श्रीरामचरितमानस में स्वप्न  अभिधारणा
प्रायः हर व्यक्ति स्वप्न देखता है । स्वप्न व्यक्ति को निद्रित अवस्था में ही आते हैं । निद्रा अवस्था में मन सुषुम्ना में प्रवेश कर जाता है, लेकिन देह की सभी क्रियाएँ निरन्तर जारी रहती है । हर संस्थान अपना कार्य करता है । तभी तो निद्रित अवस्था में मच्छर आदि के काटने पर, प्यास लगने पर, लघुशंका एवं शौच आदि की इच्छा होमे पर नींद तुरन्त खुल जाती है । हमारा शरीर पाँच तत्त्वों पृथ्वी, जल, वायु, आकाश तथा अग्नि से बना हुआ है । वे बातें जिन्हें हम जागृत अवस्था में देखते हैं, वे सब बातें कई बार स्वप्नों में आती रहती हैं । अथवा ऐसी इच्छाएँ जिनकी पूर्ति व्यवहारिक जीवन में सम्भव नहीं हो पाती, वे हमें स्वप्न अवस्था में पूरी होती दिखती हैं ।
कुछ स्वप्न शरीर के रुग्ण होने के कारण आते हैं । कुछ स्वप्न वे होते हैं, जो हमें क्रोध एवं मानसिक तनाव में नींद लेने पर आते हैं । ऐसे स्वप्नों का कोई अर्थ नहीं निकलता है । कुछ स्वप्न व्यक्ति को निरन्तर आते रहते हैं । कुछ स्वप्न जन्मांगगत पाप ग्रह के दोष के कारण आते हैं । यदि कुण्डली में चन्द्रमा, पंचम भाव राहु, केतु, शनि, मंगल एवं सूर्य के प्रभाव में हों, तो इस प्रकार के स्वप्न निरर्थक जाते हैं । इनसे हमें कोई संकेत नहीं मिलता है । ऐसे स्वप्न, जिनके बारे में न कभी सोचा न कभी सुना हो, आएँ तो ये निश्चित ही अपना अर्थ रखते हैं । वह व्यक्ति को शारीरिक एवं मानसिक रुप से पूर्ण स्वस्थ हो और उसे इस प्रकार के सपने आएँ तो निश्चित ही भविष्य का संकेत देते हैं । दिन की नींद में देखे गए सपने भी निष्फल जाते हैं । प्रायः वे सपने जो रात्ति के अन्तिम प्रहर में अर्थात् सूर्योदय से तीन घंटे पूर्व के समय में देखे जाते हैं, शीघ्र ही अपना परिणाम दे देते हैं । अर्द्धरात्रि या उसके पूर्व के समय में देखे गए सपनों के परिणाम बहुत दिन बाद मिलते हैं । यह भी मान्यता है कि अच्छा सवप्न देखने के बाद पुनः नहीं सोना चाहिए और अशुभ स्वप्न देखने के बाद पुनः सो जाना चाहिए, जिसके फलस्वरुप उनके दुष्प्रभाव में कमी आ जाती है । हमारे ऋषि-मुनियों ने स्वप्न और शकुन के बारे में बहुत कुछ चिंतन-मनन करने के बाद स्वप्न और शकुन-शास्त्र लोक कल्याण के लिए प्रकट किया है । भले ही इसे विज्ञान मान्यता न देता हो लेकिन हर देश, समाज किसी-न-किसी रुप में स्वप्न औठर शकुन को मानता आया है और उसे व्यवहार में लेता आया है । हमारे धार्मिक, ज्योतिषीय, आयुर्वेदिक एवं तंत्र-मंत्र-यंत्र से सम्बन्धित ग्रंथों में स्वप्नों के बारे में बहुत कुछ लिखा गया है । आयुर्वेद ग्रंथों में तो स्वप्न के माध्यम से होने वाले रागों के संकेत मिलने के बारे में भी लिखा गया है । यंत्र-मंत्र-तंत्र साधना में भी स्वप्न साधना के माध्यम से सब कुछ जानने की व्यवस्था है । काव्य साहित्य एवं वर्त्तमान में फिल्म जगत् में भी स्वप्नों का महत्त्व है ।
संत कवि तुलसीदास द्वारा रचित “रामचरितमानस” के विभिन्न पात्रों को स्वप्न के माध्यम से भँविष्य के संकेत प्राप्त होते हैं । यहाँ उनका उल्लेख किया जा रहा है । बालकाण्ड के प्रारम्भ में ही देखें कि सपने में भी देव कृपा मिलने का कितना असर होता है । ऐसा उल्लेख मिलता है कि संत तुलसीदास रामचरितमानस को संस्कृत में लिखना चाहते थे, लेकिन सपने में उन्हें शिवजी ने रामचरितमानस को लोकहित भाषा में लिखने का निर्देश दिया –
शिव भाषेउ भाषा में काव्य रचो ।
सुर वाणी के पीछे न तात पचो ।।
सबको हित होइ सोई करिये ।
अरु पूर्व प्रथा मत आचरिये ।।

इसके उपरांत रामचरितमानस का भाषा लेखन प्रारम्भ हुआ । बालकाण्ड के प्रारम्भ में ही इसी बात का अनुरोध तुलसीदासजी शिवजी से करते हैं, यदि मुख पर शिवजी और पार्वतीजी की स्वप्न में भि सचमुच प्रसन्नता हो, तो मैंने इस भाषा कविता का जो प्रभाव कहा है वह सब सच होः
सपनेहुँ सांचेहुँ मोहि पर जौं हर गौरि पसाउ ।
तो फुर होउ जो कहेऊँ सब भाषा भनिति प्रभाउ ।। (बालकाण्ड, दोहा १५)

जब श्रीराम, सीता, लक्ष्मण को सुमंतजी अयोध्या से वनवास के लिए लेकर चले और श्रृंगवेरपुर में निषादराज गुह का आतिथ्य स्वीकार कर रात्रि विश्राम किया तब राम, सीता एवं मंत्री सुमंत के सो जाने पर निषादराज गुह और लक्ष्मणजी का वार्तालाप होता है । निषादराज गुह श्रीराम के वनवास पर दुःखी हो रहा होता है तब लक्ष्मणजी उसे समझाते हुए कहते हैं कि यह तो स्वप्न-भ्रम के समान है । यहाँ स्वप्न को केवल भ्रम माना गया है –
सपने होई भिखारि नृपु रंकु नाकपति होइ ।
जागे लाभु न हानि कछु तिमि प्रपंच जियँ जोइ ।। (अयोध्याकाण्ड, दोहा ९२)

जैसे स्वप्न में राजा भिखारी हो जाए या कंगाल स्वर्ग का स्वामी इन्द्र हो जाए, तो जागने पर लाभ या हानि कुछ भी नहीं है, वैसे ही इस दृश्य प्रपंच को हृदय से देखना चाहिए ।
जब राम, सीता, लक्ष्मण वनवास को चले गए एवं राजा दशरथ परम धाम को चले गए तो भरत एवं शत्रुघ्न को अपने नाना के यहाँ सूचना अशुभ स्वप्नों के माध्यम से मिलने लगी ।
अनखु अवध अरंभेउ जब तें ।
कुसगुन होहिं भरत कहुँ तब तें ।।
देखहिं अति भयानक सपना ।
जागि करहिं कटु कोटि कल्पना ।।

जबसे अयोध्या में अनर्थ हुआ तभी से भरतजी को अपशकुन होने लगे । वे रात को भयंकर सवप्न देखते थे और जागने पर (उन स्वप्नों के कारण) करोड़ों तरह की बुरी-बुरी कल्पनाएँ किया करते थे । भरत को ग्लानि होती है कि उन्होंने अपनी माँ को क्या-क्या कह दिया । जब भरतजी अयोध्यावासियों के साथ भगवान् राम से मिलने वन में जाते हैं और वहाँ जब सभी की सभा हो रही होती है तब भरतजी रामजी से निवेदन कर रहे हैं । इस प्रसंग में सपने की बात देखिएः
सपनेहुँ दोसक लेसु न काहू ।
मोर अभाग उदधि अवगाहू ।।
बिनु समझें निज अघ परिपाकू ।
जारिऊँ जाय जननि कहि काकू ।।

स्वप्न में भी किसी को दोष का लेश भी नहीं है । मेरा अभाग्य ही अथाह समुद्र है । मैंने अपने पापों का परिणाम समझे बिना ही माता को कटु वचन कहकर व्यर्थ ही जलाया ।
सपने जेहि मन होइ लराई ।
जागे समझत मन सकुचाई ।। (किष्किन्धा काण्ड)

सुग्रीव ने कहा ‘श्रीरामजी ! बालि तो मेरा परम हितकारी है, जिसकी कृपा से शोक का नाश करने वाले आप मिले और जिसके साथ अब स्वप्न में भी लड़ाई हो, जगाने पर उसे समझकर मन में संकोच होगा कि मैं स्वप्न में भी उससे क्यों लड़ा ।
सुन्दरकांड में प्रसंग आता है कि सीता की रखवाली करने वाली राक्षसी त्रिजटा को सपना आता है कि भगवान् राम की जीत अवश्य होगी । वह अपना स्वप्न सब राक्षसियों को सुनाती हैं –
त्रिजटा नाम राक्षसी एका । रामचरन रति निपुन विवेका ।।
सबहि बुलाय सुनाइउ सपना । सीतहि सेई करहु हित अपना ।।

त्रिजटा कहती हैः ‘मैंने जो स्वप्न देखा है चह इस प्रकार है । वानर ने लंका जला दी है । रावण की सब सेना मारी गई है । रावण गदहे पर सवार है । उसके दशों सिर मुंडे हुए हैं और बीसों भुजाएँ खण्डित हो गयी हैं । इस प्रकार वह दक्षिण दिशा को जा रहा है । लंका का राज विभीषण को मिल गया है । पूरे नगर में श्रीराम की जय-जयकार हो रही है । तब प्रभु ने सीताजी को अपने पास बुला भेजा है । मैं पुकारकर कहती हूँ । यह सपना चार दिन बीते सत्य होगा ।
सपने वानर लंका जारी । जातुधान सेना सब मारी ।।
खर आरुढ़ नगन दश सीसा । मुंडित सिर खंडित भुज बीसा ।।
एहि बिधि सो दक्षिण दिसि जाई । लंका मनहुँ विभीषण पाई ।।
नगर फिरी रघुवीर दोहाई । तब प्रभु सीता बोलि पठाई ।।
यह सपना मैं कहऊँ पुकारी । होई हि सत्य गये दिन चारी ।।

रावण अंतिम लड़ाई के लिए युद्ध के मैदान में जा रहा है । तुलसीदासजी कहते हैं –
ताहि कि संपति सगुन शुभ सपनेहु मन विश्राम ।
भूत-द्रोह रत मोह वश राम विमुख रति काम ।।

जो जीवों के द्रोह में रत हैं, मोह के वश में हो रहा है, राम विमुख है और कामासक्त है । उसको क्या कभी स्वप्न में भी सुख-संपति, शुभ-शकुन और चित्त की शांति हो सकती है । यह प्रसंग आता है कि स्वप्न ने भगवान् राम को भी दुःखी कर दिया था ।
जब भगवान् राम अयोध्या में राज करने लगे तो उन्होंने यह व्यवस्था की थी कि दिनभर उनके दूत अयोध्या नगरी में घुमते थे और शाम को आकर दरबार में प्रभु को होने वाली घटनाएँ आकर बताते थे –
कछु कही नहिं सो पूछि सादर वचन बेगि न आवहीं ।
एक रजक पत्निहिं कह डाटत व्यंग वचन सुनावहीं ।।
सुनि सकल कृपानिधान चर के मधऽय उर राखे हरी ।
निशि स्वप्न देखत जगतपति पुनि जागि दारुण दुःखकरी ।।

उस दूत ने कुछ नहीं कहा तो रामजी ने उससे आदर के साथ पूछा । उससे शीघ्र कहते न बना । फिर बोला एक धोबी अपनी स्त्री को डाँटकर व्यंग्य वचन कह रहा था । दूत के वचन सुनकर कृपानिधान हरि ने मन में रख लिया । रात में स्वप्न में भी ऐसा देखा तो जागकर बड़े ही दुःखी हुए ।

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