श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-तृतीयः स्कन्धः-अध्याय-11
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
पूर्वार्द्ध-तृतीयः स्कन्धः-एकादशोऽध्यायः
ग्यारहवाँ अध्याय
सत्यव्रत द्वारा बिन्दुहित सारस्वत बीजमन्त्र ‘ऐ-ऐ’ का उच्चारण तथा उससे प्रसन्‍न होकर भगवती का सत्यव्रत को समस्त विद्याएँ प्रदान करना
सत्यव्रताख्यानवर्णनम्

लोमश बोले — [हे जमदग्ने!] वह उतथ्य वेदाध्ययन, जप, ध्यान तथा देवताओं की आराधना आदि कुछ भी नहीं जानता था। वह ब्राह्मण आसन, प्राणायाम तथा प्रत्याहार भी नहीं जानता था। वह भूतशुद्धि तथा कारण के विषय में भी कुछ नहीं जानता था। वह कौलक मन्त्र, जप, गायत्री नहीं जानता था। उसे सम्यक्‌ रूप से शौच, स्नान-विधि तथा आचमन तक का ज्ञान नहीं था। वह ब्राह्मण प्राणाग्निहोत्र, वैश्वदेव, अतिथि-सत्कार, सन्ध्या-वन्दन, समिधा तथा होम आदि के विषय में भी नहीं जानता था ॥ १-४ ॥ प्रातःकाल उठकर वह किसी तरह सामान्य रूपसे दन्‍तधावन कर लेता था, तत्पश्चात्‌ शूद्र की भाँति बिना मन्त्र बोले ही गंगा में स्नान कर लिया करता था। दोपहर के समय वह अपनी इच्छा से वन्य ‘फल लाकर उन्हें खा लिया करता था। उस मूर्ख को भक्ष्य तथा अभक्ष्य का भी ज्ञान नहीं था ॥ ५-६ ॥

वहाँ निवास करता हुआ वह ब्राह्मण सदैव सत्यभाषण करता था और झूठ कभी नहीं बोलता था। [उसकी इस सत्यनिष्ठा से प्रभावित होकर] लोगों ने इस ब्राह्मण का नाम ‘सत्यतपा’ रख दिया ॥ ७ ॥ वह न तो कभी किसी का अहित करता था और न अविहित कार्य ही करता था। वह यही सोचता हुआ निडर होकर उस कुटी में सोता था कि मेरी मृत्यु कब होगी ? मैं इस वन में दुःखपूर्वक जी रहा हूँ। मुझ मूर्ख के जीवन को धिक्कार है, अतः अब मेरा शीघ्र मर जाना ही उत्तम है ॥ ८-९ ॥ दैव ने ही मुझे मूर्ख बनाया है, इसके अतिरिक्त कोई अन्य कारण मुझे जान नहीं पड़ता। उत्तम कुल में जन्म-ग्रहण करके भी मैंने अपना जीवन व्यर्थ गँवा दिया ॥ १० ॥ जैसे रूपसम्पन्न वन्ध्या स्त्री, फलरहित वृक्ष तथा दूध न देने वाली गाय — ये सब निरर्थक होते हैं, उसी प्रकार मैं भी निष्फल कर दिया गया हूँ ॥ ११ ॥

मैं दैव को दोष क्‍यों दूँ? निश्चित रूप से मेरा कर्म ही ऐसा था। मैंने पुस्तक लिखकर उसे किसी महात्मा ब्राह्मण को दान नहीं दिया। मैंने पूर्वजन्म में उत्तम विद्या का भी दान नहीं किया, इसीलिये प्रारब्धवश इस जन्म में मूर्ख और अधम ब्राह्मण हुआ हूँ। मैंने किसी तीर्थ में तप नहीं किया और न साधुओं की सेवा ही की । धन-दान से मैंने ब्राह्मणों की पूजा भी नहीं की। इसी कारण मैं ऐसा दुर्बुद्धि हुआ ॥ १२-१४ ॥ [मेरे साथ के] बहुत-से मुनिकुमार वेदशास्त्र में पारंगत हो गये, किंतु मैं न जाने किस दुर्विपाक से महामूर्ख रह गया ॥ १५ ॥ मैं तप करना भी नहीं जानता, तब कौन-सी साधना करूँ ? अब तो मेरा यह सब सोचना भी व्यर्थ है; क्‍योंकि मेरा भाग्य ही अच्छा नहीं है ॥ १६ ॥ मैं भाग्य को ही सर्वोपरि मानता हूँ। निरर्थक पुरुषार्थ को धिक्कार है; क्‍योंकि परिश्रम से किया गया कार्य भी प्रारब्धवश सर्वथा विफल हो जाता है ॥ १७ ॥

ब्रह्मा, विष्णु शिव तथा इन्द्र आदि सभी देवता भी काल के वश में रहते हैं। इसलिये काल सर्वथा अजेय है ॥ १८ ॥ दिन-रात इस प्रका रके अनेक तर्क-वितर्क करता हुआ वह द्विज गंगा के तट पर स्थित उस पावन आश्रम में रहता था ॥ १९ ॥ अब वह ब्राह्मण सर्वथा विरक्त हो गया और उस निर्जन वन में स्थित आश्रम में रहता हुआ शान्तचित्त होकर समय बिताने लगा ॥ २० ॥ इस प्रकार निर्मल जल वाले उस वन में रहते हुए उस ब्राह्मण के चौदह वर्ष बीत गये; पर उसने न कोई जप किया, न आराधना की और न कोई मन्त्र ही वह जान सका, केवल उसने वन में रहकर कालक्षेप ही किया ॥ २१ ॥ वहाँ के लोग केवल उसके इस प्रसिद्ध व्रत को जानते थे कि यह मुनि सदा सत्य बोलता है। अतः सब लोगों में उसका यह सुयश फैल गया कि यह सदा सत्यव्रती है और मिथ्याभाषी नहीं ॥ २२ ॥  एक दिन आखेट करता हुआ एक महान मूर्ख निषाद हाथों में धनुष-बाण लिये हुए उसी गहन वन में आ पहुँचा। यमराज के समान शरीर तथा भीषण आकृति वाला वह निषाद आखेट करते समय वधकार्य में बड़ा ही कुशल जान पड़ता था ॥ २३ ॥

उस धनुर्धारी किरात ने एक सूअर को लक्ष्य करके बड़े जोर से खींचकर बाण चलाया। तब बाण से बिंधा हुआ वह सूअर भयभीत होकर भागता हुआ उस मुनि के समीप जा पहुँचा ॥ २४ ॥ जब वह सूअर आश्रम-परिधि में पहुँचा तो भय से काँप रहा था और उसका शरीर रक्त से लथपथ था। उस बेचारे को इस दशा में देखकर उस समय सत्यव्रतमुनि अत्यन्त दयाद्रचित्त हो गये। रक्त से सराबोर शरीर वाले उस आहत सूअर को अपने आगे से जाते देखकर दया के अतिरेक से काँपते हुए मुनि ने बिन्दुरहित सारस्वत बीजमन्त्र ‘ऐ-ऐ’ का उच्चारण किया ॥ २५-२६ ॥ उन्हें इसके पूर्व न तो इस मन्त्र का ज्ञान था और न उन्होंने कभी इसे सुना ही था; दैवयोग से ही उनके मुख से यह मन्त्र निकल पड़ा। अब भी उन विमूढ़ को नहीं मालूम था कि यह सारस्वत बीजमन्त्र है। वे महात्मा सत्यव्रत मुनि तो उस घायल सूअर के शोक में डूबे हुए थे ॥ २७ ॥ इसी बीच बाण की पीड़ा के कारण अत्यन्त सन्तप्तचित्त तथा काँपते हुए शरीर वाला वह सूअर कोई दूसरा मार्ग न पाकर सत्यव्रत के आश्रममण्डल में प्रविष्ट होकर कहीं झाड़ी में छिप गया ॥ २८ ॥

थोड़ी देर बाद कान तक खींचे धनुष को धारण किये हुए दूसरे काल के समान विकराल देह वाला वह निषादराज भी उस सूअर को खोजता हुआ मुनि के निकट आ पहुँचा ॥ २९ ॥ वहाँ कुशासन पर बैठे हुए अद्वितीय सत्यव्रत मुनि को देखकर वह व्याध प्रणाम करके उनके सामने खड़ा हो गया और पूछने लगा — हे द्विजराज) वह सूअर कहाँ गया ?॥ ३० ॥ मैं आपके सत्यभाषणके प्रसिद्ध व्रत को जानता हूँ इसीलिये पूछता हूँ कि मेरे बाण से घायल हुआ वह सूअर किधर गया ? मेरा सारा परिवार भूख से पीड़ित है। मैं उनकी क्षुधा-शान्ति की इच्छा से ही यहाँ आया हूँ ॥ ३१ ॥ हे विप्रेन्द्र! विधाता ने मेरी यही जीविका निर्धारित की है। इसके अतिरिक्त मेरा दूसरा कोई साधन नहीं है, यह मैं सत्य कहता हूँ। अच्छे-बुरे किसी भी उपाय से अपने परिवार का पालन-पोषण तो निश्चितरूप से करना ही चाहिये ॥ ३२ ॥ आप सत्यव्रत हैं, अतः मुझे अब सच-सच बता दीजिये। मेरा सारा कुटुम्ब भूख से व्याकुल है। अतः है विप्र! मैं आपसे पुनः पूछ रहा हूँ कि मेरे बाण से घायल वह सूअर किधर गया है? आप मुझे शीघ्र बता दें ॥ ३३ ॥

उस व्याध के इस प्रकार बार-बार पूछने पर महात्मा सत्यव्रतमुनि बड़े असमंजस में पड़ गये और मन में सोचने लगे कि अब मैं क्‍या करूँ ? जिससे मेरा सत्यव्रत नष्ट न हो और मुझे यह भी न कहना पड़े कि ‘मैंने उसे नहीं देखा है’ ॥ ३४ ॥ “तुम्हारे बाण से घायल वह सूअर भाग गया।’ यह मिथ्या मैं कैसे कहूँ ? और यदि इसे सच बता देता हूँ तो यह क्षुधा से आतुर होकर बार-बार सूअर को पूछ रहा है, अतः उसे खोजकर अवश्य ही मार डालेगा ॥ ३५ ॥ वह सत्य वास्तविक सत्य नहीं है जिससे किसी जीव की हिंसा होती हो तथा वह असत्य भी सत्य ही है, जो दया से युक्त हो। जिसके द्वारा प्राणियों का कल्याण हो, वही सत्य है और जो इसके विपरीत है, वह असत्य है ॥ ३६ ॥ इन परस्पर विरोधी प्रसंगों में मेरा हित कैसे हो ! मैं क्‍या उत्तर दूँ. जिससे मेरी बात झूठी न हो ।

[लोमशमुनि ने कहा ] — हे ब्राह्मण! ऐसा विचार करते हुए वे सत्यव्रत मुनि धर्मसंकट में पड़ गये और व्याध कों यथोचित उत्तर नहीं दे सके ॥ ३७ ॥ बाण से आहत सूअर को देखकर मुनि सत्यव्रत  के द्वारा जो करुणायुक्त ‘ऐ-ऐ’ शब्द उच्चरित हो गया था; उस अपने बीजमन्त्र से प्रसन्‍न होकर भगवती शिवा ने उन्हें दुर्लभ विद्या दे दी ॥ ३८ ॥ देवी के बीजमन्त्र का उच्चारण करते ही मुनि सत्यव्रत के हृदय में समस्त विद्याएँ प्रस्फुटित हो गयीं और वे उसी प्रकार कवि हो गये, जिस प्रकार पूर्वकाल में महर्षि वाल्मीकि ॥ ३९ ॥ तत्पश्चात्‌ सत्यकाम, धर्मात्मा तथा दयालु ब्राह्मण सत्यव्रत ने अपने सामने खड़े उस धनुर्धारी व्याध से एक श्लोक इस प्रकार कहा —

या पश्यति न सा ब्रूते या ब्रूते सा न पश्यति ।
अहो व्याध स्वकार्यार्थिन् किं पृच्छसि पुनः पुनः ॥ ४१ ॥

जो (आँख) देखती है, वह बोलती नहीं है और जो (वाणी) बोलती है, वह देखती नहीं। अतः अपने ही प्रयोजन की सिद्धि में तत्पर हे व्याध! तुम बार-बार क्यों पूछ रहे हो ?॥ ४०-४१ ॥

उस मुनि के ऐसा कहने पर पशुओं का वध करने वाला वह व्याध उस सूअर से निराश होकर अपने घर लौट गया ॥ ४२ ॥ इस प्रकार वे सत्यव्रत नामक ब्राह्मण दूसरे वाल्मीकि के समान कवि हों गये और समस्त लोकों में प्रख्यात हो गये ॥ ४३ ॥ तत्पश्चात्‌ उन सत्यव्रत  ब्राह्मण ने सारस्वत बीजमन्त्र का विधिपूर्वक जप किया और वे पृथ्वीतल पर पण्डित के रूप में अत्यधिक विख्यात हो गये ॥ ४४ ॥ अब ब्राह्मण लोग प्रत्येक पर्व पर उनका यशोगान करने लगे और मुनिगण उनके विस्तृत आख्यान की निरन्तर प्रशंसा करने लगे ॥ ४५ ॥ उनका महान्‌ यश सुनकर उनके परिवार के वे ही लोग, जिन्होंने उन्हें पहले त्याग दिया था, उनके आश्रम में आकर विशेष आदर-सम्मान के साथ उन्हें घर ले गये ॥ ४६ ॥

अतः हे राजन्‌! उन आदिशक्ति तथा जगत्‌ की कारणस्वरूपा परादेवी की सदा भक्तिपूर्वक सेवा तथा पूजा करनी चाहिये ॥ ४७ ॥ हे महाराज! आप मेरे द्वारा पहले ही बताये गये सर्वकामप्रदायक अम्बामख (देवी यज्ञ )का अनुष्ठान वैदिक विधि के अनुसार नित्य नियमपूर्वक कीजिये ॥ ४८ ॥ वे भगवती स्मरण करने, पूजा करने, श्रद्धापूर्वक ध्यान करने, नामोच्चारण करने तथा स्तुति करने से [परम प्रसन्‍न होकर] सभी इच्छित मनोरथों को पूर्ण कर देती हैं। इसीलिये वे “कामदा’ कही जाती हैं ॥ ४९ ॥

हे राजन्‌! रुग्ण, दीन, क्षुधापीड़ित, धनहीन, शठ, दुःखी, मूर्ख, शत्रुओं से सदा प्रताड़ित, आज्ञा के अधीन रहने वाले दास, क्षुद्र, विकल, अशान्त, भोजन तथा भोग से अतृप्त, सदा कष्ट में रहने वाले, अजितेन्द्रिय, अधिक तृष्णायुक्त, शक्तिहीन तथा सदैव मानसिक रोगों से पीड़ित रहने वाले प्राणियों को देखकर बुद्धिमानों को यह अनुमान कर लेना चाहिये कि इन लोगों ने भगवती की सम्यक्‌ उपासना नहीं की है। इसी प्रकार वैभवयुक्त, पुत्र-पौत्रादि से सम्पन्न, हृष्ट-पुष्ट शरीर वाले, भोगयुक्त, वेदवादी, राजलक्ष्मी से सम्पन्न, पराक्रमी, लोगों को अपने वश में रखनेवाले, स्वजनों के साथ आनन्दपूर्वक रहने वाले और समस्त उत्तम लक्षणों से युक्त लोगों को देखकर यह अनुमान कर लेना चाहिये कि इन लोगों ने भगवती की उपासना की है। इस प्रकार पण्डितजनों को व्यतिरिक-अन्वय के क्रम से यह जान लेना चाहिये कि उपर्युक्त [दीन आदि] लोगों ने सभी मनोरथों को पूर्ण करने वाली शिवा की पूजा नहीं की है तथा उपर्युक्त [विभवयुक्त ] लोगों ने भगवती अम्बा की सर्वदा विधिपूर्वक आराधना की है, जिससे ये सभी लोग इस संसार में सुखी हैं। इसमें लेशमात्र भी सन्देह नहीं है ॥ ५०-५६ ॥

व्यासजी बोले — हे राजन्‌! मैंने नेमिषारण्य तीर्थ में मुनियों के समाज में लोमशऋषि के मुख से भगवती का यह अत्युत्तम माहात्म्य सुना ॥ ५७ ॥ हे राजेन्द्र ! हे पुरुषश्रेष्ठ! इस पर सम्यक्‌ विचार करके परम भक्ति के साथ प्रेमपूर्वक भगवती की सदा अर्चना करनी चाहिये ॥ ५८ ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत तृतीय स्कन्ध का ‘सत्य्रताख्यानवर्णनं नामक ग्यारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ११ ॥

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