May 7, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-सप्तमः स्कन्धः-अध्याय-12 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ उत्तरार्ध-सप्तमः स्कन्धः-द्वादशोऽध्यायः बारहवाँ अध्याय राजा सत्यव्रत को महर्षि वसिष्ठ का शाप तथा युवराज हरिश्चन्द्र का राजा बनना त्रिशङ्कूपाख्यानवर्णनम् व्यासजी बोले — [ हे महाराज जनमेजय !] इस प्रकार पिता के समझानेपर राजकुमार त्रिशंकु ने हाथ जोड़कर प्रेमपूर्वक गद्गद वाणी में पिता से कहा — ‘मैं वैसा ही करूँगा’ ॥ १ ॥ तत्पश्चात् महाराज अरुण ने वेदशास्त्र के पारगामी विद्वान् तथा मन्त्रवेत्ता ब्राह्मणों को बुलाकर अभिषेक की सारी सामग्रियाँ तुरंत एकत्र करायीं और सम्पूर्ण तीर्थों का जल मँगाकर तथा सभी मन्त्रियों, सामन्तों और नरेशों को बुलाकर शुभ दिन में उस राजकुमार को विधिपूर्वक श्रेष्ठ राज्यासन पर आसीन कर दिया ॥ २-३१/२ ॥ इस प्रकार पिता ने पुत्र त्रिशंकु को राज्य पर विधिपूर्वक अभिषिक्त करके अपनी धर्मपत्नी के साथ पवित्र तीसरे आश्रम (वानप्रस्थ) – को ग्रहण किया और वे वन में गंगा के तट पर कठोर तप करने लगे ॥ ४-५ ॥ आयु समाप्त हो जाने पर वे स्वर्ग को चले गये । वहाँ वे देवताओं के द्वारा भी पूजित हुए और इन्द्र के समीप स्थित रहते हुए सदा सूर्य की भाँति सुशोभित होने लगे ॥ ६ ॥ राजा [जनमेजय] बोले — [ हे व्यासजी ! ] आप पूज्यवर कथा के प्रसंग में अभी-अभी बताया कि गुरुदेव वसिष्ठ ने पयस्विनी गौ का वध कर देने के कारण राजकुमार सत्यव्रत को कुपित होकर शाप दे दिया और वह पिशाचत्व को प्राप्त हो गया । हे प्रभो ! तदनन्तर पैशाचिकता से उसका कैसे उद्धार हुआ ? इस विषय में मुझे संशय हो रहा है। शापग्रस्त मनुष्य सिंहासन के योग्य नहीं होता । सत्यव्रत के दूसरे किस कर्म के प्रभाव से मुनि वसिष्ठ ने उसे अपने शाप से मुक्त कर दिया । हे विप्रर्षे ! शाप से मुक्ति का कारण बताइये और मुझे यह भी बताइये कि वैसे [ निन्द्य ] आकृतिवाले पुत्र को उसके पिता [ राजा अरुण ] – ने अपने घर वापस क्यों बुला लिया ? ॥ ७-१० ॥ व्यासजी बोले — [ हे राजन् ! ] मुनि वसिष्ठ के द्वारा शापित वह सत्यव्रत तत्काल पैशाचिकता को प्राप्त हो गया। इसके फलस्वरूप वह कुरूप, दुर्धर्ष तथा सभी प्राणियों के लिये भयंकर हो गया, किंतु हे राजन्! जब उस सत्यव्रत ने भक्तिपूर्वक भगवती की उपासना की, तब भगवती ने प्रसन्न होकर क्षणभर में उसे दिव्य शरीरवाला बना दिया ॥ ११-१२ ॥ भगवती के कृपारूपी अमृत से उसकी पैशाचिकता समाप्त हो गयी और उसका पाप विनष्ट हो गया । अब वह पापरहित तथा अतितेजस्वी हो गया ॥ १३ ॥ भगवती की कृपा से वसिष्ठजी भी प्रसन्नचित्त हो गये और उसके पिता [अरुण] भी प्रेम से परिपूर्ण हो गये ॥ १४ ॥ पिता के मृत हो जाने पर धर्मात्मा राजा सत्यव्रत राज्य पर सम्यक् शासन करने लगा। वह अनेक प्रकार के यज्ञों द्वारा देवेश्वरी सनातनी भगवती की उपासना में तत्पर रहने लगा ॥ १५ ॥ उस त्रिशंकु (सत्यव्रत ) – के पुत्र हरिश्चन्द्र हुए, जो शास्त्रोक्त शुभ लक्षणों से सम्पन्न तथा परम सुन्दर स्वरूपवाले थे ॥ १६ ॥ [कुछ समय बाद ] राजा त्रिशंकु ने अपने पुत्र हरिश्चन्द्र को युवराज बनाकर मानव शरीर से ही स्वर्ग-सुख भोगने का निश्चय किया ॥ १७ ॥ उन्हें विधिवत् प्रणाम करके दोनों हाथ जोड़कर प्रसन्नतापूर्वक उनसे यह वचन कहने लगे ॥ १८ ॥ राजा बोले — हे ब्रह्मपुत्र ! हे महाभाग ! हे सर्वमन्त्र-विशारद! हे तापस! आप प्रसन्नतापूर्वक मेरी प्रार्थना सुनने की कृपा कीजिये। अब स्वर्ग लोकका सुख भोगनेकी इच्छा मेरे मनमें उत्पन्न हुई है । अप्सराओंके साथ रहने, नन्दनवनमें क्रीड़ा करने तथा देव- गन्धर्वोंका मधुर गीत सुनने आदि दिव्य भोगोंको मैं इसी मानव-शरीरसे भोगना चाहता हूँ ॥ १९-२१ ॥ हे महामुने ! आप शीघ्र ही मुझसे ऐसा यज्ञ तब राजा त्रिशंकु वसिष्ठके आश्रम में गये और सम्पन्न कराइये, जिससे मैं इसी मानव – शरीरसे स्वर्ग- लोकमें निवास कर सकूँ । हे मुनिश्रेष्ठ ! आप सर्वसमर्थ हैं, अतः मेरा यह कार्य अब पूर्ण कर दीजिये; यज्ञ सम्पन्न कराकर मुझे अत्यन्त दुर्लभ देवलोककी प्राप्ति करा दीजिये ॥ २२-२३ ॥ वसिष्ठजी बोले — हे राजन् ! मानव शरीर से स्वर्ग-लोक में निवास अत्यन्त दुर्लभ है। मरने के पश्चात् ही पुण्य कर्म के प्रभाव से स्वर्ग की सुनिश्चित प्राप्ति कही गयी है। अतः हे सर्वज्ञ ! तुम्हारे इस दुर्लभ मनोरथ को पूर्ण करने में मैं डर रहा हूँ । जीवित प्राणी के लिये अप्सराओं के साथ निवास दुर्लभ है । अतः हे महाभाग ! आप अनेक यज्ञ कीजिये, मृत्युके अनन्तर आप स्वर्ग प्राप्त कर लेंगे ॥ २४-२५१/२ ॥ व्यासजी बोले — [ हे राजन् ! ] वसिष्ठजी के यह वचन सुनकर अत्यन्त उदास मन वाले राजा त्रिशंकु ने पहले से ही कुपित उन मुनिवर वसिष्ठ से कहा — हे ब्रह्मन्! यदि आप अभिमानवश मेरा यज्ञ नहीं करायेंगे, तो मैं किसी दूसरे को अपना पुरोहित बनाकर इसी समय यज्ञ करूँगा ॥ २६-२७१/२ ॥ उनका यह वचन सुनते ही वसिष्ठजी ने क्रोधित होकर राजा को शाप दे दिया — ‘हे दुर्बुद्धि ! चाण्डाल हो जाओ। इसी शरीर से तुम अभी नीच योनि को प्राप्त हो जाओ। स्वर्ग को नष्ट करने वाले तथा सुरभी के वध के दोष से युक्त हे पापिष्ठ ! विप्र की भार्या का हरण करने वाले तथा धर्ममार्ग को दूषित करने वाले हे पापी ! मरने के बाद भी तुम किसी प्रकार स्वर्ग नहीं प्राप्त कर सकते ॥ २८-३०१/२ ॥ व्यासजी बोले — हे राजन् ! गुरु वसिष्ठ के ऐसा कहते ही त्रिशंकु तत्क्षण उसी शरीर से चाण्डाल हो गये । उनके रत्नमय कुण्डल उसी क्षण पत्थर हो गये तथा शरीर में लगा हुआ सुगन्धित चन्दन दुर्गन्धयुक्त हो गया। उनके शरीर पर धारण किये हुए दिव्य पीताम्बर कृष्ण वर्ण के हो गये । महात्मा वसिष्ठ के शाप से उनका शरीर गजवर्ण-जैसा धूमिल हो गया ॥ ३१-३३१/२ ॥ हे राजन्! भगवती के उपासक मुनि वसिष्ठ के रोष के कारण ही त्रिशंकु को यह फल प्राप्त हुआ । इसलिये भगवती जगदम्बा के भक्त का कभी भी अपमान नहीं करना चाहिये । मुनिश्रेष्ठ वसिष्ठ बड़ी निष्ठा के साथ गायत्रीजप में संलग्न रहते थे ॥ ३४-३५ ॥ [हे राजन्!] उस समय अपना कलंकित शरीर देखकर राजा त्रिशंकु अत्यन्त दुःखित हुए । इस प्रकार दीन-दशा को प्राप्त वे राजा घर नहीं गये, अपितु जंगलकी ओर चले गये ॥ ३६ ॥ शोक-सन्तप्त वे त्रिशंकु दुःखित होकर सोचने लगे — अब मैं क्या करूँ और कहाँ जाऊँ? मेरा शरीर तो अत्यन्त निन्दित हो गया। मुझे ऐसा कोई उपाय नहीं सूझ रहा है, जिससे मेरा दुःख दूर हो सके । यदि मैं आज घर जाता हूँ, तो मुझे इस स्वरूप में देखकर पुत्र को महान् पीड़ा होगी और भार्या भी मुझे चाण्डाल के रूप में देखकर स्वीकार नहीं करेगी। इस प्रकार के चाण्डाल रूपवाले मुझ निन्द्य को देखकर मेरे मन्त्रीगण तथा जातिवाले भी आदर नहीं करेंगे और भाई-बन्धु भी संग में नहीं रहेंगे। इस प्रकार सभी लोगों के द्वारा परित्यक्त किये जाने वाले मेरे लिये तो जीने की अपेक्षा मर जाना ही अच्छा है । अतः अब मैं विष खाकर, जलाशय में कूदकर या गले में फाँसी लगाकर देह त्याग कर दूँ अथवा विधिवत् प्रज्वलित अग्नि में अपने देह को जला डालूँ या फिर अनशन करके अपने कलंकित प्राणों का त्याग कर दूँ ॥ ३७–४२ ॥ [ ऐसा विचार आते ही उन्होंने पुनः सोचा ] आत्महत्या करने से मुझे निश्चय ही जन्म-जन्मान्तर में पुन: चाण्डाल होना पड़ेगा और आत्महत्या-दोष के परिणामस्वरूप मैं शाप से कभी मुक्त नहीं हो सकूँगा ॥ ४३ ॥ ऐसा सोचने के बाद राजा ने अपने मन में पुनः विचार किया कि इस समय मुझे किसी भी स्थिति में आत्महत्या नहीं करनी चाहिये, अपितु वन में रहकर मुझे अपने द्वारा किये गये कर्म का फल इसी शरीर से भोग लेना चाहिये; क्योंकि इससे इस कुकर्म का फल सर्वथा समाप्त हो जायगा ॥ ४४-४५ ॥ भोग से ही प्रारब्ध कर्मों का क्षय होता है, अन्यथा इनका क्षय नहीं होता। इसलिये अब यहीं पर तीर्थों का सेवन, भगवती जगदम्बा का स्मरण तथा साधुजनों की सेवा करते हुए मुझे अपने द्वारा किये गये शुभ तथा अशुभ कर्मों का फल भोग लेना चाहिये । इस प्रकार वन में रहते हुए मैं अपने कर्मों का क्षय अवश्य ही करूँगा । साथ ही, सम्भव है कि भाग्यवश किसी साधुजन से मिलने का भी कभी अवसर प्राप्त हो जाय ॥ ४६-४८ ॥ मन में ऐसा सोचकर राजा [त्रिशंकु ] अपना नगर छोड़कर गंगा के तट पर चले गये और अत्यधिक चिन्तित रहते हुए वहीं रहने लगे ॥ ४९ ॥ राजा हरिश्चन्द्र अत्यन्त दुःखित हुए और उन्होंने उसी समय पिता के शाप का कारण जानकर अपने मन्त्रियों को पिता त्रिशंकु के पास भेजा ॥ ५० ॥ मन्त्रीगण वहाँ शीघ्र पहुँचकर बार-बार दीर्घ श्वास ले रहे चाण्डाल की आकृतिवाले राजा त्रिशंकु को प्रणामकर विनम्रतापूर्वक उनसे बोले — हे राजन् ! आपके पुत्र हरिश्चन्द्र की आज्ञा से यहाँ आये हुए हम लोगों को आप मन्त्री समझिये । हे महाराज ! आपके पुत्र युवराज हरिश्चन्द्र ने [हम से ] जो कहा है, उसे आप सुनिये — ‘ आप लोग मेरे पिता राजा त्रिशंकु को सम्मानपूर्वक यहाँ ले आइये’ ॥ ५१-५३ ॥ अतः हे राजन्! अब आप सारी चिन्ता छोड़कर अपने राज्य वापस लौट चलिये । वहाँ सभी मन्त्रीगण तथा प्रजाजन आपकी सेवा करेंगे ॥ ५४ ॥ हम लोग भी गुरु वसिष्ठ को प्रसन्न करेंगे, जिससे वे आपके ऊपर दया करें। प्रसन्न हो जाने पर वे महान् तेजस्वी आपका कष्ट अवश्य दूर कर देंगे ॥ ५५ ॥ हे राजन् ! इस प्रकार आपके पुत्र ने बहुत प्रकारसे कहा है । अतः अब शीघ्रतापूर्वक अपने घर लौट चलने की कृपा कीजिये ॥ ५६ ॥ व्यासजी बोले — [ हे जनमेजय !] उनकी बात सुनकर चाण्डाल की आकृतिवाले राजा त्रिशंकु ने अपने घर चलने का कोई विचार मन में नहीं किया। उस समय राजा ने उनसे कहा — हे सचिवगण! आप लोग नगर को लौट जाइये और हे महाभाग ! वहाँ जाकर [हरिश्चन्द्र से] मेरे शब्दों में कह दीजिये — ‘ हे पुत्र ! मैं नहीं आऊँगा। तुम अनेकविध यज्ञों के द्वारा ब्राह्मणों का सम्मान करते हुए तथा देवताओं की पूजा करते हुए सदा सावधान होकर राज्य करो’ ॥ ५७–५९ ॥ [ हे सचिवगण!] महात्माओं के द्वारा सर्वथा निन्दित इस चाण्डाल – वेश से अब मैं अयोध्या नहीं जाऊँगा। आप सभी लोग यहाँ से शीघ्र लौट जाइये । [वहाँ जाकर] मेरे महाबली पुत्र हरिश्चन्द्र को सिंहासन पर बिठाकर आप लोग मेरी आज्ञा से राज्य के समस्त कार्य कीजिये ॥ ६०-६१ ॥ इस प्रकार त्रिशंकु के उपदेश देने पर सभी मन्त्री अत्यधिक दुःखी होकर रोने लगे और उन्हें प्रणाम करके वानप्रस्थ आश्रम में जीवन व्यतीत करने वाले उन [राजा त्रिशंकु]-के पास से लौट आये। अयोध्या में आकर उन मन्त्रियों ने शुभ दिन में हरिश्चन्द्र के मस्तक पर विधिपूर्वक अभिषेक किया ॥ ६२-६३ ॥ राजा [त्रिशंकु ] – की आज्ञा से मन्त्रियों के द्वारा राज्याभिषिक्त होकर तेजस्वी तथा धर्मपरायण हरिश्चन्द्र अपने पिता का निरन्तर स्मरण करते हुए राज्य करने लगे ॥ ६४ ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत सातवें स्कन्ध का ‘त्रिशंकु के उपाख्यान का वर्णन’ नामक बारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १२ ॥ Content is available only for registered users. 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