March 4, 2019 | Leave a comment श्रीमद्भागवतमहापुराण – चतुर्थ स्कन्ध – अध्याय ३० ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॐ श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय तीसवाँ अध्याय प्रचेताओं को श्रीविष्णुभगवान् का वरदान विदुरजी ने पूछा — ब्रह्मन् ! आपने राजा प्राचीनबहिँ के जिन पुत्रों का वर्णन किया था, उन्होंने रुद्रगीत के द्वारा श्रीहरि की स्तुति करके क्या सिद्धि प्राप्त की ? ॥ १ ॥ बार्हस्पत्य ! मोक्षाधिपति श्रीनारायण के अत्यन्त प्रिय भगवान् शङ्कर का अकस्मात् सान्निध्य प्राप्त करके प्रचेताओं ने मुक्ति तो प्राप्त की ही होगी; इससे पहले इस लोक में अथवा परलोक में भी उन्होंने क्या पाया — वह बतलाने की कृपा करें ॥ २ ॥ श्रीमैत्रेयजी ने कहा — विदुरजी ! पिता के आज्ञाकारी प्रचेताओं ने समुद्र के अंदर खड़े रहकर रुद्रगीत के जपरूपी यज्ञ और तपस्या के द्वारा समस्त शरीरों के उत्पादक भगवान् श्रीहरि को प्रसन्न कर लिया ॥ ३ ॥ तपस्या करते-करते दस हजार वर्ष बीत जाने पर पुराणपुरुष श्रीनारायण अपनी मनोहर कान्ति द्वारा उनके तपस्याजनित क्लेश को शान्त करते हुए सौम्य विग्रह से उनके सामने प्रकट हुए ॥ ४ ॥ गरुड़जी के कंधे पर बैठे हुए श्रीभगवान् ऐसे जान पड़ते थे, मानो सुमेरु के शिखर पर कोई श्याम घटा छायी हो । उनके श्रीअङ्ग में मनोहर पीताम्बर और कण्ठ में कौस्तुभमणि सुशोभित थी । अपनी दिव्य प्रभा से वे सब दिशाओं का अन्धकार दूर कर रहे थे ॥ ५ ॥ चमकीले सुवर्णमय आभूषणों से युक्त उनके कमनीय कपोल और मनोहर मुखमण्डल से अपूर्व शोभा हो रही थी । उनके मस्तक पर झिलमिलाता हुआ मुकुट शोभायमान था । प्रभु की आठ भुजाओं में आठ आयुध थे, देवता, मुनि और पार्षदगण सेवामें उपस्थित थे तथा गरुडजी किन्नरों की भाँति साममय पंखों की ध्वनि से कीर्तिगान कर रहे थे ॥ ६ ॥ उनकी आठ लंबी-लंबी स्थूल भुजाओं के बीच में लक्ष्मीजी से स्पर्धा करनेवाली वनमाला विराजमान थी । आदिपुरुष श्रीनारायण ने इस प्रकार पधारकर अपने शरणागत प्रचेताओं की ओर दयादृष्टि से निहारते हुए मेघ के समान गम्भीर वाणी में कहा ॥ ७ ॥ श्रीभगवान् ने कहा — राजपुत्रो ! तुम्हारा कल्याण हो । तुम सबमें परस्पर बड़ा प्रेम है और स्नेहवश तुम एक ही धर्म का पालन कर रहे हो । तुम्हारे इस आदर्श सौहार्द से मैं बड़ा प्रसन्न हूँ । मुझसे वर माँगो ॥ ८ ॥ जो पुरुष सायङ्काल के समय प्रतिदिन तुम्हारा स्मरण करेगा, उसका अपने भाइयों में अपने ही समान प्रेम होगा तथा समस्त जीवों के प्रति मित्रता का भाव हो जायगा ॥ ९ ॥ जो लोग सायङ्काल और प्रातःकाल एकाग्रचित्त से रुद्रगीत द्वारा मेरी स्तुति करेंगे, उनको मैं अभीष्ट वर और शुद्ध बुद्धि प्रदान करूँगा ॥ १० ॥ तुमलोगों ने बड़ी प्रसन्नता से अपने पिता की आज्ञा शिरोधार्य की है, इससे तुम्हारी कमनीय कीर्ति समस्त लोकों में फैल जायगी ॥ ११ ॥ तुम्हारे एक बड़ा ही विख्यात पुत्र होगा । वह गुणों में किसी भी प्रकार ब्रह्माजी से कम नहीं होगा तथा अपनी सन्तान से तीनों लोकों को पूर्ण कर देगा ॥ १२ ॥ राजकुमारो ! कण्डु ऋषि के तपोनाश के लिये इन्द्र की भेजी हुई प्रलोचा अप्सरा से एक कमलनयनी कन्या उत्पन्न हुई थी । उसे छोड़कर वह स्वर्गलोक को चली गयी । तब वृक्षों ने उस कन्या को लेकर पाला-पोसा ॥ १३ ॥ जब वह भूख से व्याकुल होकर रोने लगी तब ओषधियों के राजा चन्द्रमा ने दयावश उसके मुँह में अपनी अमृतवर्षिणी तर्जनी अंगुली दे दी ॥ १४ ॥ तुम्हारे पिता आजकल मेरी सेवा (भक्ति) में लगे हुए हैं, उन्होंने तुम्हें सन्तान उत्पन्न करने की आज्ञा दी है । अतः तुम शीघ्र ही उस देवोपम सुन्दरी कन्या से विवाह कर लो ॥ १५ ॥ तुम सब एक ही धर्म में तत्पर हो और तुम्हारा स्वभाव भी एक-सा ही हैं । इसलिये तुम्हारे ही समान धर्म और स्वभाववाली वह सुन्दरी कन्या तुम सभी की पत्नी होगी तथा तुम सभी में उसका समान अनुराग होगा ॥ १६ ॥ तुमलोग मेरी कृपा से दस लाख दिव्य वर्षों तक पूर्ण बलवान् रहकर अनेकों प्रकार के पार्थिव और दिव्य भोग भोगोगे ॥ १५ ॥ अन्त में मेरी अविचल भक्ति से हृदय का समस्त वासनारूप मल दग्ध हो जाने पर तुम इस लोक तथा परलोक के नरकतुल्य भोगों से उपरत होकर मेरे परमधाम को जाओगे ॥ १८ ॥ जिन लोगों के कर्म भगवदर्पणबुद्धि से होते हैं और जिनका सारा समय मेरी कथावार्ताओं में ही बीतता है, वे गृहस्थाश्रम में रहें तो भी घर उनके बन्धन का कारण नहीं होते ॥ १९ ॥ वे नित्यप्रति मेरी लीलाएँ सुनते रहते हैं, इसलिये ब्रह्मवादी वक्ताओं के द्वारा मैं ज्ञान-स्वरूप परब्रह्म उनके हृदय में नित्य नया-नया-सा भासता रहता हूँ और मुझे प्राप्त कर लेनेपर जीवों को न मोह हो सकता है, न शोक और न हर्ष ही ॥ २० ॥ श्रीमैत्रेयजी कहते हैं — भगवान् के दर्शनों से प्रचेताओं का रजोगुण-तमोगुण मल नष्ट हो चुका था । जब उनसे सकल पुरुषार्थों के आश्रय और सबके परम सुहृद् श्रीहरि ने इस प्रकार कहा, तब वे हाथ जोड़कर गद्गद वाणी से कहने लगे ॥ २१ ॥ प्रेचताओं ने कहा — प्रभो ! आप भक्तों के क्लेश दूर करनेवाले हैं, हम आपको नमस्कार करते हैं । वेद आपके उदार गुण और नामों का निरूपण करते हैं । आपका वेग मन और वाणी के वेग से भी बढ़कर है तथा आपका स्वरूप सभी इन्द्रियों की गति से परे हैं । हम आपको बार-बार नमस्कार करते हैं ॥ २२ ॥ आप अपने स्वरूप में स्थित रहने के कारण नित्य-शुद्ध और शान्त हैं, मनरूप निमित्त के कारण हमें आपमें यह मिथ्या द्वैत भास रहा है । वास्तव में जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और लय के लिये आप माया के गुणों को स्वीकार करके ही ब्रह्मा, विष्णु और महादेवरूप धारण करते हैं । हम आपको नमस्कार करते हैं ॥ २३ ॥ आप विशुद्ध सत्त्वस्वरूप हैं, आपका ज्ञान संसारबन्धन को दूर कर देता है । आप ही समस्त भागवत के प्रभु वसुदेवनन्दन भगवान् श्रीकृष्ण हैं, आपको नमस्कार हैं ॥ २४ ॥ आपकी ही नाभि से ब्रह्माण्डरूप कमल प्रकट हुआ था, आपके कण्ठ में कमलकुसुमों की माला सुशोभित है तथा आपके चरण कमल के समान कोमल हैं; कमलनयन ! आपको नमस्कार है ॥ २५ ॥ आप कमलकुसुम की केसर के समान स्वच्छ पीताम्बर धारण किये हुए हैं, समस्त भूतों के आश्रयस्थान हैं तथा सबके साक्षी हैं । हम आपको नमस्कार करते हैं ॥ २६ ॥ भगवन् ! आपका यह स्वरूप सम्पूर्ण क्लेशों की निवृत्ति करनेवाला है; हम अविद्या, अस्मिता, राग-द्वेषादि क्लेशों से पीड़ितों के सामने आपने इसे प्रकट किया हैं । इससे बढ़कर हमपर और क्या कृपा होगी ॥ २७ ॥ अमङ्गलहारी प्रभो ! दीनों पर दया करनेवाले समर्थ पुरुषों को इतनी ही कृपा करनी चाहिये कि समय-समय पर उन दीनजनों से ‘ये हमारे हैं । इस प्रकार स्मरण कर लिया करें ॥ २८ ॥ इससे उनके आश्रितों का चित्त शान्त हो जाता है । आप तो क्षुद्र-से-क्षुद्र प्राणियों के भी अन्तःकरणों में अन्तर्यामीरूप से विराजमान रहते हैं । फिर आपके उपासक हमलोग जो-जो कामनाएँ करते हैं, हमारी उन कामनाओं को आप क्यों न जान लेंगे ॥ २९ ॥ जगदीश्वर ! आप मोक्ष का मार्ग दिखानेवाले और स्वयं पुरुषार्थस्वरूप हैं । आप हमपर प्रसन्न हैं, इससे बढ़कर हमें और क्या चाहिये । बस, हमारा अभीष्ट वर तो आपकी प्रसन्नता ही है ॥ ३० ॥ तथापि, नाथ ! हम एक वर आपसे अवश्य माँगते हैं । प्रभो ! आप प्रकृति आदि से परे हैं और आपकी विभूतियों का भी कोई अन्त नहीं है; इसलिये आप ‘अनन्त’ कहे जाते हैं ॥ ३१ ॥ यदि भ्रमर को अनायास ही कल्पवृक्ष मिल जाय, तो क्या वह किसी दूसरे वृक्ष का सेवन करेगा ? तब आपकी चरणशरण में आकर अब हम क्या-क्या माँगें ॥ ३२ ॥ हम आपसे केवल यही माँगते हैं कि जबतक आपकी माया से मोहित होकर हम अपने कर्मानुसार संसार में भ्रमते रहें, तबतक जन्म-जन्म में हमें आपके प्रेमी भक्तों का सङ्ग प्राप्त होता रहे ॥ ३३ ॥ हम तो भगवद्भक्तों के क्षणभर के सङ्ग के सामने स्वर्ग और मोक्ष को भी कुछ नहीं समझते; फिर मानवी भोगों की तो बात ही क्या है ॥ ३४ ॥ भगवद्भक्तों के समाज में सदा-सर्वदा भगवान् की मधुर-मधुर कथाएँ होती रहती हैं, जिनके श्रवणमात्र से भोगतृष्णा शान्त हो जाती है । वहाँ प्राणियों में किसी प्रकार का वैर-विरोध या उद्वेग नहीं रहता ॥ ३५ ॥ अच्छे-अच्छे कथा-प्रसङ्गों द्वारा निष्कामभाव से संन्यासियों के एकमात्र आश्रय साक्षात् श्रीनारायणदेव का बार-बार गुणगान होता रहता हैं ॥ ३६ ॥ आपके वे भक्तजन तीर्थों को पवित्र करने के उद्देश्य से पृथ्वी पर पैदल ही विचरते रहते हैं । भला, उनका समागम संसार से भयभीत हुए पुरुषों को कैसे रुचिकर न होगा ॥ ३७ ॥ भगवन् ! आपके प्रिय सखा भगवान् शङ्कर के क्षणभर के समागम से ही आज हमें आपका साक्षात् दर्शन प्राप्त हुआ है । आप जन्म-मरणरूप दुःसाध्य रोग के श्रेष्ठतम वैद्य हैं, अतः अब हमने आपका ही आश्रय लिया है ॥ ३८ ॥ प्रभो ! हमने समाहित चित्त से जो कुछ अध्ययन किया है, निरन्तर सेवा-शुश्रुषा करके गुरु, ब्राह्मण और वृद्धजनों को प्रसन्न किया हैं तथा दोषबुद्धि त्यागकर श्रेष्ठ पुरुष, सुहगण, बन्धुवर्ग एवं समस्त प्राणियों की वन्दना की है और अन्नादि को त्यागकर दीर्घकालतक जल में खड़े रहकर तपस्या की है, वह सब आप सर्वव्यापक पुरुषोत्तम के सन्तोष का कारण हो — यही वर माँगते हैं ॥ ३९-४० ॥ स्वामिन् ! आपकी महिमा का पार न पाकर भी स्वायम्भुव मनु, स्वयं ब्रह्माजी, भगवान् शङ्कर तथा तप और ज्ञान से शुद्धचित्त हुए अन्य पुरुष निरन्तर आपकी स्तुति करते रहते हैं । अतः हम भी अपनी बुद्धि के अनुसार आपका यशोगान करते हैं ॥ ४१ ॥ आप सर्वत्र समान शुद्ध स्वरूप और परम पुरुष है । आप सत्त्वमूर्ति भगवान् वासुदेव को हम नमस्कार करते हैं ॥ ४२ ॥ श्रीमैत्रेयजी कहते हैं — विदुरजी ! प्रचेताओं के इस प्रकार स्तुति करने पर शरणागतवत्सल श्रीभगवान् ने प्रसन्न होकर कहा — ‘तथास्तु’ । अप्रतिहत प्रभाव श्रीहरि की मधुर मूर्ति के दर्शनों से अभी प्रचेताओं के नेत्र तृप्त नहीं हुए थे, इसलिये वे उन्हें जाने देना नहीं चाहते थे; तथापि वे अपने परमधाम को चले गये ॥ ४३ ॥ इसके पश्चात् प्रचेताओं ने समुद्र के जल से बाहर निकलकर देखा कि सारी पृथ्वी को ऊँचे-ऊँचे वृक्षों ने ढक दिया है, जो मानो स्वर्ग का मार्ग रोकने के लिये ही इतने बढ़ गये थे । यह देखकर वे वृक्षों पर बड़े कुपित हुए ॥ ४४ ॥ तब उन्होंने पृथ्वी को वृक्ष, लता आदि से रहित कर देने के लिये अपने मुख से प्रचण्ड वायु और अग्नि को छोड़ा, जैसे कालाग्निरुद्र प्रलयकाल में छोड़ते हैं ॥ ४५ ॥ जब ब्रह्माजी ने देखा कि वे सारे वृक्षों को भस्म कर रहे हैं, तब वे यहाँ आये और प्राचीनबर्हि के पुत्रों को उन्होंने युक्तिपूर्वक समझाकर शान्त किया ॥ ४६ ॥ फिर जो कुछ वृक्ष वहाँ बचे थे, उन्होंने डरकर ब्रह्माजी के कहने से वह कन्या लाकर प्रचेताओं को दी ॥ ४७ ॥ प्रचेताओं ने भी ब्रह्माजी के आदेश से उस मारिषा नाम की कन्या से विवाह कर लिया । इसके गर्भ से ब्रह्माजी के पुत्र दक्ष ने, श्रीमहादेवजी की अवज्ञा के कारण अपना पूर्वशरीर त्यागकर जन्म लिया ॥ ४८ ॥ इन्हीं दक्ष ने चाक्षुष मन्वन्तर आने पर, जब कालक्रम से पूर्वसर्ग नष्ट हो गया, भगवान् की प्ररेणा से इच्छानुसार नवीन प्रजा उत्पन्न की ॥ ४९ ॥ इन्होंने जन्म लेते ही अपनी कान्ति से समस्त तेजस्वियों का तेज छीन लिया । ये कर्म करने में बड़े दक्ष (कुशल) थे, इससे इनका नाम ‘दक्ष’ हुआ ॥ ५० ॥ इन्हें ब्रह्माजी ने प्रजापतियों के नायक के पद पर अभिषिक्त कर सृष्टि की रक्षा के लिये नियुक्त किया और इन्होंने मरीचि आदि दूसरे प्रजापतियों को अपने-अपने कार्य में नियुक्त किया ॥ ५१ ॥ ॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे त्रिंशोऽध्यायः ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Related