श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-षष्ठ स्कन्धः-अध्याय-30
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
पूर्वार्द्ध-षष्ठ स्कन्धः-त्रिंशोऽध्यायः
तीसवाँ अध्याय
राजा तालध्वज का विलाप और ब्राह्मणवेशधारी भगवान् विष्णु के प्रबोधन से उन्हें वैराग्य होना, भगवान् विष्णु का नारद से माया के प्रभाव का वर्णन करना
मायाप्राबल्यवर्णनम्

नारदजी बोले — मुझ विप्ररूप नारद को देखकर वे राजा तालध्वज इस आश्चर्य में पड़ गये कि मेरी वह पत्नी कहाँ चली गयी और ये मुनिश्रेष्ठ कहाँ से आ गये ? ॥ १ ॥ राजा तालध्वज बार-बार यह कहकर विलाप करने लगे — ‘ हा प्रिये ! मुझ वियोगी को विलाप करता हुआ छोड़कर तुम कहाँ चली गयी ?’ ॥ २ ॥ हे विपुल श्रोणि ! हे कमलसदृश नेत्र वाली! हे पवित्र मुसकान वाली! तुम्हारे विना मेरा जीवन, घर तथा राज्य- ये सभी व्यर्थ हैं। अब मैं क्या करूँ ? ॥ ३ ॥ तुम्हारे वियोग में इस समय मेरे प्राण भी नहीं निकल रहे हैं । तुम्हारे विना प्राण धारण करने से प्रेम- धर्म भी सर्वथा विनष्ट हो गया ॥ ४ ॥ हे विशाल नयनोंवाली! मैं विलाप कर रहा हूँ; तुम मुझे प्रिय उत्तर प्रदान करो। प्रथम- मिलन में मेरे प्रति जो प्रीति थी, वह कहाँ चली गयी ? ॥ ५ ॥ हे सुभ्रु ! क्या तुम जल में डूब गयी ? अथवा मछली या कछुए तुम्हें खा गये ? या फिर मेरे दुर्भाग्यवश वरुण ने तुम्हें शीघ्र ही अपने अधिकार में कर लिया ? ॥ ६ ॥

हे सर्वांगसुन्दरि ! हे अमृतभाषिणि! तुम धन्य हो, जो अपने पुत्रों के साथ चली गयी; उन पुत्रों के प्रति तुम्हारा वास्तविक प्रेम था ॥ ७ ॥ यह तुम्हारे लिये उचित नहीं है जो कि दीन-दशा को प्राप्त मुझ पति को इस प्रकार विलाप करता हुआ छोड़कर पुत्र – स्नेहरूपी पाश में बँधी हुई तुम स्वर्ग चली गयी ॥ ८ ॥ हे कान्ते! हे प्रिये ! मेरे पुत्र तथा प्राणप्रिय तुम – ये दोनों ही चले गये फिर भी मुझ अत्यन्त दुःखित का मरण नहीं हो रहा है ॥ ९ ॥ मैं क्या करूँ और कहाँ जाऊँ? इस समय पृथ्वी पर राम भी नहीं हैं; क्योंकि पत्नीवियोगजन्य दुःख को एकमात्र वे रघुनन्दन राम ही जानते हैं ॥ १० ॥ इस जगत् में निष्ठुर ब्रह्मा ने यह बहुत विपरीत कार्य किया है, जो कि वे समान चित्तवाले पति-पत्नी का मरण भिन्न-भिन्न समयों में किया करते हैं ॥ ११ ॥ मुनियों ने नारियों का अवश्य ही बड़ा उपकार कर दिया है, जो उन्होंने धर्मशास्त्रों में पति के साथ पत्नी के भी जल जाने (सती होने) – का उल्लेख किया है ॥ १२ ॥

इस प्रकार विलाप कर रहे उन तालध्वज को भगवान् विष्णु ने अनेक प्रकार के युक्तिपूर्ण वचनों से सान्त्वना दी ॥ १३ ॥

भगवान् बोले — हे राजेन्द्र ! क्यों रो रहे हो ? तुम्हारी प्रिय भार्या कहाँ चली गयी ? क्या तुमने कभी शास्त्रश्रवण नहीं किया है अथवा विद्वज्जनों की संगति नहीं की है ? ॥ १४ ॥ वह तुम्हारी कौन थी ? तुम कौन हो ? कैसा संयोग तथा कैसा वियोग ? प्रवहमान इस संसारसागर में मनुष्यों का सम्बन्ध नौका पर चढ़े हुए मनुष्यों की भाँति है ॥ १५ ॥ हे नृपश्रेष्ठ ! अब तुम घर जाओ। तुम्हारे व्यर्थ रोने से क्या लाभ? मनुष्यों का संयोग तथा वियोग सदा दैव के अधीन रहता है ॥ १६ ॥ हे राजन् ! विशाल नयनोंवाली इस कृशोदरी सुन्दर स्त्री के साथ जो भोग करना था, उसे आपने कर लिया। अब इसके साथ आपके संयोग का समय समाप्त हो चुका है ॥ १७ ॥ एक सरोवर पर इसके साथ आपका संयोग हुआ था; उस समय इसके माता-पिता आपको दिखायी नहीं पड़े थे । यह अवसर काकतालीय न्याय के अनुसार जैसे आया था, वैसे ही चला गया ॥ १८ ॥ अतः हे राजेन्द्र ! शोक मत कीजिये। काल का अतिक्रमण नहीं किया जा सकता है। अपने घर जाकर समयानुसार प्राप्त भोगों का उपभोग कीजिये । वह सुन्दरी जैसे आयी थी वैसे ही चली भी गयी। आप जैसे पहले थे, अब वैसे ही हो गये। हे राजन् ! अब आप घर जाइये और अपना कार्य कीजिये ॥ १९-२० ॥

आपके इस तरह रोने से वह स्त्री अब लौट तो आयेगी नहीं। आप व्यर्थ चिन्ता कर रहे हैं । हे पृथ्वीपते ! अब आप योगयुक्त बनिये ॥ २१ ॥ समयानुसार जिस प्रकार भोग आता है, उसी प्रकार चला भी जाता है। अतएव इस सारहीन भवमार्ग के विषय में शोक नहीं करना चाहिये ॥ २२ ॥ न तो अकेले सुख का संयोग होता है और न तो दुःखका; घटीयन्त्र की भाँति सुख तथा दुःख का भ्रमण होता रहता है ॥ २३ ॥ हे राजन् ! अब आप मन को स्थिर करके सुखपूर्वक राज्य कीजिये अथवा अपने उत्तराधिकारी को राज्य सौंपकर वन में निवास कीजिये ॥ २४ ॥ क्षणभर में नष्ट हो जाने वाला यह मानवशरीर प्राणियों के लिये अत्यन्त दुर्लभ है। इसके प्राप्त होने पर सम्यक् प्रकार से आत्मकल्याण कर लेना चाहिये ॥ २५ ॥ हे राजन् ! जिह्वा तथा जननेन्द्रिय का आस्वाद तो पशुयोनियों में भी सुलभ होता है, किंतु ज्ञान केवल मानव-योनि में ही सुलभ है, अन्य क्षुद्र योनियों में नहीं ॥ २६ ॥ अतएव आप पत्नीवियोग से उत्पन्न शोक का परित्याग करके घर चले जाइये। यह सब उन्हीं भगवती की माया है, जिससे सम्पूर्ण जगत् मोहित है ॥ २७ ॥

नारदजी बोले — इस प्रकार भगवान् विष्णु के कहने पर राजा तालध्वज उन लक्ष्मीपति को प्रणाम करके भलीभाँति स्नान – विधि सम्पन्न करके अपने घर चले गये । अद्भुत वैराग्य को प्राप्त करके उन राजा ने अपने पौत्र को राज्य सौंपकर वन के लिये प्रस्थान किया और उन्होंने तत्त्वज्ञान प्राप्त किया ॥ २८-२९ ॥ राजा तालध्वज के चले जाने पर मुझको देखकर बार- बार हँस रहे उन जगत्पति भगवान् विष्णु से मैंने कहा — ॥ ३० ॥

हे देव! आपने मुझे भ्रमित कर दिया था; अब माया की महान् शक्ति को मैंने जान लिया। स्त्री का शरीर प्राप्त होने पर मैंने जो भी कार्य किया था, वह सब मैं अब स्मरण कर रहा हूँ ॥ ३१ ॥ हे देवाधिदेव ! हे हरे ! आप मुझे यह बताइये कि जब मैं सरोवर में प्रविष्ट हुआ तब स्नान करते ही मेरी पूर्वस्मृति क्यों नष्ट हो गयी थी ? ॥ ३२ ॥ हे जगद्गुरो ! स्त्री शरीर पाने के पश्चात् उन उत्तम नरेश तालध्वज को पतिरूप में प्राप्त करके मैं उसी प्रकार मोहित हो गया था, जैसे इन्द्र को पाकर शची ॥ ३३ ॥ हे देवेश ! मेरा मन वही था, चित्त वही था, वही प्राचीन देह था तथा वही लिंगरूप लक्षण भी था; तब हे हरे! मेरी स्मृति का नाश कैसे हो गया ? ॥ ३४ ॥ हे प्रभो ! उस समय अपने ज्ञान के नष्ट हो जाने के विषय में मुझे अब महान् आश्चर्य हो रहा है। हे रमाकान्त ! इसका वास्तविक कारण बताइये ॥ ३५ ॥ स्त्री शरीर पाकर मैंने अनेक प्रकार के भोगों का आनन्द लिया, नित्य मद्यपान किया तथा निषिद्ध भोजन किया ॥ ३६ ॥ उस समय मैं स्पष्टरूप से यह नहीं जान सका कि मैं नारद हूँ। इस समय मैं जिस प्रकार जान रहा हूँ, वैसा उस समय मैं नहीं जानता था ॥ ३७ ॥

विष्णु बोले — हे महामते नारद! देखो, यह सब खेल महामायाजनित है। उसी के प्रभाव से प्राणियों के शरीर में अनेक प्रकारकी अवस्थाएँ उपस्थित होती रहती हैं ॥ ३८ ॥ जैसे शरीरधारियों में जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति तथा तुरीय ये अवस्थाएँ होती हैं, उसी प्रकार दूसरे शरीर की प्राप्ति भी होती है; इसमें सन्देह कैसा ? ॥ ३९ ॥ सोया हुआ प्राणी न जानता है, न सुनता है और न तो बोलता ही है, किंतु जाग जाने पर वही अपने सम्पूर्ण ज्ञात विषयों को फिर से जान लेता है ॥ ४० ॥ निद्रा से चित्त विचलित हो जाता है और स्वप्न से उत्पन्न होने वाले अनेक प्रकार के मनोभाव तथा मनोभेद उपस्थित होते रहते हैं ॥ ४१ ॥ उस अवस्था में प्राणी सोचता है कि हाथी मुझे मारने आ रहा है, किंतु मैं भागने में समर्थ नहीं हूँ। क्या करूँ? मेरे लिये कोई स्थान नहीं है, जहाँ मैं शीघ्र भाग चलूँ ॥ ४२ ॥ कभी-कभी प्राणी स्वप्न में अपने मृत पितामह को घर पर आया हुआ देखता है। वह समझता है कि मैं उनके साथ मिल रहा हूँ, बात कर रहा हूँ, भोजन कर रहा हूँ ॥ ४३ ॥

जागने पर वह समझ जाता है कि सुख-दुःख- सम्बन्धी ये बातें मैंने स्वप्न में देखी हैं। उन बातों को स्मरण करके वह लोगों को विस्तारपूर्वक उनके बारे में बताता भी है ॥ ४४ ॥ जिस प्रकार कोई भी प्राणी स्वप्न में यह नहीं जान पाता कि यह निश्चय ही भ्रम है, उसी प्रकार माया का ऐश्वर्य जान पाना अत्यन्त कठिन है ॥ ४५ ॥ हे नारद! माया के गुणों की अगम्य सीमा को न तो मैं जानता हूँ और न तो शिव तथा न ब्रह्मा ही जानते हैं तो फिर मन्दबुद्धिवाला दूसरा कौन मनुष्य उसे पूर्णतः जानने में समर्थ हो सकता है ? इस जगत्‌ का कोई भी प्राणी माया के गुणों को नहीं जान सका है ॥ ४६-४७ ॥ यह सम्पूर्ण चराचर जगत् सत्त्व, रज तथा तम – इन तीनों गुणों के संयोग से विरचित है। इन गुणों के बिना यह संसार क्षणभर भी स्थित नहीं रह सकता ॥ ४८ ॥ मैं सत्त्वगुणप्रधान हूँ; रजोगुण और तमोगुण मुझमें गौणरूप में विद्यमान हैं। तीनों गुणों से रहित होने पर मैं अखिल भुवन का नियन्ता कभी नहीं हो सकता ॥ ४९ ॥

उसी प्रकार आपके पिता ब्रह्मा रजोगुणप्रधान कह  जाते हैं। वे सत्त्वगुण तथा तमोगुण से भी युक्त हैं; इन दोनों गुणों से रहित नहीं हैं ॥ ५० ॥ उसी प्रकार भगवान् शंकर भी तमोगुणप्रधान हैं तथा सत्त्वगुण और रजोगुण उनमें गौणरूप से विद्यमान हैं। मैंने ऐसे किसी प्राणी के विषय में नहीं सुना है, जो इन तीनों गुणों से रहित हो ॥ ५१ ॥ अतएव हे मुनीश्वर ! माया के द्वारा विरचित, सारहीन, सीमारहित तथा परम दुर्घट इस संसार में प्राणी को मोह नहीं करना चाहिये ॥ ५२ ॥ आपने अभी-अभी माया का प्रभाव देखा है; आपने अनेक प्रकार के भोगों का उपभोग किया। तब हे महाभाग ! आप उस महामाया के अद्भुत चरित्र के विषय में मुझसे क्यों पूछ रहे हैं ? ॥ ५३ ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत षष्ठ स्कन्ध का ‘मायाप्राबल्यवर्णन’ नामक तीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३० ॥

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