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श्रीमद्भागवतमहापुराण – चतुर्थ स्कन्ध – अध्याय ९
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
ॐ श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
नवाँ अध्याय
ध्रुव का वर पाकर घर लौटना

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं— विदुरजी ! भगवान् के इस प्रकार आश्वासन देने से देवताओं का भय जाता रहा और वे उन्हें प्रणाम करके स्वर्गलोक को चले गये । तदनन्तर विराट्स्वरूप भगवान् गरुड पर चढ़कर अपने भक्त को देखने के लिये मधुवन में आये ॥ १ ॥ उस समय ध्रुवजी तीव्र योगाभ्यास से एकाग्र हुई बुद्धि के द्वारा भगवान् की बिजली के समान देदीप्यमान जिस मूर्ति का अपने हृदयकमल में ध्यान कर रहे थे, वह सहसा विलीन हो गयी । इससे घबराकर उन्होंने ज्यों ही नेत्र खोले कि भगवान् के उसी रूप को बाहर अपने सामने खड़ा देखा ॥ २ ॥ प्रभु का दर्शन पाकर बालक ध्रुव को बड़ा कुतूहल हुआ, वे प्रेम में अधीर हो गये । उन्होंने पृथ्वी पर दण्ड के समान लोटकर उन्हें प्रणाम किया । फिर वे इस प्रकार प्रेमभरी दृष्टि से उनकी ओर देखने लगे मानो नेत्रों से उन्हें पी जायेंगे, मुख से चूम लेंगे और भुजाओं में कस लेंगे ॥ ३ ॥ वे हाथ जोड़े प्रभु के सामने खड़े थे, और उनकी स्तुति करना चाहते थे, परन्तु किस प्रकार करें यह नहीं जानते थे । सर्वान्तर्यामी हरि उनके मन की बात जान गये; उन्होंने कृपापूर्वक अपने वेदमय शंख को उनके गाल से छुआ दिया ॥ ४ ॥ ध्रुवजी भविष्य में अविचल पद प्राप्त करनेवाले थे । इस समय शङ्ख का स्पर्श होते ही उन्हें वेदमयी दिव्यवाणी प्राप्त हो गयी और जीव तथा ब्रह्म के स्वरूप का भी निश्चय हो गया । वे अत्यन्त भक्तिभाव से धैर्यपूर्वक विश्वविख्यात कीर्तिमान् श्रीहरि की स्तुति करने लगे ॥ ५ ॥

ध्रुवजी ने कहा — प्रभो ! आप सर्वशक्तिसम्पन्न है; आप ही मेरे अन्त:करण में प्रवेशकर अपने तेज से मेरी इस सोयी हुई वाणी को सजीव करते हैं तथा हाथ, पैर कान और त्वचा आदि अन्यान्य इन्द्रियों एवं प्राणों को भी चेतनता देते हैं । मैं आप अन्तर्यामी भगवान् को प्रणाम करता हूँ ॥ ६ ॥ भगवन् ! आप एक ही हैं, परन्तु अपनी अनन्त गुणमयी मायाशक्ति से इस महदादि सम्पूर्ण प्रपञ्च को रचकर अन्तर्यामीरूप से उसमें प्रवेश कर जाते हैं और फिर इसके इन्द्रियादि असत् गुणों में उनके अधिष्ठातृदेवताओं के रूप में स्थित होकर अनेकरूप भासते हैं — ठीक वैसे ही जैसे तरह-तरह की लकड़ियों में प्रकट हुई आग अपनी उपाधियों के अनुसार भिन्न-भिन्न रूपों में भासती है ॥ ७ ॥ नाथ ! सृष्टि के आरम्भ में ब्रह्माजी ने भी आपकी शरण लेकर आपके दिये हुए ज्ञान के प्रभाव से ही इस जगत् को सोकर उठे हुए पुरुष के समान देखा था । दीनबन्धो ! उन्हीं आपके चरणतल का मुक्त पुरुष भी आश्रय लेते है, कोई भी कृतज्ञ पुरुष उन्हें कैसे भूल सकता है ? ॥ ८ ॥ प्रभो ! इन शवतुल्य शरीरों के द्वारा भोगा जानेवाला, इन्द्रिय और विषयों के संसर्ग से उत्पन्न सुख तो मनुष्यों को नरक में भी मिल सकता है । जो लोग इस विषयसुख के लिये लालायित रहते हैं और जो जन्म-मरण के बन्धन से छुड़ा देनेवाले कल्पतरुस्वरूप आपकी उपासना भगवत्-प्राप्ति के सिवा किसी अन्य उद्देश्य से करते हैं, उनकी बुद्धि अवश्य ही आपकी माया के द्वारा ठगी गयी है ॥ ९ ॥ नाथ ! आपके चरणकमलों का ध्यान करने से और आपके भक्तों के पवित्र चरित्र सुनने से प्राणियों को जो आनन्द प्राप्त होता है, वह निजानन्दस्वरूप ब्रह्म में भी नहीं मिल सकता । फिर जिन्हें काल की तलवार काटे डालती हैं, उन स्वर्गीय विमानों से गिरनेवाले पुरुष को तो वह सुख मिल ही कैसे सकता है ॥ १० ॥

अनन्त परमात्मन् ! मुझे तो आप उन विशुद्धहृदय महात्मा भक्त का सङ्ग दीजिये, जिनका आपमें अविच्छिन्न भक्तिभाव है, उनके सङ्ग में मैं आपके गुणों और लीलाओं की कथा-सुधा को पी-पीकर उन्मत्त हो जाऊँगा और सहज ही इस अनेक प्रकार के दुःखों से पूर्ण भयङ्कर संसार-सागर के उस पार पहुँच जाऊँगा ॥ ११ ॥ कमलनाभ प्रभो ! जिनका चित्त आपके चरणकमल की सुगन्ध में लुभाया हुआ है, उन महानुभावों का जो लोग सङ्ग करते हैं वे अपने इस अत्यन्त प्रिय शरीर और इसके सम्बन्धी पुत्र, मित्र, गृह और स्त्री आदि की सुधि भी नहीं करते ॥ १२ ॥ अजन्मा परमेश्वर ! मैं तो पशु, वृक्ष, पर्वत, पक्षी, सरीसृप (सर्पादि रेंगनेवाले जन्तु), देवता, दैत्य और मनुष्य आदि से परिपूर्ण तथा महदादि अनेक कारणों से सम्पादित आपके इस सदसदात्मक स्थूल विश्वरूप को ही जानता है, इससे परे जो आपका परम स्वरूप है, जिसमें वाणी की गति नहीं है, उसका मुझे पता नहीं है ॥ १३ ॥

भगवन् ! कल्प का अन्त होने पर योगनिद्रा में स्थित जो परमपुरुष इस सम्पूर्ण विश्व अपने उदर में लीन करके शेषजी के साथ उन्हीं की गोद में शयन करते हैं तथा जिनके नाभि-समुद्र से प्रकट हुए सर्वलोकमय सुवर्णवर्ण कमल से परम तेजोमय ब्रह्माजी उत्पन्न हुए, वे भगवान् आप ही हैं, मैं आपको प्रणाम करता हूँ ॥ १४ ॥

प्रभो ! आप अपनी अखण्ड चिन्मयी दृष्टि से बुद्धि की सभी अवस्थाओं के साक्षी हैं तथा नित्यमुक्त शुद्धसत्त्वमय, सर्वज्ञ, परमात्मस्वरूप, निर्विकार, आदिपुरुष, षडैश्वर्यसम्पन्न एवं तीनों गुणों के अधीश्चर हैं । आप जीव से सर्वथा भिन्न हैं तथा संसार की स्थिति के लिये यज्ञाधिष्ठाता विष्णुरूप से विराजमान हैं ॥ १५ ॥ आपसे ही विद्या-अविद्या आदि विरुद्ध गतियों वाली अनेकों शक्तियाँ धारावाहिक रूप से निरन्तर प्रकट होती रहती है । आप जगत् के कारण, अखण्ड, अनादि, अनन्त, आनन्दमय, निर्विकार ब्रह्मस्वरूप हैं । मैं आपकी शरण हूँ ॥ १६ ॥

भगवन् ! आप परमानन्दमूर्ति हैं जो लोग ऐसा समझकर निष्कामभाव से आपका निरन्तर भजन करते हैं, उनके लिये राज्यादि भोग की अपेक्षा आपके चरणकमलों की प्राप्ति ही भजन का सच्चा फल है । स्वामिन् ! यद्यपि बात ऐसी ही है, तो भी गौ जैसे अपने तुरंत के जन्में हुए बछड़े को दूध पिलाती और व्याघ्रादि से बचाती रहती है, उसी प्रकार आप भी भक्तों पर कृपा करने के लिये निरन्तर विकल रहने के कारण हम-जैसे सकाम् जीवों की भी कामना पूर्ण करके उनकी संसार-भय से रक्षा करते रहते हैं ॥ १७ ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं — विदुरुजी ! जब शुभ सङ्कल्पवाले मतिमान् ध्रुवजी ने इस प्रकार स्तुति की तब भक्तवत्सल भगवान् उनकी प्रशंसा करते हुए कहने लगे ॥ १८ ॥

श्रीभगवान् ने कहा — उत्तम व्रत का पालन करनेवाले राजकुमार ! मैं तेरे हृदय का सङ्कल्प जानता हूँ । यद्यपि उस पद का प्राप्त होना बहुत कठिन है, तो भी मैं तुझे वह देता हूँ । तेरा कल्याण हो ॥ १९ ॥ भद्र ! जिस तेजोमय अविनाशी लोक को आजतक किसी ने प्राप्त नहीं किया, जिसके चारों ओर ग्रह, नक्षत्र और तारागणरूप ज्योतिश्चक्र उसी प्रकार चक्कर काटता रहता है जिस प्रकार मेढी के (कटी हुई फसल धान — गेहूं आदि को कुचलने के लिये घुमाये जानेवाले बैल जिस खंभे में बँधे रहते हैं, उसका नाम मेढी है।) चारों ओर दँवरी के बैल घूमते रहते हैं । अवान्तर कल्पपर्यन्त रहनेवाले अन्य लोकों का नाश हो जानेपर भी जो स्थिर रहता है तथा तारागण के सहित धर्म, अग्नि, कश्यप और शुक्र आदि नक्षत्र एवं सप्तर्षिगण जिसकी प्रदक्षिणा किया करते हैं, वह ध्रुवलोक मैं तुझे देता हूँ ॥ २०-२१ ॥

यहाँ भी जब तेरे पिता तुझे राजसिंहासन देकर वन को चले जायेंगे; तब तू छत्तीस हजार वर्ष तक धर्मपूर्वक पृथ्वी का पालन करेगा । तेरी इन्द्रियों की शक्ति ज्यों-की-त्यों बनी रहेगी ॥ २२ ॥ आगे चलकर किसी समय तेरा भाई उत्तम शिकार खेलता हुआ मारा जायगा, तब उसकी माता सुरुचि पुत्र-प्रेम में पागल होकर उसे वन में खोजती हुई दावानल में प्रवेश कर जायगी ॥ २३ ॥ यज्ञ मेरी प्रिय मूर्ति है, तू अनेकों बड़ी-बड़ी दक्षिणाओं वाले यज्ञों के द्वारा मेरा यजन करेगा तथा यहाँ उत्तम-उत्तम भोग भोगकर अन्त में मेरा ही स्मरण करेगा ॥ २४ ॥ इससे तू अन्त में सम्पूर्ण लोक के वन्दनीय और सप्तर्षियों से भी ऊपर मेरे निज धाम को जायगा, जहाँ पहुँच जाने पर फिर संसार में लौटकर नहीं आना होता है ॥ २५ ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं — बालक ध्रुव से इस प्रकार पूजित हो और उसे अपना पद प्रदानकर भगवान् श्रीगरुडध्वज उसके देखते-देखते अपने लोक को चले गये ॥ २६ ॥ प्रभु की चरणसेवा से सङ्कल्पित वस्तु प्राप्त हो जाने के कारण यद्यपि ध्रुवजी का सङ्कल्प तो निवृत्त हो गया, किन्तु उनका चित्त विशेष प्रसन्न नहीं हुआ । फिर वे अपने नगर को लौट गये ॥ २७ ॥

विदुरजी ने पूछा — ब्रह्मन् ! मायापति श्रीहरि का परमपद तो अत्यन्त दुर्लभ है और मिलता भी उनके चरणकमलों की उपासना से ही है । ध्रुवजी भी सारासार का पूर्ण विवेक रखते थे; फिर एक ही जन्म में उस परमपद को पा लेनेपर भी उन्होंने अपने को अकृतार्थ क्यों समझा ? ॥ २८ ॥

श्रीमैत्रेयजी ने कहा — ध्रुवजी का हृदय अपनी सौतेली माता के वाग्बाणों से बिंध गया था तथा वर माँगने के समय भी उन्हें उनका स्मरण बना हुआ था; इसीसे उन्होंने मुक्तिदाता श्रीहरि से मुक्ति नहीं माँगी । अब जब भगवद्दर्शन से वह मनोमालिन्य दूर हो गया तो उन्हें अपनी इस भूल के लिये पश्चात्ताप हुआ ॥ २९ ॥

ध्रुवजी मन-ही-मन कहने लगे — अहो ! सनकादि ऊर्ध्वरेता (नैष्ठिक ब्रह्मचारी) सिद्ध भी जिन्हें समाधि द्वारा अनेकों जन्मों में प्राप्त कर पाते हैं, उन भगवच्चरणों की छाया को मैंने छः महीने में ही पा लिया, किन्तु चित्त में दूसरी वासना रहने के कारण मैं फिर उनसे दूर हो गया ॥ ३० ॥ अहो ! मुझ मन्नभाग्य की मूर्खता तो देखो, मैंने संसार-पाश को काटनेवाले प्रभु के पादपद्मो में पहुँचकर भी उनसे नाशवान् वस्तु की ही याचना की ॥ ३१ ॥ देवता को स्वर्गभोग के पश्चात् फिर नीचे गिरना होता है, इसलिये वे मेरी भगवत्प्राप्तिरूप उच्च स्थिति को सहन नहीं कर सके; अतः उन्होंने ही मेरी बुद्धि को नष्ट कर दिया । तभी तो मुझ दुष्ट ने नारदजी की यथार्थ बात भी स्वीकार नहीं की ॥ ३२ ॥

यद्यपि संसार में आत्मा के सिवा दूसरा कोई भी नहीं है; तथापि सोया हुआ मनुष्य जैसे स्वप्न में अपने ही कल्पना किये हुए व्याघ्रादि से डरता है, उसी प्रकार मैंने भी भगवान् की माया से मोहित होकर भाई को ही शत्रु मान लिया और व्यर्थ ही द्वेषरूप हार्दिक रोग से जलने लगा ॥ ३३ ॥ जिन्हें प्रसन्न करना अत्यन्त कठिन है; उन्हीं विश्वात्मा श्रीहरि को तपस्या द्वारा प्रसन्न करके मैंने जो कुछ माँगा है, वह सब व्यर्थ है; ठीक उसी तरह, जैसे गतायु पुरुष के लिये चिकित्सा व्यर्थ होती है । ओह ! मैं बड़ा भाग्यहीन हूँ, संसार-बन्धन का नाश करनेवाले प्रभु से मैंने संसार ही माँगा ॥ ३४ ॥ मैं बड़ा ही पुण्यहीन हूँ ! जिस प्रकार कोई कँगला किसी चक्रवर्ती सम्राट् को प्रसन्न करके उससे तुषसहित चावलों की कनी माँगे, उसी प्रकार मैंने भी आत्मानन्द प्रदान करनेवाले श्रीहरि से मूर्खतावश व्यर्थ का अभिमान बढ़ानेवाले उच्चपदादि ही माँगे हैं ॥ ३५ ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं —
तात ! तुम्हारी तरह जो लोग श्रीमुकुन्दपादारविन्द-मकरन्द के ही मधुकर हैं जो निरन्तर प्रभु की चरण-रज का ही सेवन करते हैं और जिनका मन अपने-आप आयी हुई सभी परिस्थितियों में सन्तुष्ट रहता है, वे भगवान् से उनकी सेवा के सिवा अपने लिये और कोई भी पदार्थ नहीं माँगते ॥ ३६ ॥

इधर जब राजा उत्तानपाद ने सुना कि उनका पुत्र ध्रुव घर लौट रहा है, तो उन्हें इस बात पर वैसे ही विश्वास नहीं हुआ जैसे कोई किसी के यमलोक से लौटने की बातपर विश्वास न करे । उन्होंने यह सोचा कि ‘मुझ अभागे का ऐसा भाग्य कहाँ’ ॥ ३७ ॥ परन्तु फिर उन्हें देवर्षि नारद की बात याद आ गयी । इससे उनका इस बात में विश्वास हुआ और वे आनन्द के वेग से अधीर हो उठे । उन्होंने अत्यन्त प्रसन्न होकर यह समाचार लानेवाले को एक बहुमूल्य हार दिया ॥ ३८ ॥ राजा उत्तानपाद ने पुत्र का मुख देखने के लिये उत्सुक होकर बहुत-से ब्राह्मण, कुल के बड़े-बूढ़े, मन्त्री और बन्धुजनों को साथ लिया तथा एक बढ़िया घोड़ोंवाले सुवर्णजटित रथ पर सवार होकर वे झटपट नगर के बाहर आये । उनके आगे-आगे वेदध्वनि होती जाती थी तथा शङ्ख, दुन्दुभि एवं वंशी आदि अनेक माङ्गलिक बाजे बजते जाते थे !॥ ३९-४० ॥

उनकी दोनों रानियाँ सुनीति और सुरुचि भी सुवर्णमय आभूषणों से विभूषित हो राजकुमार उत्तम के साथ पालकियों पर चढ़कर चल रही थीं ॥ ४१ ॥ ध्रुवजी उपवन के पास आ पहुँचे, उन्हें देखते ही महाराज उत्तानपाद तुरंत रथ से उतर पड़े । पुत्र को देखने के लिये वे बहुत दिनों से उत्कण्ठित हो रहे थे । उन्होंने झटपट आगे बढ़कर प्रेमातुर हो, लंबी-लंबी साँसें लेते हुए, ध्रुव को भुजाओं में भर लिया । अब ये पहले के धुव नहीं थे, प्रभु के परमपुनीत पादपद्मों का स्पर्श होने से इनके समस्त पाप-बन्धन कट गये थे ॥ ४२-४३ ॥ राजा उत्तानपाद की एक बहुत बड़ी कामना पूर्ण हो गयी । उन्होंने बार-बार पुत्र का सिर सूँघा और आनन्द तथा प्रेम के कारण निकलनेवाले ठंडे-ठंडे आँसुओं से उन्हें नहला दिया ॥ ४४ ॥

तदनन्तर सज्जनों में अग्रगण्य ध्रुवजी ने पिता के चरणों में प्रणाम किया और उनसे आशीर्वाद पाकर, कुशल-प्रश्नादि से सम्मानित हो दोनों माताओं को प्रणाम किया ॥ ४५ ॥ छोटी माता सुरुचि ने अपने चरणों पर झुके हुए बालक ध्रुव को उठाकर हृदय से लगा लिया और अश्रुगद्गद वाणी से ‘चिरञ्जीवी रहो’ ऐसा आशीर्वाद दिया ॥ ४६ ॥ जिस प्रकार जल स्वयं ही नीचे की ओर बहने लगता है उसी प्रकार मैत्री आदि गुणों के कारण जिसपर श्रीभगवान् प्रसन्न हो जाते हैं, उसके आगे सभी जीव झुक जाते हैं ॥ ४७ ॥ इधर उत्तम और ध्रुव दोनों ही प्रेम से विह्वल होकर मिले । एक दूसरे के अङ्ग का स्पर्श पाकर उन दोनों के ही शरीर में रोमाञ्च हो आया तथा नेत्रों से बार-बार आसुओं की धारा बहने लगी ॥ ४८ ॥ ध्रुव की माता सुनीति अपने प्राणों से भी प्यारे पुत्र को गले लगाकर सारा सन्ताप भूल गयी । उसके सुकुमार अङ्गों के स्पर्श से उसे बड़ा ही आनन्द प्राप्त हुआ ॥ ४९ ॥

वीरवर विदुरजी ! वीरमाता सुनीति के स्तन उसके नेत्रों से झरते हुए मङ्गलमय आनन्दाश्रुओं से भीग गये और उनसे बार-बार दूध बहने लगा ॥ ५० ॥ उस समय पुरवासी लोग उनकी प्रशंसा करते हुए कहने लगे, ‘महारानीजी ! आपका लाल बहुत दिनों से खोया हुआ था; सौभाग्यवश अब वह लौट आया, यह हम सबका दुःख दूर करनेवाला है । बहुत दिनों तक भूमण्डल की रक्षा करेगा ॥ ५१ ॥ आपने अवश्य ही शरणागतभयभञ्जन श्रीहरि की उपासना की है । उनका निरन्तर ध्यान करनेवाले धीर पुरुष परम दुर्जय मृत्यु को भी जीत लेते हैं ॥ ५२ ॥

विदुरजी ! इस प्रकार जब सभी लोग ध्रुव के प्रति अपना लाड़-प्यार प्रकट कर रहे थे, उसी समय उन्हें भाई उत्तम के सहित हथिनी पर चढ़ाकर महाराज उत्तानपाद ने बड़े हर्ष के साथ राजधानी में प्रवेश किया । उस समय सभी लोग उनके भाग्य की बड़ाई कर रहे थे ॥ ५३ ॥ नगर में जहाँ-तहाँ मगर के आकार के सुन्दर दरवाजे बनाये गये थे तथा फल-फूलों के गुच्छों के सहित केले के खम्भे और सुपारी के पौधे सजाये गये थे ॥ ५४ ॥ द्वार-द्वार पर दीपकों के सहित जल के कलश रखे हुए थे — जो आम के पत्तों, वस्त्रों, पुष्पमालाओं तथा मोती की लड़ियों से सुसज्जित थे ॥ ५५ ॥ जिन अनेकों परकोटों, फाटकों और महलों से नगरी सुशोभित थी, उन सबको सुवर्ण की सामग्रियों से सजाया गया था तथा उनके कँगुरे विमानों के शिखरों के समान चमक रहे थे ॥ ५६ ॥ नगर के चौक, गलियों, अटारियों और सड़कों को झाड़-बुहारकर उनपर चन्दन का छिड़काव किया गया था और जहाँ-तहाँ खील, चावल, पुष्प, फल, जौ एवं अन्य माङ्गलिक उपहार-सामग्रियाँ सजा रखी थीं ॥ ५७ ॥ ध्रुवजी राजमार्ग से जा रहे थे । उस समय जहाँ-तहाँ नगर की शीलवती सुन्दरियाँ उन्हें देखने को एकत्र हो रही थीं । उन्होंने वात्सल्यभाव से अनेकों शुभाशीर्वाद देते हुए उन पर सफेद सरसों, अक्षत, दही, जल, दूर्वा, पुष्प और फलों की वर्षा की । इस प्रकार उनके मनोहर गीत सुनते हुए ध्रुवजी ने अपने पिता के महल में प्रवेश किया ॥ ५८-५९ ॥

वह श्रेष्ठ भवन महामूल्य मणियों की लड़ियों से सुसज्जित था । उसमें अपने पिताजी के लाड-प्यार का सुख भोगते हुए वे उसी प्रकार आनन्दपूर्वक रहने लगे, जैसे स्वर्ग में देवतालोग रहते हैं ॥ ६० ॥ वहाँ दूध के फेन के समान सफेद और कोमल शय्याएँ, हाथी-दाँत के पलंग, सुनहरी कामदार परदे, बहुमूल्य आसन और बहुत-सा सोने का सामान था ॥ ६१ ॥ उसकी स्फटिक और महामरकतमणि (पन्ने) की दीवारों में रत्नों की बनी हुई स्त्रीमूर्तियों पर रखे हुए मणिमय दीपक जगमगा रहे थे ॥ ६२ ॥ उस महल के चारों ओर अनेक जाति के दिव्य वृक्षों से सुशोभित उद्यान थे, जिनमें नर और मादा पक्षियों का कलरव तथा मतवाले भौरों का गुंजार होता रहता था ॥ ६३ ॥ उन बगीचों में वैदूर्यमणि (पुखराज) की सीढ़ियों से सुशोभित बावलियाँ थीं — जिनमें लाल, नीले और सफेद रंग के कमल खिले रहते थे तथा हंस, कारण्डव, चकवा एवं सारस आदि पक्षी क्रीडा करते रहते थे ॥ ६४ ॥

राजर्षि उत्तानपाद ने अपने पुत्र के अति अद्भुत प्रभाव की बात देवर्षि नारद से पहले ही सुन रखी थी; अब उसे प्रत्यक्ष वैसा ही देखकर उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ ॥ ६५ ॥ फिर यह देखकर कि अब ध्रुव तरुण अवस्था को प्राप्त हो गये हैं, अमात्यवर्ग उन्हें आदर की दृष्टि से देखते हैं तथा प्रजा का भी उनपर अनुराग है, उन्होंने उन्हें निखिल भूमण्डल के राज्य पर अभिषिक्त कर दिया ॥ ६६ ॥ और आप वृद्धावस्था आयी जानकर आत्मस्वरूप का चिन्तन करते हुए संसार से विरक्त होकर वन को चल दिये ॥ ६७ ॥

॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे ध्रुवराज्याभिषेकवर्णनं नाम नवमोऽध्यायः ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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