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श्रीमद्भागवतमहापुराण – चतुर्थ स्कन्ध – अध्याय १२
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
ॐ श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
बारहवाँ अध्याय
ध्रुवजी को कुबेर का वरदान और विष्णुलोक की प्राप्ति

श्रीमैत्रेयज़ी कहते हैं — विदुरजी ! ध्रुव का क्रोध शान्त हो गया है और वे यक्षों के वध से निवृत्त हो गये हैं, यह जानकर भगवान् कुबेर वहाँ आये। उस समय यक्ष, चारण और किन्नरलोग उनकी स्तुति कर रहे थे। उन्हें देखते ही ध्रुवजी हाथ जोड़कर खड़े हो गये । तब कुबेर ने कहा ॥ १ ॥

श्रीकुबेरजी बोले — शुद्धहृदय क्षत्रियकुमार ! तुमने अपने दादा के उपदेश से ऐसा दुस्त्यज वैर त्याग दिया; इससे मैं तुमपर बहुत प्रसन्न हूँ ॥ २ ॥वास्तव में न तुमने यक्षों को मारा हैं और न यक्षों ने तुम्हारे भाई को । समस्त जीवों की उत्पत्ति और विनाश का कारण तो एकमात्र काल ही है ॥ ३ ॥ यह मैं-तू आदि मिथ्याबुद्धि तो जीव को अज्ञानवश स्वप्न के समान शरीरादि को ही आत्मा मानने से उत्पन्न होती है । इससे मनुष्य को बन्धन एवं दुःखादि विपरीत अवस्थाओं की प्राप्ति होती है ॥ ४ ॥ ध्रुव ! अब तुम जाओ, भगवान् तुम्हारा मङ्गल करें । तुम संसारपाश से मुक्त होने के लिये सब जीवों में समदृष्टि रखकर सर्वभूतात्मा भगवान् श्रीहरि का भजन करो । वे संसारपाश का छेदन करनेवाले हैं तथा संसार की उत्पत्ति आदि के लिये अपनी त्रिगुणात्मिका मायाशक्ति से युक्त होकर भी वास्तव में उससे रहित हैं । उनके चरणकमल ही सबके लिये भजन करनेयोग्य हैं ॥ ५-६ ॥ प्रियवर ! हमने सुना है, तुम सर्वदा भगवान् कमलनाभ के चरणकमल के समीप रहनेवाले हो; इसलिये तुम अवश्य ही वर पानेयोग्य हो । ध्रुव ! तुम्हें जिस वर की इच्छा हो, मुझसे निःसङ्कोच एवं निःशङ्क होकर माँग लो ॥ ७ ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं — विदुरजी ! यक्षराज कुबेर ने जब इस प्रकार वर माँगने के लिये आग्रह किया, तब महाभागवत महामति ध्रुवजी ने उनसे यही माँगा कि मुझे श्रीहरि की अखण्ड स्मृति बनी रहे, जिससे मनुष्य सहज ही दुस्तर संसारसागर को पार कर जाता है ॥ ८ ॥ इडविडा के पुत्र कुबेरजी ने बड़े प्रसन्न मन से उन्हें भगवत्स्मृति प्रदान की । फिर उनके देखते-ही-देखते वे अन्तर्धान हो गये । इसके पश्चात् ध्रुवजी भी अपनी राजधानी को लौट आये ॥ ९ ॥ वहाँ रहते हुए उन्होंने बड़ी-बड़ी दक्षिणावाले यज्ञ से भगवान् यज्ञपुरुष की आराधना की, भगवान् ही द्रव्य, क्रिया और देवता-सम्बन्धी समस्त कर्म और उसके फल हैं तथा वे ही कर्मफल के दाता भी हैं ॥ १० ॥ सर्वोपाधिशून्य सर्वात्मा श्रीअच्युत में प्रबल वेगयुक्त भक्तिभाव रखते हुए ध्रुवजी अपने में और समस्त प्राणियों में सर्वव्यापक श्रीहरि को ही विराजमान देखने लगे ॥ ११ ॥ ध्रुवजी बड़े ही शीलसम्पन्न, ब्राह्मणभक्त, दीनवत्सल और धर्ममर्यादा के रक्षक थे, उनकी प्रजा उन्हें साक्षात् पिता के समान मानती थी ॥ १२ ॥

इस प्रकार तरह-तरह के ऐश्वर्यभोग से पुण्य का और भोगों के त्यागपूर्वक यज्ञादि कर्मों के अनुष्ठान से पाप का क्षय करते हुए उन्होंने छत्तीस हजार वर्ष तक पृथ्वी का शासन किया ॥ १३ ॥ जितेन्द्रिय महात्मा ध्रुव ने इसी तरह अर्थ, धर्म और काम के सम्पादन में बहुत-से वर्ष बिताकर अपने पुत्र उत्कल को राजसिंहासन सौंप दिया ॥ १४ ॥ इस सम्पूर्ण दृश्य-प्रपञ्च को अविद्यारचित स्वप्न और गन्धर्वनगर के समान माया से अपने में ही कल्पित मानकर और यह समझकर कि शरीर, स्त्री, पुत्र, मित्र, सेना, भरा-पूरा खजाना, जनाने महल, सुरम्य विहारभूमि और समुद्रपर्यन्त भूमण्डल का राज्य — ये सभी काल के गाल में पड़े हुए हैं, वे बदरिकाश्रम को चले गये ॥ १५-१६ ॥

वहाँ उन्होंने पवित्र जल में स्नानकर इन्द्रियों को विशुद्ध (शान्त) किया । फिर स्थिर आसन से बैठकर प्राणायाम द्वारा वायु को वश में किया । तदनन्तर मन के द्वारा इन्द्रियों को बाह्य विषयों से हटाकर मन को भगवान् के स्थूल विराट्स्वरूप में स्थिर कर दिया । उसी विराट् रुप का चिन्तन करते-करते वे अन्त में ध्याता और ध्येय के भेद से शून्य निर्विकल्प समाधि में लीन हो गये और उस अवस्था में विराट् रुप का भी परित्याग कर दिया ॥ १७ ॥ इस प्रकार भगवान् श्रीहरि के प्रति निरन्तर भक्तिभाव का प्रवाह चलते रहने से उनके नेत्रों में बार-बार आनन्दाश्रुओं की बाढ़-सी आ जाती थी । इससे उनका हृदय द्रवीभूत हो गया और शरीर में रोमाञ्च हो आया । फिर देहाभिमान गलित हो जाने से उन्हें ‘मैं ध्रुव हूँ इसकी स्मृति भी न रही ॥ १८ ॥

इसी समय ध्रुवजी ने आकाश से एक बड़ा ही सुन्दर विमान उतरते देखा । वह अपने प्रकाश से दसों दिशाओं को आलोकित कर रहा था; मानो पूर्णिमा का चन्द्र ही उदय हुआ हो ॥ १९ ॥ उसमें दो श्रेष्ठ पार्षद गदाओं का सहारा लिये खड़े थे । उनके चार भुजाएँ थीं, सुन्दर श्याम शरीर था, किशोर अवस्था थी और अरुण कमल के समान नेत्र थे । वे सुन्दर वस्त्र, किरीट, हार, भुजबन्ध और अति मनोहर कुण्डल धारण किये हुए थे ॥ २० ॥ उन्हें पुण्यश्लोक श्रीहरि के सेवक जान ध्रुवजी हड़बड़ाहट में पूजा आदि का क्रम भूलकर सहसा खड़े हो गये और ये भगवान् के पार्षदों में प्रधान हैं — ऐसा समझकर उन्होंने श्रीमधुसूदन के नामों का कीर्तन करते हुए उन्हें हाथ जोड़कर प्रणाम किया ॥ २१ ॥ ध्रुवजी का मन भगवान् के चरणकमलों में तल्लीन हो गया और वे हाथ जोड़कर बड़ी नम्रता से सिर नीचा किये खड़े रह गये । तब श्रीहरि के प्रिय पार्षद सुनन्द और नन्द ने उनके पास जाकर मुसकराते हुए कहा ॥ २२ ॥

सुनन्द और नन्द कहने लगे — राजन् ! आपका कल्याण हो, आप सावधान होकर हमारी बात सुनिये । आपने पाँच वर्ष की अवस्था में ही तपस्या करके सर्वेश्वर भगवान् को प्रसन्न कर लिया था ॥ २३ ॥ हम उन्हीं निखिलजगन्नियन्ता शार्ङ्गपाणि भगवान् विष्णु के सेवक हैं और आपको भगवान् के धाम में ले जाने के लिये यहाँ आये हैं ॥ २४ ॥ आपने अपनी भक्ति के प्रभाव से विष्णुलोक का अधिकार प्राप्त किया है, जो औरों के लिये बड़ा दुर्लभ है । परमज्ञानी सप्तर्षि भी वहाँतक नहीं पहुँच सके, वे नीचे से केवल उसे देखते रहते हैं । सूर्य और चन्द्रमा आदि ग्रह, नक्षत्र एवं तारागण भी उसकी प्रदक्षिणा किया करते हैं । चलिये, आप उसी विष्णुधाम में निवास कीजिये ॥ २५ ॥ प्रियवर ! आजतक आपके पूर्वज तथा और कोई भी उस पद पर कभी नहीं पहुंच सके । भगवान् विष्णु का वह परमधाम सारे संसार का वन्दनीय हैं, आप वहाँ चलकर विराजमान हों ॥ २६ ॥ आयुष्मन् ! यह श्रेष्ठ विमान पुण्यश्लोकशिखामणि श्रीहरि ने आपके लिये ही भेजा हैं, आप इसपर चढ़ने योग्य हैं ॥ २५ ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं — भगवान् के प्रमुख पार्षदों के ये अमृतमय वचन सुनकर परम भागवत ध्रुवजी ने स्नान किया, फिर सन्ध्या-वन्दनादि नित्यकर्म से निवृत्त हो माङ्गलिक अलङ्कारादि धारण किये । बदरिकाश्रम में रहनेवाले मुनियों को प्रणाम करके उनका आशीर्वाद लिया ॥ २८ ॥ इसके बाद उस श्रेष्ठ विमान की पूजा और प्रदक्षिणा की और पार्षदों को प्रणाम कर सुवर्ण के समान कान्तिमान् दिव्य रूप धारण कर उसपर चढ़ने को तैयार हुए ॥ २९ ॥ इतने में ही ध्रुवजी ने देखा कि काल मूर्तिमान होकर उनके सामने खड़ा है । तब वे मृत्यु के सिर पर पैर रखकर उस समय अद्भुत विमान पर चढ़ गये ॥ ३० ॥ उस समय आकाश में दुन्दुभि, मृदङ्ग और ढोल आदि बाजे बजने लगे, श्रेष्ठ गन्धर्व गान करने लगे और फूलों की वर्षा होने लगी ॥ ३१ ॥

विमानपर बैठकर ध्रुवजी ज्यों-ही भगवान् के धाम को जाने के लिये तैयार हुए, त्यों-ही उन्हें अपनी माता सुनीति का स्मरण हो आया । वे सोचने लगे, ‘क्या मैं बेचारी माता को छोड़कर अकेला ही दुर्लभ वैकुण्ठधाम को जाऊँगा ?’ ॥ ३२ ॥ नन्द और सुनन्द ने ध्रुव के ह्रदय की बात जानकर उन्हें दिखलाया कि देखो सुनीति आगे-आगे दूसरे विमान पर जा रही हैं ॥ ३३ ॥

उन्होंने क्रमशः सूर्य आदि सभी ग्रह देखे । मार्ग में जहाँ-तहाँ विमानों पर बैठे हुए देवता उनकी प्रशंसा करते हुए फूलों की वर्षा करते जाते थे ॥ ३४ ॥ उस दिव्य विमान पर बैठकर ध्रुवजी त्रिलोकी को पारकर सप्तर्षिमण्डल से भी ऊपर भगवान् विष्णु के नित्यधाम में पहुँचे । इस प्रकार उन्होंने अविचल गति प्राप्त की ॥ ३५ ॥ यह दिव्य धाम अपने ही प्रकाश से प्रकाशित है, इसके प्रकाश से तीनों लोक प्रकाशित हैं । इसमें जोवों पर निर्दयता करनेवाले पुरुष नहीं जा सकते । यहाँ तो उन्हीं की पहुँच होती हैं, जो दिन-रात प्राणियों के कल्याण के लिये शुभ कर्म ही करते रहते हैं ॥ ३६ ॥ जो शान्त, समदर्शी, शुद्ध और सब प्राणियों को प्रसन्न रखनेवाले हैं तथा भगवद्भक्तों को ही अपना एकमात्र सच्चा सुहद् मानते हैं — ऐसे लोग सुगमता से ही इस भगवद्धाम को प्राप्त कर लेते हैं ॥ ३७ ॥

इस प्रकार उत्तानपाद के पुत्र भगवत्परायण श्रीध्रुवजी तीनों लोकों के ऊपर उसकी निर्मल चूडामणिप के समान विराजमान हुए ॥ ३८ ॥ कुरुनन्दन ! जिस प्रकार दायें चलाने के समय खम्भे के चारों ओर बैल घूमते हैं, उसी प्रकार यह गम्भीर वेग वाला ज्योतिश्चक्र उस अविनाशी लोक के आश्रय ही निरन्तर घूमता रहता है ॥ ३९ ॥ उसकी महिमा देखकर देवर्षि नारद ने प्रचेताओं की यज्ञशाला में वीणा बजाकर ये तीन श्लोक गाये थे ॥ ४० ॥

नारदजी ने कहा था — इसमें सन्देह नहीं, पतिपरायणा सुनीति के पुत्र ध्रुव ने तपस्या द्वारा अद्भुत शक्ति संचित करके जो गति पायी है, उसे भागवतधर्मों की आलोचना करके वेदवादी मुनिगण भी नहीं पा सकते फिर राजाओं की तो बात ही क्या है ॥ ४१ ॥ अहो ! वे पाँच वर्ष की अवस्था में ही सौतेली माता के वाग्बाण से मर्माहत होकर दुखी हृदय से वन में चले गये और मेरे उपदेश के अनुसार आचरण करके ही उन अजेय प्रभु को जीत लिया, जो केवल अपने भक्तों के गुणों से ही वश में होते हैं ॥ ४२ ॥ ध्रुवजी ने तो पाँच-छ: वर्ष की अवस्था में कुछ दिनों की तपस्या से ही भगवान् को प्रसन्न करके उनका परमपद प्राप्त कर लिया; किन्तु उनके अधिकृत किये हुए इस पद को भूमण्डल में कोई दूसरा क्षत्रिय क्या वर्षों तक तपस्या करके भी पा सकता है ? ॥ ४३ ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं — विदुरजी ! तुमने मुझसे उदारकीर्ति ध्रुवजी के चरित्र के विषय में पूछा था, सो मैंने तुम्हें वह पूरा-का-पूरा सुना दिया । साधुजन इस चरित्र की बड़ी प्रशंसा करते हैं ॥ ४४ ॥ यह धन, यश और आयु की वृद्धि करनेवाला, परम पवित्र और अत्यन्त मङ्गलमय है । इससे स्वर्ग और अविनाशी पद भी प्राप्त हो सकता है । यह देवत्व की प्राप्ति करानेवाला, बड़ा ही प्रशंसनीय और समस्त पापों का नाश करनेवाला है ॥ ४५ ॥ भगवद्भक्त ध्रुव के इस पवित्र चरित्र को जो श्रद्धापूर्वक बार-बार सुनते हैं, उन्हें भगवान् की भक्ति प्राप्त होती है, जिससे उनके सभी दुःख का नाश हो जाता है ॥ ४६ ॥ इसे श्रवण करनेवाले को शीलादि गुणों की प्राप्ति होती है जो महत्त्व चाहते हैं, उन्हें महत्त्व की प्राप्ति करानेवाला स्थान मिलता है, जो तेज चाहते हैं, उन्हें तेज प्राप्त होता है और मनस्वियों का मान बढ़ता है ॥ ४७ ॥ पवित्रकीर्ति ध्रुवजी के इस महान् चरित्र को प्रातः और सायंकाल ब्राह्मणादि द्विजातियों के समाज में एकाग्र चित्त से कीर्तन करना चाहिये ॥ ४८ ॥ भगवान् के परम पवित्र चरण की शरण में रहनेवाला जो पुरुष इसे निष्कामभाव से पूर्णिमा, अमावास्या, द्वादशी, श्रवण नक्षत्र, तिथिक्षय, व्यतीपात, संक्रान्ति अथवा रविवार के दिन श्रद्धालु पुरुषों को सुनाता है, वह स्वयं अपने आत्मा में ही सन्तुष्ट रहने लगता है और सिद्ध हो जाता है ॥ ४९-५० ॥

यह साक्षात् भगवद्विषयक अमृतमय ज्ञान है जो लोग भगवन्मार्ग के मर्म से अनभिज्ञ हैं — उन्हें जो कोई इसे प्रदान करता है, उस दीनवत्सल कृपालु पुरुष पर देवता अनुग्रह करते हैं ॥ ५१ ॥ ध्रुवजी के कर्म सर्वत्र प्रसिद्ध और परम पवित्र हैं, वे अपनी बाल्यावस्था में ही माता के घर और खिलौनों का मोह छोड़कर श्रीविष्णु-भगवान् की शरण में चले गये थे । कुरुनन्दन ! उनका यह पवित्र चरित्र मैंने तुम्हें सुना दिया ॥ ५२ ॥

॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे द्वादशोऽध्यायः ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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