श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-तृतीयः स्कन्धः-अध्याय-24
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
पूर्वार्द्ध-तृतीयः स्कन्धः-चतुर्विंशोऽध्यायः
चौबीसवाँ अध्याय
सुबाहु द्वारा भगवती दुर्गा से सदा काशी में रहने का वरदान माँगना तथा देवी का वरदान देना, सुदर्शन द्वारा देवी की स्तुति तथा देवी का उसे अयोध्या जाकर राज्य करने का आदेश देना, राजाओं का सुदर्शन से अनुमति लेकर अपने-अपने राज्यों को प्रस्थान
देवीमहिमवर्णनम्

व्यासजी बोले — [ हे राजन्!] उन भवानी का वचन सुनकर नृपश्रेष्ठ सुबाहु ने भक्ति से युक्त होकर यह बात कही —— ॥ १ ॥

सुबाहु बोले — हे माता! एक ओर देवलोक तथा समस्त भूमण्डल का राज्य और दूसरी ओर आपका दर्शन; वे दोनों तुल्य कभी नहीं हो सकते ॥ २ ॥ आपके दर्शन से बढ़कर समस्त त्रिलोकी में कोई भी वस्तु नहीं है। हे देवि ! मैं आपसे क्या वर माँगूँ ? मैं तो इस जगतीतल में आपके दर्शन से ही कृतकृत्य हो गया ॥ ३ ॥ हे माता ! मैं तो यही अभीष्ट वर माँगना चाहता हूँ कि आपकी स्थिर तथा अखण्ड भक्ति मेरे हृदय में बनी रहे ॥ ४ ॥ हे माता! आप मेरी नगरी काशी में सदा निवास करें। आप शक्तिस्वरूपा होकर दुर्गादेवी के नाम से यहाँ विराजमान रहें और सर्वदा नगर की रक्षा करती रहें । हे अम्बिके! इस समय आपने जिस तरह शत्रुदल से सुदर्शन की रक्षा की है और उसे विकाररहित बना दिया है, उसी तरह आप सदा वाराणसी की रक्षा करें। हे देवि ! हे कृपानिधे ! जबतक भूलोक में काशीनगरी सुप्रतिष्ठित होकर विद्यमान रहे, तबतक आप यहाँ विराजमान रहें आप मुझे यही वरदान दें, इसके अतिरिक्त मैं आपसे और दूसरा क्या माँगूँ ? ॥ ५-८ ॥ आप मेरी विविध प्रकार की समस्त कामनाएँ पूर्ण करें, मेरे शत्रुओं का नाश करें और जगत् के सभी अमंगलों को सदा के लिये नष्ट कर डालें ॥ ९ ॥

व्यासजी बोले — इस प्रकार राजा सुबाहु के सम्यक् प्रार्थना करने पर दुर्गतिनाशिनी भगवती दुर्गा स्तुति करके अपने समक्ष खड़े राजा सुबाहु से कहने लगीं ॥ १० ॥

दुर्गाजी बोलीं — हे राजन् ! जबतक यह पृथिवी रहेगी, तबतक सभी लोकों की रक्षा के लिये मैं निरन्तर इस मुक्तिपुरी काशी में निवास करूँगी ॥ ११ ॥

इसके बाद सुदर्शन बड़ी प्रसन्नता के साथ वहाँ आकर उन्हें प्रणाम करके परम भक्ति के साथ उनकी स्तुति करने लगे ॥ १२ ॥

अहो ! मैं आपकी कृपा का वर्णन कहाँ तक करूँ ! आपने मुझ जैसे भक्तिहीन की भी रक्षा कर ली। अपने भक्तों पर तो सभी लोग अनुकम्पा करते हैं, किंतु भक्तिरहित प्राणी की भी रक्षा करने का व्रत आपने ही ले रखा है ॥ १३ ॥ मैंने सुना है कि आप ही समस्त विश्व प्रपंच की रचना करती हैं और अपने द्वारा सृजित उस जगत् का पालन करती हैं तथा यथोचित समय उपस्थित होने पर उसे अपने में समाहित कर लेती हैं; तब आपने जो मेरी रक्षा की, उसमें कोई आश्चर्य नहीं ॥ १४ ॥ हे देवि ! अब यह बताइये कि मैं आपका कौन-सा कार्य करूँ; मैं कहाँ जाऊँ ? मुझे शीघ्र आदेश दीजिये। मैं इस समय किंकर्तव्यविमूढ हो रहा हूँ । हे माता! मैं आपकी ही आज्ञा से जाऊँगा, ठहरूँगा या विहार करूँगा ॥ १५ ॥

व्यासजी बोले — ऐसा कहते हुए उस सुदर्शन से भगवती ने दयापूर्वक कहा हे महाभाग ! अब तुम अयोध्या जाओ और अपने कुल की मर्यादा के अनुसार राज्य करो ॥ १६ ॥ हे नृपश्रेष्ठ ! तुम प्रयत्न के साथ सदा मेरा स्मरण तथा पूजन करते रहना और मैं भी तुम्हारे राज्य का अष्टमी, चतुर्दशी और विशेष करके नवमी तिथि को सर्वदा कल्याण करती रहूँगी ॥ १७ ॥ विधि-विधान से मेरी पूजा अवश्य करते रहना । हे अनघ ! तुम अपने नगर में मेरी प्रतिमा स्थापित करना और रहना ॥ १८-१९ ॥ प्रयत्न के साथ भक्तिपूर्वक तीनों समय मेरा पूजन करते शरत्काल में सर्वदा नवरात्र-विधान के अनुसार भक्तिभाव से युक्त होकर मेरी महापूजा करनी चाहिये। हे महाराज ! चैत्र, आश्विन, आषाढ़ तथा माघमास में नवरात्र के अवसर पर मेरा महोत्सव मनाना चाहिये और विशेषरूप से मेरी महापूजा करनी चाहिये ॥ २०-२१ ॥ हे नृपशार्दूल! विज्ञजनों को चाहिये कि वे भक्तियुक्त होकर कृष्णपक्ष की चतुर्दशी तथा अष्टमी को सदा मेरी पूजा करें ॥ २२ ॥

व्यासजी बोले — राजा सुदर्शन के स्तुति तथा प्रणाम करने के अनन्तर ऐसा कहकर दुर्गतिनाशिनी भगवती दुर्गा अन्तर्धान हो गयीं ॥ २३ ॥ उन भगवती को अन्तर्हित देखकर वहाँ उपस्थित सभी राजाओं ने आकर सुदर्शन को उसी प्रकार प्रणाम किया जैसे देवता इन्द्र को प्रणाम करते हैं ॥ २४ ॥ महाराज सुबाहु भी उन्हें प्रणाम करके बड़े हर्षपूर्वक उनके समक्ष खड़े हो गये। तदनन्तर उन सभी राजाओं ने अयोध्यापति सुदर्शन से कहा ॥ २५ ॥

हे नृपश्रेष्ठ ! आप हमारे स्वामी तथा शासक हैं और हम आपके सेवक हैं। अब आप अयोध्या में राज्य करें और हमारा पालन करें ॥ २६ ॥ हे महाराज ! आपकी कृपा से हमने धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष – इन चारों पुरुषार्थों को देनेवाली उन विश्वेश्वरी, शिवा और आदिशक्ति भवानी का दर्शन पा लिया ॥ २७ ॥ आप इस धरती पर धन्य, कृतकृत्य और बड़े पुण्यात्मा हैं; क्योंकि आपके लिये साक्षात् सनातनी देवी प्रकट हुईं ॥ २८ ॥ हे नृपसत्तम! तमोगुण से युक्त और सदा माया से मोहित रहने वाले हम सभी लोग भगवती चण्डिका का प्रभाव नहीं जानते। हम सदा धन, स्त्री और पुत्रों की चिन्ता में व्यग्र रहकर काम-क्रोधरूपी मत्स्यों से भरे घोर महासागर में डूबे रहते हैं ॥ २९-३० ॥ हे महाभाग ! हे महामते ! आप सर्वज्ञ हैं, अतएव हम आपसे यह पूछ रहे हैं कि ये शक्ति कौन हैं, कहाँ से उत्पन्न हुई हैं और इनका कैसा प्रभाव है ? वह सब बताइये ॥ ३१ ॥ साधु पुरुष बड़े दयालु होते हैं। अतएव आप हमारे लिये इस संसार सागर की नौका बन जाइये । हे काकुत्स्थ ! अब आप भगवती के उत्तम माहात्म्य का वर्णन कीजिये ॥ ३२ ॥ हे नृपश्रेष्ठ ! उनका जो प्रभाव हो, जो स्वरूप हो तथा वे जैसे प्रकट हुई हों; यह सब हम आपसे सुनना चाहते हैं, आप बतायें ॥ ३३ ॥

व्यासजी बोले — राजाओं के यह पूछनेपर ध्रुवसन्धि के पुत्र राजा सुदर्शन मन ही मन भगवती का स्मरण करके हर्षपूर्वक उनसे कहने लगे ॥ ३४ ॥

सुदर्शन बोले — हे राजाओ ! उन जगदम्बा के उत्तम चरित्र को मैं क्या कहूँ; क्योंकि ब्रह्मा आदि तथा इन्द्रसहित सभी देवता भी उन्हें नहीं जानते ॥ ३५ ॥ हे राजाओ ! वे भगवती सबकी आदिस्वरूपा हैं, महालक्ष्मी के रूप में प्रतिष्ठित हैं, वे वरेण्य हैं और उत्तम सात्त्विकी शक्ति के रूप में समस्त विश्व का पालन करने में तत्पर रहती हैं ॥ ३६ ॥ वे अपने रजोगुणी स्वरूप से सृष्टि करती, सत्वगुणी स्वरूप से पालन करती और तमोगुणी स्वरूप से इसका संहार करती हैं, इसी कारण वे त्रिगुणात्मिका कही गयी हैं । परम शक्तिस्वरूपा निर्गुणा भगवती समस्त कामनाएँ पूर्ण कर देती हैं। हे श्रेष्ठ राजाओ! वे ब्रह्मा आदि सभी देवताओं की भी आदिकारण हैं ॥ ३७-३८ ॥ हे राजाओ ! योगी लोग भी निर्गुणा भगवती को जानने में सर्वथा असमर्थ हैं। अतः बुद्धिमानों को चाहिये कि सरलतापूर्वक सेवनीय सगुणा भगवती की निरन्तर आराधना करें ॥ ३९ ॥

राजागण बोले — बाल्यावस्था में ही आप वनवासी हो गये थे तथा भय से व्याकुल थे। तब आपको उन उत्तम परमा शक्ति का ज्ञान कैसे प्राप्त हुआ ? ॥ ४० ॥ हे नृप ! आपने उनकी उपासना और पूजा कैसे की, जिससे शीघ्रतापूर्वक प्रसन्न होकर उन्होंने आपकी सहायता की ॥ ४१ ॥

सुदर्शन बोले — हे राजाओ ! बाल्यकाल में ही मुझे उनका अतिश्रेष्ठ बीजमन्त्र प्राप्त हो गया था। मैं उसी कामराज नामक बीजमन्त्र का सदा जप करता हुआ भगवती का स्मरण करता रहता हूँ ॥ ४२ ॥ ऋषियों के द्वारा उन कल्याणमयी भगवती के विषय में बताये जाने पर मैंने उन्हें जाना और तभी से मैं परम भक्ति के साथ दिन-रात उन परा शक्ति का स्मरण किया करता हूँ ॥ ४३ ॥

व्यासजी बोले — सुदर्शन का वचन सुनकर वे राजा भी भक्तिपरायण हो गये और उन देवी को ही परम शक्ति मानकर अपने-अपने घर चले गये ॥ ४४ ॥ सुदर्शन से अनुमति लेकर महाराज सुबाहु काशी चले गये और धर्मात्मा सुदर्शन वहाँ से अयोध्या की ओर चल पड़े ॥ ४५ ॥ राजा शत्रुजित् युद्ध में मारा गया और सुदर्शन  विजयी हुए यह सुनकर मन्त्री लोग प्रेम से प्रफुल्लित हो उठे ॥ ४६ ॥ राजा सुदर्शन के आगमन का समाचार सुनकर साकेत के निवासी विविध प्रकार के उपहार लेकर उनके सम्मुख उपस्थित हुए और सब राजकर्मचारीगण भी हाथों में नाना प्रकार की भेंट-सामग्री लेकर आये। महाराज ध्रुवसन्धि के पुत्र सुदर्शन को राजा के रूप में जानकर अयोध्या की समस्त प्रजा आनन्दविभोर हो गयी ॥ ४७-४८ ॥ अपनी स्त्री के साथ अयोध्या में पहुँचकर सब लोगों का सम्मान करके राजा सुदर्शन राजभवन में गये। उस समय बन्दीजन उनकी स्तुति कर रहे थे, मन्त्रीगण उनकी वन्दना कर रहे थे और कन्याएँ उनके ऊपर लाजा (धान का लावा) तथा पुष्प बिखेर रही थीं ॥ ४९-५० ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकोंवाली श्रीमद्देवीभागवतमहापुराणसंहिताके अन्तर्गत तृतीय स्कन्ध का ‘सुदर्शन द्वारा देवी की महिमा का वर्णन’ नामक चौबीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २४ ॥

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