॥ सरस्वतीस्तोत्रं अथवा वाणीस्तवनं याज्ञ्यवल्क्योक्त ॥

॥ नारायण उवाच ॥

वाग्देवतायाः स्तवनं श्रूयतां सर्वकामदम् ।
महामुनिर्याज्ञवल्क्यो येन तुष्टाव तां पुरा ॥ १ ॥
गुरुशापाच्च स मुनिर्हतविद्यो बभूव ह ।
तदाऽऽजगाम दुःखार्तो रविस्थानं च पुण्यदम् ॥ २ ॥
सम्प्राप्य तपसा सूर्यं कोणार्के दृष्टिगोचरे ।
तुष्टाव सूर्य्यं शोकेन रुरोद स पुनः पुनः ॥ ३ ॥
सूर्य्यस्तं पाठयामास वेदवेदाङ्गमीश्वरः ।
उवाच स्तुहि वाग्देवीं भक्त्या च स्मृतिश्रुति) हेतवे ॥ ४ ॥
तमित्युक्त्वा दीननाथो ह्यन्तर्द्धानं जगाम सः ।
मुनिः स्नात्वा च तुष्टाव भक्तिनम्रात्मकन्धरः ॥ ५ ॥

॥ याज्ञवल्क्य उवाच ॥

कृपां कुरु जगन्मातर्मामेवं हततेजसम् ।
गुरुशापात्स्मृतिभ्रष्टं विद्याहीनं च दुःखितम् ॥ ६ ॥
ज्ञानं देहि स्मृतिं देहि विद्यां विद्याधिदेवते (देहि देवते) ।
प्रतिष्ठां कवितां देहि शक्तिंशाक्तं)  शिष्य-प्रबोधिकाम्प्रबोधिनीम्) ॥ ७ ॥
ग्रन्थ-निर्मिति(कर्तृत्व)-शक्तिं च सुशिष्यं(सच्छिष्यं) सुप्रतिष्ठितम् ।
प्रतिभां सत्सभायां च विचारक्षमतां शुभाम् ॥ ८॥
लुप्तं सर्वं दैववशान्नवीभूतं पुनः कुरु ।
यथाऽङ्कुरं भस्मनि च करोति देवता पुनः जनयति भगवान्योगमायया) ॥ ९ ॥
ब्रह्मस्वरूपा परमा ज्योतिरूपा सनातनी ।
सर्वविद्याधिदेवी या तस्यै वाण्यै नमो नमः ॥ १० ॥
यया विना जगत् सर्वं शश्वज्जीवन्मृतं सदा ।
ज्ञानाधिदेवी या तस्यै सरस्वत्यै नमो नमः ॥ ११ ॥
यया विना जगत् सर्वं मूकमुन्मत्तवत्सदा ।
वागधिष्ठातृदेवी या तस्यै वाण्यै नमो नमः ॥ १२ ॥
हिमचन्दनकुन्देन्दुकुमुदाम्भोजसंनिभा ।
वर्णाधिदेवी या तस्यै चाक्षरायै नमो नमः ॥ १३ ॥
विसर्ग बिन्दुमात्राणां यदधिष्ठानमेव च ।
इत्थं त्वं गीयसे सद्भिर्भारत्यै ते नमो नमः ॥ १४ ॥
यया विनाऽत्र संख्याता संख्यांसंख्याकृत्संख्यां)  कर्तुं न शक्यतेशक्नुते)
काल संख्यास्वरूपा या तस्यै देव्यै नमो नमः ॥ १५ ॥
व्याख्यास्वरूपा या देवी व्याख्याधिष्ठातृदेवता ।
भ्रमसिद्धान्तरूपा या तस्यै देव्यै नमो नमः ॥ १६ ॥
स्मृतिशक्तिर्ज्ञानशक्तिर्बुद्धिशक्तिस्वरूपिणी ।
प्रतिभा कल्पना शक्तिर्या च तस्यै नमो नमः ।
सनत्कुमारो ब्रह्माणं ज्ञानं पप्रच्छ यत्र वै ॥ १७ ॥
बभूव जडवत् सोऽपि सिद्धान्तं कर्तुमक्षमः ।
तदाऽऽजगाम भगवानात्मा श्रीकृष्ण ईश्वरः ॥ १८ ॥
उवाच स च तंतां)  स्तौहि वाणीमिष्टांवाणीमिति)  प्रजापते ।
स च तुष्टाव त्वांतां)  ब्रह्मा चाऽऽज्ञया परमात्मनः ॥ १९ ॥
चकार त्वत्प्रसादेनतत्प्रसादेन)  तदा सिद्धान्तमुत्तमम् ।
यदाप्यनन्तं पप्रच्छ ज्ञानमेकं वसुन्धरा ॥ २० ॥
बभूव मूकवत् सोऽपि सिद्धान्तं कर्तुमक्षमः ।
तदा त्वां च स तुष्टाव सन्त्रस्तः कश्यपाज्ञया ॥ २१ ॥
ततश्चकार सिद्धान्तं निर्मलं भ्रमभञ्जनम् ।
व्यासः पुराणसूत्रं च पपृच्छ वाल्मिकिं यदा ॥ २२ ॥ व्यासः पुराणसूत्रश्च समपृच्छतवाल्मिकिम् ॥ २२ ॥)
मौनीभूतः स सस्मार त्वामेव जगदम्बिकाम् ।
तदा चकार सिद्धान्तं त्वद्वरेण मुनीश्वरः ॥ २३ ॥
सम्प्राप्यस प्राप)  निर्मलं ज्ञानं प्रमादध्वंसकारणम् ।
पुराण सूत्रं श्रुत्वा स व्यासः कृष्णकलोद्भवः ॥ २४ ॥
त्वां सिषेवे च दध्यौ तं शतवर्षं च पुष्करे ।
तदा त्वत्तो वरं प्राप्य सत् कवीन्द्रो बभूव ह ॥ २५ ॥
तदा वेदविभागं च पुराणानि च चकार सःह)

यदा महेन्द्रे पप्रच्छ तत्वज्ञानं सदाशिवम्शिवा शिवम्) ॥ २६ ॥
क्षणं त्वामेव सञ्चिन्त्य तस्यै ज्ञानं दधौ विभुः ।
पप्रच्छ शब्दशास्त्रं च महेन्द्रश्च बृहस्पतिम् ॥ २७ ॥
दिव्यं वर्षसहस्रं च स त्वां दध्यौ च पुष्करे ।
तदा त्वत्तो वरं प्राप्य दिव्यवर्षसहस्रकम् ॥ २८ ॥
उवाच शब्दशास्त्रं च तदर्थं च सुरेश्वरम् ।
अध्यापिताश्च यैः शिष्याः यैरधीतं मुनीश्वरैः ॥ २९ ॥
ते च त्वां परिसञ्चिन्त्य प्रवर्तन्ते सुरेश्वरिम् ।
त्वं संस्तुता पूजिता च मुनीन्द्रैर्मनुमानवैः ॥ ३० ॥
दैत्येन्द्रैश्च सुरैश्चापि ब्रह्मविष्णुशिवादिभिः ।
जडीभूतः सहस्रास्यः पञ्चवक्त्रश्चतुर्मुखः ॥ ३१ ॥
यां स्तोतुं किमहं स्तौमि तामेकास्येन मानवः ।
इत्युक्त्वा याज्ञवल्क्यश्च भक्तिनम्रात्मकन्धरः ॥ ३२ ॥
प्रणनाम निराहारो रुरोद च मुहुर्मुहुः ।
तदा ज्योतिः स्वरूपा सा तेन दृष्टाऽप्युवाच तम् ॥ ३३ ॥
सुकवीन्द्रो भवेत्युक्त्वा वैकुण्ठं च जगाम ह ।
याज्ञवल्क्यकृतं वाणीस्तोत्रमेतत्तु यः पठेत् ॥ ३४ ॥
स कवीन्द्रो महावाग्मी बृहस्पतिसमो भवेत् ।
महामूर्खश्च दुर्मेधा वर्षमेक यदा पठेत् ॥ ३५ ॥
स पण्डितश्च मेधावी सुकविश्च भवेद् ध्रुवम् ॥

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे याज्ञवल्क्योक्त वाणीस्तवनं नाम पञ्चमोऽध्यायः ॥

॥ इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणे नवमस्कन्धे याज्ञवल्क्यकृतं सरस्वतीस्तोत्रवर्णनं नाम पञ्चमोऽध्यायः ॥

ऋषिप्रवर भगवान् नारायण कहते हैं — नारद ! सरस्वती देवी का स्तोत्र सुनो, जिससे सम्पूर्ण मनोरथ सिद्ध हो जाते हैं । प्राचीन समय की बात है — याज्ञवल्क्य नाम से प्रसिद्ध एक महामुनि थे । उन्होंने उसी स्तोत्र से भगवती सरस्वती की स्तुति की थी । जव गुरु के शाप से मुनि की श्रेष्ठ विद्या नष्ट हो गयी, तब वे अत्यन्त दुखी होकर लोलार्क-कुण्ड पर, जो उत्तम पुण्य प्रदान करनेवाला तीर्थ है, गये । उन्होंने तपस्या के द्वारा सूर्य का प्रत्यक्ष दर्शन पाकर शोक-विह्वल हो भगवान् सूर्य का स्तवन तथा बारंबार रोदन किया । तब शक्तिशाली सूर्य ने याज्ञवल्क्य को वेद और वेदाङ्ग का अध्ययन कराया । साथ ही कहा — “मुने ! तुम स्मरण-शक्ति प्राप्त करने के लिये भक्तिपूर्वक वाग्देवता भगवती सरस्वती की स्तुति करो ।’ इस प्रकार कहकर दीनजनों पर दया करनेवाले सूर्य अन्तर्धान हो गये । तवब याज्ञवल्क्यमुनि ने स्नान किया और विनयपूर्वक सिर झुकाकर वे भक्तिपूर्वक स्तुति करने, लगे ।

याज्ञवल्क्य बोले — जगन्माता ! मुझपर कृपा करो । मेरा तेज नष्ट हो गया है । गुरु के शाप से मेरी स्मरण शक्ति खो गयी है । मैं विद्या से वञ्चित होने के कारण बहुत दुखी हूँ । विद्या की अधिदेवते ! तुम मुझे ज्ञान, स्मृति, विद्या, प्रतिष्ठा, कवित्व-शक्ति, शिष्यों को समझाने की शक्ति तथा ग्रन्थ रचना करने की क्षमता दो । साथ ही मुझे अपना उत्तम एवं सुप्रतिष्ठित शिष्य बना लो । माता ! मुझे प्रतिभा तथा सत्पुरुषों की सभा में विचार प्रकट करने की उत्तम क्षमता दो । दुर्भाग्यवश मेरा जो सम्पूर्ण ज्ञान नष्ट हो गया है, वह मुझे पुनः नवीन रूप में प्राप्त हो जाय । जिस प्रकार देवता धूल या राख में छिपे हुए बीज को समयानुसार अङ्कुरित कर देते हैं, वैसे ही तुम भी मेरे लुप्त ज्ञान को पुनः प्रकाशित कर दो ।

जो ब्रह्मस्वरूपा, परमा, ज्योतिरूपा, सनातनी तथा सम्पूर्ण विद्या की अधिष्ठात्री हैं, उन वाणीदेवी को बार-बार प्रणाम है । जिनके बिना सारा जगत् सदा जीते-जी मरे के समान है तथा जो ज्ञान की अधिष्ठात्री देवी हैं, उन माता सरस्वती को बारंबार नमस्कार है । जिनके बिना सारा जगत् सदा गूंगा और पागल के समान हो जायगा तथा जो वाणी की अधिष्ठात्री देवी हैं, उन वाग्देवता को बारंबार नमस्कार है । जिनकी अङ्गकान्ति हिम, चन्दन, कुन्द, चन्द्रमा, कुमुद तथा श्वेतकमल के समान उज्ज्वल है तथा जो वर्णों ( अक्षरों ) की अधिष्ठात्री देवी हैं, उन अक्षर-स्वरूपा देवी सरस्वती को बारंबार नमस्कार है । विसर्ग, बिन्दु एवं मात्रा — इन तीनों का जो अधिष्ठान है, वह तुम हो; इस प्रकार साधुपुरुष तुम्हारी महिमाका गान करते हैं । तुम्हीं भारती हो । तुम्हें बारंबार नमस्कार है । जिनके बिना सुप्रसिद्ध गणक भी संख्या के परिगणन में सफलता नहीं प्राप्त कर सकता, उन कालसंख्या-स्वरूपिणी भगवती को बारंबार नमस्कार है । जो व्याख्यास्वरूपा तथा व्याख्या की अधिष्ठात्री देवी हैं; भ्रम और सिद्धान्त दोनों जिनके स्वरूप हैं, उन वाग्देवी को बारंबार नमस्कार है । जो स्मृतिशक्ति, ज्ञानशक्ति और बुद्धिशक्तिस्वरूपा हैं तथा जो प्रतिभा और कल्पना-शक्ति हैं, उन भगवती को बारंबार प्रणाम है ।

एक बार सनत्कुमार ने जब ब्रह्माजी से ज्ञान पूछा, तब ब्रह्मा भी जडवत् हो गये । सिद्धान्त की स्थापना करने में समर्थ न हो सके । तब स्वयं परमात्मा भगवान् श्रीकृष्ण वहाँ पधारे । उन्होंने आते ही कहा — “प्रजापते ! तुम उन्हीं इष्टदेवी भगवती सरस्वती की स्तुति करो । देवि ! परमप्रभु श्रीकृष्ण की आज्ञा पाकर ब्रह्मा ने तुम्हारी स्तुति की । तुम्हारे कृपा-प्रसाद से उत्तम सिद्धान्त के विवेचन में वे सफलीभूत हो गये ।

ऐसे ही एक समय की बात है — पृथ्वी ने महाभाग अनन्त से ज्ञान का रहस्य पूछा, तब शेषजी भी मूकवत् हो गये सिद्धान्त नहीं बता सके । उनके हृदय में घबराहट उत्पन्न हो गयी । फिर कश्यप की आज्ञा के अनुसार उन्होंने सरस्वती की स्तुति की । इससे शेष ने भ्रम को दूर करनेवाले निर्मल सिद्धान्त की स्थापना में सफलता प्राप्त कर ली । जब व्यास ने वाल्मीकि से पुराणसूत्र के विषय में प्रश्न किया, तब वे भी चुप हो गये । ऐसी स्थिति में वाल्मीकि ने आप जगदम्बा का ही स्मरण किया । आपने उन्हें वर दिया, जिसके प्रभाव से मुनिवर वाल्मीकि सिद्धान्त का प्रतिपादन कर सके । उस समय उन्हें प्रमाद को मिटानेवाला निर्मल ज्ञान प्राप्त हो गया था । भगवान् श्रीकृष्ण के अंश व्यासजी वाल्मीकिमुनि के मुख से पुराणसूत्र सुनकर उसका अर्थ कविता के रूप में स्पष्ट करने के लिये तुम्हारी ही उपासना और ध्यान करने लगे । उन्होंने पुष्कर-क्षेत्र में रहकर सौ वर्षों तक उपासना की । माता ! तब तुमसे वर पाकर व्यासजी कवीश्वर बन गये । उस समय उन्होंने वेदों का विभाजन तथा पुराणों की रचना की ।

जब देवराज इन्द्र ने भगवान् शंकर से तत्त्वज्ञान के विषय में प्रश्न किया, तब क्षणभर भगवती का ध्यान करके वे उन्हें ज्ञानोपदेश करने लगे । फिर इन्द्र ने बृहस्पति से शब्दशास्त्र के विषय में पूछा । जगदम्बे ! उस समय बृहस्पति पुष्करक्षेत्र में जाकर देवताओं के वर्ष से एक हजार वर्ष तक तुम्हारे ध्यान में संलग्न रहे । इतने वर्षों के बाद तुमने उन्हें वर प्रदान किया । तब वे इन्द्र को शब्दशास्त्र और उसका अर्थ समझा सके । बृहस्पति ने जितने शिष्यों को पढ़ाया और जितने सुप्रसिद्ध मुनि उनसे अध्ययन कर चुके हैं, वे सब-के-सब भगवती सुरेश्वरी का चिन्तन करने के पश्चात् ही सफलीभूत हुए हैं । माता ! वह देवी तुम्हीं हो । मुनीश्वर, मनु और मानव — सभी तुम्हारी पूजा और स्तुति कर चुके हैं । ब्रह्मा, विष्णु, शिव, देवता और दानवेश्वर प्रभृति — सबने तुम्हारी उपासना की है । जब हजार मुखवाले शेष, पाँच मुखवाले शंकर तथा चार मुखवाले ब्रह्मा तुम्हारा यशोगान करने में जडवत् हो गये, तब एक मुखवाला मैं मानव तुम्हारी स्तुति कर ही कैसे सकता हूँ ।

नारद ! इस प्रकार स्तुति करके मुनिवर याज्ञवल्क्य भगवती सरस्वती को प्रणाम करने लगे । उस समय भक्ति के कारण उनका कंधा झुक गया था । उनकी आँखों से जल की धाराएँ निरन्तर गिर रही थीं । इतने में ज्योतिःस्वरूपा महामाया का उन्हें दर्शन पास हुआ । देवी ने उनसे कहा — ‘मुने ! तुम सुप्रख्यात कवि हो जाओ ।’ यों कहकर भगवती महामाया वैकुण्ठ पधार गयीं ।

जो पुरुष याज्ञवल्क्य रचित इस सरस्वती स्तोत्र को पढ़ता है, उसे कवीन्द्र-पद की प्राप्ति हो जाती है । भाषण करने में वह बृहस्पति की तुलना कर सकता है । कोई महान् मूर्ख अथवा दुर्बुद्धि ही क्यों न हो, यदि वह एक वर्ष तक नियमपूर्वक इस स्तोत्र का पाठ करता है, तो वह निश्चय ही पण्डित, परम बुद्धिमान् एवं सुकवि हो जाता है ।

 

 

 

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