श्रीरुद्र गीता

।। चौपाई ।।
सुनु मुनि यह तन – मन्दिर माहीं । दुइ विधी चेतन-रुप सदा ही ।।
निर्विकल्प आतम यक रुपा । सदा एक – रस शान्त अनूपा ।।
यक चैतन्योन्मुख वपु अहई । सो वह मिला दृश्य सन रहई ।।
वास्तव मँह न भयो कछु कैसे । स्वप्न -सृष्टि पुनि जाग्रत जैसे ।।
जिमि पावक थिर चञ्चल ज्वाला । तिमि परमातम जीव है वाला ।।
निज संकल्प – सृष्टि – विस्तारी । भ्रम करि जीव भयो संसारी ।।
यथा सिंह मृग – गण सँग आई । चारा चरत स्वभाव भुलाई ।।


सहज रुप निज चेतै जब हीं । गज शिर चढ़ै मृगन तजि तब हीं ।।
तथा जीव संकल्प – अधीना । इन्द्रिन्ह संग भयो जनु दीना ।।
जिमि शिशु लखि अपनी परछाहीं । गुनि वैताल डरत मन माहीं ।।
तिमि अपने हि कल्पित भव आसा । परि-करि कर्म लहत दुख-त्रासा ।।
कहुँ तन तजत गहत कहुँ अहई । गिर-स्वरुप सन भटकत रहई ।।
यक चेतन चित की सतलाई । ह्वै स्पन्द बहु भाव देखाई ।।
कहुँ हरि – रुप क्षीर – निधि-वासी । कहुँ विधि ह्वै विधि-लोक-निवासी ।।
कहुँ हर पञ्च – वदन कैलासी । कहुँ सुर – पति ह्वै स्वर्ग विलासी ।।
कहुँ रवि – शशि दिन रैन प्रकाशी । कहुँ नक्षत्र उडु – गण द्युति-राशी ।।
क्षिति-जल-अनल-अनिल-नभ-रुपा । होत प्रकृति – गुण तेहि अनुरुपा ।।
बड़ विराट लघु सूक्ष्म प्रयन्ता । रुप नाम गुण होत अनन्ता ।।
ऊर्ध्व मध्य अध भटकत रहई । कर्म शुभाशुभ कर फल लहई ।।
जस – जस करत भावना सोई । तस – तस रुप शीघ्र वह होई ।।
जिमि सपने होइ आपुहि आना । भोग सत्य इव दुख – सुख नाना ।।

।। दोहा ।।
पर – स्वरुप ते सत्यता, होत भिन्न कहुँ नाहिं ।
जिमि नद-फेनु तरंग बहु, सब जल ही जल आहि ।।

।। घनाक्षरी ।।
आदि चित्ति-कला जो फुरी, सो चढ़ी जीव-रथ ,
जीव जाय चढ़्यो, अहंकार बुद्धि पर ।
बुद्धि चढ़ी मन पर, मन चढ़्यो प्राण पर,
प्राण चढ़े इन्द्री पर, इन्द्री देह-वृद्धि पर ।
देह चढ़ी वस्तु पर, कर्म जो करत नित्य,
विश्व-रुपी पिञ्जर में, भ्रमै कार्य-सिद्धि पर ।
ऐशे चक्र माहीं जीव, भटकै प्रमाद करि ,
साक्षी ‘बलदेव’ निर्विकल्प, सिद्धि-निद्धि पर ।

।। चौपाई ।।
सर्वात्मा शान्त सम-रुपा । तेहि पूजा दुइ भाँति निरुपा ।।
इष्ट-देव कर पूजन-ध्याना । ध्यानहिं पूजन भेद न आना ।।
जहँ-जहँ सुनौ-गुनौ कहि देखौ । तहँ-तहँ रुप आत्महिं लेखो ।।
सर्व-प्रकाशक जो चिद्रुपा । भीतर – बाहर एक अनूपा ।।
सत्-चित् अनुभव भितर जोई । अहं रुप करिहै सिध सोई ।।
सर्व-सार अरु सर्व अधारा । तेहि विराट वपु सुनहु अपारा ।।

।। दोहा ।।
इकहि देव अनन्त सोइ, सत्ता – मात्र स्वरुप ।
तेहि प्रभु कहँ चिन्तन करै, सो न परै भ्रम-कूप ।।

।। सवैया ।।
हौं नहिं ब्रह्म न शक्ति न ईश्वर, जीव न चेतन हौं अहंकारा ।
हौं नहिं त्रैगुण भूत-विषय नहिं, इन्द्रिय चौदह देव प्रकारा ।।
हौं नहिं विप्र न क्षत्रिय वैश्य, न शूद्र न आश्रम योनि अपारा ।
जो हौं सो हौं कहि जात नहीं, ‘बलदेव’ समस्त प्रकाशक न्यारा ।।

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