October 3, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीगणेशपुराण-क्रीडाखण्ड-अध्याय-034 ॥ श्रीगणेशाय नमः ॥ चौंतीसवाँ अध्याय महर्षि भ्रूशुण्डी के शाप से ब्राह्मण औरव की पुत्री शमीका का शमीवृक्ष की तथा महर्षि शौनक के शिष्य धौम्यपुत्र मन्दार का मन्दारवृक्ष की योनि प्राप्त करने का आख्यान अथः चतुस्त्रिंशोऽध्यायः बालचरिते भ्रुशुण्डिशापवर्णनं कीर्ति बोली — हे ब्रह्मन् ! देवर्षि नारदजी और देवराज इन्द्र के बीच जो संवाद हुआ था, उसे आप पूर्णरूप से बताइये, उसे सुनकर मैं समस्त संशयों को भुलाकर वैसे ही सन्तृप्त हो जाऊँगी, जैसी तृप्ति अमृत पीने से होती है ॥ १ ॥ ब्रह्माजी बोले — उसका इस प्रकार का वचन सुनकर वे मुनि गृत्समद देवर्षि नारद तथा इन्द्र के बीच जो संवाद हुआ था, उस इतिहास का वर्णन करने लगे ॥ २ ॥ गृत्समद बोले — हे सुभ्रु ! एक बार की बात है, तीनों लोकों के भ्रमण में निरत दिव्यदर्शन देवर्षि नारदजी स्वेच्छानुसार पर्यटन करते हुए इन्द्र के पास पहुँचे ॥ ३ ॥ हे शुभानने! इन्द्र ने उनकी पूजा की और [लोकों के] विशेष समाचार के विषय में पूछा। तब बुद्धिमान् नारदजी ने जो कुछ कहा, उसे तुम सुनो ॥ ४ ॥ नारदजी बोले — मालव नामक देश में औरव नाम के एक ब्राह्मण निवास करते थे। वे वेद-वेदांगों के ज्ञाता तथा साक्षात् प्रकाशमान सूर्य के समान तेजस्वी थे । वे अपने मन की शक्ति से इस सम्पूर्ण चराचर जगत् की रचना करने, उसका पालन करने तथा विनाश करने में समर्थ थे। वे अपनी धर्मपत्नी में ही निष्ठा रखते थे । मिट्टी के ढेले, पत्थर तथा सोने में उनकी समान दृष्टि थी । वे अत्यन्त मेधावी, तपश्चर्या में श्रेष्ठ तथा साक्षात् दूसरी अग्नि के समान तेजस्वी थे ॥ ५-६१/२ ॥ उनकी पत्नी का नाम सुमेधा था, जो परम धार्मिक थी। वह अत्यन्त लावण्यसम्पन्न, पति को प्रिय तथा विविध प्रकार के अलंकारों से विभूषित रहती थी, उसने अपने रूप-सौन्दर्य से कामदेवपत्नी रति को भी तुच्छ बना दिया था और अप्सराओं के समूहों को भी तिरस्कृत कर दिया था ॥ ७-८ ॥ वह अपने पति की सेवा-शुश्रूषा में लगी रहती थी। पति के द्वारा भी अत्यन्त आदर के साथ उसका पालन- पोषण होता था। उन दोनों के एक कन्या हुई, उसका भी उन दोनों ने बड़े ही स्नेह से लालन-पालन किया ॥ ९ ॥ उन दोनों ने अपनी इच्छा के अनुसार उसका ‘शमीका’ यह नाम रखा। वह कन्या जिस-जिस वस्तु की अभिलाषा करती थी, उसके सामर्थ्यवान् पिता वह वह वस्तु उसे दे देते थे। वह रूपवती कन्या जब सात वर्ष की हो गयी, तो उसके पिता औरव उसके विवाह के लिये वर के विषय में सोचने लगे ॥ १०-११ ॥ उन्होंने सुना कि महर्षि धौम्य का एक पुत्र है, वह मुनि वेद-शास्त्रों में पारंगत है, तेज की परमराशि है और महर्षि शौनक का शिष्य है ॥ १२ ॥ वह गुरु की आज्ञा का पालन करने वाला, महान् संयमी, गुरु की सेवामें तत्पर रहने वाला, शान्त स्वभाव वाला तथा श्रेष्ठ था, उस मन्दार नामवाले ब्रह्मचारी को उन्होंने एक शुभ दिन में बुलाकर अपनी गृह्योक्त विधि के अनुसार उसे अपनी कन्या समर्पित कर दी और बहुत सारा दहेज भी दिया । विवाह हो जाने के अनन्तर मन्दार अपने आश्रम में चला आया ॥ १३-१४ ॥ शमीका को युवावस्था से सम्पन्न जानकर वह मन्दार पुनः वहाँ आया । औरव ने अत्यन्त मान-सम्मानपूर्वक उसका पूजन किया। उसे भोजन कराकर, वस्त्र आदि तथा सुवर्ण प्रदानकर शुभ मुहूर्त में उन दोनों कन्या तथा जामाता को विदा किया। उस समय ब्राह्मण औरव ने अपने जामाता से कहा — ॥ १५-१६ ॥ हे ब्रह्मन्! यह पुत्री मैंने आपको विधानपूर्वक सौंपी है, इसका आप बहुत स्नेहपूर्वक पालन करें, जैसा कि मैंने आजतक किया है ॥ १७ ॥ श्वशुर को प्रणामकर ‘ऐसा ही होगा’ यह कहकर मन्दार चल पड़ा और अपने आश्रमस्थल पर आकर वह अपनी भार्या शमीका के साथ आनन्द-विहार करने लगा ॥ १८ ॥ एक समय की बात है, भ्रूशुण्डी नामक श्रेष्ठ ऋषि उस मन्दार के आश्रम में आये। वे गणेशजी के महान् भक्त थे। रुष्ट होने पर वे साक्षात् देदीप्यमान अग्नि के समान और प्रसन्न होने पर ईश्वर के समान हो जाते थे । तपस्या करते रहने से उनकी भ्रू (भौंह) – से शुण्डा (सूँड़) निकल आयी थी, इसीलिये वे भ्रूशुण्डी नाम से विख्यात हो गये । उनका उदरदेश बहुत बड़ा था, शरीर की आकृति विशाल थी । वे विविध प्रकार के अलंकरणों से मण्डित थे ॥ १९-२०१/२ ॥ मन्दार तथा शमीका ने उन्हें देखा। उनका वैसा विकृत रूप देखकर आनन्दित होकर उस समय वे दोनों हँसने लगे। तब वे अपने अपमान के भय से दुखी होकर क्रुद्ध हो गये, उनकी आँखें लाल-लाल हो गयीं ॥ २१-२२ ॥ वे बोले — अरे मन्दबुद्धि ! तुम मतवाले होकर मुझे नहीं जान रहे हो, इसी कारण दाँत खोलकर पत्नीसहित तुम मुझ पर हँस रहे हो, अतः तुम दोनों सभी प्राणियों द्वारा वर्जित वृक्ष की योनि को प्राप्त करो ॥ २३ ॥ ब्रह्माजी बोले — शाप सुनकर वे दोनों अत्यन्त दुखी हो गये। प्रणाम करके वे दोनों बोले — हे ब्रह्मन् ! शाप से उद्धार का उपाय भी बताने की कृपा करें। तब दयार्द्रहृदय भ्रूशुण्डी ने सब जानते हुए उनसे कहा — ॥ २४-२५ ॥ तुम दोनों ने मूर्खतावश मेरी शुण्डा को देखकर उपहास किया था, अतः सूँड़युक्त देवदेव भगवान् गणेश जब तुमपर प्रसन्न होंगे, तब तुम दोनों पुनः अपने पूर्व स्वरूप को प्राप्त करोगे, इसमें कुछ संशय नहीं है ॥ २६१/२ ॥ इस प्रकार कहकर ज्यों ही वे मुनि भ्रुशुण्डी अपने आश्रमस्थल को जाने लगे, त्योंही वे दोनों मन्दार तथा शमीका अपने मानवशरीर को छोड़कर वृक्ष की योनि को प्राप्त हो गये। उसी क्षण मन्दार नामक वह ब्राह्मण मन्दार का वृक्ष बन गया और उसकी पत्नी शमीका चारों ओर से काँटों से भरा रहने वाला शमीवृक्ष बन गयी। मुनि भ्रूशुण्डी के वचनानुसार वे दोनों वृक्ष प्राणिमात्र के द्वारा वर्जित हो गये ॥ २६-२९ ॥ जब वे दोनों मन्दार तथा शमीका वापस नहीं लौटे तो शौनक अत्यन्त चिन्ताग्रस्त हो गये । वे सोचने लगे कि आज एक मास व्यतीत हो गया है, वह महापराक्रमी मन्दार क्यों वापस नहीं आया ? मैं मन्दार को देखने जाता हूँ, शिष्यो ! तुम सब भी मेरे साथ चलो। तब वे शीघ्र ही ब्राह्मण औरव के पास पहुँचकर धीरे से उनसे पूछने लगे कि शमीका को लेने के लिये मन्दार यहाँ आया था, वह इस समय कहाँ है, बताइये ? ॥ ३०-३११/२ ॥ औरव बोले — मैंने तो उसी समय शीघ्र ही उसे कन्या प्रदानकर कन्या को भी उसी के साथ भेज दिया था, किंतु वह यदि अपने आश्रम में नहीं आया तो मैं नहीं जानता कि वह कहाँ चला गया ! तदनन्तर वे ब्राह्मण औरव तथा शौनक आदि चिन्तित हो उठे ॥ ३२-३३ ॥ क्या मार्ग में उन दोनों को भेड़िया, बाघ अथवा लकड़बग्घेने तो नहीं खा लिया अथवा क्या चोरों ने मार डाला या किसी विषधर सर्प ने तो डँस नहीं लिया ? ॥ ३४ ॥ तदनन्तर वे सभी उन दोनों का समाचार जानने के लिये शीघ्र ही वहाँ से चल पड़े। कहीं-कहीं लोगों ने बताया कि एक मास हो गया है, वे यहाँ से गये थे ॥ ३५ ॥ तब उन्होंने वन के मार्ग में स्त्री तथा पुरुष के सुन्दर चरणों का चिह्न देखा। दलदलवाली भूमि में उन चरणचिह्नों को उन दोनों का ही चरणचिह्न जानकर उन्होंने स्नान करके ध्यान में देखकर यह जाना कि उन दोनों के द्वारा भ्रूशुण्डी मुनि का उपहास किये जाने के कारण वे दोनों उनके कोपवश शापभाजन बने हैं और सभी पक्षियों तथा कीट आदि से वर्जित होने वाले [इन] वृक्षों की योनि को प्राप्त हुए है ॥ ३६-३७ ॥ मन्दार तो मदार का वृक्ष बन गया है और शमीका शमीवृक्ष बन गयी है। तब वे दोनों विप्र औरव तथा शौनक अत्यन्त दुखी हो गये। ऋषि धौम्य का पुत्र जो बड़ा ही साधु प्रकृति का था, विद्याध्ययन करने के लिये यहाँ आया था, फिर विद्या प्राप्त करने के अनन्तर वह न जाने कैसे दुर्दैव से वृक्ष की योनि को प्राप्त हो गया ? ॥ ३८-३९ ॥ इस समाचार को सुनकर उसके पिता प्राण त्याग देंगे। यदि वे अपने पुत्र के विषय में पूछेंगे, तो उनसे मैं क्या कहूँगा? ब्राह्मण औरव भी अपनी कन्या उस शमीका के विषय में शोक करने लगे ॥ ४० ॥ ब्रह्माजी बोले — तदनन्तर उन दोनों ने यह निश्चय किया कि भक्त और भगवान् में भेद नहीं होता अतः भगवान् गणेशजी की आराधना करके इन दोनों को पाप से मुक्त करेंगे ॥ ४१ ॥ तदनन्तर दयार्द्रहृदय होकर उन दोनों ने महान् तप किया। वे दोनों जितेन्द्रिय होकर ऊपर आकाश की ओर दृष्टि करके निराहार तथा दृढव्रती होकर भूमि पर एक पैर के अँगूठे के बल पर खड़े हुए और बड़ी प्रसन्नता के साथ षडक्षर मन्त्र का जप करते हुए देवाधिदेव विनायक को सन्तुष्ट करने लगे ॥ ४२-४३ ॥ इस प्रकार से उन्होंने बारह वर्षों तक श्रेष्ठ तप किया। ब्राह्मण औरव ने अपनी कन्या के उद्देश्य से तथा महर्षि शौनक ने अपने शिष्य के उद्देश्य से तपस्या की थी ॥ ४४ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराण के क्रीडाखण्ड में ‘शमीमाहात्म्यकथन के प्रसंग में’ चौंतीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३४ ॥ Content is available only for registered users. 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