श्रीमद् भागवत की पूजनविधि तथा विनियोग, न्यास एवं ध्यान

प्रार्थना
वन्दे श्रीकृष्णदेवं मुरनरकभिदं वेदवेदान्तवेद्यं
लोके भक्तिप्रसिद्धं यदुकुलजलधौ प्रादुरासीदपारे ।
यस्यासीद् रूपमेवं त्रिभुवनतरणे भक्तिवच्च स्वतन्त्रं
शास्त्रं रूपं च लोके प्रकटयति मुदा यः स नो भूतिहेतुः ॥

जो इस जगत् में भक्ति से ही प्राप्त होते हैं, जिनका तत्त्व वेद और वेदान्त के द्वारा ही जाननेयोग्य है, जो अपार यादवरूपी समुद्रमें प्रकट हुए थे, मुर और नरकासुरको मारनेवाले उन भगवान् श्रीकृष्णको मैं सादर सप्रेम प्रणाम करता हूँ । जो इस संसार में अपने स्वरूप तथा शास्त्र को प्रसन्नतापूर्वक प्रकट किया करते हैं तथा सचमुच ही जिनका स्वरूप इस त्रिभुवन को तारने के लिये भक्ति के समान स्वतन्त्र नौकारूप हैं, वे भगवान् श्रीकृष्ण हमलोगों का कल्याण करें ।
नमः कृष्णपदाब्जाय भक्ताभीष्टप्रदायिने ।
आरक्तं रोचयेच्छश्वन्मामके हृदयाम्बुजे ॥

कुछ-कुछ लालिमा लिये हुए श्रीकृष्ण को जो चरणकमल मेरे हृदयकमल में सदा दिव्य प्रकाश फैलाता रहता है और भक्तजन की मनोवाञ्छित कामनाएँ पूर्ण किया करता है, उसे में बारम्बार नमस्कार करता हूँ ।
श्रीभागवतरूपं तत् पूजयेद् भक्तिपूर्वकम् ।
अर्चकायाखिलान् कामान् प्रयच्छति न संशयः ॥

श्रीमद्भागवत भगवानु का स्वरूप है, इसका भक्तिपूर्वक पूजन करना चाहिये । यह पूजन करनेवाले की सारी कामनाएँ पूर्ण करता है, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है ।

॥ विनियोग ॥
दाहिने हाथ की अनामिका में कुश की पवित्री पहन ले । फिर हाथ में जल लेकर नीचे लिखे वाक्य को पढ़कर भूमि पर गिरा दे —
ॐ अस्य श्रीमद्भागवताख्यस्तोत्रमन्त्रस्य नारद ऋषिः । बृहती छन्दः । श्रीकृष्णः परमात्मा देवता । ब्रह्म बीजम् । भक्तिः शक्तिः । ज्ञानवैराग्ये कीलकम् । मम श्रीमद्भगवत्प्रसादसिद्ध्यर्थे पाठे विनियोगः ।।
इस श्रीमद्भागवतस्तोत्र मन्त्र के देवर्षि नारदजी ऋषि हैं, बृहती छन्द हैं, परमात्मा श्रीकृष्णाचन्द्र देवता हैं, ब्रह्म बीज है, भक्ति शक्ति है, ज्ञान और वैराग्य कीलक हैं । अपने ऊपर भगवान् की प्रसन्नता हो, उनकी कृपा बराबर बनी रहे — इस उद्देश्य की सिद्धि के लिये पाठ करने में इस भागवत का विनियोग (उपयोग किया जाता है।”
॥ न्यास ॥
विनियोग में आये हुए ऋषि आदि का तथा प्रधान देवता के मन्त्राक्षरों का अपने शरीर के विभिन्न अङ्ग में जो स्थापन किया जाता है, उसे ‘न्यास’ कहते हैं । मन्त्र का एक-एक अक्षर चिन्मय होता है, उसे मूर्तिमान् देवता के रूप में देखना चाहिये । इन अक्षरों के स्थापन से साधक स्वयं मन्त्रमय हो जाता है, उसके हृदय में दिव्य चेतना का प्रकाश फैलता है, मन्त्र के देवता उसके स्वरूप होकर उसकी सर्वथा रक्षा करते हैं । इस प्रकार वह ‘देवो भूत्वा देवं यजेत्’ इस श्रुति के अनुसार स्वयं देवस्वरूप होकर देवताओं का पूजन करता है । ऋषि आदि का न्यास सिर आदि कतिपय अङ्गों मे होता है । मन्त्रपदों अथवा अक्षरों का न्यास प्रायः हाथ की अंगुलियों और हृदयादि अङ्गों में होता है । इन्हें क्रमशः ‘करन्यास’ और ‘अङ्गन्यास’ कहते हैं । किन्हीं-किन्ही मन्त्रों का न्यास सर्वाङ्ग में होता है । न्यास से बाहर-भीतर की शुद्धि, दिव्यबल की प्राप्ति और साधना की निर्विघ्न पूर्ति होती है । यहाँ क्रमशः ऋष्यादिन्यास, करन्यास और अङ्गन्यास दिये जा रहे हैं —
॥ ऋष्यादिन्यास ॥
नारदर्षये नमः शिरसि ।। १ ।। बृहतीच्छन्दसे नमो मुखे ।। २ ।। श्रीकृष्णपरमात्मदेवतायै नमो हृदये ।। ३ ।। ब्रह्मबीजाय नमो गुह्ये ।। ४ ।। भक्तिशक्तये नमः पादयोः ।। ५ ।। ज्ञानवैराग्यकीलकाभ्यां नमो नाभौ ।। ६ ।। विनियोगाय नमः सर्वाङ्गे ।। ७ ।।

ऊपर न्यास के सात वाक्य उद्धृत किये गये हैं । इनमें पहला वाक्य पढ़कर दाहिने हाथ की अङ्गुलियों से सिर का स्पर्श करे, दूसरा वाक्य पढ़कर मुख का, तीसरे वाक्य से हृदय का, चौथे वाक्य से गुदा का, पाँचवें से दोनों पैरों का, छठें से नाभि का और सातवें वाक्य से सम्पूर्ण अङ्गों का स्पर्श करना चाहिये ।

॥ करन्यास ॥
इसमें ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ इस द्वादशाक्षरमन्त्र के एक-एक अक्षर को प्रणव से सम्पुटित करके दोनों हाथों की अङ्गुलियों में स्थापित करना है । मन्त्र नीचे दिये जा रहे हैं ।
‘ॐ ॐ ॐ नमो दक्षिणतर्जन्याम्’ — ऐसा उच्चारण करके दाहिने हाथ के अंगूठे से दाहिने हाथ की तर्जनी का स्पर्श करे ।
‘ॐ नं ॐ नमो दक्षिणमध्यमायाम्’ — यह उच्चारण कर दाहिने हाथ के अंगूठे से दाहिने हाथ की मध्यमा अङ्गुलि का स्पर्श करे ।
‘ॐ मों ॐ नमो दक्षिणानामिकायाम्’ — यह पढ़कर दाहिने हाथ के अँगूठे से दाहिने हाथ की अनामिका अङ्गुलि का स्पर्श करे ।
‘ॐ भं ॐ नमो दक्षिणकनिष्ठिकायाम्’ — इससे दाहिने हाथ के अंगूठे से दाहिने हाथ की कनिष्ठिका अङ्गुलि को स्पर्श करे ।
‘ॐ गं ॐ नमो वामकनिष्ठिकायाम्’ — इससे बायें हाथ के अंगूठे से बाये हाथ की कनिष्ठिका अङ्गुलि का स्पर्श करे ।
‘ॐ वं ॐ नमो वामानामिकायाम्’ — इससे बायें हाथ अँगूठे से बायें हाथ की अनामिका अङ्गुलि का स्पर्श करे ।
‘ॐ ते ॐ नमो वाममध्यमायाम्’ — इससे बायें हाथ के अँगूठे से बायें हाथ की मध्यमा अङ्गुलि का स्पर्श करे ।
‘ॐ वां ॐ नमो वामतर्जन्याम्’ — इससे बायें हाथ के अँगूठेसे बायें हाथ की तर्जनी अङ्गुलि का स्पर्श करे ।
‘ॐ सुं ॐ नमः ॐ दें ॐ नमो दक्षिणाङ्गुष्टपर्वणोः’ — इसको पढ़कर दाहिने हाथ की तर्जनी अङ्गुलि से दाहिने हाथ के अंगूठे की दोनों गाँठों का स्पर्श करे ।
‘ॐ वां ॐ नमः ॐ यं ॐ नमो वामाङ्गुष्ठपर्वणोः’ — इसका उच्चारण करके बायें हाथ की तर्जनी अङ्गुलि से बायें हाथ के अंगूठे की दोनों गाँठों का स्पर्श करे ।

॥ अङ्गन्यास ॥
यहाँ द्वादशाक्षर मन्त्र के पदों का हृदयादि अङ्गों में न्यास करना है —
‘ॐ नमो नमो हृदयाय नमः’ — इसको पढ़कर दाहिने हाथ की पाँचों अङ्गुलियों से हृदय का स्पर्श करे ।
‘ॐ भगवते नमः शिरसे स्वाहा’ — इसका उच्चारण करके दाहिने हाथ की सभी अङ्गुलियों से सिर का स्पर्श करे ।
‘ॐ वासुदेवाय नमः शिखायै वषट्’ — इसके द्वारा दाहिने हाथ से शिखा का स्पर्श करे ।
‘ॐ नमो नमः कवचाय हुम्’ — इसको पढ़कर दायें हाथ की अङ्गुलियों से बायें कंधे का और बायें हाथ की अङ्गुलियों से दायें कंधे का स्पर्श करे ।
‘ॐ भगवते नमः नेत्रत्रयाय वौषट्’ — इसको पढ़कर दाहिने हाथ की अङ्गुलियों के अग्रभाग से दोनों नेत्रों का तथा ललाट के मध्यभाग में गुप्तरूप से स्थित तृतीय नेत्र (ज्ञानचक्षु) का स्पर्श करे ।
‘ॐ वासुदेवाय नमः अस्त्राय फट्’ — इसका उच्चारण करके दाहिने हाथ को सिर के ऊपर से उल्टा अर्थात् बायीं ओर से पीछे की ओर ले जाकर दाहिनी ओर से आगे की ओर ले जाये और तर्जनी तथा मध्यमा अङ्गुलियां से बायें हाथ की हथेली पर ताली बजाये ।

अङ्गन्यास में आये हुए ‘स्वाहा’ ‘वषट्’, ‘हुम्’, ‘वौषट्’ और ‘फट्’ – ये पाँच शब्द देवताओं के उद्देश्य से किये जानेवाले हवन से सम्बन्ध रखनेवाले है । यहाँ इनका आत्मशुद्धि के लिये ही उच्चारण किया जाता है ।

॥ ध्यान ॥

इस प्रकार न्यास करके बाहर-भीतर से शुद्ध हो मन को सब ओर से हटाकर एकाग्र भाव से भगवान् का ध्यान करे —
किरीटकेयूरमहार्हनिष्कैर्मण्युत्तमालङ्कृतसर्वगात्रम् ।
पीताम्बरं काञ्चनचित्रनद्ध मालाधरं केशवमभ्युपैमि ।।

‘जिनके मस्तक पर किरीट, बाहुओ में भुजबन्ध और गले में बहुमूल्य हार शोभा पा रहे हैं, मणियों के सुन्दर गहनों से सारे अङ्ग सुशोभित हो रहे हैं और शरीर पर पीताम्बर फहरा रहा है – सोने के तारद्वारा विचित्र रीति से बँधी हुई वनमाला धारण किये, उन भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र का में मन-ही-मन चिन्तन करता हूँ ।

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