April 15, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-चतुर्थ स्कन्धः-अध्याय-04 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ पूर्वार्द्ध-चतुर्थ: स्कन्धः-चतुर्थोऽध्यायः चौथा अध्याय व्यासजी द्वारा जनमेजय को माया की प्रबलता समझाना अधमजगतः स्थितिवर्णनम् राजा बोले — हे महाभाग ! इस आख्यान को सुनकर मैं बड़े आश्चर्य में पड़ गया हूँ। हे महामते ! यह संसार पाप का मूर्तरूप है। इसके बन्धन से मनुष्य किस प्रकार मुक्त हो सकता है ? ॥ १ ॥ जब तीनों लोकों का वैभव पास रखते हुए भी कश्यपमुनि की संतान इन्द्र ने ऐसा पापकर्म कर डाला, तब कौन मनुष्य पाप नहीं कर सकता ? ॥ २ ॥ अद्भुत शपथ लेकर सेवाके बहाने माता के गर्भ में प्रविष्ट होकर बालक की हत्या करना तो बड़ा भयानक पाप है ! ॥ ३ ॥ सबके शासक, धर्म के रक्षक और तीनों लोकों के स्वामी इन्द्र ने जब ऐसा निन्दित कर्म कर डाला, तब फिर दूसरा कौन नहीं करेगा ? ॥ ४ ॥ हे जगद्गुरो ! मेरे पितामह लोगों ने भी कुरुक्षेत्र के संग्राम में ऐसा ही विस्मयकारी दारुण और निन्दित कर्म किया था। भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य, कर्ण तथा धर्म के अंशरूप युधिष्ठिर — इन सभी ने भगवान् श्रीकृष्ण की प्रेरणा से धर्मविरुद्ध कर्म किया था ॥ ५-६ ॥ संसार की असारता जानते हुए भी उन प्रतिभाशाली तथा देवांश से उत्पन्न धर्मपरायण पाण्डवों ने भी ऐसा गर्हित कर्म क्यों किया ? ॥ ७ ॥ हे द्विजेन्द्र ! यदि ऐसी बात है तो धर्म पर किसकी आस्था होगी और धर्म के विषय में सैद्धान्तिक प्रमाण ही क्या रह जायगा ? यह वृत्तान्त सुनकर तो मेरा मन चंचल हो उठा है ॥ ८ ॥ यदि आप्त वचन को प्रमाण मानें, तो फिर कौन पुरुष आप्त है ? विषयासक्त मनुष्य में राग आ ही जाता है और अपना स्वार्थ भंग होने पर उसमें निःसन्देह राग-द्वेष की बहुलता हो जाती है । द्वेष के कारण अपनी स्वार्थसिद्धि के लिये असत्य भाषण करना पड़ता है ॥ ९-१० ॥ परम ज्ञानी और सत्त्वगुण के मूर्तस्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण ने भी जरासन्ध के वध के लिये छल से ब्राह्मण का वेष धारण किया था। जब सत्त्वमूर्ति भी इस प्रकार के होते हैं, तब किस आप्त पुरुष को प्रमाण माना जाय ? उसी प्रकार [ राजसूय] यज्ञ के अवसर पर अर्जुन ने भी वैसा ही कर्म किया था ॥ ११-१२ ॥ जिस यज्ञ में अशान्ति का वातावरण रहा, उस यज्ञ को किस श्रेणी का यज्ञ कहा जाय ? वह यज्ञ परलोक में परमपद की प्राप्ति के लिये किया गया था अथवा सुयश पाने के लिये किया गया था या अन्य किसी कार्य की सिद्धि के लिये किया गया था ? ॥ १३ ॥ श्रुति का यह वचन है कि धर्म का प्रथम चरण सत्य, दूसरा चरण पवित्रता, तीसरा चरण दया तथा चतुर्थ चरण दान है। पुराणवेत्ता भी यही कहते हैं। इन चारों के बिना परम आदृत धर्म कैसे टिक सकता है ? ॥ १४-१५ ॥ तब मेरे पूर्वजों के द्वारा किया गया वह धर्मविहीन यज्ञ-कर्म [उत्तम] फल देने वाला कैसे हो सकता था ? इससे तो यही प्रतीत होता है कि उस समय किसी का भी कहीं भी धर्म में अटल विश्वास नहीं था ॥ १६ ॥ जगत्प्रभु भगवान् विष्णु ने भी छलने हेतु वामन का रूप धारण किया था, जिन्होंने वामनरूप से राजा बलि को ठग लिया था ॥ १७ ॥ महाराज बलि सौ यज्ञ कर चुके थे। वे वेदों की आज्ञा का पालन करने वाले धर्मात्मा, दानी, सत्यवादी एवं जितेन्द्रिय थे। ऐसे महापुरुष को परम प्रभावशाली भगवान् विष्णु ने अकस्मात् पदच्युत कर दिया। अतः हे कृष्णद्वैपायन! उन दोनों में कौन जीता ? वंचना करके छलकर्म में निपुण भगवान् वामन की विजय हुई या छले गये राजा बलि की; इस विषय में मुझे महान् सन्देह है। हे द्विजश्रेष्ठ ! मुझे सत्य बात बताइये; क्योंकि आप पुराणों के रचयिता, धर्मज्ञ तथा महान् बुद्धिसम्पन्न हैं ॥ १८-२०१/२ ॥ व्यासजी बोले — हे राजन् ! उस राजा बलि की ही विजय हुई, जिसने समस्त भूमण्डल का दान कर दिया था। हे राजन् ! जो त्रिविक्रम नाम से विख्यात थे, वे भगवान् विष्णु वामन बने । हे नरेन्द्र ! उन्होंने छल करने के लिये यह वामनरूप धारण किया था और इसी छल के परिणामस्वरूप उन श्रीहरि को राजा बलि का द्वारपाल बनना पड़ा। अतः हे राजन् ! सत्य से बढ़कर धर्म का मूल और कुछ नहीं है ॥ २१-२३ ॥ हे राजन् ! सम्यक् प्रकार से सत्य का पालन करना प्राणियों के लिये अत्यन्त दुष्कर है। अनेक रूप धारण करने वाली त्रिगुणात्मिका माया बड़ी बलवती है, जिसने तीनों गुणों से सम्मिश्रित इस विश्व की रचना की है। अतः हे राजन् ! छल-कपट करने वाले से बिना प्रभावित हुए यह सत्य कैसे रह सकता है ? ॥ २४-२५ ॥ सत्त्व, रज और तम – इन्हीं तीनों गुणों के मेल से माया का प्रादुर्भाव हुआ, यही सृष्टि का सनातन नियम है। केवल अनासक्त, प्रतिग्रहशून्य, रागरहित और तृष्णाविहीन वानप्रस्थ तथा मुनिजन अवश्य सत्यपरायण होते हैं, किंतु वैसे लोग केवल दृष्टान्त दिखाने के लिये ही बनाये गये हैं ॥ २६-२७ ॥ हे राजन् ! उनके अतिरिक्त सब कुछ सत्त्व, रज एवं तम – इन तीनों गुणों से ओत-प्रोत है। हे नृपश्रेष्ठ ! पुराणों, वेदों, धर्मशास्त्रों, वेदांगों और सगुण प्राणियों द्वारा रचित ग्रन्थों में भी कहीं एकवाक्यता नहीं मिलती; सगुण प्राणी ही सगुण कार्य करता है, निर्गुण से सगुण कार्य नहीं हो सकता; क्योंकि वे सभी गुण मिश्रित हैं, वे पृथक्-पृथक् नहीं रहते । इसी कारण किसी की भी बुद्धि सत्य तथा सनातनधर्म में टिक नहीं पाती ॥ २८-३० ॥ हे महाराज ! संसार की सृष्टि के समय माया से मोहित मनुष्य की इन्द्रियाँ अत्यन्त चंचल हो जाती हैं और उनमें आसक्त मन उन गुणों से प्रेरित होकर विविध प्रकार के भाव प्रकट करने लगता है । हे राजन् ! ब्रह्मा से लेकर तृणपर्यन्त स्थावर-जंगम सभी प्राणी माया के वशीभूत रहते हैं और वह माया उनके साथ क्रीडा करती रहती है। यह माया सभी को मोह में डाल देती है और जगत् में निरन्तर विकार उत्पन्न किया करती है ॥ ३१-३३ ॥ हे राजन् ! सर्वप्रथम अपना कार्य सिद्ध करने के लिये मनुष्य असत्य का सहारा लेता है। उस समय इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करते हुए जब मनुष्य अपना अभीष्ट नहीं पाता, तो वह उसके लिये छल करने लगता है। इस प्रकार छल के कारण वह पाप में प्रवृत्त हो जाता है। काम, क्रोध और लोभ मनुष्यों के सबसे बड़े शत्रु हैं। इनके वश में होने के कारण प्राणी कर्तव्य – अकर्तव्य को नहीं जान पाते। ऐश्वर्य बढ़ जाने पर अहंकार और भी बढ़ जाता है। अहंकार से मोह उत्पन्न होता है और मोह से विनाश हो जाता है। मोह के कारण मनुष्य के मन में अनेक प्रकार के संकल्प – विकल्प होने लगते हैं। उस समय मन में ईर्ष्या, असूया तथा द्वेष उत्पन्न हो जाते हैं। प्राणियों के हृदय में आशा, तृष्णा, दीनता, दम्भ और अधार्मिक बुद्धि – ये सब उत्पन्न हो जाते हैं। ये भावनाएँ प्राणियों में मोह से ही उत्पन्न होती हैं। यज्ञ, दान, तीर्थ, व्रत और नियम जो कुछ भी सत्कर्म हैं, उन्हें भी मनुष्य अहंकार के ही वशीभूत होकर निरन्तर करता है, उनका अहंभाव से किया गया सारा कार्य वैसा नहीं होता, जैसा कि शुद्ध अन्तःकरण से किया जाता है। आसक्ति एवं लोभ से किया हुआ कोई भी कर्म सर्वथा अशुद्ध होता बुद्धिमान् मनुष्यों को चाहिये कि वे सर्वप्रथम द्रव्य- शुद्धि पर विचार कर लें । द्रोहरहित कर्म करके अर्जित किया हुआ धन धर्मकार्य में प्रशस्त माना गया है। हे नृपश्रेष्ठ ! द्रोहपूर्वक उपार्जित किये हुए द्रव्य के द्वारा मनुष्य जो उत्तम कार्य करता है, समय आने पर उसका विपरीत फल प्राप्त होता है ॥ ३४-४०१/२ ॥ जिसका मन परम पवित्र है, वही पूर्ण फल का अधिकारी होता है और मन के विकारपूर्ण रहने पर उसे यथार्थ फल नहीं मिलता ॥ ४१-४३१/२ ॥ जब कर्म कराने वाले ऋत्विक्, आचार्य आदि लोगों का चित्त शुद्ध रहता है, तभी पूर्ण फल प्राप्त होता है। यदि देश, काल, क्रिया, द्रव्य, कर्ता और मन्त्र — इन सबकी शुद्धता रहती है, तभी कर्मों का पूरा फल प्राप्त होता है। जो मनुष्य शत्रुनाश तथा अपनी अभिवृद्धि के उद्देश्य से पुण्यकर्म करता है तो उसे भी वैसा ही विपरीत फल मिलता है। स्वार्थ में लिप्त मनुष्य शुभाशुभ का ज्ञान नहीं रख पाता और दैवाधीन होकर सदा पाप ही किया करता है, पुण्य नहीं ॥ ४४-४७१/२ ॥ प्रजापति ब्रह्मा से ही देवता उत्पन्न हुए हैं और उन्हीं से असुरों की भी उत्पत्ति हुई है। वे सब-के-सब स्वार्थ में लिप्त होकर एक-दूसरे के विरुद्ध काम करते हैं । वेदों में कहा गया है कि सत्त्वगुण से सभी देवता, रजोगुण से मनुष्य तथा तमोगुण से पशु-पक्षी आदि तिर्यक्योनि के जीव उत्पन्न होते हैं। अतएव जब सत्त्वगुण से उत्पन्न देवताओं में भी निरन्तर आपस में वैरभाव रहता है तब पशु-पक्षियों में परस्पर जातिवैर उत्पन्न होने में क्या आश्चर्य ! देवता भी सदैव द्रोह में तत्पर रहते हैं और तपस्या में विघ्न डाला करते हैं । हे नृप ! वे सदा असन्तुष्ट रहते हुए द्वेषपरायण होकर आपस में विरोधभाव रखते हैं। अतः हे राजन् ! जब यह संसार ही अहंकार से उत्पन्न हुआ है, तब वह राग-द्वेष से हीन हो ही कैसे सकता है ? ॥ ४८-५३ ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत चतुर्थ स्कन्ध का ‘अधम जगत् की स्थिति का वर्णन’ नामक चौथा अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४ ॥ श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण चतुर्थः स्कन्धः चतुर्थोऽध्यायः अधमजगतः स्थितिवर्णनम् ॥ राजोवाच ॥ विस्मितोऽस्मि महाभाग श्रुत्वाख्यानं महामते । संसारोऽयं पापरूपः कथं मुच्येत बन्धनात् ॥ १ ॥ कश्यपस्यापि दायादस्त्रिलोकीविभवे सति । कृतवानीदृशं कर्म को न कुर्याज्जुगुप्सितम् ॥ २ ॥ गर्भे प्रविश्य बालस्य हननं दारुणं किल । सेवामिषेण मातुश्च कृत्वा शपथमद्भुतम् ॥ ३ ॥ शास्ता धर्मस्य गोप्ता च त्रिलोक्याः पतिरप्युत । कृतवानीदृशं कर्म को न कुर्यादसाम्प्रतम् ॥ ४ ॥ पितामहा मे संग्रामे कुरुक्षेत्रेऽतिदारुणम् । कृतवन्तस्तथाश्चर्यं दुष्टं कर्म जगद्गुरो ॥ ५ ॥ भीष्मोद्रोणः कृपः कर्णो धर्माशोऽपि युधिष्ठिरः । सर्वे विरुद्धधर्मेण वासुदेवेन नोदिताः ॥ ६ ॥ असारतां विजानन्तः संसारस्य सुमेधसः । देवांशाश्च कथं चक्रुर्निन्दितं धर्मतत्पराः ॥ ७ ॥ कास्था धर्मस्य विप्रेन्द्र प्रमाणं किं विनिश्चितम् । चलचित्तोऽस्मि सञ्जातः श्रुत्वा चैतत्कथानकम् ॥ ८ ॥ आप्तवाक्यं प्रमाणं चेदाप्तः कः परदेहवान् । पुरुषो विषयासक्तो रागी भवति सर्वथा ॥ ९ ॥ रागो द्वेषो भवेन्नूनमर्थनाशादसंशयम् । द्वेषादसत्यवचनं वक्तव्यं स्वार्थसिद्धये ॥ १० ॥ जरासन्धविघातार्थं हरिणा सत्त्वमूर्तिना । छलेन रचितं रूपं ब्राह्मणस्य विजानता ॥ ११ ॥ तदाप्तः कः प्रमाणं किं सत्त्वमूर्तिरपीदृशः । अर्जुनोऽपि तथैवात्र कार्ये यज्ञविनिर्मिते ॥ १२ ॥ कीदृशोऽयं कृतो यज्ञः किमर्थं शमवर्जितः । परलोकपदार्थं वा यशसे वान्यथा किल ॥ १३ ॥ धर्मस्य प्रथमः पादः सत्यमेतच्छ्रुतेर्वचः । द्वितीयस्तु तथा शौचं दया पादस्तृतीयकः ॥ १४ ॥ दानं पादश्चतुर्थश्च पुराणज्ञा वदन्ति वै । तैर्विहीनः कथं धर्मस्तिष्ठेदिह सुसम्मतः ॥ १५ ॥ धर्महीनं कृतं कर्म कथं तत्फलदं भवेत् । धर्मे स्थिरा मतिः क्वापि न कस्यापि प्रतीयते ॥ १६ ॥ छलार्थञ्च यदा विष्णुर्वामनोऽभूज्जगत्प्रभुः । येन वामनरूपेण वञ्चितोऽसौ बलिर्नृपः ॥ १७ ॥ विहर्ता शतयज्ञस्य वेदाज्ञापरिपालकः । धर्मिष्ठो दानशीलश्च सत्यवादी जितेन्द्रियः ॥ १८ ॥ स्थानात्प्रभ्रंशितोऽकस्माद्विष्णुना प्रभविष्णुना । जितं केन तयोः कृष्ण बलिना वामनेन वा ॥ १९ ॥ छलकर्मविदा चायं सन्देहोऽत्र महान्मम । वञ्चयित्वा वञ्चितेन सत्यं वद द्विजोत्तम ॥ २० ॥ पुराणकर्ता त्वमसि धर्मज्ञश्च महामतिः । ॥ व्यास उवाच ॥ जितं वै बलिना राजन् दत्ता येन च मेदिनी ॥ २१ ॥ त्रिविक्रमोऽपि नाम्ना यः प्रथितो वामनोऽभवत् । छलनार्थमिदं राजन्वामनत्वं नराधिप ॥ २२ ॥ सम्प्राप्तं हरिणा भूयो द्वारपालत्वमेव च । सत्यादन्यतरन्नास्ति मूलं धर्मस्य पार्थिव ॥ २३ ॥ दुःसाध्यं देहिनां राजन्सत्यं सर्वात्मना किल । माया बलवती भूप त्रिगुणा बहुरूपिणी ॥ २४ ॥ ययेदं निर्मितं विश्वं गुणैः शबलितं त्रिभिः । तस्माच्छलवता सत्यं कुतोऽविद्धं भवेन्नृप ॥ २५ ॥ मिश्रेण जनिता चैव स्थितिरेषा सनातनी । वैखानसाश्च मुनयो निःसङ्गा निष्प्रतिग्रहाः ॥ २६ ॥ सत्ययुक्ता भवन्त्यत्र वीतरागा गतस्पृहाः । दृष्टान्तदर्शनार्थाय निर्मितास्ते च तादृशाः ॥ २७ ॥ अन्यत्सर्वं शबलितं गुणैरेभिस्त्रिभिनृप । नैकं वाक्यं पुराणेषु वेदेषु नृपसत्तम ॥ २८ ॥ धर्मशास्त्रेषु चाङ्गेषु सगुणै रचितेष्विह । सगुणः सगुणं कुर्यान्निर्गुणो न करोति वै ॥ २९ ॥ गुणास्ते मिश्रिताः सर्वे न पृथग्भावसङ्गताः । निर्व्यलीके स्थिरे धर्मे मतिः कस्यापि न स्थिरा ॥ ३० ॥ भवोद्भवे महाराज मायया मोहितस्य वै । इन्द्रियाणि प्रमाथीनि तदासक्तं मनस्तथा ॥ ३१ ॥ करोति विविधान्भावान्गुणैस्तैः प्रेरितो भृशम् । ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्ताः प्राणिनः स्थिरजङ्गमाः ॥ ३२ ॥ सर्वे मायावशा राजन् सानुक्रीडति तैरिह । सर्वान्वै मोहयत्येषा विकुर्वत्यनिशं जगत् ॥ ३३ ॥ असत्यो जायते राजन्कार्यवान्प्रथमं नरः । इन्द्रियार्थांश्चिन्तयानो न प्राप्नोति यदा नरः ॥ ३४ ॥ तदर्थं छलमादत्ते छलात्पापे प्रवर्तते । कामः क्रोधश्च लोभश्च वैरिणो बलवत्तराः ॥ ३५ ॥ कृताकृतं न जानन्ति प्राणिनस्तद्वशं गताः । विभवे सत्यहङ्कारः प्रबलः प्रभवत्यपि ॥ ३६ ॥ अहङ्काराद्भवेन्मोहो मोहान्मरणमेव च । सङ्कल्पा बहवस्तत्र विकल्पाः प्रभवन्ति च ॥ ३७ ॥ ईर्ष्यासूया तथा द्वेषः प्रादुर्भवति चेतसि । आशा तृष्णा तथा दैन्यं दम्भोऽधर्ममतिस्तथा ॥ ३८ ॥ प्राणिनां प्रभवन्त्येते भावा मोहसमुद्भवाः । यज्ञदानानि तीर्थानि व्रतानि नियमास्तथा ॥ ३९ ॥ अहङ्काराभिभूतस्तु करोति पुरुषोऽन्वहम् । अहंभावकृतं सर्वं प्रभवेद्वै न शौचवत् ॥ ४० ॥ रागलोभात्कृतं कर्म सर्वाङ्गं शुद्धिवर्जितम् । प्रथमं द्रव्यशुद्धिश्च द्रष्टव्या विबुधैः किल ॥ ४१ ॥ अद्रोहेणार्जितं द्रव्यं प्रशस्तं धर्मकर्मणि । द्रोहार्जितेन द्रव्येण यत्करोति शुभं नरः ॥ ४२ ॥ विपरीतं भवेत्तत्तु फलकाले नृपोत्तम । मनोऽतिनिर्मलं यस्य स सम्यक्फलभाग्भवेत् ॥ ४३ ॥ तस्मिन्विकारयुक्ते तु न यथार्थफलं लभेत् । कर्तारः कर्मणां सर्वे आचार्यऋत्विजादयः ॥ ४४ ॥ स्युस्ते विशुद्धमनसस्तदा पूर्णं भवेत्फलम् । देशकालक्रियाद्रव्यकर्तॄणां शुद्धता यदि ॥ ४५ ॥ मन्त्राणां च तदा पूर्णं कर्मणां फलमश्नुते । शत्रूणां नाशमुद्दिश्य स्ववृद्धिं परमां तथा ॥ ४६ ॥ करोति सुकृतं तद्वद्विपरीतं भवेत्किल । स्वार्थासक्तः पुमान्नित्यं न जानाति शुभाशुभम् ॥ ४७ ॥ दैवाधीनः सदा कुर्यात्पापमेव न सत्कृतम् । प्राजापत्याः सुराः सर्वे ह्यसुराश्च तदुद्भवाः ॥ ४८ ॥ सर्वे ते स्वार्थनिरताः परस्परविरोधिनः । सत्त्वोद्भवाः सुराः सर्वेऽप्युक्ता वेदेषु मानुषाः ॥ ४९ ॥ रजोद्भवास्तामसास्तु तिर्यंचः परिकीर्तिताः । सत्त्वोद्भवानां तैर्वैरं परस्परमनारतम् ॥ ५० ॥ तिरश्चामत्र किं चित्रं जातिवैरसमुद्भवे । सदा द्रोहपरा देवास्तपोविघ्नकरास्तथा ॥ ५१ ॥ असन्तुष्टा द्वेषपराः परस्परविरोधिनः । अहङ्कारसमुद्भूतः संसारोऽयं यतो नृप ॥ ५२ ॥ रागद्वेषविहीनस्तु स कथं जायते नृप ॥ ५३ ॥ ॥ इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे अधमजगतः स्थितिवर्णनं नाम चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥ Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. Type your email… Subscribe