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श्रीमद्भागवतमहापुराण – प्रथम स्कन्ध – अध्याय ९
ॐ श्रीपरमात्मने नम :
ॐ श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
नवाँ अध्याय
युधिष्ठिरादि का भीष्मजी के पास जाना और भगवान् श्रीकृष्ण की स्तुति करते हुए भीष्मजी का प्राणत्याग करना

सूतजी कहते हैं — इस प्रकार राजा युधिष्ठिर प्रजाद्रोह से भयभीत हो गये । फिर सब धर्मों का ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा से उन्होंने कुरुक्षेत्र की यात्रा की, जहाँ भीष्मपितामह शरशय्या पर पड़े हुए थे ॥ १ ॥ शौनकादि ऋषियों ! उस समय उन सब भाइयों ने स्वर्णजटित रथों पर, जिनमें अच्छे-अच्छे घोड़े जुते हुए थे, सवार होकर अपने भाई युधिष्ठिर का अनुगमन किया । उनके साथ व्यास, धौम्य आदि ब्राह्मण भी थे ॥ २ ॥ शौनकजी ! अर्जुन के साथ भगवान् श्रीकृष्ण भी रथपर चढ़कर चले । उन सब भाइयों के साथ महाराज युधिष्ठिर की ऐसी शोभा हुई, मानो यक्षों से घिरे हुए स्वयं कुबेर ही जा रहे हों ॥ ३ ॥ अपने अनुचरों और भगवान् श्रीकृष्ण के साथ वहाँ जाकर पाण्डवों ने देखा कि भीष्मपितामह स्वर्ग से गिरे हुए देवता के समान पृथ्वी पर पड़े हुए हैं । उन लोगों ने उन्हें प्रणाम किया ॥ ४ ॥ शौनकजी ! उसी समय भरतवंशियों के गौरवरूप भीष्मपितामह को देखने के लिये सभी ब्रह्मर्षि. देवर्षि और राजर्षि वहाँ आये ॥ ५ ॥ पर्वत, नारद, धौम्य, भगवान् व्यास, बृहदश्व, भरद्वाज, शिष्यों के साथ परशुरामजी, वसिष्ठ, इन्द्रप्रमद, त्रित, गृत्समद, असित, कक्षीवान्, गौतम, अत्रि, विश्वामित्र, सुदर्शन तथा और भी शुकदेव आदि शुद्ध हृदय महात्मागण एवं शिष्यों के सहित कश्यप, अङ्गिरा-पुत्र बृहस्पति आदि मुनिगण भी वहाँ पधारे ॥ ६-८ ॥ भीष्मपितामह धर्म को और देश-काल के विभाग को–कहाँ किस समय क्या करना चाहिये, इस बात को जानते थे । उन्होंने उन बड़भागी ऋषियों को सम्मिलित हुआ देखकर उनका यथायोग्य सत्कार किया ॥ ९ ॥ वे भगवान् श्रीकृष्ण का प्रभाव भी जानते थे । अतः उन्होंने अपनी लीला से मनुष्य का वेष धारण करके वहाँ बैठे हुए तथा जगदीश्वर के रूप में हृदय में विराजमान भगवान् श्रीकृष्ण की बाहर तथा भीतर दोनों जगह पूजा की ॥ १० ॥

पाण्डव बड़े विनय और प्रेम के साथ भीष्मपितामह के पास बैठ गये । उन्हें देखकर भीष्मपितामह की आँखें प्रेम के आँसुओं से भर गयी । उन्होंने उनसे कहा — ॥ ११ ॥ ‘धर्मपुत्रों ! हाय ! हाय ! यह बड़े कष्ट और अन्याय की बात है कि तुमलोगों को ब्राह्मण, धर्म और भगवान् के आश्रित रहनेपर भी इतने कष्ट के साथ जीना पड़ा, जिसके तुम कदापि योग्य नहीं थे ॥ १२ ॥ अतिरथी पाण्डु की मृत्यु के समय तुम्हारी अवस्था बहुत छोटी थी । उन दिनों तुमलोगों के लिये कुन्तीरानी को और साथ-साथ तुम्हें भी बार-बार बहुत-से कष्ट झेलने पड़े ॥ १३ ॥ जिस प्रकार बादल वायु के वश में रहते हैं, वैसे ही लोकपालों के सहित सारा संसार कालभगवान् के अधीन है । मैं समझता हूँ कि तुमलोगों के जीवन में ये जो अप्रिय घटनाएँ घटित हुई हैं, वे सब उन्हीं की लीला है ॥ १४ ॥ नहीं तो जहाँ साक्षात् धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर हों, गदाधारी भीमसेन और धनुर्धारी अर्जुन रक्षा का काम कर रहे हों, गाण्डीव धनुष हो और स्वयं श्रीकृष्ण सुहृद् हों— भला, वहाँ भी विपत्ति की सम्भावना हैं ? ॥ १५ ॥ ये कालरूप श्रीकृष्ण कब क्या करना चाहते हैं, इस बात को कभी कोई नहीं जानता । बड़े-बड़े ज्ञानी भी इसे जानने की इच्छा करके मोहित हो जाते हैं ॥ १६ ॥

युधिष्ठिर ! संसार की ये सब घटनाएँ ईश्वरेच्छा के अधीन है । उसका अनुसरण करके तुम इस अनाथ प्रजा का पालन करो; क्योंकि अब तुम्हीं इसके स्वामी और इसे पालन करने में समर्थ हो ॥ १७ ॥

ये श्रीकृष्ण साक्षात् भगवान् हैं । ये सबके आदिकारण और परम पुरुष नारायण हैं । अपनी माया से लोगों को मोहित करते हुए ये यदुवंशियों में छिपकर लीला कर रहे हैं ॥ १८ ॥ इनका प्रभाव अत्यन्त गूढ़ एवं रहस्यमय है । युधिष्ठिर ! उसे भगवान् शङ्कर, देवर्षि नारद और स्वयं भगवान् कपिल ही जानते हैं ॥ १९ ॥ जिन्हें तुम अपना ममेरा भाई, प्रिय मित्र और सबसे बड़ा हितू मानते हो तथा जिन्हें तुमने प्रेमवश अपना मन्त्री, दूत और सारथि तक बनाने में संकोच नहीं किया है, वे स्वयं परमात्मा हैं ॥ २० ॥ इन सर्वात्मा, समदर्शी, अद्वितीय, अहङ्कार-रहित और निष्पाप परमात्मा में उन ऊँचे-नीचे कार्यों के कारण कभी किसी प्रकार की विषमता नहीं होती ॥ २१ ॥ युधिष्ठिर ! इस प्रकार सर्वत्र सम होने पर भी, देखो तो सही, वे अपने अनन्यप्रेमी भक्तों पर कितनी कृपा करते हैं । यही कारण है कि ऐसे समय में जबकि मैं अपने प्राणों को त्याग करने जा रहा हूँ, इन भगवान् श्रीकृष्ण ने मुझे साक्षात् दर्शन दिया है ॥ २२ ॥ भगवत्परायण योगी पुरुष भक्तिभाव से इनमें अपना मन लगाकर और वाणी से इनके नाम का कीर्तन करते हुए शरीर का त्याग करते हैं और कामनाओं से तथा कर्म के बन्धन से छूट जाते हैं ॥ २३ ॥

वे ही देवदेव भगवान् अपने प्रसन्न, हास्य और रक्तकमल के समान अरुण नेत्रों से उल्लसित मुखवाले चतुर्भुज रुप से, जिसका और लोगों को केवल ध्यान में दर्शन होता है, तबतक यहीं स्थित रहकर प्रतीक्षा करें, जबतक मैं इस शरीर का त्याग न कर दूँ’ ॥ २४ ॥

सूतजी कहते हैं — युधिष्ठिर ने उनकी यह बात सुनकर शर-शय्या पर सोये हुए भीष्मपितामह से बहुत-से ऋषियों के सामने ही नाना प्रकार के धर्मों के सम्बन्ध में अनेकों रहस्य पूछे ॥ २५ ॥ तब तत्त्ववेत्ता भीष्मपितामह ने वर्ण और आश्रम के अनुसार पुरुष के स्वाभाविक धर्म और वैराग्य तथा राग के कारण विभिन्नरूप से बतलाये हुए निवृत्ति और प्रवृत्तिरूप द्विविध धर्म, दानधर्म, राजधर्म, मोक्षधर्म, स्त्रीधर्म और भगवद्धर्म — इन सबका अलग-अलग संक्षेप और विस्तार से वर्णन किया । शौनकजी ! इनके साथ ही धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष — इन चारों पुरुषार्थों का तथा इनकी प्राप्ति के साधनों का अनेक उपाख्यान और इतिहास सुनाते हुए विभागशः वर्णन किया ॥ २६-२८ ॥ भीष्मपितामह इस प्रकार धर्म का प्रवचन कर ही रहे थे कि वह उत्तरायण का समय आ पहुँचा, जिसे मृत्यु को अपने अधीन रखनेवाले भगवत्परायण योगी लोग चाहा करते हैं ॥ २९ ॥ उस समय हजारों रथियों के नेता भीष्मपितामह ने वाणी का संयम करके मन को सब ओर से हटाकर अपने सामने स्थित आदिपुरुष भगवान् श्रीकृष्ण में लगा दिया । भगवान् श्रीकृष्ण सुन्दर चतुर्भुज विग्रह पर उस समय पीताम्बर फहरा रहा था । भीष्मजी की आँखें उसपर एकटक लग गयी ॥ ३० ॥ उनको शस्त्रों की चोट से जो पीड़ा हो रही थी, वह तो भगवान् के दर्शनमात्र से ही तुरन्त दुर हो गयी तथा भगवान् की विशुद्ध धारणा से उनके जो कुछ अशुभ शेष थे, वे सभी नष्ट हो गये । अब शरीर छोड़ने के समय उन्होंने अपनी समस्त इन्द्रियों के वृत्ति-विलास को रोक दिया और बड़े प्रेम से भगवान् की स्तुति की ॥ ३१ ॥

भीष्मजी ने कहा — अब मृत्यु के समय में अपनी यह बुद्धि, जो अनेक प्रकार के साधनों का अनुष्ठान करने से अत्यन्त शुद्ध एवं कामना-रहित हो गयी है, यदुवंश-शिरोमणि अनन्त भगवान् श्रीकृष्ण के चरणों में समर्पित करता हूँ, जो सदा-सर्वदा अपने आनन्दमय स्वरूप में स्थित रहते हुए ही कभी विहार करने की-लीला करने की इच्छा से प्रकृति को स्वीकार कर लेते हैं, जिससे यह सृष्टि परम्परा चलती है ॥ ३२ ॥ जिनका शरीर त्रिभुवन-सुन्दर एवं श्याम तमाल के समान साँवला है, जिसपर सूर्य-रश्मियों के समान श्रेष्ठ पीताम्बर लहराता रहता है और कमल-सदृश मुख पर मुँघराली अलकें लटकती रहती हैं, उन अर्जुन-सखा श्रीकृष्ण में मेरी निष्कपट प्रीति हो ॥ ३३ ॥

मुझे युद्ध के समय की उनकी वह विलक्षण छवि याद आती है । उनके मुख पर लहराते हुए धुंघराले बाल घोड़ों की टाप की धूल से मटमैले हो गये थे और पसीने की छोटी-छोटी बूंदें शोभायमान हो रही थी । मैं अपने तीखे बाण से उनकी त्वचा को बींध रहा था । उन सुन्दर कवचमण्डित भगवान् श्रीकृष्ण के प्रति मेरा शरीर, अन्तःकरण और आत्मा समर्पित हो जायँ ॥ ३४ ॥

अपने मित्र अर्जुन की बात सुनकर, जो तुरंत ही पाण्डव-सेना और कौरव-सेना के बीच में अपना रथ ले आये और वहाँ स्थित होकर जिन्होंने अपनी दृष्टि से ही शत्रुपक्ष के सैनिकों की आयु छीन ली, उन पार्थसखा भगवान् श्रीकृष्ण में मेरी परम प्रीति हो ॥ ३५ ॥ अर्जुन ने जब दुर से कौरवों की सेना के मुखिया हमलोगों को देखा, तब पाप समझकर वह अपने स्वजनों के वध से विमुख हो गया । उस समय जिन्होने गीता के रूप में आत्मविद्या का उपदेश करके उसके सामयिक अज्ञान का नाश कर दिया, उन परमपुरुष भगवान् श्रीकृष्ण के चरणों में मेरी प्रीति बनी रहे ॥ ३६ ॥ मैंने प्रतिज्ञा कर ली थी कि मैं श्रीकृष्ण को शस्त्र ग्रहण कराकर छोडूंगा; उसे सत्य एवं ऊँचा करने के लिये उन्होंने अपनी शस्त्र ग्रहण न करने की प्रतिज्ञा तोड़ दी । उस समय वे रथ से नीचे कूद पड़े और सिंह जैसे हाथी को मारने के लिये उसपर टूट पड़ता है, वैसे ही रथ का पहिया लेकर मुझपर झपट पड़े । उस समय वे इतने वेग से दौड़े कि उनके कंधे का दुपट्टा गिर गया और पृथ्वी काँपने लगी ॥ ३५ ॥

मुझ आततायी ने तीखे बाण मार-मारकर उनके शरीर का कवच तोड़ डाला था, जिससे सारा शरीर लहूलुहान हो रहा था, अर्जुन के रोकने पर भी वे बलपूर्वक मुझे मारने के लिये मेरी ओर दौड़े आ रहे थे । वे ही भगवान् श्रीकृष्ण, जो ऐसा करते हुए भी मेरे प्रति अनुग्रह और भक्तवत्सलता से परिपूर्ण थे, मेरी एकमात्र गति हो — आश्रय हों ॥ ३८ ॥

अर्जुन के रथ की रक्षा में सावधान जिन श्रीकृष्ण के बायें हाथ में घोड़ों की रास थी और दाहिने हाथ में चाबुक, इन दोनों की शोभा से उस समय जिनकी अपूर्व छवि बन गयी थी, तथा महाभारत युद्ध में मरनेवाले वीर जिनकी इस छवि का दर्शन करते रहने के कारण सारूप्य मोक्ष को प्राप्त हो गये, उन्हीं पार्थसारथि भगवान् श्रीकृष्ण में मुझ मरणासन्न को परम प्रीति हो ॥ ३९ ॥ जिनकी लटकीली सुन्दर चाल, हाव-भावयुक्त चेष्टाएँ, मधुर मुसकान और प्रेमभरी चितवन से अत्यन्त सम्मानित गोपियाँ रासलीला में उनके अन्तर्धान हो जाने पर प्रेमोन्माद से मतवाली होकर जिनकी लीलाओं का अनुकरण करके तन्मय हो गयी थीं, उन्हीं भगवान् | श्रीकृष्ण में मेरा परम प्रेम हो ॥ ४० ॥ जिस समय युधिष्ठि रका राजसूय यज्ञ हो रहा था, मुनियों और बड़े-बड़े राजाओं से भरी हुई सभा में सबसे पहले सबकी ओर से इन्हीं सबके दर्शनीय भगवान् श्रीकृष्ण की मेरी आँखों के सामने पूजा हुई थी; वे ही सबके आत्मा प्रभु आज इस मृत्यु के समय मेरे सामने खड़े हैं ॥ ४५ ॥ जैसे एक ही सूर्य अनेक आँखों से अनेक रूपों में दीखते हैं, वैसे ही अजन्मा भगवान् श्रीकृष्ण अपने ही द्वारा रचित अनेक शरीरधारियों के हृदय में अनेक रूप-से जान पड़ते हैं; वास्तव में तो वे एक और सबके हृदय में विराजमान हैं ही । उन्हीं इन भगवान् श्रीकृष्ण को मैं भेद-भ्रम से रहित होकर प्राप्त हो गया हूँ ॥ ४२ ॥
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सूतजी कहते हैं — इस प्रकार भीष्मपितामह ने मन, वाणी और दृष्टि की वृत्तियों से आत्मस्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण में अपने आपको लीन कर दिया । उनके प्राण वहीं विलीन हो गये और वे शान्त हो गये ॥ ४३ ॥ उन्हें अनन्त ब्रह्म में लीन जानकर सब लोग वैसे ही चुप हो गये, जैसे दिन के बींत जाने पर पक्षियों का कलरव शान्त हो जाता है ॥ ४४ ॥ उस समय देवता और मनुष्य नगारे बजाने लगे । साधुस्वभाव के राजा उनकी प्रशंसा करने लगे और आकाश से पुष्पों की वर्षा होने लगीं ॥ ४५ ॥

शौनकजी ! युधिष्ठिर ने उनके मृत शरीर की अन्त्येष्टि क्रिया करायी और कुछ समय के लिये वे शोकमग्न हो गये ॥ ४६ ॥ उस समय मुनियों ने बड़े आनन्द से भगवान् श्रीकृष्ण की उनके रहस्यमय नाम ले-लेकर स्तुति की । इसके पश्चात् अपने हृदयों को श्रीकृष्णमय बनाकर वे अपने-अपने आश्रमों को लौट गये ॥ ४५ ॥ तदनन्तर भगवान् श्रीकृष्ण के साथ युधिष्ठिर हस्तिनापुर चले आये और उन्होंने वहाँ अपने चाचा धृतराष्ट्र और तपस्विनी गान्धारी को ढाढस बँधाया ॥ ४८ ॥ फिर धृतराष्ट्र की आज्ञा और भगवान् श्रीकृष्ण की अनुमति से समर्थ राजा युधिष्ठिर अपने वंशपरम्परागत साम्राज्य का धर्मपूर्वक शासन करने लगे ॥ ४९ ॥

॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां प्रथम स्कन्धे नैमिषीयोपाख्याने युधीष्ठिरराज्यप्रलम्भो नाम नवमोऽध्याय ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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