May 12, 2019 | Leave a comment श्रीमद्भागवतमहापुराण – द्वादशः स्कन्ध – अध्याय १३ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॐ श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय तेरहवाँ अध्याय विभिन्न पुराणों की श्लोक-संख्या और श्रीमद्भागवत की महिमा सूतजी कहते हैं — ब्रह्मा, वरुण, इन्द्र, रुद्र और मरुद्गण दिव्य स्तुतियों के द्वारा जिनके गुण-गान में संलग्न रहते हैं; साम-सङ्गीत के मर्मज्ञ ऋषि-मुनि अङ्ग, पद, क्रम एवं उपनिषदों के सहित वेदों द्वारा जिनका गान करते रहते हैं; योगी लोग ध्यान के द्वारा निश्चल एवं तल्लीन मन से जिनका भावमय दर्शन प्राप्त करते रहते हैं; किन्तु यह सब करते रहने पर भी देवता, दैत्य, मनुष्य कोई भी जिनके वास्तविक स्वरूप को पूर्णतया न जान सका, उन स्वयंप्रकाश परमात्मा को नमस्कार हैं ॥ १ ॥ जिस समय भगवान् ने कच्छपरूप धारण किया था और उनकी पीठ पर बड़ा भारी मन्दराचल मथानी की तरह घूम रहा था, उस समय मन्दराचल की चट्टानों की नोक से खुजलाने के कारण भगवान् को तनिक सुख मिला । वे सो गये और श्वास की गति तनिक बढ़ गयी । उस समय उस श्वासवायु से जो समुद्र के जल को धक्का लगा था, उसका संस्कार आज भी उसमें शेष है । आज भी समुद्र उसी श्वासवायु के थपेड़ों के फलस्वरूप ज्वार-भाटों के रूप में दिन-रात चढता-उतरता रहता है, उसे अब तक विश्राम न मिला । भगवान् की वही परमप्रभावशाली श्वासवायु आपलोगों की रक्षा करे ॥ २ ॥ शौनकजी ! अब पुराणों की अलग-अलग श्लोकसंख्या, उनका जोड़, श्रीमद्भागवत का प्रतिपाद्य विषय और उसका प्रयोजन भी सुनिये । इसके दान की पद्धति तथा दान और पाठ आदि की महिमा भी आपलोग श्रवण कीजिये ॥ ३ ॥ ब्रह्मपुराण में दस हजार श्लोक, पद्मपुराण में पचपन हजार, श्रीविष्णुपुराण में तेईस हजार और शिवपुराण की श्लोक-संख्या चौबीस हजार है ॥ ४ ॥ श्रीमद्भागवत में अठारह हजार, नारदपुराण में पच्चीस हजार, मार्कण्डेयपुराण में नौ हजार तथा अग्निपुराण में पन्द्रह हजार चारसौ श्लोक हैं ॥ ५ ॥ भविष्यपुराण की श्लोक संख्या चौदह हजार पाँच सौ है और ब्रह्मवैवर्तपुराण की अठारह हजार तथा लिङ्गपुराण में ग्यारह हजार श्लोक हैं ॥ ६ ॥ वराहपुराण में चौबीस हजार, स्कन्दपुराण की श्लोक संख्या इक्यासी हजार एक सौ है और वामनपुराण की दस हजार ॥ ७ ॥ कूर्मपुराण सत्रह हजार श्लोकों का और मत्स्यपुराण चौदह हजार श्लोकों का हैं । गरुडपुराण में उन्नीस हजार श्लोक हैं और ब्रह्माण्डपुराण में बारह हजार ॥ ८ ॥ इस प्रकार सर्व पुराणों की श्लोक संख्या कुल मिलाकर चार लाख होती है । उनमें श्रीमद्भागवत, जैसा कि पहले कहा जा चुका है, अठारह हजार श्लोकों का है ॥ ९ ॥ शौनकजी ! पहले-पहल भगवान् विष्णु ने अपने नाभिकमल पर स्थित एवं संसार से भयभीत ब्रह्मा पर परम करुणा करके इस पुराण को प्रकाशित किया था ॥ १० ॥ इसके आदि, मध्य और अन्त में वैराग्य उत्पन्न करनेवालो बहुत-सी कथाएँ हैं । इस महापुराण में जो भगवान् श्रीहरि की लीला-कथाएँ हैं, वे तो अमृत स्वरूप हैं ही; उनके सेवन से सत्पुरुष और देवताओं को बड़ा ही आनन्द मिलता है ॥ ११ ॥ आपलोग जानते हैं कि समस्त उपनिषदों का सार है ब्रह्म और आत्मा को एकत्वरूप अद्वितीय सद्वस्तु । वही श्रीमद्भागवत का प्रतिपाद्य विषय हैं । इसके निर्माण का प्रयोजन है एकमात्र कैवल्य-मोक्ष ॥ १३ ॥ जो पुरुष भाद्रपद मास की पूर्णिमा के दिन श्रीमद्भागवत को सोने के सिंहासन पर रखकर उसका दान करता है, उसे परमगति प्राप्त होती हैं ॥ १३ ॥ संतों की सभा में तभी तक दूसरे पुराणों की शोभा होती है, जबतक सर्वश्रेष्ठ स्वयं श्रीमद्भागवत महापुराण के दर्शन नहीं होते ॥ १४ ॥ यह श्रीमद्भागवत समस्त उपनिषदों का सार है । जो इस रस-सुधा का पान करके छक चुका है, वह किसी और पुराण-शास्त्र में रम नहीं सकता ॥ १५ ॥ जैसे नदियों में गङ्गा, देवताओं में विष्णु और वैष्णवों में श्रीशङ्करजी सर्वश्रेष्ठ है, वैसे ही पुराणों में श्रीमद्भागवत है ॥ १६ ॥ शौनकादि ऋषियो ! जैसे सम्पूर्ण क्षेत्रों में काशी सर्वश्रेष्ठ हैं, वैसे ही पुराणों में श्रीमद्भागवत का स्थान सबसे ऊँचा है ॥ १७ ॥ यह श्रीमद्भागवतपुराण सर्वथा निर्दोष है । भगवान् के प्यारे भक्त वैष्णव इससे बड़ा प्रेम करते हैं । इस पुराण में जीवन्मुक्त परमहंसों के सर्वश्रेष्ठ, अद्वितीय एवं माया के लेश से रहित ज्ञान का गान किया गया हैं । इस गन्ध की सबसे बड़ी विलक्षणता यह है कि इसका नैष्कर्म्य अर्थात् कर्मों की आत्यन्तिक निवृत्ति भी ज्ञान-वैराग्य एवं भक्ति से युक्त है । जो इसका श्रवण, पठन और मनन करने लगता है, उसे भगवान् की भक्ति प्राप्त हो जाती है और वह मुक्त हो जाता है ॥ १८ ॥ यह श्रीमद्भागवत भगवत्तत्त्वज्ञान का एक श्रेष्ठ प्रकाशक है । इसकी तुलना में और कोई भी पुराण नहीं हैं । इसे पहले-पहल स्वयं भगवान् नारायण ने ब्रह्माजी के लिये प्रकट किया था । फिर उन्होंने ही ब्रह्माजी के रूप से देवर्षि नारद को उपदेश किया और नारदजी के रूप से भगवान् श्रीकृष्णद्वैपायन व्यास को । तदनन्तर उन्होंने ही व्यासरूप से योगीन्द्र शुकदेवजी को और श्रीशुकदेवजी के रूप से अत्यन्त करुणावश राजर्षि परीक्षित् को उपदेश किया । वे भगवान् परम शुद्ध एवं मायामल से रहित हैं । शोक और मृत्यु उनके पासतक नहीं फटक सकते । हम सब उन्हीं परम सत्यस्वरूप परमेश्वर का ध्यान करते हैं ॥ १९ ॥ हम उन सर्वसाक्षी भगवान् वासुदेव को नमस्कार करते हैं, जिन्होंने कृपा करके मोक्षाभिलाषी ब्रह्माजी को इस श्रीमद्भागवत महापुराणका उपदेश किया ॥ २० ॥ साथ ही हम उन योगिराज ब्रह्मस्वरूप श्रीशुकदेवजी को भी नमस्कार करते हैं, जिन्होंने श्रीमद्भागवत महापुराण सुनाकर संसार-सर्प से डसे हुए राजर्षि परीक्षित् को मुक्त किया ॥ २१ ॥ देवताओं के आराध्यदेव सर्वेश्वर ! आप ही हमारे एकमात्र स्वामी एवं सर्वस्व हैं । अब आप ऐसी कृपा कीजिये कि बार-बार जन्म ग्रहण करते रहने पर भी आपके चरणकमलों में हमारी अविचल भक्ति बनी रहे ॥ २२ ॥ जिन भगवान् के नामों का सङ्कीर्तन सारे पापों को सर्वथा नष्ट कर देता है और जिन भगवान् के चरणों में आत्मसमर्पण, उनके चरणों में प्रणति सर्वदा के लिये सब प्रकार के दुःखों को शान्त कर देती हैं, उन्हीं परमतत्त्वस्वरूप श्रीहरि को मैं नमस्कार करता हूँ ॥ २३ ॥ ॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां द्वादशस्कन्धे त्रयोदशोऽध्यायः ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् द्वादशः स्कन्धः शुभं भूयात् ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ त्वदीयं वस्तु गोविन्द तुभ्यमेव समर्पये । तेन त्वदङ्घ्रिकमले रतिं मे यच्छ शाश्वतीम् ॥ “हे गोविन्द ! आपकी वस्तु आपको ही समर्पण कर रहा हूँ । इसके द्वारा आपके चरणकमलों में मुझे शाश्वत प्रेम प्रदान करने की कृपा करें ।” Related