May 3, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-षष्ठ स्कन्धः-अध्याय-31 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ पूर्वार्द्ध-षष्ठ स्कन्धः-एकत्रिंशोऽध्यायः इकतीसवाँ अध्याय व्यासजी का राजा जनमेजय से भगवती की महिमा का वर्णन करना भगवतीमाहात्म्यवर्णनम् व्यासजी बोले — हे महाराज! मैंने नारदजी से योगमाया के पवित्र अक्षरों वाले जिस माहात्म्य को सुना है, उसे कहता हूँ; आप सुनें ॥ १ ॥ महर्षि नारद की नारी – देह से सम्बन्धित कथा सुनकर मैंने उन सर्वज्ञशिरोमणि मुनि से पुन: पूछा — हे नारदजी ! अब आप यह बताइये कि इसके बाद भगवान् विष्णु ने आपसे क्या कहा और आपके साथ वे जगत्पति लक्ष्मीकान्त कहाँ गये ? ॥ २-३ ॥ नारदजी बोले — उस अत्यन्त मनोहर सरोवर के तट पर मुझसे इस प्रकार कहकर भगवान् विष्णु ने गरुड पर आरूढ़ होकर वैकुण्ठ के लिये प्रस्थान करने का विचार किया ॥ ४ ॥ तदनन्तर रमापति विष्णु ने मुझसे कहा — हे नारद! अब आप जहाँ जाना चाहें, जायँ । अथवा मेरे लोक चलिये। जैसी आपकी रुचि हो वैसा कीजिये ॥ ५ ॥ इसके बाद मैं मधुसूदन श्रीविष्णु से आज्ञा लेकर ब्रह्मलोक चला गया। गरुडासीन होकर वे देवेश भगवान् विष्णु भी मुझे आदेश देकर उसी क्षण बड़े आनन्द से शीघ्र ही वैकुण्ठ चले गये ॥ ६१/२ ॥ तत्पश्चात् श्रीविष्णु के चले जाने पर समस्त परम अद्भुत सुखों तथा दुःखों के सम्बन्ध में विचार करता हुआ मैं अपने पिता ब्रह्माजी के भवन पर जा पहुँचा । हे मुने ! वहाँ पहुँचकर पिताजी को प्रणाम करके ज्यों ही मैं उनके सामने खड़ा हुआ, तभी उन्होंने मुझे चिन्ता से व्यग्र देखकर पूछा ॥ ७-८१/२ ॥ ब्रह्माजी बोले — हे महाभाग ! आप कहाँ गये थे ? हे सुत! आप क्यों इतने घबराये हुए हैं ? हे मुनिश्रेष्ठ ! आपका चित्त इस समय स्वस्थ नहीं दिखायी पड़ रहा है। क्या किसी ने आपको धोखे में डाल दिया है अथवा आपने कोई आश्चर्यजनक दृश्य देखा है ? हे पुत्र ! आज मैं आपको उदास तथा विवेक से कुण्ठित क्यों देख रहा हूँ ? ॥ ९-१०१/२ ॥ नारदजी बोले — पिता ब्रह्माजी के ऐसा पूछने पर मैंने आसन पर बैठकर माया के प्रभाव से उत्पन्न अपना सम्पूर्ण वृत्तान्त उनसे कहा — हे पिताजी! महान् शक्तिशाली विष्णु ने मुझे ठग लिया था । बहुत वर्षों तक मैं स्त्री शरीर धारण किये रहा और मैंने पुत्रशोकजनित भीषण दुःख का अनुभव किया ॥ ११-१३ ॥ तत्पश्चात् उन्होंने ही अपने अमृतमय मधुर वचन से मुझे समझाया और पुनः सरोवर में स्नान करके मैं पुरुषरूप नारद हो गया ॥ १४ ॥ हे ब्रह्मन् ! उस समय मुझे जो मोह हो गया था, उसका क्या कारण है ? उस समय मेरा पूर्वज्ञान विस्मृत हो गया था और मैं शीघ्र ही उन [ राजा तालध्वज ] -में पूर्णरूप से अनुरक्त हो गया ॥ १५ ॥ हे ब्रह्मन् ! मैं माया के इस बल को दुर्लंघ्य, ज्ञान की हानि करने वाला तथा मोह की विस्तृत जड़ मानता हूँ ॥ १६ ॥ मैंने सम्पूर्ण शुभ तथा अशुभ परिस्थितियों का अनुभव किया तथा सम्यक् प्रकार से उनके विषय में जाना । हे तात! आपने उस माया को कैसे जीता है ? वह उपाय मुझे भी बताइये ॥ १७ ॥ नारदजी बोले — हे व्यासजी ! पिता ब्रह्माजी से मेरे इस प्रकार बताने पर वे मुसकराकर मुझसे प्रेमपूर्वक कहने लगे ॥ १८ ॥ ब्रह्माजी बोले — सभी देवता, मुनि, महात्मा, तपस्वी, ज्ञानी तथा वायुसेवन करने वाले योगियों के लिये भी यह माया कठिनता से जीती जाने वाली है ॥ १९ ॥ उस महाशक्तिशालिनी माया को सम्यक् प्रकार से जानने में मैं भी समर्थ नहीं हूँ। उसी प्रकार विष्णु तथा उमापति शंकर भी उसे जानने में समर्थ नहीं हैं ॥ २० ॥ सृजन, पालन तथा संहार करने वाली वह महामाया सभी के लिये दुर्ज्ञेय है। काल, कर्म तथा स्वभाव आदि निमित्त कारणों से वह सदा समन्वित है ॥ २१ ॥ हे मेधाविन्! अपरिमित बल से सम्पन्न इस माया के विषय में आप शोक न करें। इसके विषय में किसी प्रकार का विस्मय नहीं करना चाहिये। हम लोग भी माया से विमोहित हैं ॥ २२ ॥ नारदजी बोले — हे व्यासजी ! पिताजी के ऐसा कहने पर मेरा विस्मय दूर हो गया। इसके बाद उनसे आज्ञा लेकर उत्तम तीर्थों का दर्शन करता हुआ मैं यहाँ आ पहुँचा हूँ ॥ २३ ॥ अतएव हे श्रेष्ठ व्यासजी ! कौरवों के नाश से उत्पन्न मोह का परित्याग करके आप भी इस स्थान पर सुखपूर्वक रहते हुए समय व्यतीत कीजिये ॥ २४ ॥ किये गये शुभ तथा अशुभ कर्म का फल अवश्य भोगना पड़ता है — ऐसा मन में निश्चय करके आनन्दपूर्वक विचरण कीजिये ॥ २५ ॥ व्यासजी बोले — हे राजन् ! ऐसा कहकर मुझे समझाने के पश्चात् नारदजी वहाँ से चले गये। मुनि नारद ने मुझसे जो वाक्य कहा था उसपर विचार करता हुआ मैं उस श्रेष्ठ सारस्वतकल्प में सरस्वती के तट पर ठहर गया। हे राजन्! समय व्यतीत करने के उद्देश्य से वहीं पर मैंने सम्पूर्ण सन्देहों को दूर करने वाले, नानाविध आख्यानों से युक्त, वैदिक प्रमाणों से ओतप्रोत तथा पुराणों में उत्तम इस श्रीमद्देवीभागवत की रचना की थी ॥ २६-२८ ॥ हे राजेन्द्र ! इसमें किसी तरह का संशय नहीं करना चाहिये। जिस प्रकार कोई इन्द्रजाल करने वाला अपने हाथ में काठ की पुतली लेकर उसे अपने अधीन करके अपने इच्छानुसार नचाता है, उसी प्रकार यह माया चराचर जगत् को नचाती रहती है ॥ २९-३० ॥ ब्रह्मासे लेकर तृणपर्यन्त जितने भी पाँच इन्द्रियों से सम्बन्ध रखनेवाले देवता, मानव तथा दानव हैं; वे सभी मन तथा चित्त का अनुसरण करते हैं ॥ ३१ ॥ हे राजन् ! सत्त्व, रज तथा तम — ये तीनों गुण ही सभी कार्यों के सर्वथा कारण होते हैं। यह निश्चित है कि कोई भी कार्य किसी-न-किसी कारण से अवश्य सम्बद्ध रहता है ॥ ३२ ॥ माया से उत्पन्न हुए ये तीनों गुण भिन्न-भिन्न स्वभाव वाले होते हैं; क्योंकि ये तीनों गुण (क्रमशः ) शान्त, घोर तथा मूढ-भेदानुसार तीन प्रकार के होते हैं ॥ ३३ ॥ इन तीनों गुणों से सदा युक्त रहने वाला प्राणी इन गुणों से विहीन कैसे रह सकता है ? जिस प्रकार संसार में तन्तुविहीन वस्त्र की सत्ता नहीं हो सकती, उसी प्रकार तीनों गुणों से रहित प्राणी की सत्ता नहीं हो सकती, यह पूर्णरूपेण निश्चित है। हे नरेश ! जिस प्रकार मिट्टी के बिना घट का होना सम्भव नहीं है, उसी प्रकार देवता, मानव अथवा पशु-पक्षी भी गुणों के बिना नहीं रह सकते। यहाँतक कि ब्रह्मा, विष्णु और महेश- ये तीनों भी इन गुणों के आश्रित रहते हैं। गुणों का संयोग होने से ही वे कभी प्रसन्न रहते हैं, कभी अप्रसन्न रहते हैं तथा कभी विषादग्रस्त हो जाते हैं ॥ ३४-३७ ॥ जब ब्रह्मा सत्त्वगुण में स्थित रहते हैं तब वे शान्त, समाधिस्थ, ज्ञानसम्पन्न तथा सभी प्राणियों के प्रति प्रेम से युक्त हो जाते हैं। वे ही जब सत्त्वगुण से विहीन होकर रजोगुण की अधिकता से युक्त होते हैं, तब उनका रूप भयावह हो जाता है और वे सबके प्रति अप्रीति की भावना से युक्त हो जाते हैं। वे ही ब्रह्मा जब तमोगुण की अधिकता से आविष्ट हो जाते हैं, तब वे विषादग्रस्त तथा मूढ़ हो जाते हैं; इसमें संशय नहीं है ॥ ३८-४० ॥ सदा सत्त्वगुण में स्थित रहनेवाले विष्णु इसी गुण के कारण शान्त, प्रीतिमान् तथा ज्ञानसम्पन्न रहते हैं। वे ही रमापति विष्णु रजोगुण की अधिकता के कारण अप्रीति से युक्त हो जाते हैं और तमोगुण के अधीन होकर सभी प्राणियों के लिये घोररूप हो जाते हैं ॥ ४१-४२ ॥ इसी प्रकार रुद्र भी सत्त्वगुण से युक्त होने पर प्रेम तथा शान्ति से समन्वित रहते हैं, किंतु रजोगुण से आविष्ट होनेपर वे भी भयानक तथा प्रेमविहीन हो जाते हैं। इसी तरह तमोगुण से आविष्ट होनेपर वे रुद्र मूढ तथा विषादग्रस्त हो जाते हैं ॥ ४३१/२ ॥ हे नृपश्रेष्ठ ! यदि ये ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि तथा युग-युग में जो सूर्यवंशी तथा चन्द्रवंशी चौदहों मनु कहे गये हैं — वे भी गुणों के अधीन रहते हैं, तब इस संसार में अन्य लोगों की कौन-सी बात ? देवता, दानव तथा मानवसमेत यह सम्पूर्ण जगत् माया का वशवर्ती है ॥ ४४-४६ ॥ अतएव हे राजन् ! इस विषय में कदापि सन्देह नहीं करना चाहिये । प्राणी माया के अधीन है और वह उसीके वशवर्ती होकर चेष्टा करता है ॥ ४७ ॥ वह माया भी सदा संविद्रूप परमतत्त्व में स्थित रहती है। वह उसी के अधीन रहती हुई उसी से प्रेरित होकर जीवों में सदा मोह का संचार करती है ॥ ४८ ॥ अतः विशिष्टमायास्वरूपा, प्रज्ञामयी, परमेश्वरी, माया की अधिष्ठात्री, सच्चिदानन्दरूपिणी भगवती जगदम्बा का ध्यान, पूजन, वन्दन तथा जप करना चाहिये। उससे वे भगवती प्राणी पर दया करके उसे मुक्त कर देती हैं और अपनी अनुभूति कराकर अपनी माया को हर लेती हैं। समस्त भुवन मायारूप है तथा वे ईश्वरी उसकी नायिका हैं। इसीलिये त्रैलोक्यसुन्दरी भगवती को ‘भुवनेशी’ कहा गया है। हे पृथ्वीपते ! यदि उन भगवती के रूप में चित्त सदा आसक्त हो जाय तो सत्-असत्स्वरूपा माया अपना क्या प्रभाव डाल सकती है ? अतः हे राजन् ! सच्चिदानन्दरूपिणी भगवती परमेश्वरी को छोड़कर अन्य कोई भी देवता उस माया को दूर करने में समर्थ नहीं है ॥ ४९-५३१/२ ॥ एक अन्धकार किसी दूसरे अन्धकार को दूर करने में समर्थ नहीं हो सकता; किंतु सूर्य, चन्द्रमा, विद्युत् तथा अग्नि आदि की प्रभा उस अन्धकार को मिटा देती है। अतएव माया के गुणों से निवृत्ति प्राप्त करने के लिये प्रसन्नतापूर्वक स्वयंप्रकाशित तथा ज्ञानस्वरूपिणी भगवती मायेश्वरी की आराधना करनी चाहिये ॥ ५४-५५१/२ ॥ हे राजेन्द्र ! वृत्रासुर-वध आदि की कथा के विषय में आपने जो पूछा था, उसका वर्णन मैंने भलीभाँति कर दिया। अब आप और क्या सुनना चाहते हैं ? ॥ ५६१/२ ॥ हे सुव्रत ! श्रीमद्देवीभागवतपुराण का पूर्वार्ध मैंने आपसे कहा, जिसमें देवी की महिमा का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। भगवती जगदम्बा का यह रहस्य जिस किसी को नहीं सुना देना चाहिये। भक्त, शान्त, देवी की भक्ति में लीन, ज्येष्ठ पुत्र तथा गुरुभक्ति से युक्त शिष्य के समक्ष ही इसका वर्णन करना चाहिये ॥ ५७-५९ ॥ इस संसार में जो मनुष्य सम्पूर्ण पुराणों के सार- स्वरूप, समस्त वेदों की तुलना करने वाले तथा नानाविध प्रमाणों से परिपूर्ण इस श्रीमद्देवीभागवत पुराण का विशेष श्रद्धा के साथ भक्तिपूर्वक पाठ करता है तथा इसका श्रवण करता है, वह ऐश्वर्यसम्पन्न तथा ज्ञानवान् हो जाता है ॥ ६० ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत षष्ठ स्कन्ध का ‘भगवतीमाहात्म्यवर्णन’ नामक इकतीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३१ ॥ ॥ षष्ठ स्कन्ध समाप्त ॥ ॥ श्रीमद्देवीभागवतमहापुराणका पूर्वार्ध समाप्त हुआ ॥ Content is available only for registered users. Please login or register Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. Type your email… Subscribe