April 16, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-चतुर्थ स्कन्धः-अध्याय-07 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ पूर्वार्द्ध-चतुर्थ: स्कन्धः-सप्तमोऽध्यायः सातवाँ अध्याय अप्सराओं के प्रस्ताव से नारायण के मन में ऊहापोह और नर का उन्हें समझाना तथा अहंकार के कारण प्रह्लाद के साथ हुए युद्ध का स्मरण कराना अहङ्कारावर्तनवर्णनम् व्यासजी बोले — उन देवांगनाओं का वचन सुनकर धर्मपुत्र प्रतापी नारायण अपने मन में विचार करने लगे कि इस समय मुझे क्या करना चाहिये ? यदि मैं इस समय विषयभोग में लिप्त होता हूँ तो मुनिसमुदाय में उपहास का पात्र बनूँगा। अहंकार से ही मुझे यह दुःख प्राप्त हुआ है; इसमें कोई संशय नहीं । धर्म के विनाश का मूल तथा प्रधान कारण अहंकार है । अतः महात्माओं ने ही उसे संसाररूपी वृक्ष का मूल कहा है ॥ १-२१/२ ॥ इन वारांगनाओं के समूह को आया हुआ देखकर मैं मौन धारणकर स्थित नहीं रह सका और प्रसन्नतापूर्वक मैंने इनसे वार्तालाप किया, इसीलिये मैं दुःख का भाजन हुआ। अपने धर्म का व्यय करके मैंने उन उर्वशी आदि स्त्रियों की व्यर्थ रचना की। ये कामार्त अप्सराएँ मेरी तपस्या में विघ्न डालने में प्रवृत्त हैं । मकड़ियों के द्वारा बनाये गये जाल की भाँति अब अपने ही द्वारा उत्पादित सुदृढ़ जाल में मैं बुरी तरह फँस गया हूँ, अब मुझे क्या करना चाहिये ? यदि चिन्ता छोड़कर इन स्त्रियों को अस्वीकार कर देता हूँ तो अपना मनोरथ निष्फल हुआ पाकर ये भ्रष्ट स्त्रियाँ मुझे शाप देकर चली जायँगी। तब इनसे छुटकारा पाकर मैं निर्जन स्थान में कठोर तप करूँगा। अतएव क्रोध उत्पन्न करके मैं इनका परित्याग कर दूँगा ॥ ३-७१/२ ॥ व्यासजी बोले — मुनि नारायण ने ऐसा निश्चय करके अपने मन में विचार किया कि सुख प्राप्ति के समस्त साधनों में [अहंकार के बाद ] यह क्रोध दूसरा प्रबल शत्रु है, जो अत्यन्त कष्ट प्रदान करता है। यह क्रोध संसार में काम तथा लोभ से भी अधिक भयंकर है। क्रोध के वशीभूत प्राणी प्राण-घातक हिंसा तक कर डालता है, जो ( हिंसा) सभी प्राणियों के लिये दुःखदायिनी तथा नरकरूपी बगीचे की बावली के तुल्य है। जिस प्रकार वृक्षों के परस्पर घर्षण से उत्पन्न अग्नि वृक्ष को ही जला डालती है, उसी प्रकार शरीर से उत्पन्न भीषण क्रोध उसी शरीर को जला डालता है ॥ ८-१११/२ ॥ व्यासजी बोले — इस प्रकार खिन्नमनस्क होकर चिन्तन करते हुए अपने भाई नारायण से उनके लघु भ्राता धर्मपुत्र नर ने यह तथ्यपूर्ण वचन कहा ॥ १२१/२ ॥ नर बोले — हे नारायण! हे महाभाग ! हे महामते ! आप क्रोध का त्याग कीजिये और शान्तभाव का आश्रय लेकर इस प्रबल अहंकार का नाश कीजिये; क्योंकि पूर्व समय में इसी अहंकार के दोष से हम दोनों का तप विनष्ट हो गया था ॥ १३-१४ ॥ अहंकार तथा क्रोध – इन्हीं दोनों भावों के कारण हम लोगों को असुरराज प्रह्लाद के साथ एक हजार दिव्य वर्षों तक अत्यन्त अद्भुत युद्ध करना पड़ा था । हे सुरश्रेष्ठ! उस युद्ध में हम दोनों को महान् क्लेश मिला था । अतएव हे मुनीश्वर ! आप क्रोध का परित्याग करके शान्त हो जाइये ॥ १५-१६ ॥ ( मुनियों ने शान्ति को तपस्या का मूल बतलाया है।) व्यासजी बोले — उनकी यह बात सुनकर धर्मपुत्र नारायण शान्त हो गये ॥ १६१/२ ॥ जनमेजय बोले — हे मुनिश्रेष्ठ ! मेरे मन में यह सन्देह उत्पन्न हो गया है कि शान्त स्वभाव वाले विष्णुभक्त महात्मा प्रह्लाद ने पूर्वकाल में यह युद्ध क्यों किया और ऋषि नर-नारायण ने भी संग्राम क्यों किया ? ॥ १७-१८ ॥ धर्मपुत्र नर-नारायण – ये दोनों ही अत्यन्त शान्त स्वभाववाले तपस्वी थे। ऐसी स्थिति में दैत्यपुत्र प्रह्लाद तथा उन दोनों ऋषियों का सम्पर्क कैसे हुआ ? ॥ १९ ॥ प्रह्लाद भी अत्यन्त धर्मपरायण, ज्ञानसम्पन्न तथा विष्णुभक्त थे, तब महात्मा प्रह्लाद ने उन ऋषियों के साथ युद्ध क्यों किया ? ॥ २० ॥ तपस्वी नर-नारायण भी प्रह्लाद की ही भाँति सात्त्विक भाव से सम्पन्न थे । उन दोनों ऋषियों तथा प्रह्लाद में यदि परस्पर वैर उत्पन्न हो गया तो फिर उनकी तपस्या तथा धर्माचरण के पालन में केवल परिश्रम ही उनके हाथ लगा। उस सत्ययुग में भी उनके जप तथा घोर तप कहाँ चले गये थे ? ॥ २१-२२ ॥ वैसे वे महात्मा भी क्रोध और अहंकार से भरे अपने मन को वश में नहीं कर सके। अहंकाररूपी बीज के अंकुरित हुए बिना क्रोध तथा मात्सर्य उत्पन्न नहीं होते हैं। यह निश्चित है कि काम-क्रोध आदि अहंकार से ही उत्पन्न होते हैं। हजार करोड़ वर्षों तक घोर तपस्या करने के पश्चात् भी यदि अहंकार का अंकुरण हुआ तो फिर सब कुछ निरर्थक हो जाता है। जिस प्रकार सूर्योदय होने पर अन्धकार नहीं ठहरता, उसी प्रकार अहंकाररूपी अंकुर के समक्ष पुण्य नहीं ठहर पाता है ॥ २३-२५१/२ ॥ हे महाभाग ! प्रह्लाद ने भी भगवान् नर-नारायण के साथ संग्राम किया, जिसके कारण पृथ्वी पर उनके द्वारा अर्जित समस्त पुण्य व्यर्थ हो गया ॥ २६१/२ ॥ शान्त स्वभाव वाले नर-नारायण भी अपनी कठिन तपस्या त्यागकर यदि युद्ध करने में तत्पर हुए तो फिर उनकी शान्तिवृत्ति तथा पुण्यशीलता का क्या महत्त्व रहा ? ॥ २७१/२ ॥ हे मुने! जब सात्त्विक भावों से सम्पन्न इस प्रकार के वे दोनों महात्मा भी अहंकार पर विजय प्राप्त करने में असमर्थ रहे, तब मेरे जैसे व्यक्तियों के लिये अहंकार नष्ट करने की बात ही क्या है ? इस त्रिलोक में ऐसा कोई भी प्राणी नहीं है जो अहंकार से मुक्त हो, इसी तरह ऐसा कोई भी न तो हुआ है और न होगा, जो अहंकार से पूर्णतया मुक्त हो ॥ २८-२९१/२ ॥ काष्ठ तथा लोहे की जंजीर में बँधा हुआ व्यक्ति बन्धनमुक्त हो सकता है, किंतु अहंकार से बँधा व्यक्ति कभी भी नहीं छूट सकता। यह सम्पूर्ण चराचर जगत् अहंकार से व्याप्त है ॥ ३०-३१ ॥ अहंकारी मनुष्य मल-मूत्र से प्रदूषित इस संसार में चक्कर काटता रहता है, तो फिर इस मोहाच्छन्न संसार में ब्रह्मज्ञान की कल्पना ही कहाँ रह गयी ? ॥ ३२ ॥ हे सुव्रत ! मुझे तो मीमांसकों का कर्म सिद्धान्त ही उचित प्रतीत होता है। हे मुने! जब महान्-से- महान् लोग भी काम, क्रोध आदि से सदा ग्रस्त रहते हैं, तब हे मुनिश्रेष्ठ! इस कलियुग में मुझ जैसे लोगों की बात ही क्या? ॥ ३३१/२ ॥ व्यासजी बोले — हे भारत ( जनमेजय ) ! कारण से कार्य भिन्न कैसे हो सकता है ? कड़ा तथा कुण्डल आकारमें भिन्न होते हुए भी स्वर्ण के सदृश होते हैं । चराचरसहित समस्त ब्रह्माण्ड अहंकार से उत्पन्न हुआ है । [ धागे से निर्मित होने के कारण] वस्त्र उसके अधीन कहा गया है, अतएव वस्त्ररूपी कार्य तन्तुरूपी कारण से पृथक् कैसे रह सकता है ? जब माया के तीनों गुणों द्वारा ही तिनके से लेकर पर्वत तक स्थावर-जंगमात्मक यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड विरचित है, तब सृष्टि के विषय में खेद किस बात का ? हे नृपश्रेष्ठ ! ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव भी अहंकार से मोहित होकर इस अत्यन्त अगाध संसार में भ्रमण करते रहते हैं । वसिष्ठ, नारद आदि परम ज्ञानी मुनिगण भी अहंकार के वशवर्ती होकर इस संसार में बार-बार आते-जाते रहते हैं। हे नृपश्रेष्ठ! तीनों लोकों में ऐसा कोई भी देहधारी नहीं है जो माया के इन गुणों से मुक्त होकर शान्ति धारण करता हुआ आत्मसुख का अनुभव कर सके। हे नृपश्रेष्ठ ! अहंकार से उत्पन्न काम, क्रोध, लोभ तथा मोह किसी भी देहधारी प्राणी को नहीं छोड़ते ॥ ३४-४०१/२ ॥ वेद-शास्त्रों का अध्ययन, पुराणों का पर्यालोचन, तीर्थभ्रमण, दान, ध्यान तथा देव-पूजन करके भी विषयासक्त प्राणी चोरों की भाँति सभी कर्म करता रहता है। काम, मोह और मद से युक्त होने के कारण प्राणी आरम्भ में कुछ विचार ही नहीं करता ॥ ४१–४२१/२ ॥ हे कुरुनन्दन ! सत्ययुग, त्रेता तथा द्वापर में भी धर्म का विरोध किया गया था, तो आज कलियुग में उसकी बात ही क्या ! इसमें तो द्रोह, स्पर्धा, लोभ तथा क्रोध सर्वदा ही विद्यमान हैं। संसार ऐसे ही स्वभाव वाला है; इस विषय में सन्देह नहीं करना चाहिये। संसार में मत्सरहीन साधु पुरुष विरले ही होते हैं। क्रोध तथा ईर्ष्यापर विजय प्राप्त कर लेने वाले तो दृष्टान्तमात्र के लिये मिलते हैं ॥ ४३-४५१/२ ॥ राजा बोले — वे लोग धन्य तथा पुण्यात्मा हैं, जिन्होंने मद तथा मोह से छुटकारा प्राप्त कर लिया है। जो सदाचारपरायण तथा जितेन्द्रिय हैं, उन्होंने मानो तीनों लोकोंप र विजय प्राप्त कर ली है। अपने महात्मा पिता के पाप का स्मरण करके मैं दु:खित रहता हूँ। उन्होंने बिना किसी अपराध के एक तपस्वी के गले में मरा हुआ सर्प डाल दिया । अतः हे मुनिवर ! अब मेरे आगे उनकी क्या गति होगी ? बुद्धि के मोहग्रस्त हो जाने पर क्या कार्य हो जायगा, यह मैं नहीं जानता। मूर्ख मनुष्य केवल मधु देखता है, किंतु उसके पास ही विद्यमान [गहरे] प्रपात की ओर नहीं निहारता । वह निन्दनीय कर्म करता रहता है और नरक से नहीं डरता ॥ ४६-४९१/२ ॥ [हे मुने!] अब आप मुझे विस्तारपूर्वक यह बताइये कि पूर्वकाल में प्रह्लाद के साथ नर-नारायण का घोर युद्ध क्यों हुआ था ? प्रह्लाद पाताललोक से नर-नारायण के पास कैसे पहुँचे, यह भी मुझे बताइये । शान्त स्वभाव वाले मुनिश्रेष्ठ नर-नारायण तो महान् तपस्वी थे और वे सारस्वत महातीर्थ पवित्र बदरिकाश्रम में रहते थे; तब हे मानद ! उन दोनों तपस्वियों ने प्रह्लाद के साथ युद्ध किस कारण से किया? ॥ ५०-५२१/२ ॥ प्रायः धन अथवा स्त्री के लिये लोगों में परस्पर शत्रुता होती है। तब हर प्रकार की इच्छाओं से रहित उन दोनों ने वह भीषण युद्ध क्यों किया और उन नर-नारायण को सनातन देवता जानते हुए भी महात्मा प्रह्लाद ने उनके साथ युद्ध क्यों किया ? हे ब्रह्मन् ! मैं विस्तारपूर्वक इसका कारण सुनना चाहता हूँ ॥ ५३–५५ ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत चतुर्थ स्कन्ध का ‘अहंकारावर्तनवर्णन’ नामक सातवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ७ ॥ Content is available only for registered users. 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