श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-द्वितीयः स्कन्धः-अध्याय-07
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
पूर्वार्द्ध-द्वितीयः स्कन्धः-सप्तमोऽध्यायः
सातवाँ अध्याय
धृतराष्ट्र का युधिष्ठिर से दुर्योधन के पिण्डदान हेतु धन माँगना, भीमसेन का प्रतिरोध; धृतराष्ट्र, गान्धारी, कुन्ती, विदुर और संजय का वन के लिये प्रस्थान, वनवासी धृतराष्ट्र तथा माता कुन्ती से मिलने के लिये युधिष्ठिर का भाइयों के साथ वनगमन, विदुर का महाप्रयाण, धृतराष्ट्रसहित पाण्डवों का व्यासजी के आश्रम पर आना, देवी की कृपा से व्यासजी द्वारा महाभारत-युद्ध में मरे कौरवों-पाण्डवों के परिजनों को बुला देना
पाण्डवानां कथानकं मृतानां दर्शनवर्णनम्

सूतजी बोले — [ हे मुनिगण!] माननीया द्रौपदी उन पाँचों पाण्डवों की पतिव्रता पत्नी थी । उन द्रौपदी को अत्यन्त सुन्दर पाँच पुत्र उन पतियों से उत्पन्न हुए ॥ १ ॥ अर्जुन की एक दूसरी सुन्दर पत्नी श्रीकृष्ण की बहन सुभद्रा थीं, जिन्हें अर्जुन ने पूर्वकाल में भगवान्‌ श्रीकृष्ण की अनुमति से हर लिया था ॥ २ ॥ उन्हीं सुभद्रा के गर्भ से महान्‌ वीर अभिमन्यु का जन्म हुआ। वह संग्राम-भूमि में मारा गया था। उसी युद्ध में द्रौपदी के पाँचों पुत्र भी मारे गये थे ॥ ३ ॥ वीर अभिमन्यु की श्रेष्ठ तथा अत्यन्त सुन्दर पत्नी महाराज विराट की पुत्री उत्तरा थी । [महाभारत के युद्ध में] कुरुकुल का नाश हो जाने पर उसने एक पुत्र उत्पन्न किया था; वह द्रोणपुत्र अश्वत्थामा की बाणाग्नि से [पहले गर्भ में ही] मर गया था, किंतु बाद में भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने अश्वत्थामा की बाणाग्नि से निर्दग्ध अपने भांजे के पुत्र को अपने अद्भुत प्रताप से पुनः जीवित कर दिया था ॥ ४-५ ॥ कुरुवंश के समाप्त होने पर वह श्रेष्ठ पुत्र उत्पन्न हुआ था; इसलिये वह बालक “परीक्षित्‌’ नाम से पृथ्वीतल पर प्रसिद्ध हुआ ॥ ६ ॥ अपने सौ पुत्रों के मारे जाने पर अत्यन्त दुःखित राजा धृतराष्ट्र भीम के वाग्बाणों से सन्तप्त रहते हुए अब पाण्डवों के राज्य में रहने लगे। वैसे ही गान्धारी भी अत्यन्त दुःखी होकर जीवन-यापन करने लगी। दुःखित युधिष्ठिर दिन-रात उन दोनों की सेवा करने लगे ॥ ७-८ ॥

महान्‌ धर्मात्मा विदुर युधिष्ठिर की अनुमति से अपने भाई धृतराष्ट्र के पास में ही रहते थे और वे उन प्रज्ञाचक्षु समझाते-बुझाते रहते थे ॥ ९ ॥ धर्मपुत्र धर्मात्मा युधिष्ठिर भी अपने पितातुल्य धृतराष्ट्र के पुत्रशोकजनित दुःख को विस्मारित कराते हुए उनकी सेवा करने लगे ॥ १० ॥ जिस किसी भी प्रकार यह वृद्ध धृतराष्ट्र सुन ले [यह ध्यान में रखकर] भीम अत्यन्त क्रोधित होकर अपने वचनरूपी बाणों से उन पर सर्वदा प्रहार किया करते थे। वहाँ उपस्थित लोगों को सुना-सुनाकर भीम कहा करते थे कि मैंने इस दुष्ट अन्धे के सभी पुत्रों को रणभूमि में मार डाला और दुःशासन के हृदय का रक्त जी-भरके पी लिया है । अब यह अन्धा निर्लज्ज होकर मेरे दिये हुए पिण्ड को कौओं एवं कुत्तों की भाँति खाता है । अब तो यह व्यर्थ ही जीवन बिता रहा है ॥ ११-१३ ॥

भीम इस प्रकार की कठोर बातें प्रतिदिन उन्हें सुनाते थे; परंतु धर्मात्मा युधिष्ठिर यह कहते हुए धृतराष्ट्र को धैर्य प्रदान करते थे कि यह भीम मूर्ख है ॥ १४ ॥ इस प्रकार उस दुःखी धृतराष्ट्र ने अठारह वर्ष तक वहाँ रहकर धर्मपुत्र युधिष्ठिर से वन में जाने की इच्छा प्रकट को । महाराज धृतराष्ट्र ने धर्मपुत्र युधिष्ठिर से यह भी प्रार्थना की कि अब मैं अपने पुत्रों के लिये विधि-पूर्वक पिण्डदान करूँगा। यद्यपि भीम ने सभी का और्ध्वदैहिककर्म कर दिया था, किंतु पूर्व वैर का स्मरण करते हुए उन्होंने मेरे पुत्रों का नहीं किया। अतः यदि आप मुझे कुछ धन दें तो मैं अपने पुत्रों का और्ध्वदैहिककर्म करके स्वर्गफल देने वाला तप करने के लिये वन में चला जाऊँगा ॥ १५-१८ ॥ विदुर ने भी एकान्त में पवित्रात्मा धर्मपुत्र युधिष्ठिर से जब ऐसा कहा तब उन्होंने धनार्थी धृतराष्ट्र को धन देने का निश्चय कर लिया। राजा युधिष्ठिर ने परिवार के सभी जनों को बुलाकर कहा — हे महाभाग ! मैं कौरवों का श्राद्ध करने के इच्छुक ज्येष्ठ पिता को धन प्रदान करूँगा ॥ १९-२० ॥

महातेजस्वी ज्येष्ठ भ्राता युधिष्ठिर का वचन सुनकर वायुपुत्र महाबली भीम ने अत्यन्त क्रोधित होकर कहा — हे महाभाग! दुर्योधन के कल्याण के लिये राजकोष का धन क्यों दिया जाय? इससे अन्धे धृतराष्ट्र को भी सुख मिलेगा; इससे बड़ी मूर्खता और क्या होगी ?॥ २१-२२ ॥ आपकी दूषित मन्त्रणा के फलस्वरूप ही हम लोगों ने वनवास का कठोर कष्ट सहा। दुरात्मा दुःशासन महारानी द्रौपदी को अपमानपूर्वक सभा में खींच लाया ॥ २३ ॥ हे सुत्रत! आपकी कृपा से ही हम लोगों को विराट राजा के घर रहना पड़ा तथा हम अमित पराक्रम वालों को मत्स्यदेश के राजा की दासता करनी पड़ी थी ॥ २४ ॥ हम सबमें ज्येष्ठ आप यदि जुआ न खेलते तो हम लोगों की दुर्गति क्यों होती ? मगधनरेश जरासंध का वध करने वाले मुझको राजा विराट के यहाँ रसोइया बनना पड़ा ॥ २५ ॥

आपके ही कारण इन्द्रपुत्र महाबाहु अर्जुन को विराट राजा के यहाँ स्त्री का रूप धारण करके उनके बच्चों को नृत्य की शिक्षा देने के लिये बृहन्नला बनना पड़ा। गाण्डीव धनुष के स्थान पर अर्जुन को अपने हाथों में कंकण धारण करना पड़ा। मनुष्य का शरीर पाकर भला इससे बड़ा कष्ट और क्या हो सकता है ? अर्जुन के सिर पर चोटी और आँखों में काजल की बात का स्मरण करके तो मन में यही आता है कि में अभी तलवार लेकर शीघ्र ही धृतराष्ट्र का सिर काट दूँ; इसके अतिरिक्त मुझे शान्ति नहीं मिल सकती ॥ २६-२८ ॥ आप महाराज से बिना पूछे ही मैंने लाक्षागृह में अग्नि लगा दी थी, जिससे हमलोगों को जलाने की इच्छावाला वह पापी पुरोचन स्वयं जल गया ॥ २९ ॥ हे राजन्‌! मैंने आपसे परामर्श किये बिना ही जैसे सभी कीचकों का वध कर डाला, वैसे ही स्त्रियों समेत धृतराष्ट्र के सभी पुत्रों का भी वध मैं नहीं कर पाया ॥ ३० ॥ हे राजेन्द्र! यह आपकी नासमझी ही थी कि जब गन्धर्वों ने दुर्योधन आदि हमारे शत्रुओं को बन्दी बना लिया था, तब आपने ही उन्हें छुड़ा दिया ॥ ३१ ॥ हे राजन्‌! आज पुनः उसी दुष्ट दुर्योधन के कल्याण के लिये आप धन देने की इच्छा कर रहे हैं। आपके कहने पर भी मैं उन्हें धन नहीं देने दूँगा ॥ ३२ ॥

ऐसा कहकर भीम के चले जाने पर धर्मपुत्र युधिष्ठिर ने [ अर्जुन, नकुल तथा सहदेव-इन] तीनों की सम्मति लेकर धृतराष्ट्र को बहुत-सा धन दे दिया ॥ ३३ ॥ तब अम्बिकापुत्र धृतराष्ट्र ने धन लेकर अपने पुत्रों का विधिवत्‌ श्राद्धकर्म कराया और ब्राह्मणों को विविध दान दिये ॥ ३४ ॥ इस प्रकार अपने पुत्रों का श्राद्धकर्म करके गान्धारीसहित महाराज धृतराष्ट्र कुन्ती तथा विदुर के साथ शीघ्र ही वन में चले गये ॥ ३५ ॥ संजय द्वारा सबको यह समाचार मिला कि महामति धृतराष्ट्र वन में जा रहे हैं, उस समय अपने पुत्रों के मना करने पर भी शूरसेन की पुत्री कुन्ती उनके साथ चली गयी ॥ ३६ ॥ यह देखकर भीम भी रोने लगे। वे तथा अन्यान्य सभी कौरव उन लोगों को गंगातट तक पहुँचाकर पुनः हस्तिनापुर को लौट आये ॥ ३७ ॥ तत्पश्चात्‌ धृतराष्ट्र आदि गंगातट पर स्थित शुभ शतयूप-आश्रम में पहुँचे और वहाँ पर्णकुटी बनाकर एकचित्त हो तपस्या करने लगे ॥ ३८ ॥

जब वे तपस्वी चले गये और इस प्रकार छः वर्ष बीत गये, तब उनके विरह से सन्तप्त युधिष्ठिर अपने भाइयों से कहने लगे — मैंने स्वप्न देखा है कि वन में रहती हुई माता कुन्ती अत्यन्त दुर्बल हो गयी हैं, अतः माता तथा पितृजनों को देखने की मन में इच्छा हो रही है। साथ ही महात्मा विदुर तथा महाबुद्धिमान्‌ संजय से भी मिलने की मेरी इच्छा है। यदि आप लोगों को भी यह उचित प्रतीत होता हो तो हमलोग वहाँ चलें — ऐसा मेरा विचार है॥ ३९-४१ ॥ तब वे सभी भाई, सुभद्रा, द्रौपदी, महाभागा उत्तरा तथा अन्यान्य नागरिकजन वहाँ एकत्र हुए। दर्शन के लिये उत्सुक उन पाण्डवों ने सभी लोगों के साथ शतयूप-आश्रम में जाकर धृतराष्ट्र आदि को देखा ॥ ४२-४३ ॥ वहाँ जब विदुरजी दिखायी नहीं दिये, तब धर्मराज युधिष्ठिर ने धृतराष्ट्र से पूछा — वे बुद्धिमान्‌ विदुरजी कहाँ हैं ? तब अम्बिकापुत्र धृतराष्ट्र ने उनसे कहा — विदुर तो विरक्त एवं निष्काम होकर तथा सब कुछ त्यागकर कहीं एकान्त में रहते हुए अन्तःकरण में परमात्मा का ध्यान कर रहे होंगे ॥ ४४-४५ ॥

दूसरे दिन गंगाजी की ओर जाते हुए युधिष्ठिर ने वन में तपस्या के कारण क्षीण देहवाले व्रतधारी विदुरजी को देखा। उन्हें देखकर महाराज युधिष्ठिर ने कहा — में आपको प्रणाम करता हूँ । यह सुनकर भी निष्पाप विदुरजी दूँठवृक्ष के समान अचल स्थित रहे ॥ ४६-४७ ॥ उसी क्षण विदुरजी के मुख से एक अद्भुत तेज निकला और वह तत्काल युधिष्ठिर के मुख में समा गया; क्योंकि वे दोनों ही धर्म के अंश थे ॥ ४८ ॥ इस प्रकार विदुरजी ने प्राणत्याग कर दिया और युधिष्ठिर अत्यन्त शोकाकुल हो गये। वे राजा युधिष्ठिर उनके शरीर का दाह-संस्कार करने का प्रबन्ध करने लगे ॥ ४९ ॥ उसी समय राजा को सुनाते हुए आकाशवाणी हुई — हे राजन्‌! ये विदुरजी विरक्त हैं, अतः ये दाह- संस्कार के योग्य नहीं हैं। अब आप इच्छानुसार यहाँ से प्रस्थान करें ॥ ५० ॥ यह सुनकर उन सभी भाइयों ने गंगा के निर्मल जल में स्नान किया और वहाँ जाकर धृतराष्ट्र से [सभी वृत्तान्त] विस्तारपूर्वक बताया ॥ ५१ ॥

तत्पश्चात्‌ सब पाण्डव नागरिकों के साथ उस आश्रम में बैठ गये। उसी समय सत्यवतीपुत्र व्यासजी तथा नारदजी भी वहाँ पहुँच गये। अन्य मुनिगण भी वहाँ धर्मपुत्र युधिष्ठिर के पास आ गये। उस समय कुन्ती ने वहाँ विराजमान शुभदर्शन व्यासजी से कहा — ॥ ५२-५३ ॥ हे कृष्णद्वैपायन ! मैंने अपने पुत्र कर्ण को जन्म के समय ही देखा था। [उसे देखने के लिये] मेरा मन बहुत तड़प रहा है, अतः हे तपोधन! मुझे उसको दिखा दीजिये। हे महाभाग! आप समर्थ हैं, अतः मेरी यह इच्छा पूर्ण कीजिये ॥ ५४१/२

गान्धारी बोली — हे मुने! दुर्योधन समरभूमि में चला गया था और मैं उसे देख नहीं पायी। अतः हे मुनिश्रेष्ठ! छोटे भाइयोंसहित उस दुर्योधन को आप मुझे दिखा दीजिये ॥ ५५१/२

सुभद्रा बोली — हे सर्वज्ञ! मैं प्राणों से भी अधिक प्रिय अपने महान्‌ वीर पुत्र अभिमन्यु को देखना चाहती हूँ। अतः हे तपोधन ! उसे अभी दिखा दीजिये। ॥ ५६१/२

सूतजी बोले — इस प्रकार के वचन सुनकर सत्यवतीपुत्र व्यासजी ने प्राणायाम करके सनातनी देवी भगवती का ध्यान किया। तब सायंकाल आने पर मुनिश्रेष्ठ व्यासजी युधिष्ठिर आदि सभी जनों को गंगाजी के तट पर बुलाकर पुण्यनदी गंगा के पवित्र जल में स्नान करके प्रकृतिस्वरूपिणी, परम पुरुष को प्रसन्न करने वाली, सगुण-निर्गुणरूपा, देवताओं की भी देवी, ब्रह्मस्वरूपिणी उन मणिद्वीप निवासिनी भगवती की स्तुति करने लगे ॥ ५७-६० ॥

हे देवि! जब ब्रह्मा, विष्णु, शंकर, इन्द्र, वरुण, कुबेर, यम तथा अग्नि — ये कोई भी नहीं थे, उस समय भी आपकी सत्ता थी; ऐसी उन आपको मैं नमस्कार करता हूँ ॥ ६१ ॥ जिस समय जल, वायु, पृथ्वी, आकाश तथा उनके रस आदि गुण, समस्त इन्द्रियाँ, अहंकार, मन, बुद्धि, सूर्य तथा चन्द्रमा — ये कोई भी नहीं थे, तब भी आप विद्यमान थीं; ऐसी उन आपको मैं प्रणाम करता हूँ ॥ ६२ ॥ इस जीवलोक को अपने चित्त में समाहित करके सत्व-रज-तम आदि गुणोंसहित लिंग-कोश को समाधि की अवस्था में पहुँचाकर जब आप कल्पपर्यन्त स्वतन्त्र होकर विहार करती हैं, तब विवेकप्राप्त पुरुष भी आपको जानने में समर्थ नहीं होता ॥ ६३ ॥ हे माता! ये लोग मृत व्यक्तियों के पुनः दर्शन के लिये मुझसे प्रार्थना कर रहे हैं, किंतु मैं ऐसा कर पाने में समर्थ नहीं हुँ। अतएव आप इन्हें मृत व्यक्तियों को शीघ्र ही दिखा दें ॥ ६४ ॥

सूतजी बोले — व्यासजी के द्वारा इस प्रकार स्तुति किये जाने पर महामाया श्रीभुवनेश्वरी देवी ने समस्त मृत राजाओं को स्वर्ग से बुलाकर दिखा दिया ॥ ६५ ॥ कुन्ती, गान्धारी, सुभद्रा, विराटपुत्री उत्तरा एवं सभी पाण्डव वापस आये हुए स्वजनों को देखकर प्रसन्न हो गये ॥ ६६ ॥ तदनन्तर अपरिमित तेज वाले व्यासजी ने महामाया देवी का स्मरण करके इन्द्रजाल की भाँति प्रकट हुए उन सबको पुनः लौटा दिया ॥ ६७ ॥ तत्पश्चात्‌ [ धृतराष्ट्र आदि तापसोँ से] आज्ञा लेकर सभी पाण्डव तथा मुनिजन वहाँ से चल दिये । राजा युधिष्ठिर भी मार्ग में व्यासजी को चर्चा करते हुए  हस्तिनापुर आ गये ॥ ६८ ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत द्वितीय स्कन्ध का ‘पाण्डवानां कथानकं मृतानां दर्शनवर्णनं’ नामक सातवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ७ ॥

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