May 23, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-नवमः स्कन्धः-अध्याय-15 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ उत्तरार्ध-नवमः स्कन्धः-पञ्चदशोऽध्यायः पन्द्रहवाँ अध्याय तुलसी के कथा-प्रसंग में राजा वृषध्वज का चरित्र-वर्णन नारायणनारदसंवादे शक्तिप्रादुर्भावः नारदजी बोले — परम साध्वी तुलसी भगवान् श्रीहरि की प्रिय भार्या कैसे बनीं, वे कहाँ उत्पन्न हुई थीं, पूर्वजन्म में कौन थीं, किसके कुल में उत्पन्न हुई थीं और वे सती किसके कुल में कन्या के रूप में प्रादुर्भूत हुईं और अपने किस तपस्या के प्रभाव से वे तुलसी प्रकृति से परे, विकाररहित, निष्काम, सर्वविश्वरूप, नारायण, परब्रह्म, परमेश्वर, ईश्वर, सबके आराध्य, सर्वेश, सब कुछ जानने वाले, सम्पूर्ण जगत् के कारण, सर्वाधार, सर्वरूप तथा सभी प्राणियों का पालन करने वाले भगवान् श्रीहरि को पत्नीरूप में प्राप्त हुईं ? ऐसी साध्वी देवी कैसे वृक्ष बन गयीं और वे तपस्विनी किस प्रकार से असुर के द्वारा गृहीत हुईं। समस्त शंकाओं का निवारण करने वाले हे प्रभो ! यह सब जानने के लिये मेरा कोमल तथा चंचल मन मुझे बार-बार प्रेरित कर रहा है। आप मेरे सम्पूर्ण सन्देह को दूर करने की कृपा कीजिये ॥ १–६ ॥ श्रीनारायण बोले — विष्णुके अंश से उत्पन्न दक्ष-सावर्णि मनु परम पवित्र, यशस्वी, कीर्तिमान्, पुण्यशाली तथा विष्णुभक्त थे । उनके पुत्र ब्रह्मसावर्णि थे, जो धर्म-परायण, भगवान् विष्णु के भक्त तथा परम पवित्र थे। उनके पुत्र धर्मसावर्णि थे, जो विष्णु के भक्त तथा जितेन्द्रिय थे । उनके पुत्र रुद्रसावर्णि भक्तिपरायण तथा जितेन्द्रिय थे । उन रुद्रसावर्णि के पुत्र देवसावर्णि थे, जो सर्वदा विष्णु-भगवान् का व्रत करने में संलग्न रहते थे। उन देवसावर्णि के पुत्र इन्द्रसावर्णि महाविष्णु के भक्त थे। उन इन्द्रसावर्णि का पुत्र वृषध्वज हुआ, जो भगवान् शिव की भक्ति में आसक्ति रखता था; उसके आश्रम में स्वयं भगवान् शंकर तीन युगों तक स्थित रहे। राजा वृषध्वज के प्रति शिवजी का स्नेह पुत्र से भी बढ़कर था ॥ ७-११ ॥ वह भगवान् नारायण, लक्ष्मी, सरस्वती – इनमें किसी भी प्रति आस्था नहीं रखता था और उसने अन्य सभी देवताओं की पूजा का परित्याग कर दिया था ॥ १२ ॥ अभिमान में चूर होकर वह भाद्रपद महीने में महालक्ष्मी की पूजा में विघ्न उत्पन्न करता था । इसी प्रकार उस पापी ने माघ शुक्ल पंचमी के दिन समस्त देवताओं द्वारा विस्तृत रूप से की जाने वाली सरस्वती- पूजा का भी त्याग कर दिया था। इस तरह केवल शिव की आराधना में निरत रहने वाले और यज्ञ तथा विष्णु की पूजा की निन्दा करने वाले उस राजेन्द्र वृषध्वज पर भगवान् सूर्यदेव कुपित हो गये और उन्होंने उसे शाप दे दिया ‘तुम श्रीविहीन हो जाओ’ — यह शाप सूर्य ने उसे दे दिया था ॥ १३–१५ ॥ इस पर स्वयं भगवान् शिव हाथ में त्रिशूल लेकर सूर्य के पीछे दौड़े। तब सूर्य अपने पिता कश्यप के साथ ब्रह्मा की शरण में गये ॥ १६ ॥ तदनन्तर भगवान् शंकर हाथ में त्रिशूल लिये हुए अत्यन्त क्रुद्ध होकर ब्रह्मलोक के लिये प्रस्थित हुए । इसपर भयभीत ब्रह्माजी ने सूर्य को आगे करके वैकुण्ठलोक के लिये प्रस्थान कर दिया ॥ १७ ॥ वे सन्तप्त तथा शुष्क तालुवाले ब्रह्मा, कश्यप तथा सूर्य भयपूर्वक सर्वेश्वर नारायण की शरण में गये ॥ १८ ॥ उन तीनों ने वहाँ पहुँचकर मस्तक झुकाकर भगवान् श्रीहरि को प्रणाम किया और बार- बार उनकी स्तुति की। तत्पश्चात् उन्होंने श्रीहरि से भय का समस्त कारण बताया ॥ १९ ॥ तब भगवान् नारायण ने कृपापूर्वक [यह कहकर ] उन्हें अभय प्रदान किया — हे भयभीत देवगण ! आप लोग स्थिरचित्त हो जाइये। मेरे रहते आपलोगों को भय कैसा? विपत्ति में भयत्रस्त जो लोग जहाँ भी मुझे याद करते हैं, मैं हाथ में चक्र धारण किये वहाँ तत्काल पहुँचकर उनकी रक्षा करता हूँ ॥ २०-२१ ॥ हे देवतागण! मैं सदा निरन्तर सम्पूर्ण लोकों की रचना तथा रक्षा किया करता हूँ। मैं ही ब्रह्मारूप से जगत् की सृष्टि करने वाला और शिवरूप से संहार करने वाला हूँ। मैं ही शिव हूँ, आप भी मेरे ही रूप हो और ये सूर्य भी मेरे ही स्वरूप हैं। तीनों गुणों से युक्त मैं ही अनेक विध रूप धारण करके सृष्टि-पालन करता हूँ ॥ २२-२३ ॥ आप लोग जाइये । आप लोगों का कल्याण होगा, आप लोगों को भय कहाँ । मेरे वर के प्रभाव से आप लोगों को आज से शंकरजी से भय नहीं होगा । वे सर्वेश्वर भगवान् शिव सज्जनों के स्वामी, भक्तों के वश में रहने वाले, भक्तों की आत्मा तथा भक्तवत्सल हैं । हे ब्रह्मन् ! सुदर्शन चक्र और भगवान् शिव — ये दोनों ही मुझे प्राणों से भी अधिक प्रिय हैं, इन दोनों से बढ़कर तेजस्वी ब्रह्माण्डों में कोई भी नहीं है ॥ २४–२६ ॥ वे महादेव खेल-खेल में करोड़ों सूर्यों तथा करोड़ों ब्रह्मा की रचना कर सकते हैं । उन त्रिशूलधारी प्रभु शिव के लिये कुछ भी दुष्कर नहीं है। वे भगवान् शिव कुछ भी बाह्य ज्ञान न रखते हुए दिन-रात मेरा ही ध्यान करते रहते हैं और अपने पाँचों मुखों से भक्तिपूर्वक सदा मेरे मन्त्रों का जप तथा गुणों का गान करते रहते हैं ॥ २७-२८ ॥ मैं भी दिन-रात उनके कल्याण का ही चिन्तन करता हूँ; क्योंकि जो लोग जिस प्रकार मेरी उपासना करते हैं, उसी प्रकार मैं भी उनकी सेवामें तत्पर रहता हूँ। भगवान् शंकर शिवस्वरूप हैं और वे कल्याण के अधिष्ठातृदेवता हैं, उन्हीं से कल्याण होता है, अतः विद्वान् लोग उन्हें शिव कहते हैं ॥ २९-३० ॥ इसी बीच भगवान् शंकर भी वहाँ पहुँच गये। उनके हाथ में त्रिशूल था, वे वृषभ पर सवार थे तथा उनकी आँखें लाल कमल के समान थीं। वहाँ पहुँचते ही उन्होंने तुरंत वृषभ से उतरकर तथा भक्ति से परिपूर्ण होने के कारण अपना मस्तक झुकाकर उन शान्तस्वभाव परात्पर लक्ष्मीपति विष्णु को भक्तिपूर्वक प्रणाम किया ॥ ३१-३२ ॥ उस समय भगवान् श्रीहरि रत्नमय सिंहासन पर विराजमान थे, रत्ननिर्मित अलंकारों से वे अलंकृत थे, वे किरीट; कुण्डल; चक्र और वनमाला धारण किये हुए थे, उनके शरीर की कान्ति नूतन मेघ के समान श्यामवर्णकी थी, वे परम सुन्दर थे, चार भुजाओं से सुशोभित थे और चार भुजा वाले अनेक पार्षदों के द्वारा श्वेत चँवर डुलाकर उनकी सेवा की जा रही थी ॥ ३३-३४ ॥ हे नारद! उनका सम्पूर्ण अंग दिव्य चन्दन से अनुलिप्त था, वे अनेक प्रकार के आभूषणों से अलंकृत थे, उन्होंने पीताम्बर धारण कर रखा था। वे लक्ष्मी के द्वारा दिये गये ताम्बूल का सेवन कर रहे थे, मुसकराते हुए वे विद्याधरियों के नृत्य-गीत आदि का निरन्तर अवलोकन कर रहे थे । भक्तों के लिये साक्षात् कृपामूर्ति ऐसे उन परमेश्वर प्रभु को महादेव ने प्रणाम किया । ब्रह्माजी ने भी महादेव को प्रणाम किया और अत्यन्त भयभीत सूर्य ने भी चन्द्रशेखर शिव को भक्तिपूर्वक प्रणाम किया । इसी प्रकार कश्यप ने महान् भक्ति के साथ शिव की स्तुति की और उन्हें प्रणाम किया ॥ ३५–३७१/२ ॥ शिवजी सर्वेश्वर श्रीहरि का स्तवन करके एक सुखप्रद आसन पर विराजमान हो गये। इसके बाद सुखमय आसन पर सुखपूर्वक विराजमान तथा विष्णु के पार्षदों के द्वारा श्वेत चँवर डुलाकर सेवित होते हुए उन विश्रान्त शिवजी से भगवान् श्रीहरि अमृत के समान मधुर तथा मनोहर वचन कहने लगे ॥ ३८-३९१/२ ॥ विष्णुजी बोले — आप यहाँ किसलिये आये हैं, आप अपने क्रोध का कारण बताइये ॥ ४० ॥ महादेवजी बोले — [हे भगवन्!] सूर्य ने मेरे लिये प्राणों से भी अधिक प्रिय मेरे भक्त वृषध्वज को शाप दे दिया है — यही मेरे क्रोध का कारण है । जब मैं अपने पुत्रतुल्य भक्त के शोक से प्रभावित होकर सूर्य को मारने के लिये उद्यत हुआ, तब उस सूर्य ने ब्रह्मा की शरण ली और पुन: सूर्य तथा ब्रह्मा — ये दोनों आपकी शरण में आ गये ॥ ४१-४२ ॥ [हे प्रभो!] जो लोग ध्यान से अथवा वचन से भी आपकी शरण ग्रहण कर लेते हैं, वे विपत्ति तथा भय से पूर्णतः मुक्त हो जाते हैं। वे जरा तथा मृत्यु तक को जीत लेते हैं । ये लोग तो प्रत्यक्ष शरणागत हुए हैं । इस शरणागति का फल क्या बताऊँ ! आप श्रीहरि का स्मरण सदा अभय तथा सर्वविध मंगल प्रदान करता है । हे जगत्प्रभो ! सूर्य के शाप के कारण श्रीरहित तथा विवेकहीन मेरे भक्त का क्या होगा ? इसे मुझे बतायें ॥ ४३–४५ ॥ विष्णुजी बोले — [ हे शिव ! ] दैव की प्रेरणा से इक्कीस युगों का बहुत बड़ा समय व्यतीत हो गया, यद्यपि वैकुण्ठ में अभी आधी घड़ी का समय बीता है। अतः अब आप शीघ्र अपने स्थान चले जाइये। किसी से भी नियन्त्रित न किये जा सकने वाले अत्यन्त भीषण काल ने वृषध्वज को मार डाला है। उसका पुत्र रथध्वज था, वह भी श्री से हीन होकर मृत्यु को प्राप्त हो गया । उस रथध्वज के भी धर्मध्वज तथा कुशध्वज नामक दो महान् भाग्यशाली पुत्र भी सूर्य के शाप से श्रीहीन हो गये हैं । वे दोनों विष्णु के महान् भक्त के रूप में प्रसिद्ध हैं। राज्य तथा श्री से भ्रष्ट वे दोनों लक्ष्मी तप में रत हैं। उन दोनों की भार्याओं से भगवती लक्ष्मी अपनी कला से आविर्भूत होंगी । उस समय वे दोनों महान् सम्पदा से सम्पन्न होकर श्रेष्ठ राजा के रूप में पुनः प्रतिष्ठित होंगे। हे शम्भो ! आपका भक्त मर चुका है; अब आप यहाँ से जाइये । हे देवतागण ! अब आप सब लोग भी यहाँ से प्रस्थान कीजिये ॥ ४६-५० ॥ [हे नारद!] ऐसा कहकर वे भगवान् श्रीहरि सभा से उठकर लक्ष्मी के साथ अन्तः पुर में चले गये । तत्पश्चात् परम प्रसन्नता से युक्त देवतागण भी परम आनन्द का अनुभव करते हुए अपने-अपने आश्रम के लिये प्रस्थित हो गये। तब परिपूर्णतम भगवान् शिव भी तपस्या के उद्देश्य से वहाँ से चल दिये ॥ ५१ ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत नौवें स्कन्ध का ‘नारायण-नारद-संवाद में शक्तिप्रादुर्भाव’ नामक पन्द्रहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १५ ॥ Content is available only for registered users. 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