January 17, 2019 | Leave a comment श्रीमद् भागवत की पूजनविधि तथा विनियोग, न्यास एवं ध्यान प्रातःकाल स्नान के पश्चात् अपना नित्य-नियम समाप्त करके पहले भगवत्-सम्बन्धी स्तोत्रों एवं पदों के द्वारा मंगलाचरण और वन्दना करे । इसके बाद आचमन और प्राणायाम करके — ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः । स्थिरैङ्गैस्तुष्टु वा ँ्सस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः ॥ १ ॥ — इत्यादि मन्त्रों से शान्तिपाठ करे । इसके पश्चात् भगवान् श्रीकृष्ण, श्रीव्यासजी, शुकदेवजी तथा श्रीमद्भागवतग्रन्थ की षोडशोपचार से पूजा करनी चाहिये । यहाँ श्रीमद्भागवत-पुस्तक के षोडशोपचार पूजन की मन्त्रसहित विधि दी जा रही है, इसीके अनुसार श्रीकृष्ण आदि की भी पूजा करनी चाहिये । निम्नांकित वाक्य पढ़कर पूजन के लिये संकल्प करना चाहिये । संकल्प के समय दाहिने हाथ की अनामिका अंगुलि में कुश की पवित्री पहने और हाथ में जल लिये रहे । संकल्पवाक्य इस प्रकार है — ॐ तत्सत् । ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः ॐमद्यैतस्य ब्रह्मणो द्वितीयपरार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे जम्बूद्वीपे भरतखण्डे आर्यावर्तैकदेशान्तर्गते पुण्यस्थानेकलियुगे कलिप्रथमचरणे अमुकसंवत्सरे अमुकमासे अमुकपक्षे अमुकयोगवारांशकलग्नमुहूर्तकरणान्वितायां शुभपुण्यतिथौ अमुकवासरे अमुकगोत्रोत्पन्नस्य अमुकशर्मणः (वर्मण: गुप्तस्य वा) मम सकुटुम्बस्य सपरिवारस्य श्रीगोवर्धनधरणचरणारविन्दप्रसादात् सर्वसमृद्धिप्राप्यर्थं भगवदनुग्रहपूर्वकभगवदीयप्रेमोपलब्धये च श्रीभगवन्नामात्मक भगवत्स्वरूप श्रीभागवतस्य पाठेऽधिकारसिद्धध्यर्थं श्रीमद्भागवतस्य प्रतिष्ठां पूजनं चाहं करिष्ये । इस प्रकार संकल्प करके — तदस्तु मित्रावरुणा तदग्ने शंय्योस्मभ्यमिदमस्तु शस्तम् । अशीमहि गाधमुत प्रतिष्ठां नमो दिवे बृहते सादनाय ॥ २ ॥ — यह मन्त्र पढ़कर श्रीमद्भागवत की सिंहासन या अन्य किसी आसन पर स्थापना करे । तत्पश्चात् पुरुषसूक्त के एक-एक मन्त्र द्वारा क्रमशः षोडश उपचार अर्पण करते हुए पूजन करे । ॥ पूजन-मन्त्र ॥ सहस्त्रशीर्षा पुरुषः सहस्त्राक्षः सहस्त्रपात् । स भूमिं सर्वतस्पृत्वात्यतिष्ठद् दशाङ्गुलम् ॥ १ ॥ श्रीभगवन्नामस्वरूपिणे भागवताय नमः । आवाहयामि । — इस मन्त्र से भगवान् के नामस्वरूप भागवत को नमस्कार करके आवाहन करे । ॐ पुरुष एवेदं सर्वं यद् भूतं यच्च भाव्यम् । उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ॥ २ ॥ श्रीभगवन्नामस्वरूपिणे भागवताय नमः । आसनं समर्पयामि । — इस मन्त्र से आसन समर्पित करे । ॐ एतावानस्य महिमातो ज्यायाँश्च पूरुषः । पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि ॥ ३ ॥ श्रीभगवन्नामस्वरूपिणे भागवताय नमः । पाद्यं समर्पयामि । — इस मन्त्र से पैर पखारने के लिये गंगाजल समर्पित करे । ॐ त्रिपादूर्ध्व उदैत् पुरुषः पादोऽस्येहाभवत् पुनः । ततो विष्वङ् व्यक्रामत् साशनानशने अभि ॥ ४ ॥ श्रीभगवन्नामस्वरूपिणे भागवताय नमः । अर्घ्यं समर्पयामि । — इस मन्त्र से अर्घ्य (गन्ध पुष्पादिसहित गंगाजल) निवेदित करे । ॐ ततो विराडजायत विराजो अधि पूरुषः । स जातो अत्यरिच्यत पश्चाद् भूमिमथो पुरः ॥ ५ ॥ श्रीभगवन्नामस्वरूपिणे भागवताय नमः । आचमनं समर्पयामि । — इस मन्त्र से आचमन के लिये गंगाजल अर्पित करे । ॐ तस्माद्यज्ञात्सर्वहुतः संभृतं पृषदाज्यम् । पशून् ताँश्चक्रे वायव्यानारण्यान् ग्राम्याश्च ये ॥ ६ ॥ श्रीभगवन्नामस्वरूपिणे भागवताय नमः । स्नानं समर्पयामि । — इस मन्त्र से स्नान के लिये गंगाजल अथवा शुद्ध जल अर्पित करे । ॐ तस्माद्यज्ञात्सर्वहुत ऋचः सामानि जज्ञिरे । छन्दांस जज्ञिरे तस्माद् यजुस्तमादजायत ॥ ७ ॥ श्रीभगवन्नामस्वरूपिणे भागवताय नमः । वस्त्रं समर्पयामि । — इस मन्त्र से वस्त्र समर्पित करे । ॐ तस्मादश्वा अजायन्त ये के चोभयादतः । गावो ह जज्ञिरे तस्मात्तस्माज्जाता अजावयः ॥ ८ ॥ श्रीभगवन्नामस्वरूपिणे भागवताय नमः । यज्ञोपवीतं समर्पयामि । — इस मन्त्र से यज्ञोपवीत अर्पित करे । ॐ तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन् पुरुषं जातमग्रतः । तेन देवा अयजन्त साध्या ऋषयश्च ये ॥ ९ ॥ श्रीभगवन्नामस्वरूपिणे भागवताय नमः । गन्धं समर्पयामि । — इस मन्त्र से गन्ध-चन्दनादि चढ़ाये । ॐ यत् पुरुषं व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन् । मुख़ं किमस्यासीत् किम्बाहू किमूरू पादा उच्येते ॥ १० ॥ श्रीभगवन्नामस्वरूपिणे भागवताय नमः । तुलसीदलं च पुष्पाणि समर्पयामि । —इस मन्त्र से तुलसीदल एवं पुष्प चढ़ावे । ॐ ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः । ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत ॥ ११ ॥ श्रीभगवन्नामस्वरूपिये भागवताय नमः । धूपमाघ्रापयामि । — इस मन्त्र से धूप सुँघाये । ॐ चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत । श्रोत्राद्वायुश्च प्राणश्च मुखादग्निरजायत ॥ १२ ॥ श्रीभगवन्नामस्वरूपिणे भागवताय नमः । दीपं दर्शयामि । इस मन्त्रसे घी का दीप जलाकर दिखाये । (उसके बाद हाथ धो लें।) ॐ नाभ्या आसीदन्तरिक्ष ँ् शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत । पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रात्तथा लोकाँ अकल्पयन् ॥ १३ ॥ श्रीभगवन्नामस्वरूपिणे भागवताय नमः । नैवेद्य निवेदयामि । — इस मन्त्र से नैवेद्य अर्पित करे । नैवेद्य के बाद “मध्ये पानीयं समर्पयामि” एवम् ‘उत्तरापोशनं समर्पयामि’ कहकर तीन-तीन बार जल छोड़े (प्रसाद) । ॐ यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत । वसन्तोऽस्यासीदाज्यं ग्रीष्म इध्मः शरद्धविः ॥ १४ ॥ श्रीभगवन्नामस्वरूपिणे भागवताय नमः । एलालवङ्गपूगीफलकर्पूरसहितं ताम्बूलं समर्पयामि । — इस मन्त्र से ताम्बूल समर्पण करे । ॐ सप्तास्यासन् परिधयस्त्रिःसप्त समिधः कृताः । देवा यद्-यज्ञं तन्वाना अवध्नन् पुरुषं पशुम् ॥ १५ ॥ श्रीभगवन्नामस्वरूपिणे भागवताय नमः । दक्षिणां समर्पयामि । — इस मन्त्र से दक्षिणा समर्पित करे । ॐ वेदाहमेतं पुरुषं महान्तम् आदित्यवर्णं तमसस्तु पारे । सर्वाणि भूतानि विचिन्त्य धीरः नामानि कृत्वाभिवदन् यदास्ते ॥ १६ ॥ श्रीभगवन्नामस्वरूपिणे भागवताय नमः । नमस्कार समर्पयामि । ॐ धाता पुरस्ताद्यमुदाजहार शक्रः प्रविद्वान् प्ररिशश्चतस्त्रः । तमेवं विद्वानमृत इह भवति नान्यः पन्था अयनाय विद्यते ॥ १७ ॥ श्रीभगवन्नामस्वरूपिणे भागवताय नमः । प्रदक्षिणां समर्पयामि । — इस मन्त्रसे प्रदक्षिणा समर्पण करे । ॐ यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् । ते ह नाकं महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः ॥ १८ ॥ श्रीभगवन्नामस्वरूपिणे भागवताय नमः । मन्त्रपुष्पं समर्पयामि । — इस मन्त्र से पुष्पांजलि समर्पित करे । उक्त मन्त्रों का भावार्थ इस प्रकार है — १- सर्वान्तर्यामी परमात्मा इस समस्त ब्रह्माण्ड की भूमि को सब ओर से व्याप्त करके स्थित हैं और इससे दस अंगुल ऊपर भी हैं । अर्थात् ब्रह्माण्ड में व्यापक होते हुए वे इससे परे भी हैं । उन परमात्मा के मस्तक, नेत्र आदि ज्ञानेन्द्रियाँ और चरण आदि कर्मेन्द्रियाँ हजारों हैं — असंख्य हैं । २- यह जो कुछ इस समय वर्तमान है, सब परमात्मा का ही स्वरूप है, भूत और भविष्य जगत् भी परमात्मा ही है । इतना ही नहीं, वह परमात्मा मुक्ति का स्वामी है तथापि ये जो अन्न से उत्पन्न होनेवाले जीव हैं, उन सबका भी शासन सबको नियम के अंदर रखनेवाला वह परमात्मा ही है । ३- भूत, भविष्य और वर्तमानकाल से सम्बन्ध रखनेवाला जितना भी जगत् है — यह सब इस पुरुष की महिमा है, इस परमात्मा का विभूति-विस्तार है । उसका पारमार्थिक स्वरूप इतना ही नहीं है । वह पुरुष इस ब्रह्माण्डमय विराट्स्वरूप से भी बहुत बड़ा है । यह सारा विश्व (ये तीनों लोक) तो उसके एक पाद में है, उसकी एक चौथाई में समाप्त हो जाते हैं । अभी उसके तीन पाद और शेष हैं । यह त्रिपादस्वरूप अमृत है — अविनाशी है और परम प्रकाशमय द्युलोक अर्थात् अपने स्वरूप में ही स्थित है । ४- यह त्रिपाद पुरुष ऊपर उठा हुआ है अर्थात् वह परमात्मा अज्ञान के कार्यभूत इस संसार से पृथक् तथा यहाँ के गुण-दोष से अछूता रहकर ऊँची स्थिति में विराजमान है । उसका एक अंशमात्र माया के सम्पर्क में आकर यहाँ जगत् के रूप में उत्पन्न हुआ, फिर वह मायावश जड-चेतनमयी नाना प्रकार की सृष्टि के रूप में स्वयं ही फैलकर सब ओर व्याप्त हो गया । ५- उस आदिपुरुष परमात्मा से विराट्की उत्पत्ति हुई — यह ब्रह्माण्ड उत्पन्न हुआ । इस ब्रह्माण्ड के ऊपर इसका अभिमानी एक पुरुष प्रकट हुआ । तात्पर्य कि परमात्मा ने माया से विराट् ब्रह्माण्ड की यह अपनी रचना कर स्वयं ही उसमें जीवरूप से प्रवेश किया । वे ही जीव ब्रह्माण्ड का अभिमानी देवता (हिरण्यगर्भ) हुआ इस प्रकार उत्पन्न होकर वह विराट् पुरुष पुनः देव, तिर्यक् और मनुष्य आदि अनेकों रूपों में प्रकट हुआ । इसके बाद उसने भूमिको उत्पन्न किया, फिर जीव के शरीरों की रचना की । ६- जिसमें सब कुछ हवन किया गया, उस पुरुषरूप यज्ञ से दही-घी आदि सामग्री उत्पन्न हुई । पुरुष ने वन में उत्पन्न होनेवाले हिरन आदि और गाँवों में होनेवाले गाय, घोड़े आदि वायु-देवता-सम्बन्धी प्रसिद्ध पशुओं को भी उत्पन्न किया । ७- जिसमें सब कुछ हवन किया गया है उस यज्ञपुरुष से ऋग्वेद और सामवेद प्रकट हुए । उसीसे गायत्री आदि छन्दों की उत्पत्ति हुई तथा उसी से यजुर्वेद का भी प्रादुर्भाव हुआ । ८- उस यज्ञपुरुष से घोड़े उत्पन्न हुए । इनके अतिरिक्त भी जो नीचे-ऊपर दोनों ओर दाँत रखनेवाले खच्चर गदहे आदि प्राणी हैं, ये भी उत्पन्न हुए । उसीसे गौएँ उत्पन्न हुई और उसीसे भेड़ों तथा बकरों की उत्पत्ति हुई । ९- सबसे पहले उत्पन्न हुआ वह पुरुष ही उस समय यज्ञ का साधन था, देवताओं ने उसे संकल्प द्वारा यूप में बँधा हुआ पशु माना और उस मानसिक यज्ञ में उस संकल्पित पशु का भावना द्वारा ही प्रोक्षण आदि संस्कार भी किया । इस प्रकार संस्कार किये हुए उस पुरुषरूपी पशु के द्वारा देवताओं साध्यों और ऋषियों ने उस मानसिक यज्ञ को पूर्ण किया । १०- जब प्राणमय देवताओं ने उस यज्ञपुरुष (प्रजापति)-को प्रकट किया, उस समय उसके अवयवों के रूप में कितने विभाग किये । इस पुरुष का मुख क्या था, दोनों बाहें क्या थीं । दोनों जाँघें और दोनों पैर कौन थे । ११- ब्राह्मण इसका मुख था अर्थात् मुख से ब्राह्मण की उत्पत्ति हुई । दोनों भुजाएँ क्षत्रिय जाति बनीं अर्थात् उनसे क्षत्रियों का प्राकट्य हुआ । इस पुरुष की दोनों जंघाएँ वैश्य हुई-जंघाओं से वैश्य जाति की उत्पत्ति हुई और दोनों पैरों से शूद्र जाति प्रकट हुई । १२- इसके मन से चन्द्रमा उत्पन्न हुए, नेत्रों से सूर्य की उत्पत्ति हुई । श्रोत्र (कान)-से वायु और प्राण की उत्त्पति हुई और मुख से अग्नि का प्रादुर्भाव हुआ । १३- नाभि से अन्तरिक्ष-लोक की उत्पत्ति हुई, मस्तक से स्वर्गलोक प्रकट हुआ, पैरों से पृथ्वी हुई और कान से दिशाएँ प्रकट हुईं । इस प्रकार उन्होंने समस्त लोकों की कल्पना की । १४- उस समय देवताओं ने यज्ञ करना चाहा, परन्तु यज्ञ की कोई सामग्री उपलब्ध न हुई, तब पुरुषस्वरूप में ही हविष्य की भावना की । जब पुरुषरूप हविष्य से ही देवताओं ने यज्ञ का विस्तार किया, उस समय उनके संकल्पानुसार वसन्त ऋतु घी हुई, ग्रीष्म ऋतु ने समिधा का काम दिया और शरद् ऋतु से विशेष प्रकार के चरु-पुरोडाशादि हविष्य की आवश्यकता पूर्ण हुई । १५- प्रजापति के प्राणरूपी देवताओं ने जब मानसिक यज्ञ का अनुष्ठान करते समय संकल्प द्वारा पुरुषरूपी पशु का बन्धन किया था, उस समय सात समुद्र इस यज्ञ की परिधि थे और इक्कीस प्रकार के छन्दों की समिधा हुई । (गायत्री आदि ७, श्रुति जगती आदि ७ और कृति आदि ७ — ये ही २१ छन्द हैं।) १६- धीर पुरुष समग्र रूपों को परमात्मा के ही स्वरूप विचारकर उनके भिन्न-भिन्न नाम रखकर जिस एक तत्त्व का ही उच्चारण और अभिवन्दन करता है, उसको ज्ञानी पुरुष इस प्रकार जानते हैं — अविद्यारूपी अन्धकार से परे आदित्य के समान स्वप्रकाश इस महान् पुरुष को मैं अपने ‘आत्मा’ रूप से जानता हूँ । १७- ब्रह्माजी ने पूर्वकालमें जिसका स्तवन किया था, इन्द्र ने सब दिशा-विदिशाओं में जिसे व्याप्त जाना था, उस परमात्मा को जो इस प्रकार जानता है, वह इस जीवनमें ही अमृत (मुक्त) हो जाता है । मोक्ष अथवा भगवत्प्राप्तिके लिये इसके सिवा दूसरा मार्ग नहीं है । १८- देवताओं ने पूर्वोक्त मानसिक यज्ञ द्वारा यज्ञस्वरूप पुरुष-प्रजापति की आराधना की । इस आराधना से समस्त जगत् को धारण करनेवाले वे पृथ्वी आदि मुख्य भूत प्रकट हुए । इस यज्ञ की उपासना करनेवाले महात्मा लोग न उस स्वर्गलोक को प्राप्त होते हैं, जहाँ प्राचीन साध्यदेवता निवास करते हैं । Related