June 1, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-द्वादशः स्कन्धः-अध्याय-07 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ उत्तरार्ध-द्वादशः स्कन्धः-सप्तमोऽध्यायः सातवाँ अध्याय दीक्षाविधि मन्त्रदीक्षाविधिवर्णनम् नारदजी बोले — [हे भगवन् ! ] मैंने यह श्रीगायत्रीदेवी का सहस्रनाम संज्ञक श्रेष्ठ फल प्रदान करने वाला, महान् उन्नति की प्राप्ति कराने वाला तथा महान् भाग्योदय करने वाला स्तोत्र सुन लिया। अब मैं दीक्षा का उत्तम लक्षण सुनना चाहता हूँ; जिसके बिना ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों तथा स्त्रियों को देवीमन्त्र जपने का अधिकार प्राप्त नहीं होता । अतः हे प्रभो ! सामान्य विधि से [ दीक्षा सम्बन्धी ] सम्पूर्ण प्रसंग का विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये ॥ १-३ ॥ श्रीनारायण बोले — [ हे नारद!] सुनिये, मैं आपको पुण्यात्मा शिष्यों के दीक्षा लेने का विधान बता रहा हूँ, जिससे उन्हें देवता, अग्नि तथा गुरु की पूजा आदि का अधिकार प्राप्त हो जाता है ॥ ४ ॥ जो दिव्य ज्ञान दे और जो पापों का क्षय करे, उसी को वेदतन्त्रों के पारगामी विद्वानों ने ‘दीक्षा’ इस नाम की संज्ञा दी है ॥ ५ ॥ दीक्षा अवश्य लेनी चाहिये; क्योंकि यह अनेक फल प्रदान करने वाली बतायी गयी है। इस दीक्षाग्रहण कार्य में गुरु तथा शिष्य दोनों ही अत्यन्त शुद्ध भाववाले होने चाहिये ॥ ६ ॥ गुरु को चाहिये कि प्रात:कालीन सम्पूर्ण कृत्य विधिवत् सम्पन्न करके पुनः विधान अनुसार स्नान तथा सन्ध्या आदि करने के अनन्तर हाथ में कमण्डलु लेकर मौन भाव से नदी तट से घर पर आये और यज्ञमण्डप में पहुँचकर वहाँ एक उत्तम आसन पर बैठ तदनन्तर आचमन तथा प्राणायाम करके जाय ॥ ७-८ ॥ ‘ॐ फट्’ इस अस्त्र-मन्त्र को सात बार जपते हुए गन्ध और पुष्प से मिश्रित जल को अभिमन्त्रित करे । पुनः बुद्धिमान् पुरुष को चाहिये कि अस्त्रमन्त्र का उच्चारण करते हुए उसी जल से सम्पूर्ण द्वार का प्रोक्षण करे और उसके बाद पूजन करे ॥ ९-१० ॥ दरवाजे के ऊपरी भाग में भगवान् गणेश, लक्ष्मी तथा सरस्वती का पूजन नाम मन्त्रों का उच्चारण करते हुए गन्ध तथा पुष्प आदि अर्पित करके करना चाहिये। तत्पश्चात् द्वार की दक्षिण शाखा में भगवती गंगा और विघ्नेश्वर गणेश की एवं द्वार की वाम शाखा में क्षेत्रपाल तथा सूर्यपुत्री यमुना की पूजा करनी चाहिये । इसी प्रकार देहली पर अस्त्रमन्त्र से अस्त्रदेवता की पूजा करे । सब ओर ऐसी भावना करे कि सम्पूर्ण दृश्य जगत् देवीमय ही है ॥ ११–१३ ॥ पुनः अस्त्रमन्त्र जप द्वारा दैवी-विघ्नों का उच्छेद करे और पद के आघातों से अन्तरिक्ष तथा भूतल के विघ्नों का अपसारण करे ॥ १४ ॥ इसके बाद द्वारदेश की बायीं शाखा का स्पर्श करते हुए पहले दाहिना पैर रखकर मण्डप में प्रवेश करे । भीतर प्रवेश करके जल का कलश रखकर सामान्य अर्घ्य बना ले और उसी अर्घ्यजल से तथा गन्ध-पुष्प-अक्षत आदि से नैर्ऋत्य दिशा में वास्तु के स्वामी पद्मयोनि ब्रह्मा की पूजा करे ॥ १५-१६ ॥ तत्पश्चात् पंचगव्य बनाना चाहिये और पुनः गुरु का उस पंचगव्य तथा अर्घ्य-जल के द्वारा तोरण से लेकर स्तम्भ तक उस मण्डप का प्रोक्षण करना चाहिये । उस समय मन में यह भावना करे कि यह सब कुछ देवीमय है । भक्तिपूर्वक मूलमन्त्र का जप करते हुए अस्त्रमन्त्र से प्रोक्षण करना चाहिये ॥ १७-१८ ॥ अस्त्रमन्त्र का उच्चारण करके मण्डपभूमि का ताडन करे और इसके बाद ‘हुम्’ – इस मन्त्र का उच्चारण करके उस पर जल के छींटे दे । तदनन्तर धूप आदि सुगन्धित पदार्थों से धूपित करे और विघ्न की शान्ति हेतु जल, चन्दन, सरसों, अक्षत, दूर्वा और भस्म वहाँ विकिरित कर दे । पुनः कुश की निर्मित मार्जनी से उनका मार्जन करे। हे मुने! उन मार्जित द्रव्यों को एकत्र करके ईशान दिशा में किसी उचित स्थान पर रख दे। तत्पश्चात् पुण्याहवाचन करके दीनों और अनाथों को सन्तुष्ट करे ॥ १९–२१ ॥ इसके बाद पूर्व दिशा की ओर मुख करके कोमल आसन पर बैठना चाहिये और अपने गुरु को नमस्कार करके देयमन्त्र के देवता का विधिवत् ध्यान करना चाहिये ॥ २२ ॥ हे मुने! पूर्वोक्त विधि से ही भूतशुद्धि आदि क्रिया करके देयमन्त्र के ऋषि आदि का न्यास करना चाहिये ॥ २३ ॥ मस्तक में देयमन्त्र के ऋषि का, मुख में छन्द का, हृदयकमल में देवता का, गुह्य में बीज का और दोनों पैरों में शक्ति का न्यास करके तीन बार ताली बजाये, फिर साधक पुरुष को चाहिये कि तीन बार चुटकी बजाकर दिग्बन्ध करे ॥ २४-२५ ॥ तत्पश्चात् प्राणायाम करके मूलमन्त्र का स्मरण करते हुए अपनी देह में मातृका का न्यास करना चाहिये। उसकी विधि इस प्रकार बतायी जा रही है । हे मुने! मन्त्रवित् को चाहिये कि ‘ॐ अं नमः ‘ का उच्चारण करके सिर में मातृकान्यास करे, इसी प्रकार शरीर के सभी अंगों में न्यास करे ॥ २६-२७ ॥ श्रेष्ठ पुरुष को चाहिये कि अंगुष्ठ आदि अँगुलियों और हृदय आदि अंगों में क्रमशः मूलमन्त्र से षडंगन्यास करे ॥ २८ ॥ ‘नमः, स्वाहा, वषट्, हुं, वौषट् और फट्’ — इन पदों के साथ ‘ॐ’ लगे हुए छ: मन्त्रों से ही षडंगन्यास करना चाहिये । तदनन्तर देय मूलमन्त्र के वर्णों से तत्तत् कल्पित स्थानों में न्यास करे, यही न्यास की विधि कही गयी है ॥ २९-३० ॥ तदनन्तर अपने इस शरीर में एक पवित्र आसन की भावना करनी चाहिये । हे मुने ! इसके दक्षिण भाग में धर्म, वामभाग में ज्ञान, वाम ऊरू में वैराग्य और दक्षिण ऊरू में ऐश्वर्य का न्यास करना चाहिये। मुखदेश में धर्म का न्यास करना चाहिये। साथ ही वामपार्श्व, नाभिस्थल तथा दक्षिणपार्श्व में नञ् समासपूर्वक क्रमशः धर्म, ज्ञान तथा वैराग्य का ( अर्थात् अधर्म आदि का) न्यास करना चाहिये ॥ ३१–३३ ॥ हे मुने! उस आसन के ये धर्मादि पाये कहे गये हैं तथा मुनिश्रेष्ठों ने अधर्म आदि को उसका शरीर बताया है ॥ ३४ ॥ तत्पश्चात् ऐसी भावना करे कि इस अत्यन्त सुकोमल आसन के मध्य में हृदय है, जिसमें भगवान् अनन्त विराजमान हैं । पुनः उस अनन्त में प्रपंचमय विमल कमल का चिन्तन करे और साधक को चाहिये कि उस कमल के ऊपर कलायुक्त सूर्य, चन्द्रमा और अग्नि की भावना करे। अब मैं संक्षेप में उन कलाओं के विषय में बताता हूँ । सूर्य की बारह, चन्द्रमा की सोलह और अग्नि की दस कलाएँ कही गयी हैं। उन कलाओं के साथ उन सूर्य आदि का भी स्मरण करना चाहिये। इसके बाद उनके ऊपर सत्त्व, रज और तम का न्यास करना चाहिये । पुनः विद्वान् पुरुष को चाहिये कि उस पीठ की चारों दिशाओं में आत्मा, अन्तरात्मा, परमात्मा और ज्ञानात्मा का न्यास करे । इस प्रकार पीठ की कल्पना करनी चाहिये ॥ ३५-३८ ॥ तदनन्तर साधक पुरुष ‘अमुकासनाय नमः इस मन्त्र से शरीररूपी आसन की पूजा करके उस पर पराम्बिका का ध्यान करे। इसके बाद मन्त्रवित् को चाहिये कि कल्पोक्त विधि से मानसिक उपचारों द्वारा देयमन्त्र के देवता उन भगवती की विधिपूर्वक पूजा करे ॥ ३९-४० ॥ तदनन्तर विद्वान् पुरुष प्रसन्नता उत्पन्न करने वाली कल्पोक्त मुद्राएँ प्रदर्शित करे, जिन्हें बनाकर प्रदर्शित करने से देवी को परम प्रसन्नता होती है ॥ ४१ ॥ श्रीनारायण बोले — [ हे नारद!] तत्पश्चात् अपने वामभाग के अग्रस्थान में षट्कोण चक्र बनाये और उसके ऊपर एक गोल चक्र बनाये और उसके ऊपर चतुष्कोण मण्डल का निर्माण करे । तत्पश्चात् उस मण्डल के मध्य में त्रिकोण लिखकर शंखमुद्रा प्रदर्शित करे और छः कोणों में छः अंगों की पुष्प से आदि पूजा करे। मुनिश्रेष्ठ ! अग्नि आदि कोणों में छः अंगों का अर्चन करे । तत्पश्चात् शंख रखने का पात्र लेकर ‘फट्’ – इस अस्त्रमन्त्र से प्रोक्षण करके उसे मण्डल में स्थापित करे । ‘मं वह्निमण्डलाय नमः ‘ मन्त्र पढ़कर ‘दशकलात्मने अमुकदेव्या अर्घ्यपात्र स्थानाय नम:’ इसका उच्चारण करना चाहिये । विद्वान् पुरुषों ने शंख के आधारस्थापनके लिये यही मन्त्र बताया है । आधारदेश में पूर्व से आरम्भ करके दक्षिण के क्रम से अग्निमण्डल में निवास करने वाली दसों अग्निकलाओं की पूजा करनी चाहिये ॥ ४२–४७ ॥ तत्पश्चात् मूलमन्त्र द्वारा प्रोक्षित किये गये उत्तम शंख को वहीं आधार पर मूलमन्त्र का स्मरण करते हुए रख देना चाहिये। फिर ‘अं सूर्यमण्डलाय नमः’ कहकर ‘द्वादशान्ते कलात्मने अमुकदेव्यर्घ्यपात्राय नमः ‘ इस मन्त्र का उच्चारण करना चाहिये ॥ ४८-४९ ॥ उच्चारण करके उसी से उस शंख का प्रोक्षण करे और इसके बाद ‘शं शङ्खाय नम:’ इस पद का उस शंख में सूर्य की ‘तपिनी’ आदि बारह कलाओं की यथाक्रम रीति से पूजा करे। फिर विलोम मातृका और विलोम मूलमन्त्र का उच्चारण करके शंख को जल से भर दे और उसमें चन्द्रमा की कलाओं का न्यास करे । — ॐ सोममण्डलाय षोडशकलात्मने अमुकार्घ्यामृताय हृदयाय नमः’ यह मन्त्र का रूप बतलाया गया है। उसी मन्त्र के द्वारा अंकुशमुद्रा से जल की पूजा करनी चाहिये ॥ ५०–५३ ॥ वहीं पर तीर्थों का आवाहन करके आठ बार इस मन्त्र का जप करे। फिर जल में षडंगन्यास करके ‘हृदयाय नमः इस मन्त्र से जल का पूजन करना चाहिये ॥ ५४ ॥ तत्पश्चात् आठ बार मूलमन्त्र का जप करके मत्स्य-मुद्रा से जल को ढक दे, फिर दक्षिणभाग में शंख की प्रोक्षणी रखे। शंख से कुछ जल लेकर उसके शरीर का भी उस जल से प्रोक्षण करे। तत्पश्चात् अपने द्वारा सब ओर प्रोक्षण करे । पूजन-सामग्री और अपने शरीर की परमशुद्धि की कल्पना कर ले ॥ ५५-५६ ॥ श्रीनारायण बोले — [ हे नारद!] इसके बाद अपने सामने वेदी पर ‘सर्वतोभद्रमण्डल’ बनाकर उसकी कर्णिका के मध्यभाग को अगहनी धान के चावल से भर दे। वहीं पर ‘कूर्च’ संज्ञा वाले कुशों को स्थापित करके ‘ॐ आधारशक्तये नमः’, ‘ॐ मूलप्रकृत्यै नमः’, ‘ॐ कूर्माय नमः’, ‘ॐ शेषाय नमः ‘, ‘ॐ क्षमायै नमः’, ‘ॐ सुधासिन्धवे नमः’, ‘ॐ दुर्गादेवीयोग-पीठाय नमः ‘ – इन मन्त्रों का उच्चारण करके पीठ का पूजन करे ॥ ५७-५८ ॥ तदनन्तर छिद्ररहित कलश हाथ में लेकर ‘फट्’– इस अस्त्रमन्त्र से अभिमन्त्रित जल के द्वारा उसे प्रक्षालित करे । इसके बाद तिगुने रक्तसूत्र से उस कलश को आवेष्टित करे। उस कलश में नवरत्न तथा कूर्च डालकर गन्ध आदि से उसका पूजनकर प्रणवमन्त्र का उच्चारण करते हुए उस पीठ पर कलश को साधक स्थापित कर दे ॥ ५९-६० ॥ हे मुने ! तत्पश्चात् कलश और पीठ में ऐक्य की भावना करे; फिर प्रतिलोम के क्रम से मातृकामन्त्र का उच्चारण करते हुए तीर्थ के जल से उस कलश को भर दे। देव-बुद्धिसे मूलमन्त्र का जप करके उस कलश को पूर्ण करे । तदनन्तर बुद्धिमान् पुरुष को चाहिये कि पीपल, कटहल तथा आम के कोमल नवीन पल्लवों से कलश का मुख आच्छादित कर दे और उसके ऊपर फल और अक्षतसहित पात्र रखकर दो वस्त्रों से उस कलश को वेष्टित कर दे ॥ ६१–६३ ॥ तदनन्तर प्राणप्रतिष्ठा के मन्त्र से प्राणप्रतिष्ठा की क्रिया सम्पन्न करे; फिर आवाहन आदि मुद्राओं से परादेवता भगवती को प्रसन्न करे। इसके बाद कल्पोक्तविधि से उन परमेश्वरी का ध्यान करे और उन भगवती के आगे स्वागत तथा कुशल-प्रश्न-सम्बन्धी वाक्यों का उच्चारण करे ॥ ६४-६५ ॥ तत्पश्चात् पाद्य, अर्घ्य, आचमन, मधुपर्क और अभ्यंगसहित स्नान आदि देवी को निवेदित करे । इसके बाद उन्हें रक्तवर्णवाले तथा स्वच्छ दो रेशमी वस्त्र प्रदान करके नानाविध मणियों से जटित आभूषण कल्पित करने चाहिये ॥ ६६-६७ ॥ तदनन्तर मन्त्र- पुटित वर्णों द्वारा विधिपूर्वक देवी के अंगों में मातृकाका न्यास करके चन्दन आदि उपचारों से भलीभाँति उनकी पूजा करनी चाहिये ॥ ६८ ॥ हे मुने! काले अगुरु तथा कपूर से युक्त गन्ध, कस्तूरीयुक्त केसर, चन्दन, कुन्दपुष्प तथा अन्य प्रकार के पुष्प आदि परा भगवती को अर्पित करे । अगुरु, गुग्गुल, उशीर तथा चन्दन के चूर्ण में शर्करा और मधु मिलाकर बनाया गया धूप देवी के लिये सदा अत्यन्त प्रिय कहा गया है । विद्वान् पुरुष अनेक प्रकार के दीपक प्रदर्शित करके देवी को नैवेद्य अर्पण करे । प्रत्येक पूजन-द्रव्य में प्रोक्षणी में स्थित कुछ जल अवश्य छोड़े, अन्य जल का प्रयोग न करे । तत्पश्चात् अंगपूजा तथा कल्पोक्त-आवरणपूजा करे ॥ ६९–७२ ॥ देवी की सांगपूजा करने के बाद विश्वेदेव की पूजा करे । तदनन्तर दक्षिण दिशा में वेदी बनाकर उस पर अग्नि-स्थापन करके कलशस्थित देवता का आवाहन कर क्रम से अर्चन करे। इसके बाद प्रणवपूर्वक व्याहृतियों सहित मूलमन्त्र का उच्चारण करते हुए घृत सहित खीर की पचीस आहुतियाँ दे; तत्पश्चात् हे मुने! व्याहृति- मन्त्रों से हवन करे ॥ ७३–७५ ॥ तदनन्तर गन्ध आदि उपचारों से देवी की पूजा करके उन्हें उस पीठ पर विराजित करे । उसके बाद अग्नि को विसर्जित करके वहाँ होम से अवशिष्ट खीर को बलि-प्रदान के रूप में चारों ओर बिखेर दे ॥ ७६ ॥ प्रधान देवता के पार्षदों को गन्ध-पुष्प आदि से युक्त पंचोपचार अर्पण करके उन्हें ताम्बूल, छत्र तथा चामर समर्पित करे। इसके बाद देवी के मन्त्र का एक हजार जप करे। परमेश्वरी को वह जप समर्पित करके ईशान दिग्भाग में स्थित विकिर के ऊपर कर्करी (करवा ) स्थापित करे और उसके ऊपर भगवती दुर्गा का आवाहन करके उनका पूजन करे। तत्पश्चात् ‘रक्ष- रक्ष’ – इस मन्त्र का उच्चारण करके उस करवे की टोंटी से जल गिराते हुए तथा ‘फट् ‘ मन्त्र का जप करते हुए दाहिनी ओर के मण्डपस्थान को सींचे। इसके बाद कर्करी को अपनी जगह रख दे और अस्त्रदेवता का पूजन करे ॥ ७७-८० ॥ तदनन्तर गुरु मौन होकर शिष्य के साथ भोजन करे और उस रात उसी वेदी पर प्रयत्नपूर्वक शयन करे ॥ ८१ ॥ श्रीनारायणजी बोले — हे मुने ! अब मैं कुण्ड तथा वेदी के विधि-विधान से किये जाने वाले संस्कार का संक्षेप में वर्णन करूँगा ॥ ८२ ॥ सर्वप्रथम मूलमन्त्र का उच्चारण करके कुण्ड अथवा वेदी का निरीक्षण करे, फिर ‘फट्’ इस अस्त्र-मन्त्र से समिधा आदि का प्रोक्षण तथा ताडन करे। इसके बाद ‘हुं’ – इस कवचमन्त्र से अभ्युक्षण करे और फिर उसपर प्रागग्र तथा उदगग्र तीन-तीन रेखाएँ खींचे ॥ ८३-८४ ॥ इसके बाद प्रणवमन्त्र से अभ्युक्षण करके ‘ॐ आधारशक्तये नमः’ से आरम्भ करके पीठमन्त्र ( ॐ अमुकदेवीयोगपीठाय नमः) – तक के मन्त्रों को पढ़कर भगवती के पीठ की पूजा करे ॥ ८५ ॥ तदनन्तर उस पीठ पर जगत् के परम कारण भगवान् शिव और पार्वती का आवाहन करके गन्ध आदि उपचारों से एकाग्रचित्त होकर उनका पूजन करे। उस समय इस प्रकार देवी का ध्यान करे कि देवीं ध्यायेदृतुस्नातां संसक्तां शङ्करेण तु । कामातुरां तयोः क्रीडां किञ्चित्कालं विभावयेत् ॥ ८७ ॥ ‘भगवती पार्वती ऋतुस्नानसे निवृत्त होकर आसक्त भावसे भगवान् शिवके साथ विराजमान हैं। उन दोनोंके परस्पर हासविलासकी क्रीड़ाकी भी कुछ कालतक भावना करनी चाहिये’ ॥ ८६-८७ ॥ तत्पश्चात् एक पात्र में अग्नि लाकर सामने रखे और उसमें से क्रव्यादांश का परित्याग करके पूर्वोक्त वीक्षण आदि क्रियाओं द्वारा अग्नि का संस्कार करके ‘रं’ – इस बीज-मन्त्र का उच्चारण कर उस अग्नि में चैतन्य की भावना करे । पुनः सात बार प्रणव का उच्चारणकर उसे अभिमन्त्रित करे । तत्पश्चात् गुरु अग्नि को धेनुमुद्रा प्रदर्शित करे। इसके बाद ‘फट्’– इस अस्त्रमन्त्र का उच्चारण करके अग्नि को सुरक्षित कर ‘हुं’ — इस कवच-मन्त्र से अवगुण्ठन करे ॥ ८८–९० ॥ तत्पश्चात् श्रेष्ठ पुरुष को चाहिये कि अपने घुटनों को पृथ्वी पर टेककर तारमन्त्र का जप करते हुए भलीभाँति पूजित अग्नि को प्रदक्षिणा क्रम से कुण्ड के ऊपर तीन बार घुमाकर उस अग्नि में शिवबीज की भावना करके उसे देवी की कुण्डरूपा योनि में छोड़ दे। इसके बाद भगवान् शिव और भगवती जगदम्बिका को आचमन कराये ॥ ९१-९२ ॥ ‘चित्पिङ्गल हन हन दह दह पच पच सर्वज्ञाज्ञापय स्वाहा’ यह अग्निदीपन का मन्त्र है । जातवेदा नाम से प्रसिद्ध, तेजोमय, सुवर्ण के समान पीतवर्ण वाले, निर्मल, परम प्रदीप्त तथा सभी ओर मुख वाले हुतभुक् अग्निदेव को मैं प्रणाम करता हूँ । श्रेष्ठ साधक को अत्यन्त आदरपूर्वक इस मन्त्र से उन अग्निदेव की स्तुति करनी चाहिये और इसके बाद वह्निमन्त्र से षडंगन्यास करना चाहिये । ‘सहस्रार्चिषे हृदयाय नमः’, ‘स्वस्तिपूर्णाय शिरसे स्वाहा’, ‘उत्तिष्ठपुरुषाय शिखायै वषट्’, ‘धूमव्यापिने कवचाय हुम्’, ‘सप्तजिह्वाय नेत्रत्रयाय वौषट्’, ‘धनुर्धराय अस्त्राय फट्’ इस प्रकार क्रम से पूर्व स्थानों में षडंगन्यास करे। ये नाम अंगन्यास के समय जातियुक्त अर्थात् नमः स्वाहा, वषट्, हुम्, वौषट् और फट् – इन पदों से युक्त होने चाहिये। इसके बाद अग्नि का इस प्रकार ध्यान करे — ध्यायेद्वह्निं हेमवर्णं त्रिनेत्रं पद्मसंस्थितम् ॥ ९७ ॥ इष्टशक्तिस्वस्तिकाभीर्धारकं मङ्गलं परम् । ये सुवर्णतुल्य वर्ण वाले, तीन नेत्र धारण किये हुए, कमल के आसन पर विराजमान, इष्टशक्ति- स्वस्तिक – अभयमुद्रा धारण किये हुए तथा परम मंगल स्वरूप हैं ॥ ९३–९७१/२ ॥ इसके बाद मन्त्रवित् को चाहिये कि मेखला से ऊपर कुण्ड का सेचन करे और कुशों से परिस्तरण करे । पुनः कुण्ड के चारों ओर परिधियाँ बनाये। अग्निस्थापन के पूर्व त्रिकोण, वृत्त, षट्कोण, अष्टदल कमल और भूपुरसहित यन्त्र लिखे अथवा अग्निस्थापन करके भी उसे लिख ले। हे मुने! उसके मध्य में वह्निमन्त्र से अग्नि की पूजा करे । ‘वैश्वानर जातवेद इहावह लोहिताक्ष सर्वकर्माणि साधय स्वाहा’ — यह अग्निमन्त्र है, इससे अग्नि की पूजा करे । यन्त्र के मध्य में तथा छः कोणों में हिरण्या, गगना, रक्ता, कृष्णा, सुप्रभा, बहुरूपा और अतिरक्तिका — इन सात जिह्वाओं की पूजा करे। केसरों में अंगपूजन करना चाहिये और दलों में शक्ति तथा स्वस्तिक धारण करने वाली मूर्तियों का पूजन करना चाहिये । जातवेदा, सप्तजिह्व, हव्यवाहन, अश्वोदरज, वैश्वानर, कौमारतेज, विश्वमुख और देवमुख — ये अग्नियाँ कही गयी हैं । इन अग्नि नामों के आदि में ‘ॐ अग्नये’ तथा अन्त में ‘नमः’ पद लगाकर यथा ‘ॐ अग्नये जातवेदसे नमः ‘ इत्यादि के द्वारा पूजन का विधान है। इसके बाद चारों दिशाओं में वज्र आदि आयुध धारण करने वाले लोकपालों का पूजन करे ॥ ९८–१०६ ॥ श्रीनारायण बोले — [ हे मुने!] तत्पश्चात् स्रुक्, स्रुवा और घृत का संस्कार करके स्रुवा से घी लेकर अग्नि में हवन करना चाहिये । हे मुनिश्रेष्ठ ! दक्षिण भाग से घृत उठाकर ‘ॐ अग्नये स्वाहा’ – ऐसा उच्चारण करके अग्नि के दक्षिण नेत्र में हवन करे । इसी प्रकार वामभाग से घृत उठाकर ‘ॐ सोमाय स्वाहा’– ऐसा बोलकर बायें नेत्र में तथा मध्यभाग से घृत लेकर ‘ॐ अग्नीषोमाभ्यां स्वाहा’ – ऐसा उच्चारण करके अग्नि के मध्य नेत्र में हवन करे ॥ १०७-१०९ ॥ तत्पश्चात् दक्षिणभाग से पुनः घृत लेकर ‘ॐ अग्नये स्विष्टकृते स्वाहा’ – इस मन्त्र से अग्नि के मुख में आहुति डाले ॥ ११० ॥ तदनन्तर साधक पुरुष प्रणवयुक्त व्याहृतियों के द्वारा हवन करे; पुनः अग्निमन्त्र से तीन बार आहुति प्रदान करे ॥ १११ ॥ हे मुने! तदनन्तर प्रणवमन्त्र से गर्भाधान आदि संस्कारों के निमित्त घृत की आठ-आठ आहुतियाँ देनी चाहिये। गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूडाकरण, व्रतबन्ध, महानाम्न्यव्रत, औपनिषद – व्रत, गोदान ( केशान्तसंस्कार) और उद्वाहक (विवाह) — ये वेदप्रतिपादित संस्कार बताये गये हैं। तत्पश्चात् शिव और पार्वती की पूजा करके उनका विसर्जन करना चाहिये ॥ ११२–११५ ॥ इसके बाद साधक को चाहिये कि अग्नि को उद्देश्य करके पाँच समिधाओं का हवन करे, फिर आवरण- देवताओं के निमित्त भी एक-एक आहुति प्रदान करे ॥ ११६ ॥ हे मुने ! तत्पश्चात् स्रुक् में घृत रखकर उसे ढँक दे, पुनः अपने आसन पर बैठे हुए ही स्रुवा के द्वारा उसी घृत से अग्निमन्त्र के साथ वौषट् लगाकर चार बार आहुति प्रदान करे। इसके बाद महागणेश मन्त्र से दस आहुतियाँ प्रदान करे ॥ ११७-११८ ॥ तत्पश्चात् देयमन्त्र के देवता के पीठासन की अग्नि में पूजा करके उसी अग्नि में उनका ध्यान करके उनके मुख के एकीकरण के निमित्त मुख में मूलमन्त्र से पचीस आहुतियाँ देनी चाहिये । इसके बाद अग्नि तथा देयमन्त्र के देवता के ऐक्य की भावना करते हुए अपने साथ इनके एकीभूत होने की कल्पना करनी चाहिये । तत्पश्चात् श्रेष्ठ साधक को चाहिये कि छः अंग वाले देवताओं को पृथक्-पृथक् आहुतियाँ प्रदान करे ॥ ११९–१२१ ॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! अग्निदेव और देयमन्त्र के देवता की नाड़ियों के एकीकरण के निमित्त ग्यारह आहुतियाँ देनी चाहिये । हे मुने! एक देवता के उद्देश्य से एक आहुति होनी चाहिये, इस प्रकार आवृत्तिपूर्वक घृत से क्रमश: एक-एक आहुति प्रदान करनी चाहिये ॥ १२२-१२३ ॥ इसके बाद कल्पोक्त द्रव्यों अथवा तिलों से देवता के मूलमन्त्र का उच्चारण करते हुए एक हजार आठ आहुतियाँ प्रदान करे ॥ १२४ ॥ हे मुने! इस प्रकार आहुति देने के पश्चात् यह भावना करे कि भगवती अब पूर्णरूप से प्रसन्न हो गयी हैं । उसी तरह इस आवृत्ति से देवी, अग्नि तथा देयमन्त्र के देवता भी प्रसन्न हो गये हैं ॥ १२५ ॥ तत्पश्चात् भलीभाँति स्नान किये हुए, संध्या आदि क्रियाओं से निवृत्त, दो वस्त्र धारण किये हुए, स्वर्ण के आभूषण से अलंकृत तथा हाथ में कमण्डलु धारण किये पवित्र शिष्य को आचार्य कुण्ड के पास ले आये और शिष्य वहाँ आकर गुरुजनों को तथा सभासदों को नमस्कार करने के अनन्तर कुलदेव को नमस्कार करके कुशासन पर बैठ जाय। इसके बाद गुरु उस शिष्य को कृपादृष्टि से देखे और अपने शरीर के अन्दर उस शिष्य के चैतन्य की समाविष्ट होने की भावना करे। तत्पश्चात् विद्वान् गुरु को चाहिये कि अपनी दिव्य दृष्टि के अवलोकनस्वरूप होम द्वारा शिष्य के शरीर में स्थित अध्वों का शोधन करे, जिससे शुद्ध आत्मा वाला वह शिष्य देवता आदि के अनुग्रह के योग्य हो जाय ॥ १२६–१३० ॥ श्रीनारायण बोले — [ हे मुने!] गुरु शिष्य के शरीर में क्रम से छः अध्वों का चिन्तन करे। दोनों पैरों में कलाध्व का, लिंग में तत्त्वाध्व का, नाभि में भुवनाध्व का, हृदय में वर्णाध्व का, ललाट में पदाध्व का तथा मस्तक में मन्त्राध्व का चिन्तन करना चाहिये ॥ १३१-१३२ ॥ गुरु को चाहिये कि कूर्च से शिष्य को स्पर्श करते हुए ‘ॐ अमुमध्वानं शोधयामि स्वाहा’ इस मन्त्र का उच्चारण करते हुए घृतमिश्रित तिलों से प्रत्येक अध्व के निमित्त आठ बार आहुति प्रदान करे । तत्पश्चात् उन छहों अध्वों के ब्रह्म में लीन हो जाने की भावना करे ॥ १३३-१३४ ॥ इसके बाद गुरु ब्रह्म में लीन उन अध्वों (मार्गों)- को पुनः सृष्टिमार्ग से उत्पन्न करने की भावना करें और अपने शरीर में स्थित उस चैतन्य को पुनः शिष्य में नियोजित करें ॥ १३५ ॥ तत्पश्चात् पूर्णाहुति प्रदान करके आवाहित देवता को कलश में प्रतिष्ठित करे और इसके बाद व्याहृतियों का उच्चारण करके अग्नि के अंगों के निमित्त आहुतियाँ दे। गुरु को चाहिये कि एक-एक देवता के लिये एक-एक आहुति देकर अपनी आत्मा में अग्नि का विसर्जन कर दे। तत्पश्चात् गुरु ‘ वौषट् ‘ इस नेत्रमन्त्र का उच्चारण करके वस्त्र से शिष्य के दोनों नेत्रों को बाँध दे और फिर उस शिष्य को कुण्ड-स्थल से मण्डल में ले जाय। इसके बाद शिष्य के हाथ से प्रधान देवी के लिये पुष्पांजलि अर्पित कराये ॥ १३६–१३८ ॥ तदनन्तर नेत्रों का आवरण हटाकर शिष्य को कुश के आसन पर बैठा दे और पूर्वोक्त रीति से शिष्य की देह में भूतशुद्धि करे ॥ १३९ ॥ शिष्य के शरीर में मन्त्रोक्त न्यास करने के पश्चात् शिष्य को दूसरे मण्डल में बैठाये । तत्पश्चात् कलश पर स्थित पल्लवों को शिष्य के सिर पर रखे और मातृका-जप करे। इसके बाद कलश में स्थित देवमय जल से शिष्य को स्नान कराये । स्नान के पश्चात् शिष्य की रक्षा के लिये वर्धनीसंज्ञक कलश के जल से भलीभाँति अभिषेक करे। इसके बाद शिष्य उठकर दो शुद्ध वस्त्र धारण करे और भस्म आदि लगाकर गुरु के समीप बैठ जाय । तत्पश्चात् करुणानिधान गुरुदेव यह भावना करें कि भगवती शिवा उनके हृदय से निकलकर अब शिष्य के हृदय में प्रविष्ट हो गयी हैं। अतः शिष्य तथा देवी उन दोनों में तादात्म्य की भावना करते हुए वे गन्ध-पुष्प आदि से शिष्य का पूजन करें ॥ १४०-१४४ ॥ तत्पश्चात् गुरु अपना दाहिना हाथ शिष्य के सिर पर रखते हुए उसके दाहिने कान में महाभगवती के महामन्त्र का तीस बार उपदेश करें । हे मुने ! इसके बाद शिष्य उस मन्त्र का एक सौ आठ बार जप करे । पुनः पृथ्वी पर दण्ड की भाँति गिरकर उन देवतास्वरूप गुरु को प्रणाम करे ॥ १४५-१४६ ॥ इसके बाद शिष्य जीवनभर के लिये गुरु के प्रति अनन्य बुद्धि वाला होकर गुरु के प्रति एकनिष्ठ भाव से अपना सर्वस्व उन्हें अर्पण कर दे । तदनन्तर ऋत्विजों को दक्षिणा देकर ब्राह्मणों, सौभाग्यवती स्त्रियों, कन्याओं और बटुकों को भलीभाँति भोजन कराये। साथ ही धन की कृपणता से रहित होकर दीनों, अनाथों तथा दरिद्रों को सन्तुष्ट करे । अपने को कृतार्थ समझकर मन्त्र की नित्य उपासना करे । इस प्रकार दीक्षा की यह उत्तम विधि मैंने आपको बतला दी ॥ १४७–१४९ ॥ इस विषय में पूर्णरूप से विचार करके अब आप देवी के चरण-कमल का सेवन कीजिये । ब्राह्मण के लिये इसके अतिरिक्त कोई श्रेष्ठ धर्म नहीं है ॥ १५० ॥ वैदिक पुरुष अपने-अपने गृह्यसूत्र में कहे गये नियम के अनुसार तथा तान्त्रिक पुरुष तन्त्र-पद्धति के अनुसार मन्त्र का उपदेश करें; यही सनातन नियम है। जिनके लिये जो-जो प्रयोग बताये गये हैं, उन्हें उसी का उपयोग करना चाहिये; दूसरे नियमों का नहीं ॥ १५११/२ ॥ श्रीनारायण बोले — हे नारद! आपने जो पूछा था, वह सब मैंने बता दिया। अब आप पराम्बा भगवती के पदारविन्द की नित्य उपासना कीजिये। मैं भी उसी चरणकमल की नित्य आराधना करके परम शान्ति को प्राप्त हुआ हूँ ॥ १५२-१५१/२ ॥ व्यासजी बोले — हे राजन् ! इस प्रकार यह सम्पूर्ण उत्तम प्रसंग नारदजी से कहकर श्रेष्ठ मुनियों के भी शिरोमणि भगवान् नारायण अपने नेत्र बन्द करके समाधिस्थ होकर भगवती के चरण- कमल का ध्यान करने लगे । नारदजी ने भी उन परम गुरु भगवान् नारायण को प्रणाम करके भगवती के दर्शन की लालसा से तपस्या करने के लिये उसी क्षण प्रस्थान कर दिया ॥ १५४-१५५ ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत बारहवें स्कन्ध का ‘मन्त्रदीक्षाविधिवर्णन’ नामक सातवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ७ ॥ Content is available only for registered users. 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