January 19, 2019 | 1 Comment श्रीमद्भागवत-सप्ताह की आवश्यक विधि 1. श्रीमद्भागवत-माहात्म्य 2. श्रीमद्भागवत – श्रीशुकदेवजी को नमस्कार 3. श्रीमद्भागवत की पूजनविधि 4. श्रीमद्भागवत विनियोग, न्यास एवं ध्यान पुराण में श्रीमद्भागवत के सप्ताहपारायण तथा श्रवण की बड़ी भारी महिमा बतलायी गयी है, अतः यहाँ श्रीमद्भागवत-प्रेमियों के लिये संक्षेप में सप्ताह-यज्ञ की आवश्यक विधि का दिग्दर्शन कराया जाता है । मुहूर्तविचार — पहले विद्वान् ज्योतिषी को बुलाकर उनके द्वारा कथा-प्रारम्भ के लिये शुभ मुहूर्त का विचार करा लेना चाहिये । नक्षत्रों में हस्त, चित्रा, स्वाती, विशाखा, अनुराधा, पुनर्वसु पुष्य, रेवती, अश्विनी, मृगशिरा, श्रवण, धनिष्ठा तथा पूर्वाभाद्रपदा उत्तम हैं । तिथियों में द्वितीया, तृतीया, पञ्चमी, षष्ठी, दशमी, एकादशी तथा द्वादशी को इस कार्य के लिये श्रेष्ठ बतलाया गया है । सोम, बुध, गुरु एवं शुक्र — ये वार सर्वोत्तम हैं । तिथि, वार और नक्षत्र का विचार करनेके साथ ही यह भी देख लेना चाहिये कि शुक्र या गुरु अस्त, बाल अथवा वृद्ध तो नहीं हैं । कथारम्भ का मुहूर्त भद्रादि दोषों से रहित होना चाहिये । उस दिन पृथ्वी जागती हो, वक्ता और श्रोता का चन्द्रबल ठीक हो । लग्न में शुभ ग्रहों का योग अथवा उनकी दृष्टि हो । शुभ ग्रहों की स्थिति केन्द्र या त्रिकोण में हो तो उत्तम है । आषाढ़, श्रावण, भाद्रपद, आश्विन, कार्तिक और मार्गशीर्ष (अगहन) — ये मास कथा आभ करने के लिये श्रेष्ठ बतलाये गये हैं । किन्हीं विद्वानों के मत से चैत्र और पौष को छोड़कर सभी मास ग्राह्य हैं । कथा के लिये स्थान-सप्ताहकथा के लिये उत्तम एवं पवित्र स्थान की व्यवस्था हो । जहाँ अधिक लोग सुविधा से बैठ सकें, ऐसे स्थान में कथा का आयोजन उत्तम है । नदी का तट, उपवन (बगीचा), देवमन्दिर अथवा अपना निवासस्थान— ये सभी कथा के लिये उपयोगी स्थल हैं, स्थान लिपा-पुता स्वच्छ हो । नीचे की भूमि गोबर और पीली मिट्टी से लीपी गयी हो । अर्थात् पक्का आँगन हो तो उसे धो दिया गया हो । उसपर पवित्र एवं सुन्दर आसन बिछे हों । ऊपर से चॅदावा तना हो । चॅदोवा आदि किसी भी कार्य में नीले रंग के वस्त्र को उपयोग न किया जाय । यजमान के हाथ से सोलह हाथ लम्बा और उतना ही चौड़ा कथा-मण्डप बने । उसे केले के खम्भों से सजाया जाय । हरे बाँस के खंभे लगाये जायें । नूतन पल्लवों की बंदनवारों, पुष्पमालाओं और ध्वजा-पताकाओं से मण्डप को भलीभाँति सुसज्जित किया जाय । उसपर ऊपर से सुन्दर चंदवा तान दिया जाय । उस मण्डप के दक्षिण-पश्चिम भाग में कथावाचक और मुख्य श्रोता के बैठने के लिये स्थान हो । शेष भाग में देवताओं और कलश आदि का स्थापन किया जाय । कथावाचक के बैठने के लिये ऊँची चौकी रखी जाय । उसपर शुद्ध आसन (नया गद्दा) बिछाया जाय । पीछे तथा पार्श्वभाग में मसनद एवं तकिये रख दिये जायें । श्रीमद्भागवत को स्थापित करने के लिये एक स्वर्णमण्डित छोटी-सी चौकी या आधारपीठ बनवाकर उसपर पवित्र वस्त्र बिछा दिया जाय । उसपर आगे बतायी जानेवाली विधिके अनुसार अष्टदल कमल बनाकर पूजन करके श्रीमद्भागवत की पुस्तक स्थापित की जाय । कथावाचक विद्वान्, सर्वशास्त्रकुशल, दृष्टान्त देकर श्रोताओं को समझाने में समर्थ, सदाचारी एवं सद्गुणसम्पन्न ब्राह्मण हो । उनमें सुशीलता, कुलीनता, गम्भीरता तथा श्रीकृष्ण-भक्ति का होना भी परमावश्यक है । वक्ता को असूया तथा परनिन्दा आदि दोष से सर्वथा रहित निःस्पृह होना चाहिये । श्रीमद्भागवत की पुस्तक का रेशमी वस्त्र से आच्छादित करके छत्र-चँवर के साथ डोली में अथवा अपने मस्तकपर रखकर कथामण्डप में लाना और स्थापित करना चाहिये । उस समय गीत-वाद्य आदि द्वारा उत्सव मनाना चाहिये । कथामण्डप से अनुपयोगी वस्तुएँ हटा देनी चाहिये । इधर-उधर दीवालों में भगवान् और उनकी लीलाओं के स्मारक चित्र लगा देने चाहिये । वक्ता का मुँह यदि उत्तर की ओर हो तो मुख्य श्रोता का मुख पूर्व को ओर होना चाहिये । यदि वक्ता पूर्वाभिमुख हो तो श्रोता को उत्तराभिमुख होना चाहिये । सप्ताह-कथा एक महान् यज्ञ है । इसे सुसम्पन्न करने के लिये अन्य सुहृद्-सम्बन्धियों को भी सहायक बना लेना चाहिये । अर्थ की भी समुचित व्यवस्था पहले से ही कर लेना उत्तम हैं । पाँच-सात दिन पहले से ही दूर-दूर तक कथा का समाचार भेज देना चाहिये और सबसे यह अनुरोध करना चाहिये कि वे स्वयं उपस्थित होकर सप्ताह-कथा श्रवण करें । अधिक समय न दे सकें तो भी एक दिन अवश्य पधारकर कथाश्रवण का लाभ लें । दूर से आये हुए अतिथियों के ठहरने और भोजनादि की व्यवस्था भी करनी चाहिये । वक्ता को व्रत ग्रहण करने के लिये एक दिन पहले ही क्षौर करा लेना चाहिये । सप्ताह-प्रारम्भ होने के एक दिन पूर्व ही देवस्थापन, पूजनादि कर लेना उत्तम है । वक्ता प्रतिदिन सूर्योदय से पूर्व ही स्नानादि करके संक्षेप से सन्ध्या-वन्दनादि का नियम पूरा कर ले और कथा में कोई विघ्न न आये, इसके लिये नित्यप्रति गणेशजी का पूजन कर लिया करें । सप्ताह के प्रथम दिन यजमान स्नान आदि से शुद्ध हो नित्यकर्म करके आभ्युदयिक श्राद्ध करे । आभ्युदयिक श्राद्ध और पहले भी किया जा सकता है । यज्ञ में इक्कीस दिन पहले भी आभ्युदयिक श्राद्ध करने का विधान है । उसके बाद गणेश, ब्रह्मा आदि देवताओं सहित नवग्रह, षोडश मातृका, सप्त चिरजीवी (अश्वत्थामा, बलि, व्यास, हनुमान, विभीषण, कृपाचार्य तथा परशुरामजी) एवं कलश की स्थापना तथा पूजा करे । एक चौकी पर सर्वतोभद्र-मण्डल बनाकर उसके मध्यभाग में ताम्रकलश स्थापित करे । कलश के ऊपर भगवान् लक्ष्मी-नारायण की स्वर्णमयी प्रतिमा स्थापित करनी चाहिये । कलश के ही बगल में भगवान् शालग्राम का सिंहासन विराजमान कर देना चाहिये । सर्वतोभद्र-मण्डल में स्थित समस्त देवताओं का पूजन करने के पश्चात् भगवान् नरनारायण, गुरु, वायु, सरस्वती, शेष, सनकादि कुमार, सांख्यायन, पराशर, बृहस्पति, मैत्रेय तथा उद्धव का भी आवाहन, स्थापन एवं पूजन करना चाहिये । फिर त्रय्यारुणि आदि छः पौराणिक का भी स्थापन-पूजन करके एक अलग पीठपर उसे सुन्दर वस्त्र से आवृत करके, श्रीनारदजी की स्थापना एवं अर्चना करनी चाहिये । तदनन्तर आधारपीठ, पुस्तक एवं व्यास (वक्ता आचार्य) का भी यथाप्राप्त उपचारों से पृजन करना चाहिये । कथा निर्विघ्न पूर्ण हो इसके लिये गणेश-मन्त्र, द्वादशाक्षर-मन्त्र तथा गायत्री मन्त्र का जप और विष्णुसहस्रनाम एवं गीता का पाठ करने के लिये अपनी शक्ति के अनुसार सात, पाँच या तीन ब्राह्मणों का वरण करे । श्रीमद्भागवत का भी एक पाठ अलग ब्राह्मण द्वारा कराये । देवताओं की स्थापना और पूजा के पहले स्वस्तिवाचनपूर्वक हाथ में पवित्री, अक्षत, फूल, जल और द्रव्य लेकर एक महासङ्कल्प कर लेना चाहिये । सङ्कल्प इस प्रकार है — ॐ तत्सद्य श्रीमहाभगवतो विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य ब्रह्मणो द्वितीये परार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे जम्बूद्वीपे भरतखण्डे आर्यावर्ते विष्णुप्रजापतिक्षेत्रे वैवस्वतमनुभोग्यैकसप्ततियुगचतुष्टयान्तगताष्टाविंशतितमकलिप्रथमचरणे बौद्धावतारे अमुकसंवत्सरे अमुकायने अमुककर्तौ अमुकराशिस्थिते भगवति सवितरि अमुकामुकराशिस्थितेषु चान्येषु ग्रहेषु महामाङ्गल्यप्रदे मासानामुत्तमे अमुकमासे अमुकपक्ष अमुकवासरे अमुकनक्षत्रे अमुकमुहूर्तकरणादियुतायाम् अमुकतिथौ अमुकगोत्रेः अमुकप्रवरः अमुकशर्मा (वर्मा, गुप्तः) अहं पूर्वातीतानेकजन्मसंचिताखिलदुष्कृतनिवृत्तिपुरस्सरैहिकाध्यात्मिकादिविविधतापपापापनोदार्थं दशाश्वमेधयज्ञजन्यसम्यगिष्टराजसूययज्ञसहस्रपुण्यसमपुण्यचन्द्रसूर्यग्रहणकालिकबहुब्राह्मणसम्प्रदानकसर्वसस्यपूर्णसर्वरत्नोपशोभितमहींदानपुण्यप्राप्तये श्रीगोविन्दचरणारविन्दयुगले निरन्तरमुत्तरोत्तरमेधमाननिस्सीमप्रेमोपलब्धये तदीयपरमानन्दमयोलोकधाम्नि नित्यनिवासपुर्वकतत्परिचर्यारसास्वादनसौभाग्यसिद्धये च अमुकगोत्रामुकप्रवरामुकशर्मब्राह्मणवदनारविन्दाच्छ्रीकृष्णवाङ्मयमूर्तीभूतं श्रीमद्भागवतमष्टादशपुराणप्रकृतिभूतमनेक श्रोतृश्रवणपूर्वकममुकदिनादारभ्यामुकदिनपर्यन्तं सप्ताह यज्ञरूपतया श्रोष्यामि प्राप्स्यमानेऽस्मिन् सप्ताहयज्ञे विघ्नपूगनिवारणपूर्वकं यज्ञरक्षाकरणार्थं गणपतिब्रह्मादिसहितनवग्रहषोडशमातृकासप्तचिरजीविपुरुषसर्वतोभद्रमण्डलस्थदेवकलशाद्यर्चनपुरस्सरं श्रीलक्ष्मीनारायणप्रतिमाशालग्रामनरनारायणगुरुवायुसरस्वतीशेषसनत्कुमारसांख्यायनपराशरबृहस्पतिमैत्रेयोद्धवत्रय्यारुणिकश्यपरामशिष्याकृतव्रणवैशम्पायनहारीतनारदपूजनमाधारपीठपुस्तकव्यासपूजनं च यथालब्धोपचारैः करिष्ये । सङ्कल्प के पश्चात् पूर्वोक्त देवताओं के चित्रपट में अथवा अक्षत-पुंज पर उनका आवाहन-स्थापन करके वैदिक-पूजा-पद्धति के अनुसार उन सबकी पूजा करनी चाहिये । सप्तचिरजीवि पुरुषों तथा सनत्कुमार आदि का पूजन नाम-मन्त्र द्वारा करना चाहिये । कथामण्डप में चारों दिशाओं या कोणों में एक-एक कलश और मध्यभाग में एक कलश—इस प्रकार पाँच कलश स्थापित करने चाहिये । चारों ओर के चार कलशों में से पूर्व के कलश पर ऋग्वेद की, दक्षिण कलश पर यजुर्वेद की, पश्चिम कलश पर सामवेद की और उत्तर कलश पर अथर्ववेद की स्थापना एवं पूजा करनी चाहिये । कोई-कोई मध्य में सर्वतोभद्र-मण्डल के मध्यभाग में एक ही ताम्र-कलश स्थापित करके उसीके चारों दिशाओं में सर्वतोभद्र-मण्डल की चौकी के चारों ओर चारों वेदों को स्थापना का विधान करते हैं । इसी कलश के ऊपर भगवान् लक्ष्मी-नारायण की सुवर्णमयी प्रतिमा स्थापित करे और षोडशोपचार-विधि से उसकी पूजा करे । देवपूजा का क्रम प्रारम्भ से इस प्रकार रखना चाहिये — पहले रक्षादीप प्रज्वलित करे । एक पात्र में घी भरकर रूई की फूलबत्ती जलाये और उसे सुरक्षित स्थान पर अक्षत के ऊपर स्थापित कर दे । वह वायु आदि के झोंके से बुझ न जाय, इसकी सावधानी के साथ व्यवस्था करे । फिर स्वस्तिवाचनपूर्वक मङ्गलपाठ एवं सर्वदेव-नमस्कार करके पूर्वोक्त महासङ्कल्प पढ़े । उसके बाद एक पात्र में चावल भरकर उसपर मोली में लपेटी हुई एक सुपारी रख दे और उसमें गणेशजी का आवाहन करे — ॐ भूर्भुवः स्वः गणपते इहागच्छ इह तिष्ठ मम पूजां गृहाण ।’ इस प्रकार आवाहन करके ‘गणानां त्वा०’ इत्यादि मन्त्रों को पढ़े । फिर ‘गजाननं भूत०’ इत्यादि श्लोकों को पढ़ते हुए तद्नुरूप ध्यान करे । ‘ॐ मनो जूतिः०’ इत्यादि मन्त्र से प्रतिष्ठा करके विभिन्न उपचार-समर्पण सम्बन्धी मन्त्र पढ़ते हुए अथवा ‘श्रीगणपतये नमः’ इस मन्त्र का उच्चारण करते हुए गणेशजी को क्रमशः पाद्य, अर्घ्य, आचमनीय, स्नानीय, पुनराचमनीय, पञ्चामृत-स्नान, शुद्धोदकस्नान, वस्त्र, रक्षासूत्र, यज्ञोपवीत, चन्दन, रोली, सिन्दूर, अबीर-गुलाल, अक्षत, फूल, माला, दूर्वादल, आभूषण, सुगन्ध (इत्रका फाहा), धूप, दीप, नैवेद्य (मिष्टान्न एवं गुड़, मेवा आदि) तथा ऋतुफल अर्पण करे । गङ्गाजल से आचमन कराकर मुखशुद्धि के लिये सुपारी, लवंग, इलायची और कपूर सहित ताम्बूल अर्पण करे । अन्त में दक्षिणा-द्रव्य एवं विशेषार्घ्य, प्रदक्षिणा एवं साष्टाङ्ग प्रणाम निवेदन करके प्रार्थना करे — ॐ लम्बोदरं परमसुन्दरमेकदन्तं रक्ताम्बरं त्रिनयनं परमं पवित्रम् । उद्यद्दिवाकरकरोज्ज्वलकायकान्तं विघ्नेश्वरं सकलविघ्नहरं नमामि ।। त्वां देव विघ्नदलनेति च सुन्दरेति भक्तप्रियेति सुखदेति फलप्रदेति । विद्याप्रदेत्यघहरेति च ये स्तुवन्ति तेभ्यो गणेश वरदो भव नित्यमेव ।। — ‘अनया पूजया गणपतिः प्रीयतां न मम ।’ यों कहकर गणेशजी को पुष्पाञ्जलि दे । इसके बाद ‘ॐ भूर्भुवः स्वः भो ब्रह्मविष्णुशिवसहितसूर्यादिनवग्रहा इहागच्छतेह तिष्ठत मम पूजां गृह्णीत’ इस प्रकार या वैदिक मन्त्रों के उच्चारणपूर्वक ब्रह्मादिसहित नवग्रहों का आवाहन करे । फिर पूर्ववत् उपचार मन्त्रों से अथवा ॐ ब्रह्मणे नमः, ॐ विष्णवे नमः, ॐ शिवाय नमः, ॐ सूर्याय नमः, ॐ चन्द्रमसे नमः, ॐ भौमाय नमः, ॐ बुधाय नमः, ॐ बृहस्पतये नमः, ॐ भार्गवाय नमः, ॐ शनैश्चराय नमः, ॐ राहवे नमः, ॐ केतवे नमः — इन नाम-मन्त्रों से पाद्य, अर्घ्य आदि सब उपचार समर्पण करके निम्नाङ्कित मन्त्र पढ़कर प्रार्थना करे — ॐ ब्रह्मा मुरारिस्त्रिपुरान्तकारी भानुः शशी भूमिसुतो बुधश्च । गुरुश्च शुक्रः शनिराहुकेतवः सर्वे ग्रहाः शान्तिकरा भवन्तु ।। — ‘अनया पूजया ब्रह्मविष्णुशिवसहितसूर्यादिनवग्रहाः प्रीयन्तां न मम ।’ यों कहकर पुष्पाञ्जलि चढ़ाये । तत्पश्चात् ‘ॐ भूर्भुवः स्वः भो गौर्यादिषोडशमातर इहागच्छत मम पूजां गृह्णीत’ इस प्रकार आवाहन करके नाम-मन्त्रों द्वारा पाद्य-अर्घ्य आदि निवेदन करे — १ ॐ गौर्यै नमः । २ ॐ पद्मायै नमः । ३ ॐ शच्यै नमः। ४ ॐ मेधायै नमः । ५ ॐ सावित्र्यै नमः। ६ ॐ विजयायै नमः । ७ ॐ जयायै नमः । ८ ॐ देवसेनायै नमः । ९ ॐ स्वधायै नमः । १० ॐ स्वाहायै नमः । ११ ॐ मातृभ्यो नमः । १२ ॐ लोकमातृभ्यो नमः । १३ ॐ हृष्ट्यै नमः । १४ ॐ पुष्ट्यै नमः । १५ ॐ तुष्ट्ये नमः । १६ ॐ आत्मकुलदेवतायै नमः ।। पूजन के पश्चात् प्रार्थना करे गौरी पद्मा शची मेधा सावित्री विजया जया । देवसेना स्वधा स्वाहा मातरो लोकमातरः ।। हृष्टिः पुष्टिस्तथा तुष्टिरात्मनः कुलदेवता । इत्येता मातरः सर्वा वृद्धिं कुर्वन्तु मे सदा ।। — ‘अनया पूजया गौर्यादिषोडशमातरः प्रीयन्तां न मम ।’ इस प्रकार समर्पणपुर्वक पुष्पाञ्जलि निवेदन करे । तदनन्तर ‘भो अश्वत्थामादिसप्तचिरजीविन इहागत्य मम पूजां गृह्णीत’ इस प्रकार आवाहन करके पूर्ववत् नाममन्त्र से पूजा करे — १ ॐ अश्वत्थाम्ने नमः । २ ॐ बलये नमः । ३ ॐ व्यासाय नमः । ४ ॐ हनुमते नमः । ५ ॐ विभीषणाय नमः । ६ ॐ कृपाय नमः । ७ ॐ परशुरामाय नमः । पूजा के पश्चात् हाथ में फूल लेकर निम्नाङ्कित रूप से प्रार्थना करे अश्वत्थामा बलिर्व्यासो हनूमांश्च विभीषणः । कृपः परशुरामश्च सप्तैते चिरजीविनः ।। यजमानगृहे नित्यं सुखदाः सिद्धिदाः सदा ।। — ‘अनया पूजया अश्वत्थामादिसप्तचिरजीविनः प्रीयन्तां न मम ।’ यह कहकर फूल चढ़ा दे । इसके अनन्तर सर्वतोभद्र-मण्डलस्थ देवताओं का आवाहन-पूजन (देवपूजापद्धतियोंके अनुसार) करके मध्य में ताम्र-कलश स्थापित करे । उसकी संक्षिप्त विधि यह है— ‘ॐ भूरसिः० ‘ इत्यादि मन्त्र से भूमि की प्रार्थना करके हाथ से (कलशके नीचेकी) भूमि का स्पर्श करे । उस समय ‘ॐ मही द्यौः पृथ्वी च न इमं यज्ञं मिमिक्षताम् । पितृतान्नो वरीमभिः ।।’ इस मन्त्र को पढ़ना चाहिये । उसी भूमि पर कुङ्कम आदि से अष्टदल कमल बनाकर उसके ऊपर ‘ॐ धान्यमसि०’ इत्यादि मन्त्र से सप्तधान्य स्थापित करे । फिर उस सप्तधान्या पर कलश स्थापित करे, उस समय ‘ॐ आजिघ्र कलश०’ इत्यादि मन्त्र का उच्चारण करना चाहिये । इसके बाद ‘ॐ वरुणस्योत्तम्भनमसि०’ इत्यादि मन्त्र पढ़ते हुए कलश को शुद्ध जल से भर दे । तत्पश्चात् ‘ॐ स्थिरो भवः०’ इत्यादि मन्त्र पढ़कर कलश को ऐसा सुस्थिर कर दे, जिससे वह हिलने-डुलने या गिरने लायक न रह जाय । फिर उस कलश के पूर्व भाग में ‘ॐ अग्निमीळे०’ इत्यादि मन्त्र से ऋग्वेद का, दक्षिण भाग में ‘ॐ इषे त्वोर्जत्वा०’ इत्यादि मन्त्र से यजुर्वेद का, पश्चिम भाग में ‘ॐ अग्न आयाहि वीतये०‘ इत्यादि मन्त्र से सामवेद का तथा ‘ॐ शन्नो देवी०’ इत्यादि मन्त्र से उत्तर भाग में अथर्ववेद का स्थापन करे । पाँच कलश हो तो पृथक्-पृथक् कलशों पर वेदों की स्थापना करनी चाहिये । इसके अनन्तर आम, बड़, पीपल, पाकर और गूलर के पल्लवों को कलश में डाले और ‘ॐ अश्वत्थे०’ इत्यादि मन्त्र का पाठ करे । फिर ‘ॐ काण्डात्काण्डात् प्ररोहन्ती० ‘ इत्यादि मन्त्र से कलश में दूर्वादल छोड़े, ‘ॐ पवित्रे स्थो०’ इत्यादि मन्त्र से कुशा, ‘ॐ याः फलिनी०’ इत्यादि मन्त्र से पूगीफल, ‘ॐ हिरण्यगर्भः०’ इत्यादि मन्त्र से सोने की टिकड़ी, ‘ॐ परिवाजपतिः०’ से पञ्चरत्न, ॐ या ओषधीः०’ इत्यादि से सर्वौषधी, ‘ॐ गन्धद्वारां०’ इत्यादि से गन्ध और ‘ॐ अक्षन्नमीमदन्त०’ इत्यादि से अक्षत को कलश में छोड़े । तदनन्तर ‘ॐ श्रीश्च ते लक्ष्मीश्च०’ इत्यादि से फूल छोड़े । ‘ॐ धूरसि०’ इत्यादि से धूप की आहुति अग्नि में छोड़े । ‘ॐ अग्निर्ज्योति०’ इत्यादि मन्त्र से अलग दीप जलाकर रख दे । उसके बाद कलश में तीर्थोदक डाले और ‘ॐ पञ्चनद्यः०’ इत्यादि मन्त्र को पढ़े । फिर ‘ॐ उपह्वरे०’ इत्यादि मन्त्र से नदी-संगम का जल डाले । तत्पश्चात् ‘ॐ समुद्राय त्वा०’ इत्यादि मन्त्र से समुद्र का जल कलश में डाले । फिर ‘ॐ स्योना पृथिवि०‘ इत्यादि से सप्तमृत्तिका डालकर ‘ॐ वसोः पवित्रमसि०‘ इत्यादि मन्त्र को पढ़ते हुए लाल वस्त्र से कलश को आच्छादित करे । तदनन्तर ‘ॐ पूर्णादर्वि०’ इत्यादि मन्त्र से एक पूर्णपात्र (चावलसे भरा हुआ काँसी या ताँबेका पात्र) कलश के ऊपर रखे । इसके बाद ‘ॐ श्रीश्च ते०’ इत्यादि मन्त्र उस पूर्णपात्रपर लाल कपड़े में लपेटा हुआ श्रीफल (गरीका गोला या नारियल) रखे । फिर हाथ में अक्षत ले ‘ॐ मनो जूतिः०‘ इत्यादि मन्त्र पढ़ते हुए कलश पर अक्षत छोड़े और इस प्रकार कलश की प्रतिष्ठा सम्पन्न करे । तदनन्तर ‘सर्वे समुद्राः सरितः०’ इत्यादि श्लोकों का पाठ करते हुए कलश में तीर्थों का आवाहन करे । फिर गन्ध आदि उपचारों से तीर्थों का पूजन करके कलश की प्रार्थना करे । देवदानवसंवादे मथ्यमाने जलार्णवे । उत्पन्नोऽसि तदा कुम्भ विधृतो विष्णुना स्वयम् ।। त्वत्तोये सर्वतीर्थानि देवाः सर्वे त्वयि स्थिताः । त्वयि तिष्ठन्ति भूतानि त्वयि प्राणाः प्रतिष्ठिताः ।। शिवः स्वयं त्वमेवासि विष्णुस्त्वं च प्रजापतिः । आदित्या वसवो रुद्रा विश्वेदेवाः सपैतृकाः ।। त्वयि तिष्ठन्ति सर्वेऽपि यतः कामफलप्रदाः ।। त्वत्प्रसादादिमं यज्ञं कर्तुमीहे जलोद्भव ।। सान्निध्यं कुरु मे देव प्रसन्नो भव सर्वदा । ब्रह्मणैर्निर्मितस्त्वं हि मन्त्रैरेवामृतोद्भवैः ।। प्रार्थयामि च कुम्भ त्वां वाञ्छितार्थं ददस्व में । पुरा हि सृष्टश्च पितामहेन महोत्सवानां प्रथमो वरिष्ठः । दूर्वाग्रसाश्वत्थसुपल्लवैर्युक् करोतु शान्तिं कलशः सुवासाः ।। इस प्रार्थना के अनन्तर कलश में ‘ॐ गणानां त्वा०’ इत्यादि से गणेश का तथा ‘ॐ तत्त्वायामि०’ इत्यादि मन्त्र से वरुणदेवता का आवाहन करके इनका षोडशोपचार से पूजन करे । पाद्य, अर्घ्य, आचमनीय, स्नान, वस्त्र, यज्ञोपवीत, गन्ध, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, ताम्बूल, दक्षिणा, प्रदक्षिणा और पुष्पाञ्जलि-ये ही षोडश उपचार कहे गये हैं । पूजन के पश्चात् ‘अनया पूजया वरुणाद्यावाहितदेवताः प्रीयन्ताम्’ कहकर फूल छोड़ दे । तदनन्तर कलश के ऊपर सुवर्णमयी लक्ष्मीनारायणप्रतिमा का संस्कार करके स्थापित करे । पुरुषसूक्त के षोड्श मन्त्रों से षोडश-उपचार चढ़ाकर पूजन करे । साथ ही शालग्रामजी की भी पूजा करे । (षोडशोपचारपूजनविधि) पूजा के पश्चात् इस प्रकार भगवान् से प्रार्थना करे — ब्रह्मसत्रं करिष्यामि तवानुग्रहतो विभो । तन्निर्विघ्नं भवेद्देव रमानाथ क्षमस्व मे ।। — ‘अनया पूजया लक्ष्मीसहितो भगवान्नारायणः प्रीयतां न मम ।’ यों कहकर पुष्पाञ्जलि चढ़ाये । ऐसा ही सर्वत्र करे इसके बाद ‘ॐ नरनारायणाभ्यां नमः’ इस मन्त्र से भगवान् नर-नारायण का आवाहन और पूजन करके इस प्रकार प्रार्थना करे — यो मायया विरचितं निजमात्मनीदं खे रूपभेदमिव तत्प्रतिचक्षणाय । एतेन धर्मसदने ऋषिमूर्तिनाद्य प्रादुश्चकार पुरुषाय नमः परस्मै ।। सोऽयं स्थितिव्यतिकरोपशमाय सृष्टान् सत्त्वेन नः सुरगणाननुमेयतत्त्वः । दृश्याददभ्रकरुणेन विलोकनेन यच्छ्रीनिकेतममलं क्षिपतारविन्दम् ।। — ‘अनया पूजया भगवन्तौ नरनारायणौ प्रीयेतां न मम ।’ तत्पश्चात् वक्ता और श्रोताओं के सब विकारों को दूर करने के लिये वायुदेवता का आवाहन एवं पूजन करे — ‘ॐ वायवे सर्वकल्याणकत्रे नमः।’ इस मन्त्र से पाद् आदि निवेदन करके निम्नाङ्कित रूप से प्रार्थना करे — अन्तः प्रविश्य भूतानि यो विभर्त्यात्मकेतुभिः । अन्तर्यामीश्वरः साक्षात् पातु नो यद्वशे स्फुटम् ।। — ‘अनया पूजया सर्वकल्याणकर्ता वायुः प्रीयतां न मम ।’ वायु की पूजा के पश्चात् गुरु का ‘ॐ गुरवे नमः । इस मन्त्र से पूजन करके प्रार्थना करे — ब्रह्मस्थानसरोजमध्यविलसच्छीतांशुपीठस्थितं स्फूर्जत्सूर्यरुचिं वराभयकरं कर्पूरकुन्दोज्ज्वलम् । श्वेतस्रग्वसनानुलेपनयुतं विद्युद्रुचा कान्तया संश्लिष्टार्धतनुं प्रसन्नवदनं वन्दे गुरुं सादरम् ।। — ‘अनया पूजया गुरुदेवः प्रीयतां न मम ।’ तदनन्तर श्वेतपुष्प आदि से ‘सरस्वत्यै नमः ।’ इस मन्त्र द्वारा सरस्वती का पूर्ववत् पूजन करके प्रार्थना करे — या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना । या ब्रह्माच्युतशङ्करप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा ।। — ‘अनया पूजया भगवती सरस्वती प्रीयतां न मम ।’ सरस्वतीपूजन के पश्चात् ‘ॐ शेषाय नमः’, ‘ॐ सनत्कुमाराय नमः’, ‘ॐ सांख्यायनाय नमः, ॐ पराशराय नम:’, ‘ॐ बृहस्पतये नमः’ ‘ॐ मैत्रेयाय नमः,’ ‘ॐ उद्धवाय नम:’—इन मन्त्रों से शेष आदि की पूजा करके प्रार्थना करे — शेषः सनत्कुमारश्च सारख्यायनपराशरौ । बृहस्पतिश्च मैत्रेय उद्धवश्चात्र कर्मणि ।। प्रत्यूहवृन्दं सततं हरन्तां पूजिता मया । — ‘अनया पूजया शेषसनत्कुमारसांख्यायनपराशरबृहस्पतिमैत्रेयोद्धवाः प्रीयन्तां न मम ।’ इसके बाद ‘ॐ त्रय्यारुणये नमः’, ‘ॐ कश्यपाय नमः,’ ‘ॐ रामशिष्याय नमः, ॐ अकृतव्रणाय नमः, ‘ॐ वैशम्पायनाय नमः’, ‘ॐ हारीताय नमः — इन मन्त्रों से त्रय्यारुणि आदि छ: पौराणिक की पूर्ववत् पूजा करके प्रार्थना करे— त्रय्यारुणिः कश्यपश्च रामशिष्योऽकृतव्रणः । वैशम्पायनहारीतौ षड् वै पौराणिका इमे ।। सुखदाः सन्तु मे नित्यमनया पूजयार्चिताः । — ‘अनया पूजया त्रय्यारुणिप्रभृतयः षट् पौराणिकाः प्रीयन्तां न मम ।’ तत्पश्चात् ‘ॐ भगवते व्यासाय नम:’ इस मन्त्र से भगवान् व्यासदेव की स्थापना और पूजा करके इस प्रकार प्रार्थना करे — नमस्तस्मै भगवते व्यासायामिततेजसे । पपुर्ज्ञानमयं सौम्या यन्मुखाम्बुरुहासवम् ।। — अनया पूजया भगवान् व्यासः प्रीयतां न मम ।’ इसके बाद सप्ताहयज्ञके उपदेशक भगवान् सूर्य की स्थापना करके प्रतिदिन उनकी भी पूजा करे। उनकी पूजा का मन्त्र ‘ॐ सूर्याय नमः’ हैं । पूजनके पश्चात् इस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिये — लोकेश त्वं जगच्चक्षुः सत्कर्म तव भाषितम् । करोमि तच्च निर्विघ्नं पूर्णमस्तु त्वदर्चनात् ।। — ‘अनया पूजया सप्ताहयज्ञोपदेष्टा भगवान् सूर्यः प्रीवतां न मम ।’ इसके बाद दशावतारों की तथा शुकदेवजी की भी यथास्थान स्थापना करके पूजा करनी चाहिये । तदनन्तर नारदपीठ और पुस्तकपीठ दोनों की एक ही साथ पूजा करे । पहले उन दोनों पीठों का जल से अभिषेक करके उनपर चन्दनादि से अष्टदल कमल बनावे । फिर ‘ॐ आधारशक्तये नमः’, ‘ॐ मूलप्रकृतये नमः’, ‘ॐ क्षीरसमुद्राय नमः’, ‘ॐ श्वेतद्वीपाय नमः, ॐ कल्पवृक्षाय नमः, ॐ रत्नमण्डपाय नमः, ॐ रत्नसिंहासनाय नमः’ — इन मन्त्रों से दोनों पीठों में आधारशक्ति आदि की भावना करके पूजा करे । फिर चारों दिशाओं में पूर्वादि के क्रम से ‘ॐ धर्माय नमः’, ‘ॐ ज्ञानाय नमः’, ‘ॐ वैराग्याय नमः’, ‘ॐ ऐश्वर्याय नमः’ — इन मन्त्रों द्वारा धर्मादि की भावना एवं पूजा करे । फिर पीठों के मध्यभाग में ‘ॐ अनन्ताय नमः’ से अनन्त की और ‘ॐ महापद्माय नम:’ से महापद्म की पूजा करे । फिर यह चिन्तन करे — उस महापद्म का कन्द (मूलभाग) आनन्दमय है । उसकी नाल संवित्स्वरूप है, उसके दल प्रकृतिमय हैं, उसके केसर विकृतिरूप हैं, उसके बीज पञ्चाशत् वर्णस्वरूप हैं और उन्हीं से उस महापद्म की कर्णिका (गद्दी) विभूषित है । उस कर्णिका मे अर्कमण्डल, सोममण्डल और वह्निमण्डल की स्थिति है । वहीं प्रबोधात्मक सत्व, रज एवं तम भी विराजमान हैं । ऐसी भावना के पश्चात् उन सबकी पञ्चोपचार पूजा करे । मन्त्र इस प्रकार हैं — ‘ॐ आनन्दमयकन्दाय नमः, ॐ संविन्नालाय नमः’, ‘ॐ प्रकृतिमयपत्रेभ्यो नमः, ॐ विकृतिमयकेसरेभ्यो नमः, ॐ पञ्चाशद्वर्णबीजभूषितायै कर्णिकायै नमः’, ‘ॐ अं अर्कमण्डलाय नमः, ॐ सं सोममण्डलाय नमः, ॐ वं वह्निमण्डलाय नमः’, ‘ॐ सं प्रबोधात्मने सत्त्वाय नमः’, ‘ॐ रं रजसे नमः’, ‘ॐ तं तमसे नमः’ । इन सबकी पूजा के पश्चात् कमल के सब ओर पूर्वाद आठों दिशाओं में क्रमशः — ‘ॐ विमलायै नमः, ॐ उत्कर्षिण्यै नमः’, ‘ॐ ज्ञानायै नमः’, ‘ॐ क्रियायै नमः’, ‘ॐ योगायै नमः’, ‘ॐ प्रह्लयै नमः’, ‘ॐ सत्यायै नमः’, ‘ॐ ईशानाये नमः’ — इन मन्त्रों द्वारा विमला आदि आठ शक्तियों की पूजा करे और कमल के मध्यभाग में — ‘ॐ अनुग्रहायै नमः’ से अनुग्रह नाम की शक्ति की पूजा करे । तदनन्तर “ॐ नमो भगवते विष्णवे सर्वभूतात्मने वासुदेवाय । पद्मपीठात्मने नमः’ इस मन्त्र से सम्पूर्ण पद्मपीठ का पुजन करके उसपर सुन्दर वस्त्र डाल दे और उसके ऊपर स्थापित करने के लिये श्रीमद्भागवत की पुस्तक को हाथ में लेकर ‘ॐ ध्रुवा द्योर्ध्रुवा पृथिवी ध्रुवा सा पर्वता इमे । ध्रुवं विश्वमिदं जगद् ध्रुवो राजा विशामसि ।।’ इस मन्त्र को पढ़ते हुए उक्त पीठ पर स्थापित करें दें । फिर ‘ॐ मनो जूतिः० ‘ इस मन्त्र से पुस्तक की प्रतिष्ठा करके पुरुषसूक्त के षोडश मन्त्रों द्वारा षोडशोपचार-विधि से पूजा करे । (यह विधि पहले ‘श्रीमद्भागवतकी पूजन-विधि’ शीर्षक लेखमें दो गयी है ।) तत्पश्चात् द्वितीय पीठ को श्वेत वस्त्र से आच्छादित करके उस पर देवर्षि नारद को स्थापित करे और ‘ॐ सुरर्षिवरनारदाय नमः’ इस मन्त्र से उनकी विधिवत् पूजा करके निम्नाङ्कित रूप से प्रार्थना करे — ॐ नमस्तुभ्यं भगवते ज्ञानवैराग्यशालिने । नारदाय सर्वलोकपूजिताय सुरर्षये ।। — ‘अनया पूजया देवर्षिनारदः प्रीयतां न मम ।’ इस प्रकार पूजन के पश्चात् यजमान पुष्प, चन्दन, ताम्बूल, वस्त्र, दक्षिणा, सुपारी तथा रक्षासूत्र हाथ में लेकर ‘ॐ अद्यामुकगोत्रममुकप्रवरममुकशर्माणं ब्राह्मणमेभिर्वरणद्रव्यैः सर्वेष्टदश्रीमद्भागवतवक्तृत्वेन भवन्तमहं वृणे — इस प्रकार कहते हुए कथावाचक आचार्य का वरण करे । हाथ में ली हुई सब सामग्री उनको दे दे । वह सब लेकर कथावाचक व्यास ‘वृतोऽस्मि’ यों कहें । इसके बाद पुनः उन्हीं सब सामग्रियों को हाथ में लेकर जप और पाठ करनेवाले ब्राह्मणों का वरण करे । इसके लिये सङ्कल्प-वाक्य इस प्रकार हैं — ‘अद्याहममुकगोत्रानमुकप्रवरानमुकशर्मणो यथासंख्याकान् ब्राह्मणानेभिर्वरणद्रव्यैर्गाथाविघ्नापनोदार्थं गणेशगायत्रीवासुदेवमन्त्रजपकर्तृत्वेन गीताविष्णुसहस्रनामपाठकर्तृत्वेन च वो विभज्य वृणे ।’ इस प्रकार सङ्कल्प करके प्रत्येक ब्राह्मण को वरण-सामग्री अर्पित करे । सामग्री लेकर वे ब्राह्मण कहें ‘वृताः स्मः’। इसके बाद पहले कथावाचक आचार्य हाथ में दिये हुए रक्षासूत्र को लेकर उन्हीं के हाथ में बाँध दे । उस समय आचार्य निम्नाङ्कित मन्त्र का पाठ करें — ‘व्रतेन दीक्षामाप्नोति दीक्षयाऽऽप्नोति दक्षिणाम् । दक्षिणा श्रद्धामाप्नोति श्रद्धया सत्यसाप्यते ।।’ रक्षा बाँधने के अनन्तर यजमान उनके ललाट में कुङ्कम (रोली) और अक्षत से तिलक करे । इसी प्रकार जपकर्ता ब्राह्मणों के हाथों में भी रक्षा बाँधकर तिलक करे । तदनन्तर पीले अक्षत लेकर यजमान चारों दिशाओं में रक्षा के लिये बिखेरे । उस समय निम्नाङ्कित मन्त्रों का पाठ भी करे — पूर्वे नारायणः पातु वारिजाक्षश्च दक्षिणे । पश्चिमे पातु गोविन्द उत्तरे मधुसूदनः ।। ऐशान्यां वामनः पातु चाग्नेय्यां च जर्नादनः । नैर्ऋत्यां पद्मनाभश्च वायव्यां माधवस्तथा ।। ऊर्ध्वं गोवर्धनधरो ह्यधस्ताच्च त्रिविक्रमः । रक्षाहीनं तु यत्स्थानं तत्सर्व रक्षतां हरिः ।। इसके बाद वक्ता आचार्य यजमान के हाथ में — येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबलः । तेन त्वां प्रतिबध्नामि रक्षे मा चल मा चल ।। इस मन्त्र को पढ़कर रक्षा बाँधे और — आदित्या वसवो रुद्रा विश्वेदेवा मरुद्गणाः । तिलकं ते प्रयच्छन्तु धर्मकामार्थसिद्धये ।। — इस मन्त्र से उसके ललाट मे तिलक कर दे । फिर यजमान व्यासासन को चन्दन-पुष्य आदि से पूजा करे । पूजन का मन्त्र इस प्रकार है —’ॐ व्यासासनाय नमः।’ तदनन्तर कथावाचक आचार्य ब्राह्मणों और वृद्ध पुरुषों की आज्ञा लेकर विप्रवर्ग को नमस्कार और गुरुचरणों का ध्यान करके व्यासासन पर बैठे । मन-ही-मन गणेश और नारदादि का स्मरण एवं पूजन करें । इसके बाद यजमान ‘ॐ नमः पुराणपुरुषोत्तमाय’ इस मन्त्र से पुनः पुस्तक की गन्ध, पुष्प, तुलसीदल एवं दक्षिणा आदि के द्वारा पूजा करे । फिर गन्ध, पुष्प आदि से वक्ता का पूजन करते हुए निम्नाङ्कित श्लोक का पाठ करे — जयति पराशरसूनुः सत्यवतीहृदयनन्दनो व्यासः । यस्यास्यकमलगलितं वाङ्यममृतं जगत्पिबति ।। तत्पश्चात् नीचे लिखे हुए श्लोकों को पढ़कर प्रार्थना करे — शुकरूप प्रबोधज्ञ सर्वशास्त्रविशारद । एतत्कथाप्रकाशेन मदज्ञानं विनाशय ।। संसारसागरे मग्नं दीनं मां करुणानिधे । कर्मग्राहगृहीताङ्गं मामुद्धर भवार्णवात् ।। इस प्रकार प्रार्थना करने के पश्चात् निम्नाङ्कित श्लोक पढ़कर श्रीमद्भागवत पर पुष्प, चन्दन और नारियल आदि चढ़ाये — श्रीमद्भागवताख्योऽयं प्रत्यक्षः कृष्ण एव हि । स्वीकृतोऽसि मया नाथ मुक्त्यर्थं भवसागरे ।। मनोरथो मदीयोऽयं सफलः सर्वथा त्वया । निर्विघ्नेनैव कर्तव्यो दासोऽहं तव केशव ।। कथा-मण्डप में वायुरूपधारी आतिवाहिक शरीरवाले जीवविशेष के लिये एक सात गाँठ के बाँस को भी स्थापित कर देना चाहिये । तत्पश्चात् वक्ता भगवान् का स्मरण करके उस दिन श्रीमद्भागवतमाहात्म्य की कथा सब श्रोताओं को सुनाये और दूसरे दिन से प्रतिदिन देवपूजा, पुस्तक तथा व्यास की पूजा एवं आरती हो जाने के पश्चात् वक्ता कथा प्रारम्भ करे । सन्ध्या को कथा की समाप्ति होनेपर भी नित्यप्रति पुस्तक तथा वक्ता की पूजा तथा आरती, प्रसाद एवं तुलसीदल का वितरण, भगवन्नामकीर्तन एवं शङ्खध्वनि करनी चाहिये । कथा के प्रारम्भ में और बीच-बीच में भी जब कथा का विराम हो तो समयानुसार भगवन्नामकीर्तन करना चाहिये । वक्ता को चाहिये कि प्रतिदिन पाठ प्रारम्भ करनेसे पूर्व एक सौ आठ बार ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ इस द्वादशाक्षर-मन्त्र का अथवा ‘ॐ क्लीं कृष्णाय गोविन्दाय गोपीजनवल्लभाय स्वाहा’ इस गोपाल-मन्त्र का जप करे । इसके बाद निम्नाङ्कित वाक्य पढ़कर विनियोग करें — ॐ अस्य श्रीमद्भागवताख्यस्तोत्रमन्त्रस्य नारदऋषिः बृहतीछन्दः श्रीकृष्णपरमात्मा देवता ब्रह्मबीजं भक्तिः शक्तिः ज्ञानवैराग्यकीलकं मम श्रीमद्भगवत्प्रसादसिद्ध्यर्थे पाठे विनियोगः । विनियोग के पश्चात् निम्नाङ्कित रूप से न्यास करें — ऋष्यादिन्यासः— नारदर्षये नमः शिरसि । बृहतीछन्दसे नमः मुखे । श्रीकृष्णपरमात्मदेवतायै नमः हृदि । ब्रह्मबीजाय नमः गुह्ये । भक्तिशक्तये नमः पादयोः । ज्ञानवैराग्यकीलकाभ्यां नम: नाभौ । श्रीमद्भगवत्प्रसादसिद्धयर्थकपाठविनियोगाय नमः सर्वाङ्गे । द्वादशाक्षर-मन्त्र से करन्यास और अङ्गन्यास करना चाहिये अथवा नीचे लिखे अनुसार उसका सम्पादन करना चाहिये — करन्यासः— ॐ क्लां अङ्गुष्ठाभ्यां नमः । ॐ क्लीं तर्जनीभ्यां नमः । ॐ क्लूं मध्यमाभ्यां नमः । ॐ क्लैं अनामिकाभ्यां नमः । ॐ क्लौं कनिष्ठिकाभ्यां नमः । ॐ क्लः करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः । अङ्गन्यासः— ॐ क्लां हृदयाय नमः । ॐ क्ली शिरसे स्वाहा । ॐ क्लूं शिखायै वषट् । ॐ क्लैं कवचाय हुम् । ॐ क्लौं नेत्रत्रयाय वौषट् । ॐ क्लः अस्त्राय फट् । इसके बाद निम्नाङ्कित रूप से ध्यान करे — कस्तूरीतिलक ललाटपटले वक्षःस्थले कौस्तुभं नासाग्रे वरमौक्तिकं करतले वेणुः करे कङ्कणम् । सर्वाङ्ग हरिचन्दनं सुललितं कण्ठे च मुक्तावली गोपस्त्रीपरिवेष्टितो विजयते गोपालचूडामणिः ।। अस्ति स्वस्तरुणीकराग्रविगलत्कल्पप्रसूनाप्लुतं वस्तु प्रस्तुतवेणुनादलहरीनिर्वाणनिर्व्याकुलम् । स्रस्तस्रस्तनिबद्धनीविविलसद्गोपीसहस्रावृतं हस्तन्यस्तनतापवर्गमखिलोदारं किशोराकृतिः ।। इस प्रकार ध्यान के पश्चात् कथा प्रारम्भ करनी चाहिये । सूर्योदय से आरम्भ करके प्रतिदिन साढ़े तीन प्रहर तक कथा बाँचनी चाहिये । मध्याह्न में दो घड़ी कथा बंद रखनी चाहिये । प्रातःकाल से मध्याह्न तक मूल का पाठ होना चाहिये और मध्याह्न से सन्ध्या तक उसका संक्षिप्त भावार्थ अपनी भाषा में कहना चाहिये । मध्याह्न में विश्राम के समय तथा रात्रि के समय भगवन्नाम-कीर्तन की व्यवस्था होनी चाहिये । श्रोताओं के स्थान — वक्ता के सामने श्रोताओं के बैठने के लिये आगे-पीछे सात पंक्तियां बना लेनी चाहिये । पहली पंक्ति का नाम सत्यलोक हैं, इसमें साधु-संन्यासी, विरक्त, वैष्णव आदि को बैठाना चाहिये । दूसरी पंक्ति तपोलोक कहलाती है, इसमें वानप्रस्थ श्रोताओं को बैठाना चाहिये । तीसरी पंक्ति को जनलोक नाम दिया गया है, इसमें ब्रह्मचारी श्रोता बैठाये जाने चाहिये । चौथी पंक्ति महर्लोक कही गयी है, यह ब्राह्मण श्रोताओं का स्थान है । पाँचवीं पंक्ति को स्वर्लोक कहते हैं । इसमें क्षत्रिय श्रोताओं को बैठाना चाहिये । छठी पंक्ति का नाम भुवर्लोक हैं, जो वैश्य श्रोताओं का स्थान है । सातवीं पंक्ति भूर्लोक मानी गयी है, उसमें शूद्रजातीय श्रोताओं को बैठाना चाहिये । स्त्रियाँ वक्ता के वामभाग को भूमि पर कथा सुने । ये स्थान उन लोगों के लिये नियत किये गये हैं, जो प्रतिदिन नियमपूर्वक कथा सुनते हैं । जो श्रोता कथा प्रारम्भ होने पर कुछ समय के लिये अनियमितरूप से आते हैं, उनके लिये वक्ता के दक्षिण भाग में स्थान रहना चाहिये । श्रोताओं के नियम — श्रोता प्रतिदिन एक बार हविष्यान्न भोजन करे । पतित, दुर्जन आदि का सङ्ग तो दूर रहा. उनसे वार्तालाप भी न करें । ब्रह्मचर्यपालन, भूमिशयन (नीचे आसन बिछाकर या तख्तपर सोना) सबके लिये अनिवार्य है । एकाग्रचित्त होकर कथा सुननी चाहिये । जितने दिन कथा सुने–धन, स्त्री, पुत्र, घर एवं लौकिक लाभ की समस्त चिन्ताएँ त्याग दें । मलमूत्र पर काबू रखने के लिये हल्का आहार सुखद होता है । यदि शक्ति हो तो सात दिन तक उपवास करके कथा सुनें । अन्यथा दूध पीकर सुखपूर्वक कथा सुनें । इससे भी काम न चले तो फलाहार या एक समय अन्न-भोजन करें । जिस तरह भी सुखपूर्वक कथा सुनने की सुविधा हो, वैसे कर ले । प्रतिदिन कथा समाप्त होनेपर ही भोजन करना उचित है । दाल, शहद, तेल, गरिष्ठ अन्न, भावदूषित अन्न तथा बासी अन्न का परित्याग करें । काम, क्रोध, मद, मान, ईर्ष्या, लोभ, दम्भ, मोह तथा द्वेष से दूर रहें । वेद, वैष्णव, ब्राह्मण, गुरु, गौ, व्रती, स्त्री, राजा तथा महापुरुषों की कभी भूलकर भी निन्दा न करें । रजस्वला, चाण्डाल, म्लेच्छ, पतित, व्रतहीन, ब्राह्मणद्रोही तथा वेदबहिष्कृत मनुष्यों से वार्तालाप न करें । मन में सत्य, शौच, दया, मौन, सरलता, विनय तथा उदारता को स्थान दें । श्रोताओं को वक्ता से ऊँचे आसनपर कभी नहीं बैठना चाहिये । कुछ विशेष बातें — प्रत्येक स्कन्ध की समाप्ति होने पर चन्दन, पुष्प, नैवेद्य आदि से पुस्तक की पूजा करके आरती उतारनी चाहिये । शुकदेवजी के आगमन तथा श्रीकृष्ण के प्राकट्य का प्रसङ्ग आने पर भी आरती करनी चाहिये । बारहवें स्कन्ध की समाप्ति होनेपर पुस्तक और वक्ता का भक्तिपूर्वक पूजन करना चाहिये । वक्ता गृहस्थ हों तो, उन्हें अपनी शक्ति के अनुसार उदारतापूर्वक वस्त्राभूषण तथा नकद रुपये भेंट देने चाहिये । मृदङ्ग आदि बजाकर जोर-जोर से कीर्तन करना चाहिये । जय-जयकार, नमस्कार और शङ्खनाद करने चाहिये । ब्राह्मणों और याचकों को अन्न एवं धन देना चाहिये । वक्ता के हाथों से श्रोता को प्रसाद एवं तुलसीदल मिलने चाहिये । प्रतिदिन कथा के प्रारम्भ और अन्त में आरती होनी आवश्यक है । कथा का विश्राम प्रतिदिन नियत स्थल पर ही करना चाहिये । प्रथम दिन मनु-कर्दम-संवाद तक । दूसरे दिन भरत-चरित्र तक। तीसरे दिन सातवें-स्कन्ध की समाप्ति तक । चौथे दिन श्रीकृष्ण के प्राकट्य तक । पाँचवें दिन रुक्मिणी-विवाह तक और छठे दिन हंसोपाख्यान तक की कथा बाँचकर, सातवें दिन अवशिष्ट भाग को पूर्ण कर देना चाहिये । स्कन्ध आदि और अन्तिम श्लोक को कई बार उच्च स्वर से पढ़ना चाहिये । कथा-समाप्ति के दूसरे दिन वहाँ स्थापित हुए सम्पूर्ण देवताओं का पूजन करके हवन की वेदी पर पञ्चभूसंस्कार, अग्निस्थापन एवं कुशकण्डिका करे । फिर विधिपूर्वक वृत ब्राह्मणों द्वारा हवन, तर्पण एवं मार्जन कराकर श्रीमद्भागवत की शोभायात्रा निकाले और ब्राह्मण-भोजन कराये । मधुमिश्रित खीर और तिल आदि से भागवत के श्लोकों का दशांश (अर्थात् १८००) आहुति देनी चाहिये । खीर के अभाव में तिल, चावल, जौ, मेवा, शुद्ध घी और चीनी को मिलाकर हवनीय पदार्थ तैयार कर लेना चाहिये । इसमें सुगन्धित पदार्थ (कपूर-काचरी, नागरमोथा, छड़छड़ीला, अगर-तगर, चन्दनचूर्ण आदि) भी मिलाने चाहिये । पूर्वोक्त अठारह सौ आहुति गायत्री मन्त्र अथवा दशमस्कन्ध के प्रति श्लोक से देनी चाहिये । हवन के अन्त में दिक्पाल आदि के लिये बलि, क्षेत्रपाल-पूजन, छायापात्रदान, हवन का दशांश तर्पण एवं तर्पण का दशांश मार्जन करना चाहिये । फिर आरती के पश्चात् किसी नदी, सरोवर या कूपादि पर जाकर अवभृथस्नान (यज्ञान्त-स्नान) भी करना चाहिये । इसके लिये समूह के साथ शोभायात्रा निकालकर गाजे-बाजे के साथ कीर्तन करते हुए जाना चाहिये । यजमान श्रीमद्भागवतग्रन्थ को अपने मस्तक पर रखकर उसकी शोभायात्रा निकाले, जिसमें वक्ता तथा सब श्रोता सम्मिलित हों । हरिकीर्तन होता चले । भागवत-ग्रन्थ पर चँवर डुलते रहें । घड़ियाल, घण्टा, झाँझ, शङ्ख आदि बाजे बजते रहें । जो पूर्ण हवन करने में असमर्थ हो, वह यथाशक्ति हवनीय पदार्थ दान करें । अन्त में कम-से-कम बारह ब्राह्मणों को मधुयुक्त खीरका भोजन कराना चाहिये । व्रत की पूर्ति के लिये सुवर्ण-दान और गोदान करना चाहिये । सुवर्ण-सिंहासन पर विराजित सुन्दर अक्षरों में लिखित श्रीमद्भागवत की पूजा करके उसे दक्षिणासहित कथावाचक आचार्य को दान कर देना चाहिये । अन्त में सब प्रकार की त्रुटियों की पूर्ति के लिये विष्णुसहस्रनाम का पाठ कथावाचक आचार्य के द्वारा सुनना चाहिये । विरक्त श्रेताओं को ‘गीता’ सुननी चाहिये । Related