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भविष्यपुराण – मध्यमपर्व प्रथम – अध्याय १९ से २१
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(मध्यमपर्व — प्रथम भाग)
अध्याय – १९ से २१
यज्ञ-पात्रों का स्वरूप और पूर्णाहुति की विधि

सूतजी बोले — ब्राह्मणों ! यज्ञ-क्रिया के उपयोग में आनेवाली स्रुवा के निर्माण में — श्रीपर्णी, शिंशपा, क्षीरी (दूधवाले वृक्ष) बिल्व और खदिर के काष्ठ प्रशस्त माने गये हैं । याग-क्रिया में इनसे बने स्रुवा के उपयोग से सिद्धि प्राप्त होती है । देव-प्रतिष्ठा में आँवला, खदिर और केसर के वृक्ष को भी स्रुवा के लिये शास्त्रज्ञों ने उत्तम कहा है । स्रुवा प्रतिष्ठाकार्य में, सम्मान तथा संस्कार-कर्म में और यज्ञादिकार्यों में प्रयुक्त होता है ।om, ॐ स्रुवा के निर्माण में बिल्व-काष्ठ ग्रहण करना चाहिये, परंतु उसके ग्रहण के समय रिक्ता आदि तिथियाँ न हो । उस काष्ठ को ग्रहण करनेवाला व्यक्ति पहले उपवास करे और मद्य, मांस आदि सभी वस्तुओं का परित्याग कर दे, स्त्री-सम्पर्क से भी दूर रहे । एक काष्ठ से स्रुवा और स्रुक् दोनों का निर्माण किया जा सकता है । इनका निर्माण शास्त्रोक्त विधि के अनुसार करना चाहिये । दर्वी अर्थात् करछुल का निर्माण स्वर्ण या ताँबे से किया जाना चाहिये । यदि काष्ठ से करछुल बनानी हो तो गंभारी-वृक्ष, तेंदू का वृक्ष और दूधवाले वृक्ष के काष्ठ से बारह अङ्गुल की बनानी चाहिये । उसका नीचे का मण्डल दो अङ्गुल का होना चाहिये । यज्ञ-साधन में यह उपयोगी है । ताँबे की करछुल चालीस तोले, प्रायः आधा किलो की होती है और उसका मण्डल पाँच अङ्गुल का तथा लम्बाई आठ हाथ की होती है । यही दर्वी (करछुल) पायस-निर्माण में उपयोगी है । आज्य-शोधन के लिये दस तोले की ताम्रमयी करछुल होती है । इसके अभाव में पीपल के काष्ठ से सोलह अङ्गुल के माप में दर्वी (करछुल) बनाये । आज्य-स्थाली ताँबे की या मिट्टी की भी हो सकती है ।सूतजी बोले — ब्राह्मणो ! अब मैं पूर्णाहुति की विधि बतला रहा हूँ, इसके अनुष्ठान से यज्ञ पूर्ण होता है । अतएव पूर्णाहुति विधिपूर्वक करनी चाहिये । पूर्णाहुति के वाद यज्ञ में आवाहित किये गये देवताओं को अर्घ्य देना चाहिये ।

यदि यज्ञ अपूर्ण रहे तो यजमान श्रीविहीन हो जाता है और यज्ञ पूर्ण फलप्रद नहीं होता । स्रुवा में चरु रखकर भगवान् सूर्य को अर्घ्य देना चाहिये । यज्ञ सम्पन्न हो जाने पर ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिये । तदनन्त्तर यजमान घर में प्रवेश कर कुल-देवताओं की प्रार्थना करे । प्रतिष्ठा-याग में पूर्णाहुति के समय ‘सप्त ते० ‘ (यजु० १७ । ७९), ‘देहि मे० ‘ (यजु० ३ । ५०), ‘पूर्णा दर्वि० ‘ (यजु० ३ । ४९) तथा ‘पुनन्तु० ‘ (यजु० १९ । ३९) इन मन्त्रों का पाठ करे तथा नित्य-नैमित्तिक याग में ‘पुनन्तु० ‘ ‘पूर्णा दर्वि० ‘, ‘सप्त ते० ‘ तथा ‘देहि में० ‘ — का पाठ करे । विद्वानों को इनमें अपने कुल-परम्परा का भी विचार करना चाहिये । पूर्णाहुति खड़ा होकर सम्पन्न करना चाहिये, बैठकर नहीं । ग्रहहोम तथा शतहोम में एक पूर्णाहुति देनी चाहिये । सहस्रयाग में दो, अयुत-होम में चार, सहस्र पुष्पहोम में एक, मृदु पुष्प-होम में एक, शत इक्षु-होम में दो, गर्भाधान, अन्नप्राशन, सीमन्तोन्नयन संस्कारों और प्रायश्चित्तादि कर्म तथा नैमित्तिक वैश्वदेव-याग में एक पूर्णाहुति देने का विधान है ।मन्त्रोच्चारण में ऋषि-छन्द, विनियोगादि का प्रयोग करना चाहिये । यदि इनका प्रयोग न किया जाय तो फलप्राप्ति में न्यूनता होती है । ‘सप्त ते० “ इस ब्राह्मण-मन्त्र के कौण्डिन्य ऋषि, जगती छन्द और अग्नि देवता हैं । ‘देहि मे० ‘ इस मन्त्र के प्रजापति ऋषि, अनुष्टुप् छन्द और प्रजापति देवता हैं । ‘पूर्णा दर्वि० ‘ इस मन्त्र के शतक्रतु ऋषि, अनुष्टुप् छन्द एवं अग्नि देवता हैं । ‘पुनन्तु० ‘ इस मन्त्र के पवन ऋषि, जगती छन्द तथा देवता अग्नि हैं ।

इस रीति से तत्तद् मन्त्रों के उच्चारण समय ऋषि, छन्द एवं देवता का स्मरण करना चाहिये । जप-काल में मन्त्रों की संख्या अवश्य पूरी करनी चाहिये । निर्दिष्ट संख्या के बिना किया गया जप फलदायी नहीं होता । अयुत-होम, लक्ष-होम और कोटि-होम में जिन ऋत्विक् ब्राह्मणों का वरण किया जाय, वे शान्त एवं काम-क्रोध-रहित हों । ऋत्विजों की संरया अभीष्ट होमानुसार करनी चाहिये । प्रयत्नपूर्वक उनकी पूजाकर एवं दक्षिणा प्रदान कर उन्हें संतुष्ट करना चाहिये । इस प्रकार विधिपूर्वक याग-कर्म करनेवाला व्यक्ति वसु, आदित्य और मरुद्गणों के द्वारा शिवलोक में पूजित होता है तथा अनेक कल्पों तक वहाँ निवास कर अन्त में मोक्ष प्राप्त करता है । जो किसी कामना के बिना अर्थात् निष्काम-भावपूर्वक ईश्वरार्पण-बुद्धि से लक्ष होम करता है, वह अपने अभीष्ट को प्राप्त कर परमपद प्राप्त कर लेता है । पुत्रार्थी पुत्र, धनार्थी धन, भार्यार्थी भार्या और कुमारी शुभ पति को प्राप्त करती है । राज्यभ्रष्ट राज्य तथा लक्ष्मी की कामनावाला व्यक्ति अतुल ऐश्वर्य प्राप्त करता है । जो व्यक्ति निष्कामभावपूर्वक कोटि-होम करता है, वह परब्रह्म को प्राप्त हो जाता है । ब्रह्मा ने स्वयं बतलाया है कि कोटि-होम लक्ष-होम से सौ गुना श्रेष्ठ है । ऋत्विज् ब्राह्मणों के अभाव में आचार्य भी होता बन सकता है । आसनों में कुशासन प्रशस्त माना गया है ।देवता पद्मासन पर स्थित रहते हैं और वास भी करते हैं, अतः पद्मासनस्थ होकर ही अर्चना करनी चाहिये । ‘देवो भूत्वा देवान् यजेत्’ इस न्याय के अनुसार पद्मासनस्थ देवताओं का अर्चन पद्मासनस्त होकर ही करना चाहिये । यदि ऐसा न किया जाय तो सम्पूर्ण फल यक्षिणी हरण कर लेती है ।
(अध्याय १९-२१)

॥ ॐ तत्सत् भविष्यपुराणान्तर्गत मध्यमपर्व प्रथम शुभं भूयात् ॥

See Also :-

1.  भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २१६
2.
भविष्यपुराण – मध्यमपर्व प्रथम – अध्याय १
3. भविष्यपुराण – मध्यमपर्व प्रथम – अध्याय २ से ३
4.
भविष्यपुराण – मध्यमपर्व प्रथम – अध्याय ४
5.
भविष्यपुराण – मध्यमपर्व प्रथम – अध्याय ५
6.
भविष्यपुराण – मध्यमपर्व प्रथम – अध्याय ६
7.
भविष्यपुराण – मध्यमपर्व प्रथम – अध्याय ७ से ८
8.
भविष्यपुराण – मध्यमपर्व प्रथम – अध्याय ९
9.
भविष्यपुराण – मध्यमपर्व प्रथम – अध्याय १० से ११
10.  
भविष्यपुराण – मध्यमपर्व प्रथम – अध्याय १२
11.
भविष्यपुराण – मध्यमपर्व प्रथम – अध्याय १३ से १५
12.
भविष्यपुराण – मध्यमपर्व प्रथम – अध्याय १६
13.
भविष्यपुराण – मध्यमपर्व प्रथम – अध्याय १७ से १८

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