September 30, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीगणेशपुराण-क्रीडाखण्ड-अध्याय-023 ॥ श्रीगणेशाय नमः ॥ तेईसवाँ अध्याय कुमार सनक तथा सनन्दन का बालक विनायक के दर्शन के लिये काशीनरेश की सभा में आना, बालक विनायक का शुक्ल नामक ब्राह्मण के घर में उसका आतिथ्य स्वीकार करने जाना तथा शुक्ल-दम्पती को विविध वरों की प्राप्ति अथः त्रयोविंशतितमोऽध्यायः बालचरिते शुक्लवर प्रदानं ब्रह्माजी बोले — वे बालक विनायक बालकों के साथ बड़े ही कौतूहल के साथ खेल खेलने लगे। राजा भद्रासन पर आसीन होकर सभी जनों के साथ वारांगनाओं का नृत्य देखने लगे। उसी समय देवलोक से सनक तथा सनन्दन दो कुमार राजा की उस रमणीय सभा में आये ॥ १-२ ॥ उन दोनों की सूर्य एवं अग्नि के समान दीप्ति से वह सम्पूर्ण सभा दीप्तिमान् हो उठी। अकस्मात् उन दोनों कुमारों को आया हुआ देखकर वे राजा अपने आसन से उठ खड़े हुए ॥ ३ ॥ उन दोनों के चरणकमलों में अपना सिर रखकर राजा ने उन्हें साष्टांग प्रणाम किया और वे दोनों हाथ जोड़कर कहने लगे — आज मेरा कुल धन्य हो गया। मेरा राज्य, ज्ञान, देह, पत्नी तथा पुत्र आदि जो कुछ भी है, वह सब धन्य हो गया। ऐसा कहकर राजा ने हाथ पकड़कर उन दोनों को अपने आसन पर बैठाया ॥ ४-५ ॥ तदनन्तर राजा ने सोलह उपचारों के द्वारा भक्तिपूर्वक उनका पूजन किया और उनके चरणों को दबाना आदि सेवाओं के द्वारा उन्हें विश्राम कराया। वे बार-बार उन्हें प्रणाम करके इस प्रकार कहने लगे —॥ ६१/२ ॥ राजा बोले — दण्ड का त्याग किये हुए तथा नित्य निष्काम मुनियों को कभी भी कोई कामना नहीं होती, तथापि मैं अपने तप, राज्य, कुल तथा शील को सार्थक बनाने के लिये आप लोगों की सेवाकी इच्छा करता हूँ ॥ ७-८ ॥ वे दोनों बोले — महर्षि कश्यप के पुत्र विनायक जो आप्तकाम, परब्रह्मस्वरूप, लीलावतारी भगवान् आपके घर में स्थित हैं, वे अद्भुत पराक्रमशाली हैं और नाना प्रकार के कौतुक करने वाले हैं। उनके अद्भुत कर्मों के विषय में सुनकर हम दोनों उनका दर्शन करने के लिये यहाँ आये हैं ॥ ९-१० ॥ इसके अतिरिक्त इन्द्रभवन से यहाँ आने का हमारा दूसरा कोई प्रयोजन नहीं है। जिसके घर में ही कल्पवृक्ष है, वह दूसरों से क्या याचना करेगा? ॥ ११ ॥ हे राजन ! उनके चरणकमलों में प्रणाम करके हम अपने स्थान को चले जायँगे। उनके वहाँ आकर इस प्रकार के कहे गये वचनों को सुनकर बालक विनायक खेल छोड़कर हाथ में मोदक लेकर वहाँ आ पहुँचे। उन्होंने अपने हाथ में पाँच खाद्य पदार्थों से बना हुआ भक्षणीय मोदक लीलापूर्वक धारण किया हुआ था ॥ १२-१३ ॥ राजा ने उन दोनों को मधुर हास्य करते हुए बालक विनायक को दिखाया और कहा — वे ये देव विनायक आ गये हैं, जिनके दर्शनों के लिये आप लोग उत्सुक हैं। वे आ गये हैं, अब आप लोगों का जो अभीष्ट करणीय है, उसे सम्पन्न करें। उनका दर्शन करके वे दोनों मुनि सनक तथा सनन्दन आपस में कहने लगे ॥ १४-१५ ॥ इसने निश्चित ही मुनिश्रेष्ठ कश्यपजी को भी दूषित कर डाला है; क्योंकि उनका पुत्र होते हुए भी इसने अपने सदाचार का परित्याग कर दिया है ॥ १६ ॥ स्पृश्य तथा अस्पृश्य के विषय में इसका कोई विचार नहीं है और न इसे भक्ष्याभक्ष्य की विधि ही ज्ञात है। इसके दर्शन करने तथा इसका स्पर्श करने में भी निश्चित ही महान् दोष है ॥ १७ ॥ यह अपने ब्राह्मणवर्णोचित नियमों का परित्यागकर क्षत्रिय के घर में किसलिये रह रहा है ? स्वधर्म में स्थित हम लोगों का इसके दर्शन से क्या फल है ? ॥ १८ ॥ उस समय राजा के समीप स्थित उन विनायकदेव ने उन दोनों के वचनों को सुना । तब वाक्यार्थ को जानने वाले साक्षात् दूसरे बृहस्पति के समान वे विनायक बोल पड़े। हे मुनियो ! व्यर्थ ही श्रम करने वाले आप लोगों का ज्ञान कहाँ चला गया ? आप लोग स्वर्गलोक का परित्यागकर एक सामान्य व्यक्ति की भाँति यहाँ कैसे आये हैं ? ॥ १९-२० ॥ तदनन्तर मायामय देव विनायक की माया से अत्यन्त मोहित वे दोनों कुमार विनायक का इस प्रकार का वचन सुनकर राजा से कहने लगे — ॥ २१ ॥ हमें अनुज्ञा प्रदान कीजिये, हम अपने आश्रम-मण्डल को जाते हैं। तब नृपश्रेष्ठ काशीनरेश उन दोनों के प्रति दृढ़ भक्ति से प्रेरित होकर उन दोनों से बोले — आप मेरी बात सुनें और कुछ देर के लिये ठहर जायँ । पुनः उन्होंने भक्तिपूर्वक प्रार्थना की कि आप लोग स्नान करके भोजन करें, तदनन्तर ही जायँ ॥ २२-२३ ॥ राजा की प्रार्थना सुनकर वे दोनों मुनिश्रेष्ठ बोले — राजा का अन्न भक्षण करना वर्जित है, अतः हम दोनों यहाँ से जा रहे हैं ॥ २४ ॥ तदनन्तर राजा की अनुमति प्राप्तकर वे दोनों मणिकर्णिकातीर्थ में गये। इधर बालक विनायक अपने साथ आ रहे सभी बालकों के साथ प्रसन्नतापूर्वक क्रीडा करते हुए स्नान करने के अनन्तर उन शुक्ल नामक ब्राह्मण की भक्ति का आदर करके उनके घर में उसी प्रकार प्रविष्ट हुए, जैसे कि कोई गौ अपने बछड़े के पीछे दौड़ती है, जैसे माता रोते हुए शिशु के समीप जाती है और जैसे कौरवों की सभा के मध्य में स्थित शरणागत द्रौपदी के पास भगवान् कृष्ण गये थे ॥ २५-२६१/२ ॥ उन विनायकदेव का दर्शन करके वे दम्पती उनके चरणों पर गिर पड़े। आनन्द के कारण अपने नेत्रों से आँसू गिराते हुए उन दोनों ने गद्गद वाणी में बोलते हुए बड़ी ही प्रसन्नता के साथ उनका आलिंगन किया और हर्षनिर्भर होकर वे दोनों नाचने लगे ॥ २७-२८ ॥ उन्हें अपनी देह की सुध-बुध नहीं रही, इस समय क्या करना चाहिये — इसे वे जान न सके। उन दोनों के शरीर में रोमांच हो आया और वे अपने नेत्रों से आँसुओं की धारा बहाने लगे ॥ २९ ॥ मुहूर्तमात्र बीत जाने पर जब उन्हें होश आया तो उन्होंने उन जगदीश्वर को प्रणाम किया । तदनन्तर मुनि शुक्ल उन देव विनायक से कहने लगे — आपका ‘दीनानाथ ‘ यह जो अत्यन्त कल्याणकारी तथा पापों का हरण करने वाला नाम तीनों लोकों में विख्यात है, उसे आज आपने सार्थक कर दिया है और अपने चरणों का दर्शन कराकर हमारा जन्म लेना भी सार्थक कर दिया है ॥ ३०-३१ ॥ आप बड़े-बड़े गगनचुम्बी भवनों को छोड़कर हमारी इस पर्णकुटी में आये हैं। आज मेरा वंश धन्य हो गया । मेरा जीवन धन्य हो गया। मेरा ज्ञान धन्य हो गया। मेरी तपस्या धन्य हो गयी और मेरी आयु धन्य हो गयी । तदनन्तर उन मुनि ने उन विनायकदेव को कुशासन में विराजमान कराकर उनकी पूजा की। उनके युगलचरणों का प्रक्षालन करके उस जल को अपने सिर में धारण किया ॥ ३२-३३ ॥ तदनन्तर गन्ध, अक्षत, पुष्पमाला, धूप, दीप, दूर्वांकुर, शमीपत्र, सुगन्धित तेल तथा शुभ केतकी पुष्प अर्पित किया। इसके अनन्तर उनके सामने अल्पमात्रा में खाद्य नैवेद्य तथा वन्य फलों को निवेदित किया । तदनन्तर मन्त्रों से पवित्र की गयी पुष्पांजलि देकर और उन्हें प्रणाम करके वे मुनि लज्जित हो उठे। यह सोचकर कि किस प्रकार इन्हें हम निकृष्ट अन्न भोजन के लिये प्रदान करें ! ॥ ३४–३५१/२ ॥ उनके अभिप्राय को जानकर देवाधिदेव विनायक ने उन ब्राह्मण की पत्नी से भोजन की याचना करते हुए कहा — हे मातः! आपके घर में कौन-सा भोजन बना है। उसे मुझे प्रदान करें। भक्तिपूर्वक दिया गया क्षुद्र अन्न भी मुझे अमृत से बढ़कर प्रिय लगता है और जो भोजन श्रद्धारहित होकर दम्भपूर्वक दिया जाता है, वह विष के समान हो जाता है ॥ ३६-३७१/२ ॥ तदनन्तर मुनिपत्नी ने अत्यन्त लज्जा के साथ पात्र में फैला हुआ भात और बहुत से अन्नों के मिश्रण से बनायी गयी सूखी पीठी को विनायक के आगे स्थापित किया। भोजन के लिये उपस्थित उस तेल (-के समान तरल पदार्थ) – को देखकर अन्य सभी बालक विनायक पर हँस पड़े ॥ ३८-३९ ॥ विनायकदेव ने वह निवेदित भोजन स्वादिष्ट पक्वान्न की भाँति बड़े ही आदरभाव से ग्रहण किया। वे प्रत्येक ग्रास के अनन्तर जल पीकर बलपूर्वक उसे निगल रहे थे। तदनन्तर मुनि ने सारा गीला भात उनके भोजनपात्र में डाल दिया। तब वह गीला भात पात्र की चारों दिशाओं में फैलकर बहने लगा और वे बालक विनायक उसे रोकने में असमर्थ हो गये ॥ ४०-४१ ॥ तब बालक विनायक ने दस भुजाओं वाला बनकर उन हाथों से वह सारा भात ग्रहण किया। लोगों ने आश्चर्यपूर्वक उन्हें देखा और वे हँसते हुए हाथ से ताली पीटने लगे ॥ ४२ ॥ घुटने तक पानी में पकाया गया यह अभूतपूर्व भोजन है — ऐसा कहते हुए वे बालक बड़ी ही रुचि से उस भोजन को खीर के समान समझते हुए खाने लगे ॥ ४३ ॥ जिन बालकों ने उन विनायक के साथ वह भोजन किया, वे देवों के समान (तेजोमय) हो गये थे और दूसरे जिन्होंने भोजन नहीं किया और जो दाँत खोलकर उन विनायक की हँसी उड़ा रहे थे, वे बाद में पश्चात्ताप करने लगे। उस समय काशीनगरी में यह कोलाहल होने लगा कि ‘बालक विनायक कहाँ चला गया ?’ कुछ लोगों ने बताया कि वे विनायक शुक्ल नामक ब्राह्मण के घर में शीर्ण भात खा रहे हैं ॥ ४४-४५ ॥ उन्होंने उस गीले भात को बहने से रोकने के लिये अपने दस हाथ बना लिये और उन्हीं हाथों से वे भोजन कर रहे हैं। बालक विनायक द्वारा भोजन कर लिये जाने के अनन्तर मुखशुद्धि के लिये ब्राह्मण शुक्ल ने उन्हें सूखे आँवले के टुकड़े दिये ॥ ४६ ॥ तब जगदात्मा विनायक ने उनके द्वारा मुखशुद्धि की। तदनन्तर प्रसन्न होकर उन्होंने ब्राह्मण शुक्ल से कहा — हे अनघ ! मैं आपके प्रीतिभाव से अत्यन्त प्रसन्न हुआ हूँ । हे महाभाग ! आप जो भी वर चाहते हैं, वह मुझसे माँग लें ॥ ४७१/२ ॥ शुक्ल बोले — आप सभी नगरनिवासियों को छोड़कर मेरे यहाँ रूखा-सूखा भोजन करने के लिये आये। मेरे लिये यही वरदान है, जो कि मुझे आपका दर्शन प्राप्त हुआ है। तथापि आपके कथनानुसार मैं आपकी अखण्ड भक्ति की अभिलाषा करता हूँ ॥ ४८-४९ ॥ हे विनायक! अन्त में मुझे मोक्ष प्राप्त हो, जिससे कि पुनः इस संसार में मुझे आना न पड़े। मेरा मन सांसारिक सुखों में नहीं लगता है ॥ ५० ॥ ब्रह्माजी बोले — ‘ ऐसा ही होगा’ कहकर वे विनायक पहले की भाँति दो हाथों वाले बालक बन गये। उन्होंने उनके घर को इन्द्र के भवन से भी सुन्दर, उत्तम रत्नों से युक्त तथा सुवर्णमय बना दिया। उन्हें उत्तमोत्तम स्वरूप, ज्ञान तथा धन-वैभव प्रदान किया। तदनन्तर उन ब्राह्मण-दम्पती से अनुमति लेकर बालकों से घिरे हुए वे विनायक अन्यत्र चले गये ॥ ॥ ५१-५२ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराण के क्रीडाखण्ड में ‘बालचरित्र के अन्तर्गत शुक्ल ब्राह्मण को वर प्रदान करने का वर्णन’ नामक तेईसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २३ ॥ Content is available only for registered users. 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