श्रीमद्भागवतमहापुराण – अष्टम स्कन्ध – अध्याय १०
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
ॐ श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
दसवाँ अध्याय
देवासुर-संग्राम

श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! यद्यपि दानवों और दैत्यों ने बड़ी सावधानी से समुद्रमन्थन की चेष्टा की थी, फिर भी भगवान् से विमुख होने के कारण उन्हें अमृत की प्राप्ति नहीं हुई ॥ १ ॥ राजन् ! भगवान् ने समुद्र से मथकर अमृत निकाला और अपने निजजन देवताओं को पिला दिया । फिर सबके देखते-देखते वे गरुड पर सवार हुए और वहाँ से चले गये ॥ २ ॥ जब दैत्यों ने देखा कि हमारे शत्रुओं को तो बड़ी सफलता मिली, तब वे उनकी बढ़ती सह न सके । उन्होंने तुरंत अपने हथियार उठाये और देवताओं पर धावा बोल दिया ॥ ३ ॥ इधर देवताओं ने एक तो अमृत पीकर विशेष शक्ति प्राप्त कर ली थी और दूसरे उन्हें भगवान् के चरणकमलों का आश्रय था ही । बस, वे भी अपने अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित हो दैत्यों से भिड़ गये ॥ ४ ॥ परीक्षित् ! क्षीरसागर के तट पर बड़ा ही रोमाञ्चकारी और अत्यन्त भयङ्कर संग्राम हुआ । देवता और दैत्यों की वह घमासान लड़ाई ही ‘देवासुरसंग्राम’ के नाम से कही जाती है ॥ ५ ॥

दोनों ही एक-दूसरे के प्रबल शत्रु हो रहे थे, दोनों ही क्रोध से भरे हुए थे । एक-दूसरे को आमने-सामने पाकर तलवार, बाण और अन्य अनेकानेक अस्त्र-शस्त्रों से परस्पर चोट पहुँचाने लगे ॥ ६ ॥ उस समय लड़ाई में शङ्ख, तुरही, मृदङ्ग, नगारे और डमरू बड़े जोर से बजने लगे; हाथियों की चिघाड़, घोड़ों की हिनहिनाहट, रथों की घरघराहट और पैदल सेना की चिल्लाहट से बड़ा कोलाहल मच गया ॥ ७ ॥ रणभूमि में रथियों के साथ रथी, पैदल के साथ पैदल, घुड़सवारों के साथ घुड़सवार एवं हाथीवालों के साथ हाथीवाले भिड़ गये ॥ ८ ॥ उनमें से कोई-कोई वीर ऊँटों पर, हाथियों पर और गधों पर चढ़कर लड़ रहे थे तो कोई-कोई गौरमृग, भालू, बाघ और सिंहों पर ॥ ९ ॥ कोई-कोई सैनिक गिद्ध, कङ्क, बगुले, बाज और भास पक्षियों पर चढ़े हुए थे तो बहुत-से तिमिङ्गिल मच्छ, शरभ, भैंसे, गैड़े, बैल, नीलगाय और जंगली साँड़ों पर सवार थे ॥ १० ॥ किसी-किसी ने सियारिन, चूहे, गिरगिट और खरहों पर ही सवारी कर ली थी तो बहुत-से मनुष्य, बकरे, कृष्णसार मृग, हंस और सूअरों पर चढ़े थे ॥ ११ ॥ इस प्रकार जल, स्थल एवं आकाश में रहनेवाले तथा देखने में भयङ्कर शरीरवाले बहुत-से प्राणियों पर चढ़कर कई दैत्य दोनों सेनाओं में आगे-आगे घुस गये ॥ १२ ॥

परीक्षित् ! उस समय रंग-बिरंगी पताकाओं, स्फटिक मणि के समान श्वेत निर्मल छत्रों, रत्नों से जुड़े हुए दण्डवाले बहुमूल्य पंखों, मोरपंखों, चँवरों और वायु से उड़ते हुए दुपट्टों, पगड़ी, कलैगी, कवच, आभूषण तथा सूर्य की किरण से अत्यन्त दमकते हुए उज्ज्वल शस्त्रों एवं वीरों की पंक्तियों के कारण देवता और असुरों की सेनाएँ ऐसी शोभायमान हो रही थीं, मानो जल-जन्तुओं से भरे हुए दो महासागर लहरा रहे हों ॥ १३-१५ ॥ परीक्षित् ! रणभूमि में दैत्यों के सेनापति विरोचनपुत्र बलि मय दानव के बनाये हुए वैहायस नामक विमान पर सवार हुए । वह विमान चलानेवाले की जहाँ इच्छा होती थी, वहीं चला जाता था ॥ १६ ॥ युद्ध की समस्त सामग्रियाँ उसमें सुसज्जित थीं । परीक्षित् ! वह इतना आश्चर्यमय था कि कभी दिखलायी पड़ता तो कभी अदृश्य हो जाता । वह इस समय कहाँ है जब इस बात का अनुमान भी नहीं किया जा सकता था, तब बतलाया तो कैसे जा सकता था ॥ १७ ॥ उसी श्रेष्ठ विमान पर राजा बलि सवार थे । सभी बड़े बड़े सेनापति उनको चारों ओर से घेरे हुए थे । उन पर श्रेष्ठ चमर डुलाये जा रहे थे और छत्र तना हुआ था । उस समय बलि ऐसे जान पड़ते थे, जैसे उदयाचल पर चन्द्रमा ॥ १८ ॥

उनके चारों ओर अपने-अपने विमानों पर सेना की छोटी-छोटी टुकड़ियों के स्वामी नमुचि, शम्बर, बाण, विप्रचित्ति, अयोमुख, द्विमूर्धा, कालनाभ, प्रहेति, हेति, इल्वल, शकुनि, भूतसन्ताप, वज्रदंष्ट्र, विरोचन, हयग्रीव, शङ्कुशिरा, कपिल, मेघदुन्दुभि, तारक, चक्राक्ष, शुम्भ, निशुम्भ, जम्भ, उत्कल, अरिष्ट, अरिष्टनेमि, त्रिपुराधिपति मय, पौलोम, कालेय और निवातकवच आदि स्थित थे ॥ १९-२२ ॥ ये सब-के-सब समुद्रमन्थन में सम्मिलित थे । परन्तु इन्हें अमृत का भाग नहीं मिला, केवल क्लेश ही हाथ लगा था । इन सब असुरों ने एक नहीं अनेक बार युद्ध में देवताओं को पराजित किया था ॥ २३ ॥ इसलिये वे बड़े उत्साह से सिंहनाद करते हुए अपने घोर स्वरवाले शङ्ख बजाने लगे । इन्द्र ने देखा कि हमारे शत्रुओं का मन बढ़ रहा हैं, ये मदोन्मत्त हो रहे हैं, तब उन्हें बड़ा क्रोध आया ॥ २४ ॥ वे अपने वाहन ऐरावत नामक दिग्गज पर सवार हुए । उसके कपोलों से मद बह रहा था । इसलिये इन्द्र की ऐसी शोभा हुई, मानो भगवान् सूर्य उदयाचल पर आरूढ़ हों और उससे अनेकों झरने बह रहे हों ॥ २५ ॥

इन्द्र के चारों ओर अपने-अपने वाहन, ध्वजा और आयुधों से युक्त देवगण एवं अपने-अपने गणों के साथ वायु, अग्नि, वरुण आदि लोकपाल हो लिये ॥ २६ ॥ दोनों सेनाएँ आमने-सामने खड़ी हो गयी । दो-दो की जोड़ियाँ बनाकर वे लोग लड़ने लगे । कोई आगे बढ़ रहा था, तो कोई नाम ले-लेकर ललकार रहा था । कोई कोई मर्मभेदी वचनों के द्वारा अपने प्रतिद्वन्द्वी को धिक्कार रहा था ॥ २७ ॥ बलि इन्द्र से, स्वामिकार्तिक तारकासुर से, वरुण हेति से और मित्र प्रहेति से भिड़ गये ॥ २८ ॥ यमराज कालनाभ से, विश्वकर्मा मय से, शम्बरासुर त्वष्टा से तथा सविता विरोचन से लड़ने लगे ॥ २९ ॥ नमुचि अपराजित से, अश्विनीकुमार वृषपर्वा से तथा सूर्यदेव बलि के बाण आदि सौ पुत्रों से युद्ध करने लगे ॥ ३० ॥ राहु के साथ चन्द्रमा और पुलोमा के साथ वायु का युद्ध हुआ । भद्रकाली देवी निशुम्भ और शुम्भ पर झपट पड़ी ॥ ३१ ॥

परीक्षित् ! जम्भासुर से महोदवजी की, महिषासुर से अग्निदेव की और वातापि तथा इल्वल से ब्रह्मा के पुत्र मरीचि आदि की ठन गयी ॥ ३२ ॥ दुर्मर्ष की कामदेव से, उत्कल की मातृगणों से, शुक्राचार्य की बृहस्पति से और नरकासुर की शनैश्चर से लड़ाई होने लगी ॥ ३३ ॥ निवातकवचों के साथ मरुद्गण, कालेयों के साथ वसुगण, पौलोमों के साथ विश्वेदेवगण तथा क्रोधवशों के साथ रुद्रगण का संग्राम होने लगा ॥ ३४ ॥

इस प्रकार असुर और देवता रणभूमि में द्वन्द्वयुद्ध और सामूहिक आक्रमण द्वारा एक दूसरे से भिड़कर परस्पर विजय की इच्छा से उत्साहपूर्वक तीखे, तलवार और भालों से प्रहार करने लगे । वे तरह-तरह से युद्ध कर रहे थे ॥ ३५ ॥ भुशुण्डि, चक्र, गदा, ऋष्टि, पट्टिश, शक्ति, उल्मुक, प्रास, फरसा, तलवार, भाले, मुद्गर, परिघ और भिन्दिपाल से एक-दूसरे का सिर काटने लगे ॥ ३६ ॥ उस समय अपने सवारों के साथ हाथी, घोड़े, रथ आदि अनेकों प्रकार के वाहन और पैदल सेना छिन्न-भिन्न होने लगी । किसी की भुजा, किसी की जङ्घा, किसी की गरदन और किसी के पैर कट गये तो किसी-किसी की ध्वजा, धनुष, कवच और आभूषण ही टुकड़े-टुकड़े हो गये ॥ ३७ ॥ उनके चरणों की धमक और रथ के पहियों की रगड़ से पृथ्वी खुद गयी । उस समय रणभूमि से ऐसी प्रचण्ड धूल उठी कि उसने दिशा, आकाश और सूर्य को भी ढक दिया । परन्तु थोड़ी ही देर में खून की धारा से भूमि आप्लावित हो गयी और कहीं धूल का नाम भी न रहा ॥ ३८ ॥ तदनन्तर लड़ाई का मैदान कटे हुए सिरों से भर गया । किसी के मुकुट और कुण्डल गिर गये थे, तो किसी की आँखों से क्रोध की मुद्रा प्रकट हो रही थी । किसी-किसी ने अपने दाँतों से होंठ दबा रक्खा था । बहुतों के आभूषणों और शस्त्रों से सुसज्जित लंबी-लंबी भुजाएँ कटकर गिरी हुई थीं और बहुतों की मोटी-मोटी जांघे कटी हुई पड़ी थी । इस प्रकार वह रणभूमि बड़ी भीषण दीख रही थी ॥ ३९ ॥ तब वहाँ बहुत-से धड़ अपने कटकर गिरे हुए सिरों के नेत्रों से देखकर हाथों में हथियार उठा वीरों की ओर दौड़ने और उछलने लगे ॥ ४० ॥

राजा बलि ने दस बाण इन्द्र पर, तीन उनके वाहन ऐरावत पर, चार ऐरावत के चार चरण-रक्षकों पर और एक मुख्य महावत पर इस प्रकार कुल अठारह बाण छोड़े ॥ ४१ ॥ इन्द्र ने देखा कि बलि के बाण तो हमें घायल करना ही चाहते हैं । तब उन्होंने बड़ी फुर्ती से उतने ही तीखे भल्ल नामक बाणों से उनको वहाँ तक पहुँचने के पहले ही हँसते-हँसते काट डाला ॥ ४२ ॥ इन्द्र की यह प्रशंसनीय फुर्ती देखकर राजा बलि और भी चिढ़ गये । उन्होंने एक बहुत बड़ी शक्ति जो बड़े भारी लुके के समान जल रही थी, उठायी । किन्तु अभी वह उनके हाथ में ही थीं छूटने नहीं पायी थी कि इन्द्र ने उसे भी काट वाला ॥ ४३ ॥ इसके बाद वलि ने एक के पीछे एक क्रमशः शूल, प्रास, तोमर और शक्ति उठायी । परन्तु वे जो-जो शस्त्र हाथ में उठाते, इन्द्र उन्हें टुकड़े-टुकड़े कर डालते । इस हस्तलाघव से इन्द्र का ऐश्वर्य और भी चमक उठा ॥ ४४ ॥

परीक्षित् ! अब इन्द्र की फुर्ती से घबराकर पहले तो बलि अन्तर्धान हो गये, फिर उन्होंने आसुरी माया की सृष्टि की । तुरंत ही देवताओं की सेना के ऊपर एक पर्वत प्रकट हुआ ॥ ४५ ॥ उस पर्वत से दावाग्नि से जलते हुए वृक्ष और टाँकी — जैसी तीखी धारवाले शिखरों के साथ नुकीली शिलाएँ गिरने लगी । इससे देवताओं की सेना चकनाचूर होने लगी ॥ ४६ ॥ तत्पश्चात् बड़े-बड़े साँप, दन्दशूक, बिच्छू और अन्य विषैले जीव उछल-उछलकर काटने और डंक मारने लगे । सिंह, बाघ और सूअर दैव-सेना के बड़े-बड़े हाथियों को फाड़ने लगे ॥ ४७ ॥ परीक्षित् ! हाथों में शूल लिये ‘मारो-काटो’ इस प्रकार चिल्लाती हुई सैंकड़ों नंग-धडंग राक्षसियों और राक्षस भी वहाँ प्रकट हो गये ॥ ४८ ॥ कुछ ही क्षण बाद आकाश में बादलों की घनघोर घटाएँ मँडराने लगीं, उनके आपस में टकराने से बड़ी गहरी और कठोर गर्जना होने लगी, बिजलियाँ चमकने लगीं और आँधी के झकझोरने से बादल अंगारों की वर्षा करने लगे ॥ ४९ ॥ दैत्यराज बलि ने प्रलय की अग्नि के समान बड़ी भयानक आग की सृष्टि की । वह बात-की-बात में वायु की सहायता से देवसेना को जलाने लगी ॥ ५० ॥ थोड़ी ही देर में ऐसा जान पड़ा कि प्रबल आँधी के थपेड़ों से समुद्र में बड़ी-बड़ी लहरें और भयानक भंवर उठ रहे हैं और वह अपनी मर्यादा छोड़कर चारों ओर से देव-सेना को घेरता हुआ उमड़ा आ रहा हैं ॥ ५१ ॥ इस प्रकार जब उन भयानक असुरों ने बहुत बड़ी माया की सृष्टि की और स्वयं अपनी माया के प्रभाव से छिप रहे — न दीखने के कारण उन पर प्रहार भी नहीं किया जा सकता था, तब देवताओं के सैनिक बहुत दुखी हो गये ॥ ५२ ॥

परीक्षित् ! इन्द्र आदि देवताओं ने उनकी माया का प्रतीकार करने के लिये बहुत कुछ सोचा-विचारा, परन्तु उन्हें कुछ न सूझा । तब उन्होंने विश्व के जीवनदाता भगवान् का ध्यान किया और ध्यान करते ही वे वहीं प्रकट हो गये ॥ ५३ ॥ बड़ी ही सुन्दर झाँकी थी । गरुड़ के कंधे पर उनके चरणकमल विराजमान थे । नवीन कमल के समान बड़े ही कोमल नेत्र थे । पीताम्बर धारण किये हुए थे । आठ भुजाओं में आठ आयुध, गले में कौस्तुभमणि, मस्तक पर अमूल्य मुकुट एवं कानों में कुण्डल झलमला रहे थे । देवताओं ने अपने नेत्रों से भगवान् की इस छवि का दर्शन किया ॥ ५४ ॥ परम पुरुष परमात्मा के प्रकट होते ही उनके प्रभाव से असुरों की वह कपटभरी माया विलीन हो गयी — ठीक वैसे ही जैसे जग जाने पर स्वप्न की वस्तुओं का पता नहीं चलता । ठीक ही हैं, भगवान् की स्मृति समस्त विपत्तियों से मुक्त कर देती है ॥ ५५ ॥

इसके बाद कालनेमि दैत्य ने देखा कि लड़ाई के मैदान में गरुड़वाहन भगवान् आ गये हैं, तब उसने अपने सिंह पर बैठे-ही-बैठे बड़े वेग से उनके ऊपर एक त्रिशूल चलाया । वह गरुड़ के सिर पर लगनेवाला ही था कि खेल-खेल में भगवान् ने उसे पकड़ लिया और उसी त्रिशूल से उसके चलानेवाले कालनेमि दैत्य तथा उसके वाहन को मार डाला ॥ ५६ ॥ माली और सुमाली — दो दैत्य बड़े बलवान् थे, भगवान् ने युद्ध में अपने चक्र से उनके सिर भी काट वाले और वे निर्जीव होकर गिर पड़े । तदनन्तर माल्यवान् ने अपनी प्रचण्ड गदा से गरुड पर बड़े वेग के साथ प्रहार किया । परन्तु गर्जना करते हुए माल्यवान् के प्रहार करते-न-करते ही भगवान् ने चक्र से उसके सिर को भी घड़ से अलग कर दिया ॥ ५७ ॥

॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां अष्टमस्कन्धे दशमोऽध्यायः ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

श्रीमद्भागवत पुराण

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