September 29, 2015 | aspundir | Leave a comment श्रीरुद्र गीता ।। चौपाई ।। सुनु मुनि यह तन – मन्दिर माहीं । दुइ विधी चेतन-रुप सदा ही ।। निर्विकल्प आतम यक रुपा । सदा एक – रस शान्त अनूपा ।। यक चैतन्योन्मुख वपु अहई । सो वह मिला दृश्य सन रहई ।। वास्तव मँह न भयो कछु कैसे । स्वप्न -सृष्टि पुनि जाग्रत जैसे ।। जिमि पावक थिर चञ्चल ज्वाला । तिमि परमातम जीव है वाला ।। निज संकल्प – सृष्टि – विस्तारी । भ्रम करि जीव भयो संसारी ।। यथा सिंह मृग – गण सँग आई । चारा चरत स्वभाव भुलाई ।। सहज रुप निज चेतै जब हीं । गज शिर चढ़ै मृगन तजि तब हीं ।। तथा जीव संकल्प – अधीना । इन्द्रिन्ह संग भयो जनु दीना ।। जिमि शिशु लखि अपनी परछाहीं । गुनि वैताल डरत मन माहीं ।। तिमि अपने हि कल्पित भव आसा । परि-करि कर्म लहत दुख-त्रासा ।। कहुँ तन तजत गहत कहुँ अहई । गिर-स्वरुप सन भटकत रहई ।। यक चेतन चित की सतलाई । ह्वै स्पन्द बहु भाव देखाई ।। कहुँ हरि – रुप क्षीर – निधि-वासी । कहुँ विधि ह्वै विधि-लोक-निवासी ।। कहुँ हर पञ्च – वदन कैलासी । कहुँ सुर – पति ह्वै स्वर्ग विलासी ।। कहुँ रवि – शशि दिन रैन प्रकाशी । कहुँ नक्षत्र उडु – गण द्युति-राशी ।। क्षिति-जल-अनल-अनिल-नभ-रुपा । होत प्रकृति – गुण तेहि अनुरुपा ।। बड़ विराट लघु सूक्ष्म प्रयन्ता । रुप नाम गुण होत अनन्ता ।। ऊर्ध्व मध्य अध भटकत रहई । कर्म शुभाशुभ कर फल लहई ।। जस – जस करत भावना सोई । तस – तस रुप शीघ्र वह होई ।। जिमि सपने होइ आपुहि आना । भोग सत्य इव दुख – सुख नाना ।। ।। दोहा ।। पर – स्वरुप ते सत्यता, होत भिन्न कहुँ नाहिं । जिमि नद-फेनु तरंग बहु, सब जल ही जल आहि ।। ।। घनाक्षरी ।। आदि चित्ति-कला जो फुरी, सो चढ़ी जीव-रथ , जीव जाय चढ़्यो, अहंकार बुद्धि पर । बुद्धि चढ़ी मन पर, मन चढ़्यो प्राण पर, प्राण चढ़े इन्द्री पर, इन्द्री देह-वृद्धि पर । देह चढ़ी वस्तु पर, कर्म जो करत नित्य, विश्व-रुपी पिञ्जर में, भ्रमै कार्य-सिद्धि पर । ऐशे चक्र माहीं जीव, भटकै प्रमाद करि , साक्षी ‘बलदेव’ निर्विकल्प, सिद्धि-निद्धि पर । ।। चौपाई ।। सर्वात्मा शान्त सम-रुपा । तेहि पूजा दुइ भाँति निरुपा ।। इष्ट-देव कर पूजन-ध्याना । ध्यानहिं पूजन भेद न आना ।। जहँ-जहँ सुनौ-गुनौ कहि देखौ । तहँ-तहँ रुप आत्महिं लेखो ।। सर्व-प्रकाशक जो चिद्रुपा । भीतर – बाहर एक अनूपा ।। सत्-चित् अनुभव भितर जोई । अहं रुप करिहै सिध सोई ।। सर्व-सार अरु सर्व अधारा । तेहि विराट वपु सुनहु अपारा ।। ।। दोहा ।। इकहि देव अनन्त सोइ, सत्ता – मात्र स्वरुप । तेहि प्रभु कहँ चिन्तन करै, सो न परै भ्रम-कूप ।। ।। सवैया ।। हौं नहिं ब्रह्म न शक्ति न ईश्वर, जीव न चेतन हौं अहंकारा । हौं नहिं त्रैगुण भूत-विषय नहिं, इन्द्रिय चौदह देव प्रकारा ।। हौं नहिं विप्र न क्षत्रिय वैश्य, न शूद्र न आश्रम योनि अपारा । जो हौं सो हौं कहि जात नहीं, ‘बलदेव’ समस्त प्रकाशक न्यारा ।। Related