April 13, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-तृतीयः स्कन्धः-अध्याय-29 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ पूर्वार्द्ध-तृतीयः स्कन्धः-एकोनत्रिंशोऽध्यायः उनतीसवाँ अध्याय सीताहरण, राम का शोक और लक्ष्मण द्वारा उन्हें सान्त्वना देना लक्ष्मणकृतरामशोकसान्त्वनम् व्यासजी बोले — रावण का कुविचारपूर्ण वचन सुनकर सीता भय से व्याकुल होकर काँप उठीं । पुनः मन को स्थिर करके उन्होंने कहा — हे पुलस्त्य के वंशज ! काम के वशीभूत होकर तुम ऐसा अनर्गल वचन क्यों कह रहे हो ? मैं स्वैरिणी नारी नहीं हूँ, बल्कि महाराज जनक के कुल में उत्पन्न हुई हूँ ॥ १-२ ॥ हे दशकन्धर ! तुम लंका चले जाओ, नहीं तो श्रीराम निश्चय ही तुम्हें मार डालेंगे। मेरे लिये ही तुम्हारी मृत्यु होगी; इसमें सन्देह नहीं है ॥ ३ ॥ ऐसा कह करके वे सीताजी जगत् को रुलाने वाले रावण के प्रति ‘चले जाओ, चले जाओ’ इस प्रकार बोलती हुई पर्णशाला में अग्निकुण्ड के पास चली गयीं ॥ ४ ॥ इतने में वह रावण अपना वास्तविक रूप धारण करके तुरन्त पर्णशाला में उनके पास जा पहुँचा और उसने भय से व्याकुल होकर रोती हुई उस बाला सीता को बलपूर्वक पकड़ लिया ॥ ५ ॥ हा राम ! हा राम ! हा लक्ष्मण ! — ऐसा बार – बार कहकर विलाप करती हुई सीता को पकड़कर और उन्हें अपने रथ पर बैठाकर रावण शीघ्रतापूर्वक निकल गया। तब अरुणपुत्र जटायु ने जाते हुए उस रावण को मार्ग में रोक दिया। उस वन में दोनों में महाभयंकर युद्ध होने लगा ॥ ६-७ ॥ हे तात! अन्त में वह राक्षसराज रावण जटायु को मारकर और सीता को साथ लेकर चला गया। तदनन्तर उस दुष्टात्मा ने कुररी पक्षी की भाँति क्रन्दन करती हुई सीता को लंका में अशोकवाटिका में रख दिया और उसकी रखवाली के लिये राक्षसियों को नियुक्त कर दिया। उस राक्षस के साम-दान आदि उपायों से भी सीताजी अपने सतीत्व से विचलित नहीं हुईं ॥ ८-९ ॥ उधर श्रीराम भी स्वर्ण मृग को शीघ्र मारकर उसे लिये हुए प्रसन्नतापूर्वक [ आश्रम की ओर] चल पड़े। मार्ग में आते हुए लक्ष्मण को देखकर वे बोले — भाई ! यह तुमने कैसा विषम कार्य कर दिया ? वहाँ प्रिया सीता को अकेली छोड़कर तथा इस पापी की पुकार सुनकर तुम इधर क्यों चले आये ? ॥ १०-११ ॥ तब सीता के वचनरूपी बाण से आहत लक्ष्मण ने कहा — प्रभो ! मैं काल की प्रेरणा से यहाँ चला आया हूँ; इसमें सन्देह नहीं है ॥ १२ ॥ तदनन्तर वे दोनों पर्णशाला में जाकर वहाँ की स्थिति देखकर अत्यन्त दुःखित हुए और जानकी को खोजने का प्रयत्न करने लगे ॥ १३ ॥ खोजते हुए वे उस स्थान पर पहुँचे जहाँ पक्षिराज ‘जटायु’ गिरा पड़ा था। वह पृथ्वी पर मृतप्राय पड़ा हुआ था। उसने बताया कि रावण जानकी को अभी हर ले गया है। मैंने उस पापी को रोका, किंतु उसने युद्ध में मुझे मारकर गिरा दिया ॥ १४-१५ ॥ ऐसा कहकर वह जटायु मर गया। तब श्रीराम ने उसका दाह संस्कार किया। उसकी समस्त और्ध्वदैहिक क्रिया सम्पन्न करके श्रीराम और लक्ष्मण वहाँ से आगे बढ़े ॥ १६ ॥ मार्ग में कबन्ध का वध करके भगवान् श्रीराम ने उसे शाप से छुड़ाया और उसी के कथनानुसार उन्होंने सुग्रीव से मित्रता की ॥ १७ ॥ तदनन्तर पराक्रमी वाली का वध करके श्रीराम ने कार्यसाधन हेतु किष्किन्धा का उत्तम राज्य अपने सखा सुग्रीव को दे दिया ॥ १८ ॥ वहीं पर लक्ष्मणसहित श्रीराम ने रावण के द्वारा अपहृत अपनी प्रिया जानकी के विषय में मन में सोचते हुए वर्षा के चार मास व्यतीत किये ॥ १९ ॥ सीता के विरह में अत्यन्त दुःखित श्रीराम ने एक दिन लक्ष्मण से कहा — हे सौमित्रे! कैकेयी की कामना पूरी हो गयी। अभीतक जानकी नहीं मिली, मैं उसके बिना जीवित नहीं रह सकता। जनकतनया सीता के बिना मैं अयोध्या नहीं जाऊँगा ॥ २०-२१ ॥ राज्य चला गया, वनवास करना पड़ा, पिताजी मृत हो गये और प्रिया सीता भी हर ली गयी। इस प्रकार मुझे पीड़ित करता हुआ दुर्दैव आगे न जाने क्या करेगा ? ॥ २२ ॥ हे भरतानुज ! प्राणियों के प्रारब्ध को जान पाना अत्यन्त कठिन है। हे तात! अब हम दोनों की न जाने कौन-सी दुःखद गति होगी ? ॥ २३ ॥ मनु के कुल में जन्म पाकर हम राजकुमार हुए; फिर भी हमलोग पूर्वजन्म में किये गये कर्म के कारण वन में अत्यधिक दुःख भोग रहे हैं ॥ २४ ॥ हे सौमित्रे! तुम भी भोगों का परित्याग करके दैवयोग से मेरे साथ निकल पड़े; तो फिर अब यह कठिन कष्ट भोगो ॥ २५ ॥ हमारे कुल में मेरे समान दुःख भोगने वाला, अकिंचन, असमर्थ तथा क्लेशयुक्त व्यक्ति न हुआ है और न होगा ॥ २६ ॥ हे लक्ष्मण ! अब मैं क्या करूँ? मैं शोकसागर में डूब रहा हूँ, मुझ असहाय को इससे पार होने का कोई उपाय नहीं सूझता । हे वीर ! मेरे पास न धन है, न बल; एकमात्र तुम ही मेरा साथ देने वाले हो । हे अनुज ! अपने ही द्वारा किये इस कर्मभोग के विषय में अब मैं किस पर क्रोध करूँ ? ॥ २७-२८ ॥ इन्द्र और यम के राज्य की तरह हाथ में आया हुआ राज्य क्षणभर में चला गया और वनवास प्राप्त हुआ; विधि की रचना को कौन जान सकता है ? ॥ २९ ॥ बाल-स्वभाव के कारण सीता भी हम दोनों के साथ चली आयी। दुष्ट दैव ने उस सुन्दरी को अत्यधिक दुःखपूर्ण स्थिति में पहुँचा दिया ॥ ३० ॥ वह सुन्दरी जानकी लंकापति रावण के घर में किस प्रकार दु:खित जीवन व्यतीत करती होगी ? वह पतिव्रता है, शीलवती है और मुझसे अत्यधिक अनुराग रखती है ॥ ३१ ॥ हे लक्ष्मण ! वह जनकनन्दिनी उस रावण के वश में कभी नहीं हो सकती, सुन्दर शरीरवाली वह विदेहतनया सीता स्वैरिणी की भाँति भला किस प्रकार आचरण करेगी ? ॥ ३२ ॥ हे भरतानुज ! वह मैथिली अधिक नियन्त्रण किये जाने पर अपने प्राण त्याग देगी, किंतु यह सुनिश्चित है कि वह रावण की वशवर्तिनी नहीं होगी ॥ ३३ ॥ हे वीर! यदि जानकी मर गयी तो मैं भी निस्सन्देह अपने प्राण त्याग दूँगा; क्योंकि हे लक्ष्मण ! श्यामनयना सीता के मृत हो जाने पर मुझे अपने देह से क्या लाभ ? ॥ ३४ ॥ इस प्रकार विलाप करते हुए उन कमलनयन राम को सत्यपूर्ण वाणी से सान्त्वना प्रदान करते हुए धर्मात्मा लक्ष्मण ने कहा — ॥ ३५ ॥ हे महाबाहो ! आप इस समय दैन्यभाव छोड़कर धैर्य धारण कीजिये। मैं उस अधम राक्षस को मारकर जानकी को वापस ले आऊँगा ॥ ३६ ॥ विपत्ति तथा सम्पत्ति – इन दोनों ही स्थितियों में धैर्य धारण करते हुए जो एक समान रहते हैं, वे ही धीर होते हैं, किंतु अल्प बुद्धिवाले लोग तो सम्पत्ति की दशा में भी कष्ट में पड़े रहते हैं ॥ ३७ ॥ संयोग तथा वियोग – ये दोनों ही दैव के अधीन होते हैं। शरीर तो आत्मा से भिन्न है, अतः उसके लिये शोक कैसा ? ॥ ३८ ॥ जिस प्रकार [प्रतिकूल समय आने पर ] राज्य से निर्वासित होकर हमें वनवास भोगना पड़ा तथा सीताहरण हुआ, उसी प्रकार अनुकूल समय आने पर संयोग भी हो जायगा ॥ ३९ ॥ हे सीतापते ! सुखों तथा दुःखों के भोग से छुटकारा कहाँ ? वह तो निःसन्देह भोगना ही पड़ता है। अतः आप इस समय शोक का त्याग कर दीजिये ॥ ४० ॥ बहुत से वानर हैं; वे चारों दिशाओं में जायँगे और जानकी की खोज-खबर ले आयेंगे। [ पता लग जानेपर ] मार्ग की जानकारी करके मैं स्वयं वहाँ जाऊँगा और आक्रमण करके उस पापकर्मवाले रावण का वध करके जानकीजी को अवश्य ले आऊँगा ॥ ४१-४२ ॥ अथवा हे अग्रज ! यदि इससे कार्य न चलेगा, तो मैं भरत तथा शत्रुघ्न को भी सेनासमेत बुला लूँगा और हम लोग उस शत्रु को मार डालेंगे; आप वृथा क्यों चिन्ता कर रहे हैं ? ॥ ४३ ॥ पूर्वकाल में राजा रघु ने केवल एक रथ से ही चारों दिशाओं को जीत लिया था । हे राघवेन्द्र ! आप उसी वंश के होकर शोक क्यों कर रहे हैं ? ॥ ४४ ॥ अकेला मैं सभी देवताओं तथा दानवों को जीतने में समर्थ हूँ, तब फिर आप -जैसे सहायक के रहते उस कुलकलंकी रावण का वध करने में क्या कठिनाई है ? ॥ ४५ ॥ अथवा हे रघुनन्दन ! मैं महाराज जनक को सहायता के लिये बुलाकर देवताओं के कण्टकस्वरूप उस दुराचारी रावण का वध कर डालूँगा ॥ ४६ ॥ हे रघुनन्दन ! सुख के बाद दुःख तथा दुःख के बाद सुख पहिये की धुरी की तरह आया-जाया करते हैं । सदा एक स्थिति नहीं रहती । सुख-दुःख के आने पर जिसका मन कातर हो जाता है, वह शोकसागर में निमग्न रहता है और कभी सुखी नहीं रह सकता ॥ ४७-४८ ॥ हे राघव ! पूर्वकाल में इन्द्र के ऊपर भी विपत्ति आयी थी, तब सभी देवताओं ने उनके स्थान पर राजा नहुषको स्थापित कर दिया था। उस समय इन्द्र ने भयवश अपना पद त्यागकर बहुत दिनों तक कमलवन में छिपकर अज्ञातवास किया था। समय बदलने पर उन्होंने पुनः अपना पद प्राप्त कर लिया और नहुष को शापवश अजगर के रूप में होकर पृथ्वी पर गिरना पड़ा। ब्राह्मणों का अपमान करके इन्द्राणी को पाने की इच्छा के कारण ही अगस्त्यमुनि के कोपपूर्वक शाप देने से राजा नहुष सर्पदेहवाले हो गये थे ॥ ४९-५२ ॥ अतः हे राघव ! दुःख आने पर शोक नहीं करना चाहिये । विज्ञ पुरुष को चाहिये कि ऐसी परिस्थिति में मन को उद्यमशील बनाकर समय की प्रतीक्षा करता रहे ॥ ५३ ॥ हे महाभाग ! आप सर्वज्ञ हैं । हे जगत्पते! आप सर्वसमर्थ हैं; तब एक प्राकृत पुरुष की भाँति आप अपने मन में अत्यन्त शोक क्यों कर रहे हैं ? ॥ ५४ ॥ व्यासजी बोले — इस प्रकार लक्ष्मण की बातों से रघुनन्दन श्रीरामचन्द्रजी को सान्त्वना मिली और वे शोक त्यागकर बिलकुल निश्चिन्त हो गये ॥ ५५ ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकोंवाली श्रीमद्देवीभागवतमहापुराणसंहिताके अन्तर्गत तृतीय स्कन्धका ‘लक्ष्मणकृत रामशोकसान्त्वना’ नामक उनतीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २९ ॥ Content is available only for registered users. 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