कहने पर मैंने स्नान करने का मन बना लिया और अपनी वीणा तथा मृगचर्म वहीं रखकर मैं प्रेमपूर्वक तट पर चला गया ॥ ४११/२ ॥ हाथ-पैर धोकर और शिखा बाँधकर मैंने हाथ में कुश ले लिया । पुनः पवित्र जल से आचमन करके मैं उस जल में स्नान करने लगा। जब मैं उस मनोहर जल में स्नान कर रहा था, उसी समय भगवान् के देखते-देखते मैं अपना पुरुषरूप छोड़कर एक सुन्दर नारी के रूप में परिणत हो गया ॥ ४२-४३१/२ ॥ उसी क्षण मेरी वीणा तथा पवित्र मृगचर्म लेकर भगवान् विष्णु गरुड पर आरूढ़ होकर शीघ्र ही अपने धाम चले गये। इधर मैं सुन्दर भूषणों से भूषित होकर स्त्री के रूप में हो गया ॥ ४४-४५ ॥ उसी समय से मेरे मन में पूर्वदेह की विस्मृति हो गयी। मैं भगवान् विष्णु तथा अपनी महती वीणा को भी भूल गया ॥ ४६ ॥ मोहिनीरूप प्राप्त करके मैं सरोवर से बाहर निकला और स्वच्छ जलवाले तथा कमलों से परिपूर्ण उस सरोवर को देखने लगा ॥ ४७ ॥ मैं मन में बार-बार विस्मय कर रहा था कि ‘यह क्या है !’ नारीरूप को प्राप्त मैं ऐसा सोच ही रहा था कि मुझे तालध्वज नामक राजा अचानक दिखायी पड़े। हाथी के समूहों से घिरे हुए वे रथ पर बैठे हुए थे। युवावस्थावाले तथा आभूषणों से सुशोभित राजा तालध्वज शरीर धारण किये साक्षात् कामदेव के समान प्रतीत हो रहे थे । ४८-४९१/२ ॥ आभूषणों से मण्डित मुझ रमणी को देखकर राजा को महान् पूर्णिमा के चन्द्रमा के समान मुखवाली तथा दिव्य आश्चर्य हुआ और उन्होंने मुझसे पूछा — हे कल्याणि ! तुम मनुष्य, गन्धर्व कौन हो ? हे कान्ते! तुम किस देवता, अथवा नाग की पुत्री हो? रूप तथा यौवन से सम्पन्न युवती होते हुए भी तुम यहाँ अकेली क्यों हो ? ॥ ५०-५२ ॥ हे सुनयने! तुम सच – सच बताओ कि तुम विवाहिता हो अथवा कुमारी ! हे सुकेशान्ते! हे सुमध्यमे ! तुम इस सरोवर में क्या देख रही हो ? ॥ ५३ ॥ हे पिकभाषिणि! मन्मथमोहिनि ! तुम अपनी अभिलाषा व्यक्त करो। हे मरालाक्षि ! हे कृशोदरि ! मुझ उत्तम राजा को अपना पति बनाकर मेरे साथ तुम निःसन्देह मनोवांछित सुखों का उपभोग करो ॥ ५४ ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत षष्ठ स्कन्ध का ‘नारद का स्त्रीत्वप्राप्ति वर्णन’ नामक अट्ठाईसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २८ ॥ Content is available only for registered users. 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