श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-सप्तमः स्कन्धः-अध्याय-14
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
उत्तरार्ध-सप्तमः स्कन्धः-चतुर्दशोऽध्यायः
चौदहवाँ अध्याय
विश्वामित्र का सत्यव्रत ( त्रिशंकु ) – को सशरीर स्वर्ग भेजना, वरुणदेव की आराधना से राजा हरिश्चन्द्र को पुत्र की प्राप्ति
वरुणकृपया शैव्यायां पुत्रोप्तत्तिवर्णनम्

व्यासजी बोले — हे राजन् ! महातपस्वी गाधिपुत्र विश्वामित्र ने यज्ञानुष्ठान का विचार करके यज्ञसम्बन्धी सामग्रियाँ जुटाकर सभी मुनियों को निमन्त्रित किया । तत्पश्चात् विश्वामित्र के द्वारा निमन्त्रित किये गये मुनिगण उस यज्ञ के बारे में जानकर भी वहाँ नहीं आये; क्योंकि वसिष्ठजी ने उन सबको आने से मना कर दिया था ॥ १-२ ॥ यह जानकर गाधिपुत्र विश्वामित्र खिन्नमनस्क तथा अतिदुःखित हुए और उस आश्रम में आये, जहाँ राजा [त्रिशंकु ] विराजमान थे ॥ ३ ॥

कुपित विश्वामित्र ने उन त्रिशंकु से कहा — हे नृपश्रेष्ठ ! वसिष्ठजी के मना कर देने के कारण सभी ब्राह्मण तो यज्ञ में नहीं आये, किंतु हे महाराज ! मेरे तप का वह प्रभाव देखिये, जिससे मैं आपको अभी सुरलोक पहुँचाता हूँ और आपकी अभिलाषा पूरी करता हूँ ॥ ४-५ ॥

यह कहकर मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्र ने हाथ में जल लेकर गायत्री जप से अर्जित अपना समस्त पुण्य उन्हें दे दिया ॥ ६ ॥ राजा को अपना पुण्य देकर विश्वामित्र ने उन पृथ्वीपति से कहा — हे राजर्षे ! अब आप अपने अभीष्ट स्वर्गलोक को जाइये। हे राजेन्द्र ! बहुत दिनों से मेरे द्वारा अर्जित किये गये पुण्य से अब आप प्रसन्नतापूर्वक इन्द्रलोक जायँ और वहाँ देवलोक में आपका कल्याण हो ॥ ७-८ ॥

व्यासजी बोले — [ हे राजन् ! ] विप्रेन्द्र विश्वामित्र के इतना कहते ही राजा त्रिशंकु मुनि के तपोबल से बड़े वेग से उड़ने वाले पक्षी की भाँति तुरंत ऊपर की ओर उड़े ॥ ९ ॥ आकाश में उड़कर जब राजा त्रिशंकु इन्द्रपुरी पहुँचे, तब सभी देवताओं ने देखा कि चाण्डालवेषधारी कोई क्रूर व्यक्ति चला आ रहा है । तत्पश्चात् उन लोगों ने इन्द्र से पूछा कि चाण्डाल के समान आकृति वाला तथा दुर्दर्श यह कौन व्यक्ति देवता की भाँति आकाशमार्ग से बड़े वेग से चला आ रहा है ? ॥ १०-११ ॥

तब इन्द्र ने सहसा उठकर उस अधम पुरुष की ओर देखा । उसे त्रिशंकु के रूप में पहचानकर तत्काल डाँटते हुए इन्द्र कहने लगे — हे चाण्डाल ! घृणित कर्मवाले तुम देवलोक में कहाँ चले आ रहे हो ! तुम अभी पृथ्वीलोक को लौट जाओ; क्योंकि तुम्हारे लिये यहाँ निवास करना सर्वथा उचित नहीं है ॥ १२-१३ ॥

[ व्यासजी बोले — ] हे शत्रुओं का दमन करने वाले जनमेजय! इन्द्र के ऐसा कहते ही त्रिशंकु स्वर्ग से वैसे ही नीचे गिरने लगे, जैसे पुण्य के क्षीण होने पर देवताओं का स्वर्ग से पतन हो जाता है ॥ १४ ॥ तब राजा त्रिशंकु वहीं से बार-बार चिल्लाने लगे — हे विश्वामित्र ! हे विश्वामित्र ! स्वर्ग से च्युत होकर बड़े वेग से नीचे की ओर गिर रहा हूँ, अतः आप मुझ कष्ट पीड़ित की रक्षा कीजिये ॥ १५ ॥

हे राजन् ! गिरते हुए त्रिशंकु का करुणक्रन्दन सुनकर तथा उन्हें नीचे की ओर गिरते देखकर विश्वामित्र ने कहा — ‘ वहीं रुक जाइये ‘ ॥ १६ ॥

[हे राजन्!] यद्यपि त्रिशंकु देवलोक से च्युत हो चुके थे तथापि मुनि विश्वामित्र के ऐसा कहते ही उनके तपोबल के प्रभाव से वे त्रिशंकु वहीं पर आकाश में ही स्थित हो गये ॥ १७ ॥ तत्पश्चात् विश्वामित्र ने नयी सृष्टि की रचना द्वारा दूसरा स्वर्गलोक बनाने के लिये जल का स्पर्श करके एक दीर्घकालीन यज्ञ आरम्भ किया ॥ १८ ॥ उनके उस प्रकार के प्रयत्न को जानकर इन्द्र गाधि-पुत्र मुनि विश्वामित्र के पास तुरंत आ पहुँचे। [इन्द्र बोले—] हे ब्रह्मन् ! आप यह क्या कर रहे हैं ? हे साधो ! आप कुपित क्यों हैं ? हे मुनिश्रेष्ठ ! आप दूसरी सृष्टि मत कीजिये और बताइये कि मैं आपका कौन-सा कार्य करूँ ? ॥ १९-२० ॥

विश्वामित्र बोले — हे विभो ! आपके लोक से च्युत होकर अत्यन्त दुःख में पड़े हुए राजा त्रिशंकु को आप प्रेमपूर्वक अपने निवास स्थान ( स्वर्गलोक) -में ले जाइये ॥ २१ ॥

व्यासजी बोले — हे राजन् ! विश्वामित्र का वह निश्चय जानकर इन्द्र को बहुत भय हुआ । उन्होंने मुनि का उग्र तपोबल समझकर कहा — ‘ठीक है । ‘ तत्पश्चात् राजा को दिव्य शरीर वाला बनाकर तथा उन्हें एक उत्तम विमान पर बैठाकर इन्द्र ने विश्वामित्र से आज्ञा लेकर अपनी पुरी के लिये प्रस्थान किया ॥ २२-२३ ॥ राजा त्रिशंकुसहित इन्द्र के स्वर्ग चले जाने के उपरान्त विश्वामित्र सुखी होकर अपने आश्रम में निश्चिन्त होकर रहने लगे ॥ २४ ॥

इधर राजा हरिश्चन्द्र मुनि विश्वामित्र के द्वारा किये गये अपने पिता के स्वर्गगमन – सम्बन्धी उपकार को सुनकर अत्यन्त हर्षित हुए और राज्य -शासन करने लगे ॥ २५ ॥ अयोध्यापति [ हरिश्चन्द्र ] रूप, यौवन तथा चातुर्य से सम्पन्न अपनी भार्या के साथ प्रेमपूर्वक विहार करने लगे ॥ २६ ॥ इस प्रकार बहुत समय व्यतीत हो जाने पर भी जब वह युवती रानी गर्भवती नहीं हुई, तब राजा बड़े चिन्तित तथा दुःखी हुए ॥ २७ ॥ इसके बाद वसिष्ठमुनि के आश्रम में जाकर तथा मस्तक झुकाकर उन्हें प्रणाम करने के पश्चात् उन्होंने सन्तान उत्पन्न न होने के कारण अपनी चिन्ता व्यक्त करते हुए गुरु से कहा — हे धर्मज्ञ ! हे मानद ! आप महान् ज्योतिर्विद् तथा मन्त्रविद्या के परम विद्वान् हैं। अतः आप मेरे लिये सन्तान-प्राप्ति का कोई उपाय कीजिये ॥ २८-२९ ॥ हे द्विजश्रेष्ठ ! आप तो जानते ही हैं कि पुत्रहीन की गति नहीं होती । मेरे दुःख को जानते हुए तथा [उसे दूर करने में] समर्थ होते हुए भी आप उपेक्षा क्यों कर रहे हैं ? ॥ ३० ॥ ये गौरैया पक्षी बड़े धन्य हैं, जो अपने शिशु का लालन-पालन कर रहे हैं। मैं ही ऐसा भाग्यहीन हूँ, जो सदा दिन-रात चिन्तित रहता हूँ ॥ ३१ ॥

व्यासजी बोले — [ हे राजन् ! ] उनकी व्यथाभरी वाणी सुनकर ब्रह्माजी के पुत्र वसिष्ठजी भली-भाँति मन में विचार करके उनसे कहने लगे ॥ ३२ ॥

वसिष्ठजी बोले — हे महाराज ! आप ठीक कह रहे हैं। जो दुःख पुत्र न होने के कारण होता है, वैसा अद्भुत दुःख इस संसार में नहीं है । अतएव हे राजेन्द्र ! आप प्रयत्नपूर्वक जलाधिपति वरुणदेव की आराधना कीजिये, वे ही आपका कार्य करेंगे ॥ ३३-३४ ॥ हे धर्मिष्ठ ! वरुणदेव से बढ़कर कोई दूसरा सन्तानदाता देवता नहीं है । इसलिये आप उन्हीं की आराधना कीजिये, इससे आपका प्रयोजन अवश्य सिद्ध हो जायगा ॥ ३५ ॥ मनुष्यों को भाग्य तथा पुरुषार्थ – इन दोनों का आदर करना चाहिये; क्योंकि बिना उद्योग किये कार्य-सिद्धि कैसे हो सकती है ? ॥ ३६ ॥ हे नृपश्रेष्ठ ! तत्त्वदर्शी मनुष्यों को न्यायपूर्वक उद्योग करना चाहिये । वैसा करने से सिद्धि अवश्य मिलती है, अन्यथा नहीं ॥ ३७ ॥

अपरिमित तेजवाले उन गुरु वसिष्ठ की यह बात सुनकर राजा हरिश्चन्द्र ने तप करने का निश्चय किया और गुरु को प्रणाम करके वे निकल पड़े ॥ ३८ ॥ राजा हरिश्चन्द्र गंगानदी के तट पर एक शुभ स्थान में पद्मासन लगाकर बैठ गये और अपने मन में पाशधारी वरुणदेव का ध्यान करते हुए कठोर तप करने लगे ॥ ३९ ॥ हे महाराज ! इस प्रकार का तप करने वाले उन [ राजा हरिश्चन्द्र ] – पर कृपा करके प्रसन्न मुख – कमलवाले वरुणदेव उनके सम्मुख प्रकट हो गये । जलाधिपति वरुणदेव ने हरिश्चन्द्र से यह वचन कहा — हे धर्मज्ञ! आपके तप से मैं प्रसन्न हूँ, आप मुझसे वर माँगिये ॥ ४०-४१ ॥

राजा बोले — हे देवेश ! मैं सन्तानहीन हूँ, अतः आप मुझे सुखदायक पुत्र दीजिये। मैंने देव ऋण, ऋषि ऋण और पितृ ऋण — इन तीनों ऋणों से मुक्त होने के लिये यह [तपरूप] उद्यम किया है ॥ ४२ ॥

तब दुःखित राजा का यह प्रगल्भ वचन सुनकर वरुणदेव अपने सम्मुख स्थित राजा हरिश्चन्द्र से मुसकराते हुए कहने लगे ॥ ४३ ॥

 वरुण बोले — हे राजन्! यदि आपको मनोवांछित गुणवान् पुत्र उत्पन्न हो तब मनोरथ पूरा हो जाने के पश्चात् आप मेरा कौन-सा प्रिय कार्य करेंगे ? ॥ ४४ ॥ हे राजन्! यदि आप शंकारहित भाव से उस पुत्र को बलिपशु बनाकर मेरा यज्ञ करें, तो मैं आपको वर प्रदान करूँगा ॥ ४५ ॥

राजा बोले — हे देव! मैं सन्तानहीन न रहूँ। हे जलाधिप ! मैं उस पुत्र को बलिपशु बनाकर आपका यज्ञ करूँगा। मैं आपसे यह सत्य कह रहा हूँ । हे मानद! इस पृथ्वीलोक में मनुष्यों के लिये सन्तान न होने का दुःख अत्यन्त असह्य होता है, अतः आप मुझे कल्याणकारी तथा मेरी शोकाग्नि को शान्त करने वाला पुत्र प्रदान कीजिये ॥ ४६-४७ ॥

वरुण बोले — राजन् ! आपको अपनी कामना के अनुकूल पुत्र प्राप्त होगा। अब आप घर लौट जाइये, किंतु अभी मेरे सामने आपने जो वचन कहा है, उसे सत्य कीजियेगा ॥ ४८ ॥

व्यासजी बोले — वरुणदेव के ऐसा कहने पर राजा हरिश्चन्द्र घर चले गये और वरदान – सम्बन्धी सारा वृत्तान्त अपनी रानी से कहा ॥ ४९ ॥ उनकी एक सौ परम सुन्दर रानियाँ थीं। उनमें से कल्याणी तथा पतिव्रता शैव्या ही उनकी प्रधान धर्मपत्नी तथा पटरानी थीं ॥ ५० ॥ कुछ समय बीतने पर सुन्दरी शैव्या ने गर्भ धारण किया। तब उनकी गर्भकालीन अभिलाषा को सुनकर राजा परम प्रसन्न हुए ॥ ५१ ॥ उस समय राजा ने विधिपूर्वक [पुंसवन आदि] सभी संस्कार सम्पन्न कराये । दसवाँ महीना पूरा होने पर रानी ने नक्षत्र तथा ग्रह के उत्तम प्रभाव से युक्त शुभ दिन में देवपुत्र के समान कान्तिमान् पुत्र को जन्म दिया ॥ ५२१/२

पुत्र के जन्म लेने पर राजा ने ब्राह्मणों के साथ जाकर स्नान करके सर्वप्रथम बालक का जातकर्म- संस्कार किया और बहुत दान दिये । पुत्र का जन्म होने से राजा को परम प्रसन्नता हुई । उस समय उन्होंने धन-धान्य से युक्त होकर परम उदारतापूर्वक अनेक प्रकार के विशिष्ट दान दिये और गीत – वाद्यों के साथ महोत्सव मनाया ॥ ५३–५५ ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत सातवें स्कन्ध का ‘वरुण की कृपा से शैव्या से पुत्रोत्पत्ति का वर्णन’ नामक चौदहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १४ ॥

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