श्रीमद्भागवतमहापुराण – एकादशः स्कन्ध – अध्याय २९
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
ॐ श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
उनतीसवाँ अध्याय |
भागवतधर्मों का निरूपण और उद्धवजी का बदरिकाश्रम गमन

उद्धवजी ने कहा — अच्युत ! जो अपना मन वश में नहीं कर सका है, उसके लिये आपकी बतलायी हुई इस योगसाधना को तो मैं बहुत ही कठिन समझता हूँ । अतः अब आप कोई ऐसा सरल और सुगम साधन बतलाइये, जिससे मनुष्य अनायास ही परमपद प्राप्त कर सके ॥ १ ॥ कमलनयन ! आप जानते ही हैं कि अधिकांश योगी जब अपने मन को एकाग्र करने लगते हैं, तब वे बार-बार चेष्टा करने पर भी सफल न होने के कारण हार मान लेते हैं और उसे वश में न कर पाने के कारण दुखी हो जाते हैं ॥ २ ॥ पद्मलोचन ! आप विश्वेश्वर हैं ! आपके ही द्वारा सारे संसार का नियमन होता है । इससे सारासार-विचार में चतुर मनुष्य आपके आनन्दवर्षी चरणकमलों की शरण लेते हैं और अनायास ही सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं । आपकी माया उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकती, क्योंकि उन्हें योगसाधन और कर्मानुष्ठान का अभिमान नहीं होता । परन्तु जो आपके चरणों का आश्रय नहीं लेते, वे योगी और कर्मी अपने साधन के घमंड से फूल जाते हैं; अवश्य ही आपको माया ने उनकी मति हर ली है ॥ ३ ॥ प्रभो ! आप सबके हितैषी सुहृद् हैं । आप अपने अनन्य शरणागत बलि आदि सेवकों के अधीन हो जायें, यह आपके लिये कोई आश्चर्य की बात नहीं है, क्योंकि आपने रामावतार ग्रहण करके प्रेमवश वानरों से भी मित्रता का निर्वाह किया । यद्यपि ब्रह्मा आदि लोकेश्वरगण भी अपने दिव्य किरीटों को आपके चरणकमल रखने की चौकी पर रगड़ते रहते हैं ॥ ४ ॥

प्रभो ! आप सबके प्रियतम, स्वामी और आत्मा हैं । आप अपने अनन्य शरणागतों को सब कुछ दे देते हैं । आपने बलि-प्रह्लाद आदि अपने भक्तों को जो कुछ दिया है, उसे जानकर ऐसा कौन पुरुष होगा जो आपको छोड़ देगा ? यह बात किसी प्रकार बुद्धि में ही नहीं आती कि भला, कोई विचारवान् विस्मृति के गर्त में डालनेवाले तुच्छ विषयों में ही फंसा रखनेवाले भोगों से क्यों चाहेगा ? हमलोग आपके चरणकमलों की रज के उपासक हैं । हमारे लिये दुर्लभ ही क्या है? ॥ ५ ॥ भगवन् ! आप समस्त प्राणियों के अन्तःकरण में अन्त्तर्यामीरूप से और बाहर गुरु-रूप से स्थित होकर उनके सारे पाप-ताप मिटा देते हैं और अपने वास्तविक स्वरूप को उनके प्रति प्रकट कर देते हैं । बड़े-बड़े ब्रह्मज्ञानी ब्रह्माजी के समान लम्बी आयु पाकर भी आपके उपकारों का बदला नहीं चुका सकते । इससे वे आपके उपकार का स्मरण करके क्षण-क्षण अधिकाधिक आनन्द का अनुभव करते रहते हैं ॥ ६ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! भगवान् श्रीकृष्ण ब्रह्मादि ईश्वरों के भी ईश्वर हैं । वे ही सत्त्व-रज आदि गुणों के द्वारा ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र का रूप धारण करके जगत् की उत्पत्ति-स्थिति आदि के खेल खेला करते हैं । जब उद्धवजी ने अनुरागभरे चित्त से उनसे यह प्रश्न किया, तब उन्होंने मन्द-मन्द मुसकराकर बड़े प्रेम से कहना प्रारम्भ किया ॥ ७ ॥

श्रीभगवान् ने कहा — प्रिय उद्धव ! अब मैं तुम्हें अपने उन मङ्गलमय भागवतधर्मोंका उपदेश करता हूँ, जिनका श्रद्धापूर्वक आचरण करके मनुष्य संसाररूप दुर्जय मृत्यु को अनायास ही जीत लेता है ॥ ८ ॥ उद्धवजी ! मेरे भक्त को चाहिये कि अपने सारे कर्म मेरे लिये ही करे और धीर-धीरे उनको करते समय मेरे स्मरण का अभ्यास बढ़ाये । कुछ ही दिनों में उसके मन और चित्त मुझमें समर्पित हो जायेंगे । उसके मन और आत्मा मेरे ही धर्मों में रम जायेंगे ॥ ९ ॥ मेरे भक्त साधुजन जिन पवित्र स्थानों में निवास करते हों, उन्हीं में रहे और देवता, असुर अथवा मनुष्यों में जो मेरे अनन्य भक्त हों, उनके आचरणों का अनुसरण करे ॥ १० ॥ पर्व के अवसरों पर सबके साथ मिलकर अथवा अकेला ही नृत्य, गान, वाद्य आदि महाराजोचित ठाट-बाट से मेरी यात्रा आदि के महोत्सव करे ॥ ११ ॥ शुद्धान्तःकरण पुरुष आकाश के समान बाहर और भीतर परिपूर्ण एवं आवरणशून्य मुझ परमात्मा को ही समस्त प्राणियों और अपने हृदय में स्थित देखे ॥ १२ ॥ निर्मलबुद्धि उद्धवजी ! जो साधक केवल इस ज्ञानदृष्टि का आश्रय लेकर सम्पूर्ण प्राणियों और पदार्थों में मेरा दर्शन करता है और उन्हें मेरा ही रूप मानकर सत्कार करता है तथा ब्राह्मण और चाण्डाल, चोर और ब्राह्मणभक्त, सूर्य और चिनगारी तथा कृपालु और क्रूर में समानदृष्टि रखता है, उसे ही सच्चा ज्ञानी समझना चाहिये ॥ १३-१४ ॥

जब निरन्तर सभी नर-नारियों में मेरी ही भावना की जाती हैं, तब थोड़े ही दिनों में साधक के चित्त से स्पर्धा (होड़), ईर्ष्या, तिरस्कार और अहङ्कार आदि दोष दूर हो जाते हैं ॥ १५ ॥ अपने ही लोग यदि हँसी करें तो करने दे, उनकी परवा न करे; ‘मैं अच्छा हूँ, वह बुरा हैं’ ऐसी देहदृष्टि को और लोक-लज्जा को छोड़ दे और कुत्ते, चाण्डाल, गौ एवं गधे को भी पृथ्वी पर गिरकर साष्टाङ्ग दण्डवत्-प्रणाम करे ॥ १६ ॥ जब तक समस्त प्राणियों में मेरी भावना-भगवद्-भावना न होने लगे, तब तक इस प्रकार से मन, वाणी और शरीर के सभी संकल्पों और कर्मों के द्वारा मेरी उपासना करता रहे ॥ १७ ॥ उद्धवजीं ! जब इस प्रकार सर्वत्र आत्मबुद्धि-ब्रह्मबुद्धि का अभ्यास किया जाता है, तब थोड़े ही दिनों में उसे ज्ञान होकर सब कुछ ब्रह्मस्वरूप दीखने लगता है । ऐसी दृष्टि हो जाने पर सारे संशय-सन्देह अपने आप निवृत्त हो जाते हैं और वह सब कहीं मेरा साक्षात्कार करके संसारदृष्टि से उपराम हो जाता है ॥ १८ ॥ मेरी प्राप्ति के जितने साधन हैं, उनमें मैं तो सबसे श्रेष्ठ साधन यही समझता हूँ कि समस्त प्राणियों और पदार्थों में मन, वाणी और शरीर की समस्त वृत्तियों से मेरी ही भावना की जाय ॥ १९ ॥

उद्धवजी ! यही मेरा अपना भागवतधर्म है, इसको एक बार आरम्भ कर देने के बाद फिर किसी प्रकार की विघ्न-बाधा से इसमें रत्तीभर भी अन्तर नहीं पड़ता; क्योंकि यह धर्म निष्काम है और स्वयं मैंने ही इसे निर्गुण होने के कारण सर्वोत्तम निश्चय किया हैं ॥ २० ॥ भागवतधर्म में किसी प्रकार की त्रुटि पड़नी तो दूर रही — यदि इस धर्म का साधक भय-शोक आदि के अवसर पर होनेवाली भावना और रोने-पीटने, भागने — जैसा निरर्थक कर्म भी निष्कामभाव से मुझे समर्पित कर दे तो वे भी मेरी प्रसन्नता के कारण धर्म बन जाते हैं ॥ २१ ॥ विवेकियों के विवेक और चतुरों की चतुराई की पराकाष्ठा इसमें है कि वे इस विनाशी और असत्य शरीर के द्वारा मुझ अविनाशी एवं सत्य तत्त्व को प्राप्त कर लें ॥ २२ ॥

उद्धवजी ! यह सम्पूर्ण ब्रह्मविद्या का रहस्य मैंने संक्षेप और विस्तार से तुम्हें सुना दिया । इस रहस्य को समझना मनुष्यों की तो कौन कहे, देवताओं के लिये भी अत्यन्त कठिन हैं ॥ २३ ॥ मैंने जिस सुस्पष्ट और युक्तियुक्त ज्ञान का वर्णन बार-बार किया है, उसके मर्म को जो समझ लेता है, उसके हृदय की संशय-ग्रन्थियां छिन्न-भिन्न हो जाती हैं और वह मुक्त हो जाता है ॥ २४ ॥ मैंने तुम्हारे प्रश्न का भलीभाँति खुलासा कर दिया; जो पुरुष हमारे प्रश्नोत्तर को विचारपूर्वक धारण करेगा, वह वेदों के भी परम रहस्य सनातन परब्रह्म को प्राप्त कर लेगा ॥ २५ ॥ जो पुरुष मेरे भक्तों को इसे भलीभाँत स्पष्ट करके समझायेगा, उस ज्ञानदाता को मैं प्रसन्न मन से अपना स्वरूप तक दे डालूँगा, उसे आत्मज्ञान करा दूँगा ॥ २६ ॥ उद्धवजी ! यह तुम्हारा और मेरा संवाद स्वयं तो परम पवित्र है ही, दूसरों को भी पवित्र करनेवाला है । जो प्रतिदिन इसका पाठ करेगा और दूसरों को सुनायेगा, वह इस ज्ञानदीप के द्वारा दूसरों को मेरा दर्शन कराने के कारण पवित्र हो जायगा ॥ २७ ॥ जो कोई एकाग्र चित्त से इसे श्रद्धापूर्वक नित्य सुनेगा, उसे मेरी पराभक्ति प्राप्त होगी और वह कर्मबन्धन से मुक्त हो जायगा ॥ २८ ॥

प्रिय सखे ! तुमने भली-भाँति ब्रह्म का स्वरूप समझ लिया न ? और तुम्हारे चित्त का मोह एवं शोक तो दूर हो गया न ? ॥ २९ ॥ तुम इसे दाम्भिक, नास्तिक, शठ, अश्रद्धालु, भक्तिहीन और उद्धत पुरुष को कभी मत देना ॥ ३० ॥ जो इन दोषों से रहित हो, ब्राह्मणभक्त हो, प्रेमी हो, साधुस्वभाव हो और जिसका चरित्र पवित्र हो, उसी को यह प्रसङ्ग सुनाना चाहिये । यदि शूद्र और स्त्री भी मेरे प्रति प्रेम-भक्ति रखते हों, तो उन्हें भी इसका उपदेश करना चाहिये ॥ ३१ ॥ जैसे दिव्य अमृतपान कर लेने पर कुछ भी पींना शेष नहीं रहता, वैसे ही यह जान लेने पर जिज्ञासु के लिये और कुछ भी जानना शेष नहीं रहता ॥ ३२ ॥ प्यारे उद्धव ! मनुष्यों को ज्ञान, कर्म, योग, वाणिज्य और राजदण्डादि से क्रमशः मोक्ष, धर्म, काम और अर्थरूप फल प्राप्त होते हैं, परन्तु तुम्हारे-जैसे अनन्य भक्त के लिये वह चारों प्रकार का फल केवल मैं ही हूँ ॥ ३३ ॥ जिस समय मनुष्य समस्त कर्मों का परित्याग करके मुझे आत्मसमर्पण कर देता हैं, उस समय वह मेरा विशेष माननीय हो जाता हैं और मैं उसे उसके जीवत्व से छुड़ाकर अमृतस्वरूप मोक्ष की प्राप्ति करा देता हूँ और वह मुझसे मिलकर मेरा स्वरूप हो जाता है ॥ ३४ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! अब उद्धवजी योगमार्ग का पूरा-पूरा उपदेश प्राप्त कर चुके थे । भगवान् श्रीकृष्ण की बात सुनकर उनकी आँखों में आँसू उमड़ आये । प्रेम की बात से गला रुँध गया, चुपचाप हाथ जोड़े रह गये और वाणी से कुछ बोला न गया ॥ ३५ ॥ उनका चित्त प्रेमावेश से विह्वल हो रहा था, उन्होंने धैर्यपूर्वक उसे रोका और अपने को अत्यन्त सौभाग्यशाली अनुभव करते हुए सिर से यदुवंशशिरोमणि भगवान् श्रीकृष्ण के चरणों को स्पर्श किया तथा हाथ जोड़कर उनसे यह प्रार्थना की ॥ ३६ ॥

उद्धवजी ने कहा — प्रभो ! आप माया और ब्रह्मा आदि के भी मूल कारण हैं । मैं मोह के महान् अन्धकार में भटक रहा था । आपके सत्सङ्ग से वह सदा के लिये भाग गया । भला, जो अग्नि के पास पहुँच गया, उसके सामने क्या शीत, अन्धकार और उसके कारण होनेवाला भय ठहर सकते हैं ? ॥ ३७ ॥ भगवन् ! आपकी मोहिनी ” माया ने मेरा ज्ञानदीपक छीन लिया था, परन्तु आपने कृपा करके वह फिर अपने सेवक को लौटा दिया । आपने मेरे ऊपर महान् अनुग्रह की वर्षा की है । ऐसा कौन होगा, जो आपके इस कृपा-प्रसाद का अनुभव करके भी आपके चरणकमलों की शरण छोड़ दे और किसी दूसरे का सहारा ले ? ॥ ३८ ॥ आपने अपनी माया से सृष्टिवृद्धि के लिये दाशार्ह, वृष्णि, अन्धक और सात्वतवंशी यादवों के साथ मुझे सुदृढ़ स्नेह-पाश से बाँध दिया था । आज आपने आत्मबोध की तीखी तलवार से उस बन्धन को अनायास ही काट डाला ॥ ३९ ॥ महायोगेश्वर ! मेरा आपको नमस्कार है । अब आप कृपा करके मुझ शरणागत को ऐसी आज्ञा दीजिये, जिससे आपके चरणकमलों में मेरी अनन्य भक्ति बनी रहे ॥ ४० ॥

भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा — उद्धवजी ! अब तुम मेरी आज्ञा से बदरीवन में चले जाओ । वह मेरा ही आश्रम है । वहाँ मेरे चरणकमलों की धोवन गङ्गाजल का स्नान-पान के द्वारा सेवन करके तुम पवित्र हो जाओगे ॥ ४१ ॥ अलकनन्दा के दर्शनमात्र से तुम्हारे सारे पाप-ताप नष्ट हो जायेंगे । प्रिय उद्धव ! तुम वहाँ वृक्षों की छाल पहनना, वन के कन्द-मूल-फल खाना और किसी भोग की अपेक्षा न रखकर नि:स्पृह-वृत्ति से अपने-आपमें मस्त रहना ॥ ४२ ॥ सर्दी-गरमी, सुख-दुःख — जो कुछ आ पड़े, उसे सम रहकर सहना । स्वभाव सौम्य रखना, इन्द्रियों को वश में रखना । चित्त शान्त रहे । बुद्धि समाहित रहे और तुम स्वयं मेरे स्वरूप के ज्ञान और अनुभव में डूबे रहना ॥ ४३ ॥ मैंने तुम्हें जो कुछ शिक्षा दी हैं, उसका एकान्त में विचारपूर्वक अनुभव करते रहना । अपनी वाणी और चित्त मुझमें ही लगाये रहना और मेरे बतलाये हुए भागवतधर्म में प्रेम से रम जाना । अन्त में तुम त्रिगुण और उनसे सम्बन्ध रखनेवाली गतियों को पार करके उनसे परे मेरे परमार्थस्वरूप में मिल जाओगे ॥ ४४ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! भगवान् श्रीकृष्ण के स्वरूप का ज्ञान संसार के भेद-भ्रम को छिन्न-भिन्न कर देता है । जब उन्होंने स्वयं उद्धवजी को ऐसा उपदेश किया तो उन्होंने उनकी परिक्रमा की और उनके चरणों पर सिर रख दिया । इसमें सन्देह नहीं कि उद्धवजी संयोग-वियोग से होनेवाले सुख-दुःख के जोड़े से परे थे, क्योंकि वे भगवान् के निर्द्वन्द्व चरणों की शरण ले चुके थे । फिर भी वहाँ से चलते समय उनका चित्त प्रेमावेश से भर गया । उन्होंने अपने नेत्रों की झरती हुई अश्रुधारा से भगवान् के चरणकमलों को भिगो दिया ॥ ४५ ॥ परीक्षित् ! भगवान् के प्रति प्रेम करके उसका त्याग करना सम्भव नहीं हैं । उन्हीं के वियोग की कल्पना से उद्धवजी कातर हो गये, उनका त्याग करने में समर्थ न हुए । बार-बार विह्वल होकर मूर्च्छित होने लगे । कुछ समय बाद उन्होंने भगवान् श्रीकृष्ण के चरणों की पादुकाएँ अपने सिर पर रख ली और बार-बार भगवान् के चरणों में प्रणाम करके वहाँ से प्रस्थान किया ॥ ४६ ॥

भगवान् के परमप्रेमी भक्त उद्धवजी हृदय में उनकी दिव्य छवि धारण किये बदरिकाश्रम पहुँचे और वहाँ उन्होंने तपोमय जीवन व्यतीत करके जगत् के एकमात्र हितैषी भगवान् श्रीकृष्ण के उपदेशानुसार उनकी स्वरूपभूत परमगति प्राप्त की ॥ ४७ ॥ भगवान् शङ्कर आदि योगेश्वर भी सच्चिदानन्दस्वरूप भगवान श्रीकृष्ण के चरणों की सेवा किया करते हैं । उन्होंने स्वयं श्रीमुख से अपने परमप्रेमी भक्त उद्धव के लिये इस ज्ञानामृत का वितरण किया । यह ज्ञानामृत आनन्दमहासागर का सार है । जो श्रद्धा के साथ इसका सेवन करता है, वह तो मुक्त हो ही जाता है, उसके सङ्ग से सारा जगत् मुक्त हो जाता हैं ॥ ४८ ॥ परीक्षित् ! जैसे भौंरा विभिन्न पुष्पों से उनका सार-सार मधु संग्रह कर लेता है, वैसे ही स्वयं वेदों को प्रकाशित करनेवाले भगवान् श्रीकृष्ण ने भक्तों को संसार से मुक्त करने के लिये यह ज्ञान और विज्ञान का सार निकाला है । उन्होंने जरा-रोगादि भय की निवृत्ति के लिये क्षीरसमुद्र से अमृत भी निकाला था तथा इन्हें क्रमशः अपने निवृत्तिमार्गी और प्रवृत्तिमार्गी भक्तों को पिलाया, वे ही पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण सारे जगत् के मूल कारण हैं । मैं उनके चरणों में नमस्कार करता हूँ ॥ ४९ ॥

॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां एकादशस्कन्धे एकोनत्रिंशोऽध्यायः ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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