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श्रीमद्भागवतमाहात्म्यम् – अध्याय ३
ॐ गणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
तीसरा अध्याय
श्रीमद्भागवत की परम्परा और उसका माहात्म्य, भागवत-श्रवण से श्रोताओं को भगवद्धाम की प्राप्ति

सूतजी कहते हैं — उद्धवजी ने वहाँ एकत्र हुए सब लोगों को श्रीकृष्ण-कीर्तन में लगा देखकर सभी का सत्कार किया और राजा परीक्षित् को हृदय से लगाकर कहा ॥ १ ॥

उद्धवजी ने कहा — राजन् ! तुम धन्य हो, एकमात्र श्रीकृष्ण की भक्ति से ही पूर्ण हो ! क्योंकि श्रीकृष्ण-सङ्कीर्तन महोत्सव में तुम्हारा हृदय इस प्रकार निमग्न हो रहा है ॥ २ ॥ बड़े सौभाग्य की बात है कि श्रीकृष्ण की पत्नियों के प्रति तुम्हारी भक्ति और वज्रनाभ पर तुम्हारा प्रेम हैं । तात ! तुम जो कुछ कर रहे हो, सब तुम्हारे अनुरूप ही है । क्यों न हो, श्रीकृष्ण ने ही तुम्हें शरीर और वैभव प्रदान किया हैं; अतः तुम्हारा उनके प्रपौत्र पर प्रेम होना स्वाभाविक ही है ॥ ३ ॥ इसमें तनिक भी सन्देह नहीं कि समस्त द्वारकावासियों में ये लोग सबसे बढ़कर धन्य हैं, जिन्हें व्रज में निवास कराने के लिये भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन को आज्ञा की थी ॥ ४ ॥ श्रीकृष्ण का मनरूपी चन्द्रमा राधा के मुख की प्रभा-रूप चाँदनी से युक्त हो उनकी लीला-भूमि वृन्दावन को अपनी किरणों से सुशोभित करता हुआ यहाँ सदा प्रकाशमान रहता है ॥ ५ ॥ श्रीकृष्णचन्द्र नित्य परिपूर्ण हैं, प्राकृत चन्द्रमा की भाँति उनमें वृद्धि और क्षयरूप विकार नहीं होते । उनकी जो सोलह कलाएँ हैं, उनसे सहस्रों चिन्मय किरणें निकलती रहती है; इससे उनके सहस्रों भेद हो जाते हैं । इन सभी कलाओं से युक्त, नित्य परिपूर्ण श्रीकृष्ण इस व्रजभूमि में सदा ही विद्यमान रहते हैं । इस भूमि में और उनके स्वरूप में कुछ अन्तर नहीं हैं ॥ ६ ॥

राजेन्द्र परीक्षित् ! इस प्रकार विचार करने पर सभी ब्रजवासी भगवान् के अङ्ग में स्थित हैं । शरणागतों का भय दूर करनेवाले जो ये व्रज हैं, इनका स्थान श्रीकृष्ण के दाहिने चरण में है ॥ ७ ॥ इस अवतार में भगवान् श्रीकृष्ण ने इन सबको अपनी योगमाया से अभिभूत कर लिया है, उसी के प्रभाव से ये अपने स्वरूप को भूल गये हैं और इसी कारण सदा दुखी रहते हैं । यह बात निस्सन्देह ऐसी ही है ॥ ८ ॥ श्रीकृष्ण का प्रकाश प्राप्त हुए बिना किसी को भी अपने स्वरूप का बोध नहीं हो सकता । जीवों के अन्तःकरण में जो श्रीकृष्ण-तत्त्व का प्रकाश है, उस पर सदा माया का पर्दा पड़ा रहता है ॥ ९ ॥ अट्ठाईसवें द्वापर के अन्त में जब भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं ही सामने प्रकट होकर अपनी माया का पर्दा उठा लेते हैं, उस समय जीवों को उनका प्रकाश प्राप्त होता है ॥ १० ॥ किन्तु अब वह समय तो बीत गया; इसलिये उनके प्रकाश की प्राप्ति के लिये अब दूसरा उपाय बतलाया जा रहा है, सुनो ! अट्ठाईसवें द्वापर के अतिरिक्त समय में यदि कोई श्रीकृष्ण-तत्त्व का प्रकाश पाना चाहे, तो उसे वह श्रीमद्भागवत से ही प्राप्त हो सकता है ॥ ११ ॥

भगवान् के भक्त जहाँ जब कभी श्रीमद्भागवत शास्त्र का कीर्तन और श्रवण करते हैं, वहाँ उस समय भगवान् श्रीकृष्ण साक्षात् रूप से विराजमान रहते हैं ॥ १२ ॥ जहाँ श्रीमद्भागवत के एक या आधे श्लोक का ही पाठ होता है, वहाँ भी श्रीकृष्ण अपनी प्रियतमा गोपियों के साथ विद्यमान रहते हैं ॥ १३ ॥ इस पवित्र भारतवर्ष में मनुष्य का जन्म पाकर भी जिन लोगों ने पाप के अधीन होकर श्रीमद्भागवत नहीं सुना, उन्होंने मानो अपने ही हाथों अपनी हत्या कर ली ॥ १४ ॥ जिन बड़भागियों ने प्रतिदिन श्रीमद्भागवत शास्त्र का सेवन किया है, उन्होंने अपने पिता, माता और पत्नी — तीनों के ही कुल का भली-भाँति उद्धार कर दिया ॥ १५ ॥ श्रीमद्भागवत के स्वाध्याय और श्रवण से ब्राह्मणों को विद्या का प्रकाश (बोध) प्राप्त होता है, क्षत्रिय लोग शत्रुओं पर विजय पाते हैं, वैश्यों को धन मिलता है और शूद्र स्वस्थ-नीरोग बने रहते हैं ॥ १६ ॥ स्त्रियों तथा अन्त्यज आदि अन्य लोगों की भी इच्छा श्रीमद्भागवत से पूर्ण होती हैं; अतः कौन ऐसा भाग्यवान् पुरुष हैं, जो श्रीमद्भागवत का नित्य ही सेवन न करेगा ॥ १७ ॥ अनेकों जन्मों तक साधना करते-करते जब मनुष्य पूर्ण सिद्ध हो जाता है, तब उसे श्रीमद्भागवत की प्राप्ति होती हैं । भागवत से भगवान् का प्रकाश मिलता हैं, जिससे भगवद्भक्ति उत्पन्न होती हैं ॥ १८ ॥

पूर्वकाल में सांख्यायन की कृपा से श्रीमद्भागवत बृहस्पतिजी को मिला और बृहस्पतिजी ने मुझे दिया; इसीसे मैं श्रीकृष्ण का प्रियतम सखा हो सका हूँ ॥ १९ ॥ परीक्षित् ! बृहस्पतिजी ने मुझे एक आख्यायिका भी सुनायी थी, उसे तुम सुनो । इस आख्यायिका से श्रीमद्भागवत-श्रवण के सम्प्रदाय का क्रम भी जाना जा सकता है ॥ २० ॥

बृहस्पतिजी ने कहा था — अपनी माया से पुरुषरूप धारण करनेवाले भगवान् श्रीकृष्ण ने जब सृष्टि के लिये संकल्प किया, तब उनके दिव्य विग्रह से तीन पुरुष प्रकट हुए । इनमें रजोगुण की प्रधानता से ब्रह्मा, सत्वगुण की प्रधानता से विष्णु और तमोगुण की प्रधानता से रुद्र प्रकट हुए । भगवान् ने इन तीनों को क्रमशः जगत् की उत्पत्ति, पालन और संहार करने का अधिकार प्रदान किया ॥ २१-२२ ॥ तब भगवान् के नाभि-कमल से उत्पन्न हुए ब्रह्माजी ने उनसे अपना मनोभाव यों प्रकट किया ।

ब्रह्माजी ने कहा — परमात्मन् ! आप नार अर्थात् जल में शयन करने के कारण ‘नारायण’ नाम से प्रसिद्ध हैं, सबके आदिकारण होने से आदिपुरुष हैं; आपको नमस्कार हैं ॥ २३ ॥ प्रभो ! आपने मुझे सृष्टिकर्म में लगाया है, मगर मुझे भय है कि सृष्टिकाल में अत्यन्त पापात्मा रजोगुण आपकी स्मृति में कहीं बाधा न डालने लग जाय । अतः कृपा करके ऐसी कोई बात बतायें, जिससे आपकी याद बराबर बनी रहे ॥ २४ ॥

बृहस्पतिजी कहते हैं — जब ब्रह्माजी ने ऐसी प्रार्थना की, तब पूर्वकाल में भगवान् ने उन्हें श्रीमद्भागवत का उपदेश देकर कहा — ‘ब्रह्मन् ! तुम अपने मनोरथ की सिद्धि के लिये सदा ही इसका सेवन करते रहो’ ॥ २५ ॥ ब्रह्माजी श्रीमद्भागवत का उपदेश पाकर बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने श्रीकृष्ण की नित्य प्राप्ति के लिये तथा सात आवरणों का भंग करने के लिये श्रीमद्भागवत का सप्ताह-पारायण किया ॥ २६ ॥ सप्ताह-यज्ञ की विधि सात दिनों तक श्रीमद्भागवत का सेवन करने से ब्रह्माजी के सभी मनोरथ पूर्ण हो गये । इससे वे सदा भगवत्स्मरणपूर्वक सृष्टि का विस्तार करते और बारंबार सप्ताह-यज्ञ का अनुष्ठान करते रहते हैं ॥ २७ ॥ ब्रह्माजी की ही भाँति विष्णु ने भी अपने अभीष्ट अर्थ की सिद्धि के लिये उन परमपुरुष परमात्मा से प्रार्थना की; क्योंकि उन पुरुषोत्तम ने विष्णु को भी प्रजा-पालनरूप कर्म में नियुक्त किया था ॥ २८ ॥

विष्णु ने कहा — देव ! मैं आपकी आज्ञा के अनुसार कर्म और ज्ञान के उद्देश्य से प्रवृत्ति और निवृत्ति के द्वारा यथोचित रूप से प्रजाओं का पालन करूँगा ॥ २९ ॥ कालक्रम से जब-जब धर्म की हानि होगी, तब-तब अनेकों अवतार धारण कर पुनः धर्म की स्थापना करूँगा ॥ ३० ॥ जो भोगों की इच्छा रखनेवाले हैं, उन्हें अवश्य ही उनके किये हुए यज्ञादि कर्मों का फल अर्पण करूँगा; तथा जो संसार-बन्धन से मुक्त होना चाहते हैं, विरक्त हैं, उन्हें उनके इच्छानुसार पाँच प्रकार की मुक्ति भी देता रहूँगा ॥ ३१ ॥ परन्तु जो लोग मोक्ष भी नहीं चाहते, उनका पालन में कैसे करूँगा — यह बात समझ में नहीं आती । इसके अतिरिक्त मैं अपनी तथा लक्ष्मीजी की भी रक्षा कैसे कर सकूँगा, इसका उपाय भी बताइये ॥ ३२ ॥

विष्णु की यह प्रार्थना सुनकर आदिपुरुष श्रीकृष्ण ने उन्हें भी श्रीमद्भागवत का उपदेश किया और कहा — ‘तुम अपने मनोरथ की सिद्धि के लिये इस श्रीमद्भागवत-शास्त्र का सदा पाठ किया करो’ ॥ ३३ ॥ उस उपदेश से विष्णुभगवान् का चित प्रसन्न हो गया और वे लक्ष्मीजी के साथ प्रत्येक मास में श्रीमद्भागवत का चिन्तन करने लगे । इससे वे परमार्थ का पालन और यथार्थरूप से संसार की रक्षा करने में समर्थ हुए ॥ ३४ ॥ जब भगवान् विष्णु स्वयं वक्ता होते हैं और लक्ष्मीजी प्रेम से श्रवण करती हैं, उस समय प्रत्येक बार भागवत-कथा का श्रवण एक मास में ही समाप्त होता है ॥ ३५ ॥ किन्तु जब लक्ष्मीजी स्वयं वक्ता होती हैं और विष्णु श्रोता बनकर सुनते हैं, तब भागवत-कथा का रसास्वादन दो मास तक होता रहता है; उस समय कथा बड़ी सुन्दर, बहुत ही रुचिकर होती है ॥ ३६ ॥ इसका कारण यह है कि विष्णु तो अधिकारारूढ़ हैं, उन्हें जगत् के पालन की चिन्ता करनी पड़ती है; पर लक्ष्मीजी इन झंझटों से अलग हैं, अतः उनका हृदय निश्चिन्त हैं । इसीसे लक्ष्मीजी के मुख से भागवतकथा का रसास्वादन अधिक प्रकाशित होता है । इसके पश्चात् रुद्र ने भी, जिन्हें भगवान् ने पहले संहार कार्य में लगाया था, अपनी सामर्थ्य की वृद्धि के लिये उन परमपुरुष भगवान् श्रीकृष्ण से प्रार्थना की ॥ ३७-३८ ॥

रुद्र ने कहा — मेरे प्रभु देवदेव ! मुझमें नित्य, नैमितिक और प्राकृत संहार की शक्तियाँ तो हैं, पर आत्यन्तिक संहार की शक्ति बिल्कुल नहीं है । यह मेरे लिये बड़े दुःख की बात हैं । इसी कमी की पूर्ति के लिये मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ ॥ ३९-४० ॥

बृहस्पतिजी कहते हैं — रुद्र की प्रार्थना सुनकर नारायण ने उन्हें भी श्रीमद्भागवत का ही उपदेश किया । सदाशिव रुद्र ने एक वर्ष में एक पारायण के क्रम से भागवत-कथा का सेवन किया । इसके सेवन से उन्होंने तमोगुण पर विजय पायी और आत्यन्तिक संहार (मोक्ष) की शक्ति भी प्राप्त कर ली ॥ ४१-४२ ॥

उद्भवजी कहते हैं — श्रीमद्भागवत के माहात्म्य सम्बन्ध में यह आख्यायिका मैंने अपने गुरु श्रीबृहस्पतिजी से सुनी और उनसे भागवत का उपदेश प्राप्त कर उनके चरणों में प्रणाम करके मैं बहुत ही आनन्दित हुआ ॥ ४३ ॥ तत्पश्चात् भगवान् विष्णु की रीति स्वीकार करके मैंने भी एक मास तक श्रीमद्भागवतकथा का भली-भाँति रसास्वादन किया ॥ ४४ ॥ उतने से ही मैं भगवान् श्रीकृष्ण का प्रियतम सखा हो गया । इसके पश्चात् भगवान् ने मुझे व्रज में अपनी प्रियतमा गोपियों की सेवामें नियुक्त किया ॥ ४५ ॥ यद्यपि भगवान् अपने लीला-परिकरों के साथ नित्य विहार करते रहते हैं, इसलिये गोपियों का श्रीकृष्ण से कभी भी वियोग नहीं होता; तथापि जो भ्रम से विरह-वेदना का अनुभव कर रही थीं, उन गोपियों के प्रति भगवान् ने मेरे मुख से भागवत का सन्देश कहलाया ॥ ४६ ॥ उस सन्देश को अपनी बुद्धि के अनुसार ग्रहण कर गोपियाँ तुरन्त ही विरह-वेदना से मुक्त हो गयी । मैं भागवत के इस रहस्य को तो नहीं समझ सका, किन्तु मैंने उसका चमत्कार प्रत्यक्ष देखा ॥ ४७ ॥

इसके बहुत समय के बाद जब ब्रह्मादि देवता आकर भगवान् से अपने परमधाम में पधारने की प्रार्थना करके चले गये, उस समय पीपल के वृक्ष की जड़ के पास अपने सामने खड़े हुए मुझे भगवान् ने श्रीमद्भागवत-विषयक उस रहस्य का स्वयं ही उपदेश किया और मेरी बुद्धि में उसका दृढ़ निश्चय करा दिया । उसके प्रभाव से मैं बदरिकाश्रम में रहकर भी यहाँ व्रज की लताओं और बेलों में निवास करता हूँ ॥ ४८-४९ ॥ उसी के बल से यहाँ नारदकुण्ड पर सदा स्वेच्छानुसार विराजमान रहता हूँ । भगवान् के भक्तों को श्रीमद्भागवत के सेवन से श्रीकृष्ण-तत्त्व का प्रकाश प्राप्त हो सकता है ॥ ५० ॥ इस कारण यहाँ उपस्थित हुए इन सभी भक्तजनों के कार्य की सिद्धि के लिये मैं श्रीमद्भागवत का पाठ करूँगा; किन्तु इस कार्य में तुम्हें ही सहायता करनी पड़ेगी ॥ ५५ ॥

सूतजी कहते हैं — यह सुनकर राजा परीक्षित् उद्धवजी को प्रणाम करके उनसे बोले ।

परीक्षित् ने कहा — हरिदास उद्धवजी ! आप निश्चिन्त होकर श्रीमद्भागवत-कथा का कीर्तन करें ॥ ५२ ॥ इस कार्य में मुझे जिस प्रकार की सहायता करनी आवश्यक हो, उसके लिये आज्ञा दें ।

सूतजी कहते हैं — परीक्षित् का यह वचन सुनकर उद्धवजी मन-ही-मन बहुत प्रसन्न हुए और बोले ॥ ५३ ॥

उद्धवजी ने कहा — राजन् ! भगवान् श्रीकृष्ण ने जबसे इस पृथ्वीतल का परित्याग कर दिया है, तबसे यहाँ अत्यन्त बलवान् कलियुग का प्रभुत्व हो गया है । जिस समय यह शुभ अनुष्ठान यहाँ आरम्भ हो जायगा, बलवान् कलियुग अवश्य ही इसमें बहुत बड़ा विघ्न डालेगा ॥ ५४ ॥ इसलिये तुम दिग्विजय के लिये जाओं
और कलियुग को जीतकर अपने वश में करो । इधर मैं तुम्हारी सहायता से वैष्णवी रीति का सहारा लेकर एक महीने तक यहाँ श्रीमद्भागवतकथा का रसास्वादन कराऊँगा और इस प्रकार भागवतकथा के रस का प्रसार करके इन सभी श्रोताओं को भगवान् मधुसूदन के नित्य गोलोकधाम में पहुँचाऊँगा ॥ ५५-५६ ॥

सूतजी कहते हैं — उद्धवजी की बात सुनकर राजा परीक्षित् पहले तो कलियुग पर विजय पाने के विचार से बड़े ही प्रसन्न हुए; परन्तु पीछे यह सोचकर कि मुझे भागवतकथा के श्रवण से वञ्चित ही रहना पड़ेगा, चिन्ता से व्याकुल हो उठे । उस समय उन्होंने उद्धवजी से अपना अभिप्राय इस प्रकार प्रकट किया ॥ ५५ ॥

राजा परीक्षित् ने कहा — हे तात ! आपकी आज्ञा के अनुसार तत्पर होकर मैं कलियुग को तो अवश्य ही अपने वश में करूँगा, मगर श्रीमद्भागवत की प्राप्ति मुझे कैसे होगी ॥ ५८ ॥ मैं भी आपके चरणों की शरण आया हूँ, अतः मुझ पर भी आपको अनुग्रह करना चाहिये ।

सूतजी कहते हैं —
उनके इस वचन को सुनकर उद्धवजी पुनः बोले ॥ ५९ ॥

उद्धवजी ने कहा — राजन् ! तुम्हें तो किसी भी बात के लिये किसी प्रकार भी चिन्ता नहीं करनी चाहिये; क्योंकि इस भागवत शास्त्र के प्रधान अधिकारी तो तुम्हीं हो ॥ ६० ॥ संसार के मनुष्य नाना प्रकार के कर्मों में रचे-पचे हुए हैं, ये लोग आज तक प्रायः भागवत-श्रवण की बात भी नहीं जानते ॥ ६१ ॥ तुम्हारे ही प्रसाद से इस भारतवर्ष में रहनेवाले अधिकांश मनुष्य श्रीमद्भागवतकथा की प्राप्ति होने पर शाश्वत सुख प्राप्त करेंगे ॥ ६२ ॥ महर्षि भगवान् श्रीशुकदेवजी साक्षात् नन्दनन्दन श्रीकृष्ण के स्वरूप हैं, वे ही तुम्हें श्रीमद्भागवत की कथा सुनायेंगे; इसमें तनिक भी सन्देह की बात नहीं है ॥ ६३ ॥ राजन् ! उस कथा के श्रवण से तुम व्रजेश्वर श्रीकृष्ण के नित्यधाम को प्राप्त करोगे । इसके पश्चात् इस पृथ्वी पर श्रीमद्भागवतकथा का प्रचार होगा ॥ ६४ ॥ अतः राजेन्द्र परीक्षित् ! तुम जाओ और कलियुग को जीतकर अपने वश में करो ।

सूतजी कहते हैं — उद्धवजी के इस प्रकार कहने पर राजा परीक्षित् ने उनकी परिक्रमा करके उन्हें प्रणाम किया और दिग्विजय के लिये चले गये ॥ ६५ ॥ इधर वज्र ने भी अपने पुत्र प्रतिबाहु को अपनी राजधानी मथुरा का राजा बना दिया और माताओं को साथ लेकर उसी स्थान पर, जहाँ उद्धवजी प्रकट हुए थे, जाकर श्रीमद्भागवत सुनने की इच्छा से रहने लगे ॥ ६६ ॥ तदनन्तर उद्धवजी ने वृन्दावन में गोवर्धन-पर्वत के निकट एक महीने तक श्रीमद्भागवतकथा के रस की धारा बहायी ॥ ६७ ॥ उस रस का आस्वादन करते समय प्रेमी श्रोताओं की दृष्टि में सब ओर भगवान् की सच्चिदानन्दमयी लीला प्रकाशित हो गयी और सर्वत्र श्रीकृष्णचन्द्र का साक्षात्कार होने लगा ॥ ६८ ॥ उस समय सभी श्रोताओं ने अपने को भगवान् के स्वरूप में स्थित देखा । वज्रनाभ ने श्रीकृष्ण के दाहिने चरणकमल में अपने को स्थित देखा और श्रीकृष्ण के विरह-शोक से मुक्त होकर उस स्थान पर अत्यन्त सुशोभित होने लगे । वज्रनाभ की वे रोहिणी आदि माताएँ भी रास की रजनी में प्रकाशित होनेवाले श्रीकृष्णरूपी चन्द्रमा के विग्रह में अपने को कला और प्रभा के रूप में स्थित देख बहुत ही विस्मित हुई तथा अपने प्राणप्यारे की विरह-वेदना से छुटकारा पाकर उनके परमधाम में प्रविष्ट हो गयीं ॥ ६९-७१ ॥

इनके अतिरिक्त भी जो श्रोतागण वहाँ उपस्थित थे, वे भी भगवान् की नित्य अन्तरङ्गलीला में सम्मिलित होकर इस स्थूल व्यावहारिक जगत् से तत्काल अन्तर्धान हो गये ॥ ७२ ॥ वे सभी सदा ही गोवर्धन-पर्वत के कुञ्ज और झाड़ियों में, वृन्दावन-काम्यवन आदि वनों में तथा वहाँ की दिव्य गौओं के बीच में श्रीकृष्ण के साथ विचरते हुए अनन्त आनन्द का अनुभव करते रहते हैं जो लोग श्रीकृष्ण के प्रेम में मग्न हैं, उन भावुक भक्तों को उनके दर्शन भी होते हैं ॥ ७३ ॥

सूतजी कहते हैं — जो लोग इस भगवत्प्राप्ति की कथा को सुनेंगे और कहेंगे, उन्हें भगवान् मिल जायेंगे और उनके दुःख का सदा के लिये अन्त हो जायगा ॥ ७४ ॥

॥ श्रीस्कान्दे महापुराणे एकाशीतिसाहस्र्यां संहिताया द्वितीये वैष्णवखण्डे परीक्षितदुद्धवसंवादे श्रीमद्‌भागवतमाहात्म्ये तृतीयोऽध्यायः ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

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