श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-चतुर्थ स्कन्धः-अध्याय-15
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
पूर्वार्द्ध-चतुर्थ: स्कन्धः-पञ्चदशोऽध्यायः
पन्द्रहवाँ अध्याय
देवता और दैत्यों के युद्ध में दैत्यों की विजय, इन्द्र द्वारा भगवती की स्तुति, भगवती का प्रकट होकर दैत्यों के पास जाना, प्रह्लाद द्वारा भगवती की स्तुति, देवी के आदेश से दैत्यों का पातालगमन
देवीकथनेन दानवानां रसातलं प्रति गमनम्

व्यासजी बोले — उन महात्मा शुक्राचार्य का यह वचन सुनकर राजकुमार प्रह्लाद अत्यन्त हर्षित हुए। प्रारब्ध को बलवान् मानकर प्रह्लाद ने उन दैत्यों से कहा — युद्ध करने पर भी विजय कभी नहीं होगी ॥ १-२ ॥ तदनन्तर विजय की अभिलाषा रखने वाले उन दानवों ने अभिमान से चूर होकर कहा — हमें तो निश्चितरूप से संग्राम करना चाहिये । दैव क्या है! इसे हम लोग नहीं जानते। हे दानवेश्वर ! उद्यमरहित लोगों के लिये ही दैव प्रधान होता है । दैव को किसने देखा है, कहाँ देखा है, दैव कैसा है और उसे किसने बनाया है! अतएव अब हमलोग बल का आश्रय लेकर युद्ध करेंगे। हे दैत्य श्रेष्ठ ! हे महामते ! आप सर्वज्ञ हैं, आप केवल हमारे आगे रहें ॥ ३-५ ॥

हे राजन् ! तब उन दैत्यों के ऐसा कहने पर महाबली शत्रुओं को भी मार डालने वाले प्रह्लाद ने उनका सेनाध्यक्ष बनकर देवताओं को युद्ध के लिये ललकारा ॥ ६ ॥ दैत्यों को समरांगण में डटे हुए देखकर उन सभी देवताओं ने भी अपनी पूरी तैयारी कर ली और वे उनके साथ युद्ध करने लगे ॥ ७ ॥ तदनन्तर इन्द्र और प्रह्लाद का वह भीषण संग्राम पूरे सौ वर्षों तक होता रहा। वह युद्ध मुनियों को विस्मित कर देने वाला था ॥ ८ ॥ हे राजन् ! शुक्राचार्य के द्वारा संरक्षित प्रह्लाद आदि प्रधान दैत्यों ने उस हो रहे महायुद्ध में विजय प्राप्त की ॥ ९ ॥ तब इन्द्र ने गुरु बृहस्पति के वचनानुसार सम्पूर्ण दुःखों को दूर करने वाली, मुक्ति देने वाली तथा परम कल्याणस्वरूपिणी भगवती का मन-ही-मन स्मरण किया ॥ १० ॥

॥ इन्द्र उवाच ॥
जय देवि महामाये शूलधारिणि चाम्बिके ।
शङ्खचक्रगदापद्मखड्गहस्तेऽभयप्रदे ॥ ११ ॥
नमस्ते भुवनेशानि शक्तिदर्शननायिके ।
दशतत्त्वात्मिके मातर्महाबिन्दुस्वरूपिणि ॥ १२ ॥
महाकुण्डलिनीरूपे सच्चिदानन्दरूपिणि ।
प्राणाग्निहोत्रविद्ये ते नमो दीपशिखात्मिके ॥ १३ ॥
पञ्चकोशान्तरगते पुच्छब्रह्मस्वरूपिणि ।
आनन्दकलिके मातः सर्वोपनिषदर्चिते ॥ १४ ॥
मातः प्रसीद सुमुखी भव हीनसत्त्वां-स्त्रायस्व नो जननि दैत्यपराजितान् वै ।
त्वं देवि नः शरणदा भुवने प्रमाणा शक्तासि दुःखशमनेऽखिलवीर्ययुक्ते ॥ १५ ॥
ध्यायन्ति येऽपि सुखिनो नितरां भवन्ति दुःखान्विताविगतशोकभयास्तथान्ये ।
मोक्षार्थिनो विगतमानविमुक्तसङ्गाः संसारवारिधिजलं प्रतरन्ति सन्तः ॥ १६ ॥
त्वं देवि विश्वजननि प्रथितप्रभावा संरक्षणार्थमुदितार्तिहरप्रतापा ।
संहर्तुमेतदखिलं किल कालरूपा को वेत्ति तेऽम्ब चरितं ननु मन्दबुद्धिः ॥ १७ ॥
ब्रह्मा हरश्च हरिदश्वरथो हरिश्च इन्द्रो यमोऽथ वरुणोऽग्निसमीरणौ च ।
ज्ञातुं क्षमा न मुनयोऽपि महानुभावा यस्याः प्रभावमतुलं निगमागमाश्च ॥ १८ ॥
धन्यास्त एव तव भक्तिपरा महान्तः संसारदुःखरहिताः सुखसिन्धुमग्नाः ।
ये भक्तिभावरहिता न कदापि दुःखा- म्भोधिं जनिक्षयतरङ्गमुमे तरन्ति ॥ १९ ॥
ये वीज्यमानाः सितचामरैश्च क्रीडन्ति धन्याः शिबिकाधिरूढाः ।
तैः पूजिता त्वं किल पूर्वदेहे नानोपहारैरिति चिन्तयामि ॥ २० ॥
ये पूज्यमाना वरवारणस्था विलासिनीवृन्दविलासयुक्ताः ।
सामन्तकैश्चोपनतैर्व्रजन्ति मन्ये हि तैस्त्वं किल पूजितासि ॥ २१ ॥

इन्द्र बोले — हे महामाये ! हे शूलधारिणि ! हे अम्बिके ! हे शंख, चक्र, गदा, पद्म तथा खड्ग से सुशोभित हाथोंवाली ! हे अभय प्रदान करनेवाली! हे देवि ! आपकी जय हो ॥ ११ ॥ हे भुवनेश्वरि ! हे शक्ति! हे शाक्तादि छः दर्शनों की नायिकास्वरूपिणि! हे दस तत्त्वों की अधिष्ठातृदेवि ! हे महाबिन्दुस्वरूपिणि! हे माता! आपको नमस्कार है ॥ १२ ॥ हे महाकुण्डलिनीस्वरूपे ! हे सच्चिदानन्दरूपिणि! हे प्राणाग्निहोत्रविद्ये! हे दीपशिखात्मिके ! हे [ अन्नमय, मनोमय, प्राणमय, विज्ञानमय, आनन्दमय ] पंचकोशों में सदा विराजमान रहने वाली! हे पुच्छब्रह्मस्वरूपिणि! हे आनन्दकलिके! सभी उपनिषदों द्वारा स्तुत हे माता! आपको नमस्कार है ॥ १३-१४ ॥ हे माता! आप हम पर प्रसन्न होने की कृपा करें और प्रफुल्लित मुखमण्डलवाली हो जायँ । हे जननि ! दैत्यों से पराजित हम निर्बलों की रक्षा कीजिये। हे देवि ! एकमात्र आप ही हमें शरण प्रदान करने वाली हैं; आप संसार में प्रमाणस्वरूपा हैं । हे समस्त पराक्रमों से युक्त भगवति! हम लोगों का दुःख दूर करने में आप पूर्ण समर्थ हैं ॥ १५ ॥
जो भी आपका ध्यान करते हैं, वे परम सुखी हो जाते हैं; और [ आपकी उपासना न करने वाले] दूसरे लोग दुःखी तथा शोक और भय से युक्त रहते हैं। मोक्ष की अभिलाषा रखने वाले अहंकारशून्य तथा आसक्तिरहित संत लोग संसार- सागर के असीम जल को पार कर लेते हैं ॥ १६ ॥

हे देवि ! हे विश्वजननि! आप विस्तृत प्रभाववाली हैं। भक्तों की रक्षा के लिये आप प्रकट हो जाती हैं। आप भक्तजनों का दुःख दूर करने में समर्थ प्रतापवाली हैं। इस सम्पूर्ण जगत् का संहार करने के लिये आप कालस्वरूपिणी हैं। हे अम्ब! कौन मन्दबुद्धि प्राणी आपका चरित्र जान सकता है ? ॥ १७ ॥ ब्रह्मा, विष्णु, महेश, सूर्य, इन्द्र, यम, वरुण, अग्नि, वायु, निगम, आगम तथा महातपस्वी मुनिगण भी आपकी अनुपम महिमा को जानने में समर्थ नहीं हैं ॥ १८ ॥ हे उमे! जो आपकी भक्ति में तत्पर हैं, वे ही परम धन्य हैं और सांसारिक दुःखों से मुक्त होकर सुख के समुद्र में डूबे रहते हैं; किंतु जो लोग आपकी भक्तिभावना से वंचित हैं, वे जन्म-मरणरूपी तरंगों वाले दुःखमय भवसागर को कभी भी पार नहीं कर सकते ॥ १९ ॥ जिन भाग्यशाली लोगों के ऊपर स्वच्छ चँवर डुलाये जा रहे हैं, जो हास-विलास का सुख भोग रहे हैं तथा जो सुन्दर यानों पर सवारी कर रहे हैं उनके विषय में मैं तो यही सोचता हूँ कि उन्होंने पूर्वजन्म में अनेकविध पूजनोपचारों से निश्चय ही आपकी पूजा की है ॥ २० ॥ पूजित होते हुए जो लोग उत्तम हाथियों पर विराजमान रहते हैं, जो रमणियों के साथ आमोद-प्रमोद में संलग्न हैं और जो विनम्र सामंतों के साथ चलते हैं, मैं मानता हूँ कि उन्होंने अवश्य आपकी पूजा की है ॥ २१ ॥

व्यासजी बोले — तब इन्द्र के इस प्रकार स्तुति करने पर भगवती विश्वेश्वरी तुरंत प्रकट हो गयीं। उस समय वे सिंह पर बैठी हुई थीं; वे चार भुजाओं से युक्त थीं; उन्होंने शंख, चक्र, गदा, पद्म धारण कर रखा था; उनके नेत्र सुन्दर थे; वे लाल वस्त्र पहने हुए थीं और वे देवी दिव्य मालाओं से विभूषित थीं ॥ २२-२३ ॥ प्रसन्न मुखमण्डल वाली भगवती ने उन देवताओं से कहा हे देवताओ! आप लोग भय का त्याग कर दें, अब मैं आप लोगों का कल्याण अवश्य करूँगी ॥ २४ ॥

तब ऐसा कहकर सिंह पर सवार वे परम सुन्दर भगवती तुरंत वहाँ चल पड़ीं, जहाँ अभिमानी दानव विद्यमान थे ॥ २५ ॥ प्रह्लाद आदि सभी प्रमुख दानव भगवती को सामने स्थित देखकर भयभीत हो आपस में कहने लगे कि अब हमें क्या करना चाहिये ? ॥ २६ ॥ सम्भवतः यह चण्डिका भगवान् नारायण से मिलकर यहाँ आयी है। इसी ने महिषासुर का वध किया था तथा चण्ड-मुण्ड का विनाश किया था। जिसने पूर्वकाल में अपनी वक्रदृष्टि से मधु-कैटभ का संहार कर डाला था, वह अम्बिका हम सबको अवश्य मार डालेगी ॥ २७-२८ ॥

इस प्रकार उन्हें चिन्ता से व्याकुल देखकर प्रह्लाद ने उनसे कहा — हे श्रेष्ठ दानवो ! इस समय हमें युद्ध नहीं करना चाहिये, बल्कि भागकर यहाँ से चले जाना चाहिये ॥ २९ ॥

तब भागने की चेष्टा करने वाले उन दैत्यों से नमुचि ने कहा ये जगन्माता भगवती कुपित होकर शस्त्रों से हम लोगों का संहार अवश्य कर देंगी। [इसके बाद उसने प्रह्लाद से कहा ] हे महाभाग ! आप ऐसा उपाय करें, जिससे हम लोगों को दुःख न मिले। उन भगवती की स्तुति करके उनकी आज्ञा से हमलोग इसी क्षण पाताल के लिये प्रस्थान कर दें ॥ ३०-३१ ॥

प्रह्लाद बोले — सृष्टि, पालन और संहार करने वाली, सभी प्राणियों की माता तथा भक्तों को अभय प्रदान करने वाली शक्तिस्वरूपा भगवती महामाया की मैं स्तुति करता हूँ ॥ ३२ ॥

व्यासजी बोले — ऐसा कहकर परमार्थवेत्ता विष्णुभक्त प्रह्लाद दोनों हाथ जोड़कर जगज्जननी भगवती की स्तुति करने लगे ॥ ३३ ॥

जिनमें यह सम्पूर्ण चराचर जगत् माला में सर्प की भाँति प्रतीत हो रहा है, सबकी अधिष्ठानस्वरूपा उन ‘ह्रीं’ मूर्तिधारिणी भगवती को नमस्कार है ॥ ३४ ॥ यह स्थावर-जंगमात्मक सम्पूर्ण विश्व आपसे ही उत्पन्न हुआ है। जो दूसरे कर्ता हैं, वे तो निमित्तमात्र हैं; क्योंकि वे भी आपके बनाये हुए हैं ॥ ३५ ॥ हे देवि ! आपको नमस्कार है। हे महामाये! आप सभी प्राणियों की जननी कही गयी हैं। स्वयं आपके ही द्वारा बनाये गये देवताओं और दैत्यों में आपका यह कैसा भेदभाव ! ॥ ३६ ॥ पुत्र अच्छे हों अथवा बुरे, उनमें माता का कैसा भेदभाव ? उसी प्रकार देवताओं और हम दैत्यों में आपको इस समय भेदभाव नहीं करना चाहिये ॥ ३७ ॥ हे माता ! दानव चाहे जिस किसी भी प्रकारके हों, किंतु वे आपके ही पुत्र हैं; क्योंकि आप पुराणों में विश्वजननी बतायी गयी हैं ॥ ३८ ॥ वे देवता भी तो निश्चितरूप से वैसे ही स्वार्थी हैं जैसे हम दैत्यगण । देवताओं और दैत्यों में अन्तर नहीं है। यह भेद केवल मोहजनित है ॥ ३९ ॥ जैसे हम लोग धन, स्त्री आदि के भोगों में दिन-रात आसक्त रहते हैं, वैसे ही देवता भी तो [विषय-भोगों में लीन] रहते हैं। अतः हे देवेश्वरि ! असुरों और देवताओं में भेद कैसा ? ॥ ४० ॥ वे भी कश्यपजी की संतान हैं और हम भी उन्हीं कश्यपजी से उत्पन्न हुए हैं। हे माता ! ऐसी स्थिति में हमारे प्रति आपके मन में यह विरोधभाव कैसे उत्पन्न हो गया ? ॥ ४१ ॥

हे माता ! जब सबकी उत्पत्ति में आप ही मूल कारण हैं, तो इस प्रकार भेद करना आपके लिये उचित नहीं है। देवताओं तथा हम दैत्यों में आपको समान व्यवहार रखना चाहिये ॥ ४२ ॥ गुणों से सम्बन्ध होने के कारण ही सम्पूर्ण देवता तथा दैत्य उत्पन्न हुए हैं। तब गुणों से युक्त केवल वे देहधारी देवता ही आपके प्रिय क्यों हैं ? ॥ ४३ ॥ काम, क्रोध और लोभ सभी प्राणियों के भीतर सदा विद्यमान रहते हैं। अत: कौन व्यक्ति विरोधभाव से शून्य रह सकता है ? ॥ ४४ ॥ मैं तो समझता हूँ कि अपने विनोद के लिये आपने ही युद्ध देखने की इच्छा से निश्चय ही [हम दैत्यों तथा देवताओं के बीच] भेद उत्पन्न करके परस्पर यह विरोधभाव पैदा कर दिया है। अन्यथा हे अनघे ! भाइयों में परस्पर विरोध कैसा? हे चामुण्डे! यदि आप [ दैत्यों तथा देवताओं में] कलह देखना न चाहतीं तो यह विरोधभाव नहीं होता ॥ ४५-४६ ॥ हे धर्मज्ञे ! मैं धर्म को जानता हूँ और इन्द्र को भी भलीभाँति जानता हूँ, तथापि हे देवि ! भोग के लिये हम लोगों के बीच कलह सदा से होता रहा है ॥ ४७ ॥

हे अम्बिके! आपके अतिरिक्त संसार में कोई भी एक शासक नहीं है। कौन बुद्धिमान् प्राणी किसी लोभी की बात पर विश्वास करेगा? किसी समय की बात है देवताओं और असुरों ने मिलकर इस समुद्र का मन्थन किया। किंतु विष्णु ने अमृतरत्न के विभाजन में छलपूर्वक देवताओं और असुरों में भेदभाव किया ॥ ४८-४९ ॥ आपने पालन- कार्य के लिये विष्णु को जगद्गुरु बनाया है, किंतु उन्होंने लोभवश दिव्य सुन्दरी लक्ष्मी को स्वयं अपना लिया ॥ ५० ॥ उसी प्रकार विष्णु की ही इच्छा से इन्द्र ने ऐरावत हाथी, पारिजात, कामधेनु तथा उच्चैः श्रवा घोड़े को ले लिया तथा अन्य देवताओं ने शेष सब कुछ ग्रहण कर लिया ॥ ५१ ॥ इस प्रकार का अन्याय करके देवता साधु बन गये ! ( यदि आप धर्म का लक्षण देखें तो उससे ज्ञात हो जायगा कि देवता निश्चितरूप से अन्यायी हैं ।) महाभिमानी विष्णु ने ऐसे अन्यायी देवताओं को उच्च स्थानों पर प्रतिष्ठित किया। इसके विपरीत दैत्यगण पराभूत हुए; अब आप ही धर्म का लक्षण देख लीजिये । धर्म कहाँ है, धर्म का स्वरूप कैसा है, कैसा कार्य हुआ है और साधुता कहाँ है ? ॥ ५२-५३ ॥

अब मैं किसके आगे अपनी बात कहूँ? मैमांसिक मत तो प्रसिद्ध ही है । [ मीमांसक निरीश्वरवाद का समर्थन करते हैं] नैयायिक विद्वान् युक्तिवाद के ज्ञाता और वैदिक विद्वान् विधि के ज्ञाता कहे गये हैं। कुछ लोग विश्व को सकर्तृक मानते हैं। [उनमें कुछ लोग विश्व का रचयिता ‘पुरुष’ को और कुछ लोग ‘प्रकृति’ को बताते हैं ] जड़वादी लोग इससे विपरीत प्रकार की बात करते हैं। यदि इस विस्तृत संसार में कोई एक कर्ता होता तो एक ही कर्म के विषय में लोगों में परस्पर विरोध कैसे होता ? वेद में एक मत नहीं है और उसी प्रकार शास्त्रों में भी मतैक्य नहीं है। उन वेदविदों के वचन में भी एकवाक्यता नहीं है; क्योंकि यह समस्त स्थावर-जंगमात्मक जगत् ही स्वार्थपरायण है। संसार में कोई भी न तो नि:स्पृह हुआ है और न होगा ॥ ५४–५७१/२

चन्द्रमा ने जान-बूझकर अपने गुरु बृहस्पति की भार्या का बलपूर्वक हरण कर लिया। उसी प्रकार धर्म का निर्णय जानते हुए भी इन्द्र ने महर्षि गौतम की पत्नी के साथ अनाचार किया। देवगुरु बृहस्पति ने अपने छोटे भाई की गर्भवती भार्या के साथ रमण किया और गर्भस्थ शिशु को शाप दे दिया तथा उसे अन्धा बना दिया ॥ ५८-५९१/२

हे अम्बिके! सत्त्व- सम्पन्न होते हुए भी विष्णु ने बलपूर्वक सुदर्शनचक्र से निरपराध राहु का सिर काट लिया । मेरा पौत्र बलि धर्मात्माओं में श्रेष्ठ, वीर, सत्यव्रत में संलग्न रहने वाला, यज्ञकर्ता, महादानी, शान्त, सर्वज्ञ तथा सबका सम्मान करने वाला था । पूर्वकाल में कपट ज्ञानी विष्णु ने वामन का रूप धारण करके उस बलि के साथ भी छल किया और उसका सारा राज्य छीन लिया। फिर भी विद्वान् लोग देवताओं को धर्मनिष्ठ कहते हैं और चाटुकारितापूर्ण वचन बोलते हैं कि धर्मवादी होने के कारण ही देवता विजय को प्राप्त हुए। हे जगज्जननि! यह सब सोच- समझकर आप जैसा चाहें, वैसा करें। सभी दानव आपकी शरणमें हैं, अब आप उनका संहार करें अथवा उनकी रक्षा करें ॥ ६०–६४१/२

श्रीदेवी बोलीं — हे दानवो! तुम सब लोग पाताल चले जाओ और वहाँ पर निर्भय तथा शोकरहित होकर इच्छानुसार निवास करो। अभी तुम लोगों को समय की प्रतीक्षा करनी चाहिये । वह काल ही अच्छे या बुरे कार्य में कारण बनता है ॥ ६५-६६ ॥ परम सन्तोषी लोगों को सभी जगह सदा सुख-ही- सुख है, किंतु लोभयुक्त मन वाले लोगों को तीनों लोकों का राज्य मिल जाने पर भी सुख नहीं प्राप्त होता । सत्ययुग में भी नानाविध भोगों के रहते प्रबल कामना वाले लोगों का सुख कभी पूरा नहीं हुआ। अतः सभी दैत्य मेरी आज्ञा मानकर इस पृथ्वी को छोड़कर अभी पाताल में चले जायँ और वहाँ निष्पाप होकर रहें ॥ ६७-६८ ॥

व्यासजी बोले — भगवती का यह वचन सुनकर सभी दानवों ने ‘ठीक है’ – ऐसा कहकर उन्हें प्रणाम किया और उनकी शक्ति से रक्षित होकर वे वहाँ से चल पड़े। तत्पश्चात् भगवती अन्तर्धान हो गयीं और देवता अपने-अपने लोक चले गये। उस समय सभी देवता तथा दानव वैर भाव छोड़कर रहने लगे ॥ ६९-७०१/२

जो मनुष्य इस सम्पूर्ण कथानक को सुनता अथवा कहता है, वह सभी दुःखों से मुक्त होकर परमपद प्राप्त कर लेता है ॥ ७१-७२ ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकोंवाली श्रीमद्देवीभागवतमहापुराणसंहिताके अन्तर्गत चतुर्थ स्कन्धका ‘देवीके कहनेसे दानवोंका रसातलगमन’ नामक पन्द्रहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १५ ॥

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