श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-चतुर्थ स्कन्धः-अध्याय-06
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
पूर्वार्द्ध-चतुर्थ: स्कन्धः-षष्ठोऽध्यायः
छठा अध्याय
कामदेव द्वारा नर-नारायण के समीप वसन्त ऋतु की सृष्टि, नारायण द्वारा उर्वशी की उत्पत्ति, अप्सराओं द्वारा नारायण से स्वयं को अंगीकार करने की प्रार्थना
अप्सरां नारायणसमीपे प्रार्थनाकरणम्

व्यासजी बोले सर्वप्रथम उस पर्वत श्रेष्ठ गन्धमादन पर वसन्त पहुँचा। उस पर्वत पर स्थित सभी वृक्ष पुष्पित हो गये और उन पर भ्रमरों के समूह मँडराने लगे ॥ १ ॥ आम, मौलसिरी, रम्य, तिलक, सुन्दर किंशुक, साल, ताल, तमाल तथा महुए ये सब-के-सब फूलों से सुशोभित हो गये ॥ २ ॥ वृक्षों की डालियों पर कोयलों की मनोहारिणी कूक आरम्भ हो गयी । पुष्पों से लदी हुई सभी लताएँ ऊँचे पर्वतों पर चढ़ने लगीं ॥ ३ ॥ सभी प्राणी अपनी-अपनी भार्याओं में प्रेमासक्त हो गये तथा मत्त होकर परस्पर क्रीड़ा करने लगे ॥ ४ ॥ मन्द, सुगन्धयुक्त तथा सुखद स्पर्शवाली दक्षिणी हवाएँ चलने लगीं। उस समय मुनियों की भी वृत्तियाँ अतीव चंचल हो उठीं ॥ ५ ॥ तत्पश्चात् अपनी भार्या रति के साथ कामदेव भी अपने पंचबाणों को छोड़ता हुआ तत्काल बदरिकाश्रम पहुँचकर वहाँ रहने लगा ॥ ६ ॥ संगीतकला में अत्यन्त प्रवीण रम्भा और तिलोत्तमा आदि अप्सराएँ भी उस रमणीक बदरिकाश्रम में पहुँचकर स्वर तथा तान में आबद्ध गीत गाने लगीं ॥ ७ ॥ उस मधुर गायन, कोयलों की कूक तथा भ्रमर-समूहों का गुंजार सुनकर उन दोनों मुनिवरों का ध्यान भंग हो गया ॥ ८ ॥

असमय में ही वसन्त का आगमन तथा सम्पूर्ण वन को पुष्पों से सुशोभित देखकर वे दोनों नर तथा नारायणऋषि चिन्तित हो उठे [ वे सोचने लगे कि] क्या आज समय पूरा हुए बिना ही शिशिर ऋतु बीत गयी ? इस समय तो समस्त प्राणी काम से पीड़ित होने के कारण अत्यन्त विह्वल दिखायी पड़ रहे हैं। काल के स्वभाव तथा नियम में यह अद्भुत परिवर्तन आज कैसे हो गया? विस्मय के कारण विस्फारित नेत्रोंवाले मुनि नारायण नर से कहने लगे ॥ ९-११ ॥

नारायण बोले हे भाई! देखो, ये सभी वृक्ष पुष्पों से लदे हुए सुशोभित हो रहे हैं। इन वृक्षों पर कोयलों की मधुर ध्वनि हो रही है तथा भ्रमरों की पंक्तियाँ विराजमान हैं ॥ १२ ॥ हे मुने! यह वसन्तरूपी सिंह अपने पलाशपुष्परूपी तीखे नाखूनों से शिशिररूपी भयानक हाथी को विदीर्ण करता हुआ यहाँ आ पहुँचा है ॥ १३ ॥ हे देवर्षे! लाल अशोक जिसके हाथ हैं, किंशुक के पुष्प जिसके पैर हैं, नील अशोक जिसके केश हैं, विकसित श्याम कमल जिसका मुख है, नीले कमल जिसके नेत्र हैं, बिल्व वृक्ष के फल जिसके स्तन हैं, खिले हुए कुन्द के. फूल जिसके दाँत हैं, आम के बौर जिसके कान हैं, बन्धुजीव (गुलदुपहरिया ) – के पुष्प जिसके शुभ्र अधर हैं, सिन्धुवार के पुष्प जिसके नख हैं, कोयल के समान जिसका स्वर है, कदम्ब के पुष्प जिस सुन्दरी के पावन वस्त्र हैं, मयूरपंखों के समूह जिसके आभूषण हैं, सारसों का स्वर जिसका नूपुर है, माधवी लता जिसकी करधनी है – ऐसी मत्त हंस के समान गतिवाली तथा इंगुदी के पत्तों को रोमस्वरूप धारण की हुई वसन्तश्री इस बदरिकाश्रम में छायी हुई है ॥ १४–१८ ॥ मुझे तो यह महान् आश्चर्य हो रहा है कि असमय में यह यहाँ क्यों आ गयी? हे देवर्षे! आप यह निश्चित समझिये कि इस समय यह हम लोगों की तपस्या में विघ्न डालने वाली है ॥ १९ ॥ ध्यान भंग कर देने वाला यह देवांगनाओं का गीत सुनायी दे रहा है। ऐसा प्रतीत होता है कि हम दोनों का तप नष्ट करने के लिये इन्द्र ने ही यह उपक्रम रचा है। अन्यथा ऋतुराज वसन्त अकाल में कैसे प्रीति प्रकट कर सकता है ? जान पड़ता है कि भयभीत होकर असुरों के शत्रु इन्द्र के द्वारा ही यह विघ्न उपस्थित किया गया है। सुरभित, शीतल एवं मनोहर हवाएँ चल रही हैं; इसमें इन्द्र की चाल के अतिरिक्त अन्य कोई कारण नहीं है ॥ २०-२२ ॥

विप्रवर विभु भगवान् नारायण ऐसा कह ही रहे थे कि कामदेव आदि सभी दिखायी पड़ गये। भगवान् नर तथा नारायण ने उन सबको प्रत्यक्ष देखा और इससे उन दोनों के मन में महान् आश्चर्य हुआ ॥ २३-२४ ॥ कामदेव, मेनका, रम्भा, तिलोत्तमा, पुष्पगन्धा, सुकेशी, महाश्वेता, मनोरमा, प्रमद्वरा, गीतज्ञ और सुन्दर हास्य करने वाली घृताची, चन्द्रप्रभा, कोकिल के समान आलाप करने वाली सोमा, विद्युन्माला, अम्बुजाक्षी और कांचनमालिनी – इन्हें तथा अन्य भी बहुत-सी सुन्दर अप्सराओं को नर- नारायण ने अपने पास उपस्थित देखा। उनकी संख्या सोलह हजार पचास थी, कामदेव की उस विशाल सेना को देखकर वे दोनों मुनि चकित हो गये ॥ २५-२८ ॥ उस समय दिव्य वस्त्र तथा आभूषणों से विभूषित और दिव्य मालाओं से सुशोभित देवलोक की वे अप्सराएँ प्रणाम करके सामने खड़ी हो गयीं ॥ २९ ॥ तत्पश्चात् वे अनेक प्रकार के हाव-भाव प्रदर्शित करती हुई छलपूर्वक पृथ्वीतल पर अत्यन्त दुर्लभ एवं कामवासनावर्धक गीत गाने लगीं। भगवान् नर-नारायण ने उस गीत को सुना । तदनन्तर उसे सुनकर नारायणमुनि ने प्रेमपूर्वक उनसे कहा तुम लोग आनन्द से बैठो, मैं तुम्हारा अद्भुत आतिथ्य सत्कार करूँगा । हे सुन्दरियो ! तुम लोग स्वर्ग से यहाँ आयी हो, अतएव हमारी अतिथिस्वरूपा हो ॥ ३०-३२ ॥

व्यासजी बोले हे राजन् ! उस समय मुनि नारायण अभिमान में आकर सोचने लगे कि निश्चितरूप से इन्द्र ने हमारे तप में बाधा डालने की इच्छा से इन्हें भेजा है। ये सब बेचारी क्या चीज हैं, मैं अभी अपना तपोबल दिखाता हूँ और इनसे भी अधिक दिव्य रूपवाली नवीन अप्सराएँ उत्पन्न करता हूँ ॥ ३३-३४ ॥ मन में ऐसा विचार करके उन्होंने हाथ से अपनी जंघा पर आघात कर तत्काल एक सर्वांगसुन्दरी स्त्री उत्पन्न कर दी ॥ ३५ ॥ वह सुन्दरी भगवान् नारायण के ऊरुदेश (जंघा) -से उत्पन्न हुई थी, अतः उसका नाम उर्वशी पड़ा। वहाँ उपस्थित वे अप्सराएँ उर्वशी को देखकर अत्यन्त आश्चर्यचकित हो गयीं ॥ ३६ ॥ तदनन्तर उन अप्सराओं की सेवा के लिये मुनि ने तत्काल उतनी ही अन्य अत्यन्त सुन्दर अप्सराएँ उत्पन्न कर दीं। हाथ में विविध प्रकार के उपहार लिये हँसती हुई तथा मधुर गीत गाती हुई उन सब अप्सराओं ने उन मुनियों को प्रणाम किया और वे हाथ जोड़कर उनके समक्ष खड़ी हो गयीं ॥ ३७-३८ ॥ लोगों को मोह में डाल देने वाली वे [इन्द्रप्रेषित ] अप्सराएँ तपस्या की विभूति उस विस्मयकारिणी उर्वशी को देखकर अपनी सुध-बुध खो बैठीं। उन अप्सराओं के मुखकमल आनन्दातिरेक से खिल उठे तथा उनके मनोहर शरीररूपी वल्लरियों पर रोमांचरूपी अंकुर निकल आये। वे अप्सराएँ उन दोनों मुनियों से कहने लगीं ॥ ३९ ॥

अहो! हम मूर्ख अप्सराएँ आपकी स्तुति कैसे करें ? हम तो आपके धैर्य तथा तपके प्रभाव को देखकर परम विस्मय में पड़ गयी हैं। ऐसा कौन है जो हमलोगों के कटाक्षरूपी विष से बुझे बाणों से दग्ध न हो गया हो, फिर भी आपके मन को थोड़ी भी व्यथा नहीं हुई ॥ ४० ॥ अब हम लोगों को ज्ञात हो गया कि आप दोनों देवस्वरूप मुनि साक्षात् भगवान् विष्णु के परम अंश हैं और सदा ही शम, दम आदि गुणों के निधान हैं। आप दोनों की सेवाके लिये यहाँ हमारा आगमन नहीं हुआ है, अपितु देवराज इन्द्र का कार्य सिद्ध करने के लिये ही हम सब यहाँ आयी हुई हैं ॥ ४१ ॥ न जाने हमारे किस भाग्य से आप दोनों मुनिवरों के दर्शन हुए। हम यह नहीं जान पा रही हैं कि हमारे द्वारा सम्पादित किस संचित पुण्यकर्म का यह फल है। [शाप देने में समर्थ होते हुए भी] आप दोनों मुनियों ने हम — जैसे अपराधीजनों को स्वजन समझकर अपने चित्त को क्षमाशील बनाया और हमें सन्ताप रहित कर दिया। विवेकशील महानुभाव तुच्छ फल देने वाले शाप को उपयोग में लाकर अपने तप का अपव्यय नहीं करते ॥ ४२१/२

व्यासजी बोले उन अति विनम्र देवसुन्दरियों का वचन सुनकर प्रसन्न मुखमण्डलवाले, काम तथा लोभ को जीत लेने वाले तथा अपनी तपस्या के प्रभाव से देदीप्यमान अंगोंवाले वे धर्मपुत्र मुनिवर नर-नारायण प्रेमपूर्वक कहने लगे ॥ ४३१/२

नर-नारायण बोले हम दोनों तुम सभी पर अत्यन्त प्रसन्न हैं । तुम लोग अपने वांछित मनोरथ बताओ, हम उसे देंगे। इस सुन्दर नयनों वाली उर्वशी को भी अपने साथ लेकर तुम सब स्वर्ग के लिये प्रस्थान करो । उपहारस्वरूप यह मनोहर युवती अब यहाँ से तुम लोगों के साथ जाय ॥ ४४-४५ ॥ ऊरु से प्रादुर्भूत इस उर्वशी को इन्द्र के प्रसन्नार्थ हमने उनको दे दिया है। सभी देवताओं का कल्याण हो और अब सभी लोग इच्छानुसार यहाँ से प्रस्थान करें ॥ ४६ ॥ (अब इसके बाद तुम लोग किसी की तपस्या में विघ्न मत उत्पन्न करना ।)

देवियाँ बोलीं हे महाभाग ! हे नारायण ! हे सुरश्रेष्ठ! परमभक्ति के साथ प्रसन्नतापूर्वक हम सभी अप्सराएँ आपके चरणकमलों का सांनिध्य प्राप्त कर चुकी हैं; अब हम सब कहाँ जायँ ? ॥ ४७ ॥ हे नाथ! हे मधुसूदन! हे कमलपत्राक्ष ! यदि आप हमारे ऊपर प्रसन्न होकर वांछित वरदान देना चाहते हैं, तो हम अपने मनकी इच्छा प्रकट कर रही हैं ॥ ४८ ॥ हे देवेश ! आप हमारे पति बन जायँ । हे परन्तप ! हम लोगों के इसी वरदान को पूर्ण कीजिये। हे जगदीश्वर ! आपकी सेवा करने में हम सभी को प्रसन्नता होगी ॥ ४९ ॥ आपने जिन उर्वशी आदि सुन्दर नयनों वाली अन्य रमणियों को उत्पन्न किया है, वे अब आपकी आज्ञा से स्वर्ग चली जायँ । हे श्रेष्ठ तपस्वियो! हम सोलह हजार पचास अप्सराएँ यहीं रहेंगी और यहाँ हम सब आप दोनों की सेवा करेंगी ॥ ५०-५१ ॥

हे देवेश ! आप हमारा मनोवांछित वर दीजिये और अपने सत्यव्रत का पालन कीजिये। हे माधव ! धर्मज्ञ तथा तत्त्वदर्शी मुनियों ने प्रेमासक्त स्त्रियों की आशा को भंग करना हिंसा बताया है। दैवयोग से हम अप्सराएँ भी स्वर्ग से यहाँ आकर आप दोनों के प्रेमरस से संसिक्त हो गयी हैं। हे देवेश ! आप हमारा त्याग न कीजिये। हे जगत्पते! आप तो सर्वसमर्थ हैं ॥ ५२-५३१/२

नारायण बोले इन्द्रियों को जीतकर मैंने पूरे एक हजार वर्षों तक यहाँ तपस्या की है, अतएव हे सुन्दरियो ! उसे कैसे नष्ट कर दूँ? सुख तथा धर्म का नाश करने वाले वासनात्मक सुख में मेरी कोई रुचि नहीं है। पाशविक धर्म के समान सुख में विवेकशील पुरुष कैसे प्रवृत्त हो सकता है ॥ ५४-५५१/२

अप्सराएँ बोलीं — शब्द, स्पर्श, रूप, रस तथा गन्ध इन पाँच सुखों में स्पर्श-सुख सर्वश्रेष्ठ है । यह आनन्द रस का मूल है और इससे बढ़कर अन्य कोई भी सुख नहीं है। अतः हे महाराज! आप हमारी बात मान लीजिये ॥ ५६-५७ ॥ पूर्ण आनन्द प्राप्त करते हुए आप गन्धमादन- पर्वत पर विचरण कीजिये। यदि आप स्वर्ग प्राप्ति की आकांक्षा रखते हैं तो यह निश्चय जान लीजिये कि वह स्वर्ग इस गन्धमादन से अच्छा नहीं है। अतः हम सभी अप्सराओं को अंगीकार करके आप इस दिव्य स्थान में विहार कीजिये ॥ ५८-५९ ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकोंवाली श्रीमद्देवीभागवतमहापुराणसंहिताके अन्तर्गत चतुर्थ स्कन्धका ‘अप्सराओंका नारायणके समीप प्रार्थना करना’ नामक छठा अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ६ ॥

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