April 6, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-तृतीयः स्कन्धः-अध्याय-01 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ पूर्वार्द्ध-तृतीयः स्कन्धः-प्रथमोऽध्यायः पहला अध्याय राजा जनमेजय का ब्रह्माण्डोत्पत्ति विषयक प्रश्न तथा इसके उत्तर में व्यासजी का पूर्वकाल में नारदजी के साथ हुआ संवाद सुनाना भुवनेश्वरीवर्णनम् जनमेजय बोले — हे भगवन्! आपने महान् अम्बा-यज्ञ के विषय में कहा है । वे अम्बा कौन हैं, वे कैसे, कहाँ और किसलिये उत्पन्न हुई हैं और वे कौन – कौनसे गुणों वाली हैं ? ॥ १ ॥ उनका यह यज्ञ कैसा है और उसका क्या स्वरूप है ? हे दयानिधान ! आप सब कुछ जानने वाले हैं; उस यज्ञ का विधान सम्यक् रूप से बताइये ॥ २ ॥ हे ब्रह्मन् ! आप विस्तारपूर्वक ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति का भी वर्णन कीजिये। हे भूसुर ! इस विषय में अन्य ज्ञानियों ने जैसा कहा है, वह सब कुछ भी आप भली-भाँति जानते हैं ॥ ३ ॥ मैंने ब्रह्मा, विष्णु और महेश — इन तीनों देवताओं के विषय में सुना है कि ये सगुण रूप में सम्पूर्ण जगत् का सृजन, पालन एवं संहार करते हैं ॥ ४ ॥ हे पराशरसुत व्यासजी! वे तीनों देवश्रेष्ठ स्वाधीन हैं अथवा पराधीन; आप मुझे बताइये, मैं इस समय सुनना चाहता हूँ ॥ ५ ॥ वे सच्चिदानन्दस्वरूप देवगण मरणधर्मा हैं अथवा नहीं; और वे आधिभौतिक, आधिदैविक तथा आध्यात्मिक — इन तीन प्रकार के दुःखों से युक्त हैं अथवा नहीं ? ॥ ६ ॥ वे तीनों महाबली देवेश काल के वशवर्ती हैं अथवा नहीं; और वे कैसे तथा किससे आविर्भूत हुए, मेरी यह भी एक शंका है ॥ ७ ॥ हे मुने! क्या वे हर्ष, शोक आदि द्वन्द्वों से युक्त हैं, क्या वे निद्रा एवं प्रमाद आदि से प्रभावित हैं तथा क्या उनके शरीर सप्त धातुओं (अन्नरस, रुधिर, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा, वीर्य ) – से निर्मित हैं अथवा नहीं? ॥ ८ ॥ वे किन द्रव्यों से निर्मित हैं, वे किन-किन गुण को धारण करते हैं, उनमें कौन-कौन-सी इन्द्रियाँ अवस्थित हैं, उनका भोग कैसा होता है तथा उनकी आयु का परिमाण क्या है ? ॥ ९ ॥ इनके निवास-स्थान एवं विभूतियों के भी विषय में मुझको बतलाइये । हे ब्रह्मन् ! इस कथा को विस्तारपूर्वक सुनने की मेरी अभिलाषा है ॥ १० ॥ व्यासजी बोले — हे महामति राजन् ! ब्रह्मादि देवों की उत्पत्ति किससे हुई, इस समय आपने यह बड़ा दुर्गम प्रश्न किया है ॥ ११ ॥ हे राजन्! पूर्व में मैंने यही प्रश्न देवर्षि नारदजी से पूछा था । तब विस्मित होकर वे उठ खड़े हुए और उन्होंने जो उत्तर दिया था, उसे आप सुनें ॥ १२ ॥ किसी समय मैंने शान्त, सर्ववेत्ता तथा वेद- विद्वानों में श्रेष्ठ नारदमुनि को गंगा के किनारे विद्यमान देखा ॥ १३ ॥ मुनि को देखकर तथा प्रसन्न होकर मैं उनके चरणों पर गिर पड़ा। तदनन्तर उनके द्वारा आज्ञा देने पर मैं उनके पास में ही एक सुन्दर आसन पर बैठ गया ॥ १४ ॥ कुशल-क्षेम की वार्ता सुन करके सूक्ष्म बालू वाले गंगा-तट के निर्जन स्थान पर बैठे हुए बह्मापुत्र देवर्षि नारद से मैंने पूछा — ॥ १५ ॥ हे महामति मुनिदेव ! इस अति विस्तीर्ण ब्रह्माण्ड का प्रधान कर्ता कौन कहा गया है ? उसे आप मुझे सम्यक् रूप से बताइये ॥ १६ ॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! इस ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति किससे हुई है ? हे विप्रवर! आप मुझे यह भी बताइये कि यह ब्रह्माण्ड नित्य है अथवा अनित्य ? ॥ १७ ॥ यह ब्रह्माण्ड किसी एक के द्वारा विरचित है अथवा अनेक कर्ताओं द्वारा मिलकर इसका निर्माण किया गया है ? किसी कर्ता के बिना कार्य की सत्ता सम्भव नहीं है । इस विषय में मुझे अत्यन्त सन्देह हो रहा है ॥ १८ ॥ इस प्रकार इस विस्तृत ब्रह्माण्ड के विषय में विविध कल्पना करते हुए तथा सन्देह-सागर में डूबते हुए मुझ दुःखी का आप उद्धार कीजिये ॥ १९ ॥ कुछ लोग सदाशिव, महादेव, प्रलय तथा उत्पत्ति से रहित, आत्माराम, देवेश, त्रिगुणात्मक, निर्मल, हर, संसार से उद्धार करने वाले, नित्य तथा सृष्टि- पालन-संहार करने वाले भगवान् शंकर को ही मूल कारण मानकर उन्हें ही इस ब्रह्माण्ड का रचयिता कहते हैं ॥ २०-२१ ॥ दूसरे लोग श्रीहरि विष्णु को सबका प्रभु, ईश्वर, परमात्मा, अव्यक्त, सर्वशक्तिसम्पन्न, भोग तथा मोक्षप्रदाता, शान्त, सबका आदि, सर्वतोमुख, व्यापक, समग्र संसारको शरण देने वाला तथा आदि-अन्त से रहित जानकर उन्हीं का स्तवन करते हैं ॥ २२-२३ ॥ अन्य लोग ब्रह्माजी को सृष्टि का कारण, सर्वज्ञ, सभी प्राणियों का प्रवर्तक, चार मुखों वाला, सुरपति, विष्णु के नाभिकमल से प्रादुर्भूत, सर्वव्यापी, सभी लोकों की रचना करनेवाला तथा सत्यलोक में निवास करने वाला बताते हैं ॥ २४-२५ ॥ कुछ वेदवेत्ता विद्वान् सर्वेश्वर भगवान् सूर्य को ब्रह्माण्डकर्ता मानते हैं और सावधान होकर सायं- प्रातः उन्हीं की स्तुति करते हैं तथा उन्हीं का यशोगान करते हैं ॥ २६ ॥ यज्ञ में निष्ठाभाव रखनेवाले लोग धनप्रदाता, शतक्रतु, सहस्राक्ष, देवाधिदेव, सबके स्वामी, बलशाली, यज्ञाधीश, सुरपति, त्रिलोकेश, यज्ञों का भोग करने वाले, सोमपान करने वाले तथा सोमपायी लोगों के प्रिय शचीपति इन्द्र को [सर्वश्रेष्ठ मानकर ] यज्ञों में उन्हीं का यजन करते हैं ॥ २७-२८ ॥ कुछ लोग वरुण, सोम, अग्नि, पवन, यमराज, धनपति कुबेर की तथा कुछ लोग हेरम्ब, गजमुख, सर्वकार्यसाधक, स्मरणमात्र से सिद्धि प्रदान करने वाले, कामस्वरूप, कामनाओं को प्रदान करने वाले, स्वेच्छ विचरण करने वाले, परम देव गणाधीश गणेश की स्तुति करते हैं ॥ २९-३० ॥ कुछ आचार्य भवानी को ही सब कुछ देने वाली, आदिमाया, महाशक्ति तथा पुरुषानुगामिनी परा प्रकृति कहते हैं। वे उनको ब्रह्मस्वरूपा, सृजन – पालन – संहार करने वाली, सभी प्राणियों एवं देवताओं की जननी, आदि-अन्तरहित, पूर्णा, सभी जीवों में व्याप्त, सभी लोकों की स्वामिनी, निर्गुणा, सगुणा तथा कल्याणस्वरूपा मानते हैं ॥ ३१–३३ ॥ फल की आकांक्षा रखने वाले उन भवानी का वैष्णवी, शांकरी, ब्राह्मी, वासवी, वारुणी, वाराही, नारसिंही, महालक्ष्मी, विचित्ररूपा, वेदमाता, एकेश्वरी, विद्यास्वरूपा, संसाररूपी वृक्ष की स्थिरता की कारणरूपा, सभी कष्टों का नाश करनेवा ली और स्मरण करते ही सभी कामनाओं को पूर्ण करने वाली, मुक्ति चाहने- वालों के लिये मोक्षदायिनी, फल की अभिलाषा रखने वालों के लिये कामप्रदायिनी, त्रिगुणातीतस्वरूपा, गुणों का विस्तार करने वाली, निर्गुणा- सगुणा- रूप में ध्यान करते हैं ॥ ३४-३६१/२ ॥ कुछ मुनीश्वर निरंजन, निराकार, निर्लिप्त, गुणरहित, रूपरहित तथा सर्वव्यापक ब्रह्म को जगत् का कर्ता बतलाते हैं । वेदों तथा उपनिषदों में कहीं-कहीं उसे अनन्त सिर, नेत्र, हाथ, कान, मुख और चरण से युक्त तेजोमय विराट् पुरुष कहा गया है ॥ ३७–३९ ॥ कुछ मनीषीगण आकाश को विष्णु के परम पाद के रूप में मानते हैं और उन्हें विराट्, निरंजन तथा शान्तस्वरूप कहते हैं ॥ ४० ॥ कुछ तत्त्वज्ञानी पुराणवेत्ता पुरुषोत्तम को सृष्टि का निर्माता कहते हैं। कुछ लोग कहते हैं कि इस अनन्त ब्रह्माण्ड की रचना में केवल एक ईश्वर कदापि समर्थ नहीं हो सकता है ॥ ४१ ॥ कुछ लोग कहते हैं कि यह जगत् अचिन्त्य है, अतः यह ईश्वररचित कदापि नहीं हो सकता; उनके मत में सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड ईश्वररहित । ‘यह जगत् सदा से ही ईश्वरीय सत्ता से रहित रहा है और यह स्वभाव से उत्पन्न होता है तथा सदा से ऐसा ही है । यह पुरुष तो कर्तृत्वभाव से रहित कहा गया है और वह प्रकृति ही सर्वसंचालिका है’ – कपिल आदि सांख्यशास्त्र के आचार्य ऐसा ही कहते हैं ॥ ४२-४३१/२ ॥ हे मुनिनाथ ! मेरे मन में ये तथा अन्य प्रका रके और भी सन्देहपुंज उत्पन्न होते रहते हैं। नाना प्रकार की कल्पनाओं से उद्विग्न मन वाला मैं क्या करूँ ? धर्म तथा अधर्म के विषय में मेरा मन स्थिर नहीं हो पाता है ॥ ४४-४५ ॥ क्या धर्म है और क्या अधर्म है; इसका कोई स्पष्ट लक्षण प्राप्त नहीं होता है । लोग कहते हैं कि देवता सत्त्वगुण से उत्पन्न हुए हैं और वे सत्यधर्म में स्थित रहते हैं फिर भी वे देवगण पापाचारी दानवों द्वारा प्रताड़ित किये जाते हैं, तो फिर धर्म की व्यवस्था कहाँ रह गयी ? धर्मनिष्ठ और सदाचारी मेरे वंशज पाण्डव भी नाना प्रकार के कष्ट सहने को विवश हुए, ऐसी स्थिति में धर्म की क्या मर्यादा रह गयी ? अतः हे तात! इस संशय में पड़ा हुआ मेरा मन अतीव चंचल रहता है ॥ ४६–४८ ॥ हे महामुने! आप सर्वसमर्थ हैं, अतः मेरे हृदय को संशयमुक्त कीजिये | हे मुने! संसार – सागर के मोह से दूषित जल में गिरे हुए तथा बार-बार डूबते- उतराते मुझ अज्ञानी की अपने ज्ञानरूपी जहाज से रक्षा कीजिये ॥ ४९-५० ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत तृतीय स्कन्ध का ‘भुवनेश्वरीवर्णनं’ नामक पहला अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १ ॥ Content is available only for registered users. 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