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॥ मेधा सूक्त ॥
यजुर्वेद के ३२वें अध्याय में मेधा-प्राप्ति के कुछ मन्त्र पठित हैं, जो मेधा-परक होने से ‘मेधा-सूक्त’ कहलाते हैं । ‘मेधा’ शब्द का शाब्दिक अर्थ है – धारणा शक्ति (Judgeent Power), प्रज्ञा (WisefulL, Intellect), बुद्धि आदि । मेधा-शक्ति-सम्पन्न व्यक्ति ही ‘मेधावी’ (Intelligent, Brilliant) कहलाता है । ‘मेधा’ बुद्धि की एक शक्ति-विशेष है । जो गृहित-ज्ञान को धारण करती है और यथा-समय उसे व्यक्त भी कर देती है । इसी मेधा की प्राप्ति के लिये इन मन्त्रों में अग्नि, वरुण-देव, प्रजापति, इन्द्र, वायु, धाता आदि की प्रार्थना की गयी है । इन मन्त्रों के यथा-विधि पाठ से बुद्धि विशद बनती है और उसमें पवित्रता का आधान होता है । इस सूक्त का एक मन्त्र अत्यन्त प्रसिद्ध है, जो इस प्रकार है –

“मेधां मे वरुणो ददातु मेधामग्निः प्रजापतिः ।
मेधामिन्द्रश्च वायुश्च मेधां धाता ददातु मे स्वाहा ॥”

षोडश संस्कारों में पुत्र-जन्म के अनन्तर जात-कर्म नामक एक संस्कार होता है, जो नालच्छेदन से पूर्व ही किया जाता है; क्योंकि नालच्छेदन के अनन्तर जननाशौच की प्रवृत्ति हो जाती है । जात-कर्म-संस्कार में मेधा-जनन तथा आयुष्य-करण – ये दो प्रमुख कर्म सम्पन्न होते हैं । बालक के मेधावी, बुद्धिमान् तथा प्रज्ञा-सम्पन्न होने के लिये घृत, मधु को अनामिका अँगुली (RING FINGER) से ‘ॐ भूतस्त्वयि दधामि’ आदि मन्त्रों द्वारा बच्चे को चटाया जाता है तथा उसके दीर्घ-जीवी होने के लिये बालक के दाहिने कान में अथवा नाभि के समीप ‘ॐ अग्निरायुष्मान् ‘ इत्यादि मन्त्रों का पाठ होता है ।

इस प्रकार मेधा की वृद्धि की दृष्टि से इस ‘मेधा-सूक्त’ के मन्त्रों का बड़ा ही महत्त्व है । बुद्धि के मन्दता-रुपी दोष के निवारण के लिये इन मन्त्रों का पाठ उपयोगी हो सकता है । कृष्ण-यजुर्वेदीय महानारायणोपनिषद् में भी एक मेधा-सूक्त प्राप्त होता है, उसमें भी मेधा-प्राप्ति की प्रार्थना है ।

मेधा सूक्त (क)

सदसस्पतिमद्भुतं प्रियमिन्द्रस्य काम्यम् ।
सनिं मेधामयासिषं स्वाहा ॥ १ ॥

यज्ञगृह के पालक, अचिन्त्य शक्ति से सम्पन्न, परमेश्वर की प्रिय कमनीय शक्ति अग्निदेव से मैं धन-ऐश्वर्य की तथा धारणावती मेधा की याचना करता हूँ । उसके निमित्त यह श्रेष्ठ आहुति गृहीत हो ॥ १ ॥

यां मेधां देवगणाः पितरश्चोपासते ।
तया मामद्य मेधयाऽग्ने मेधाविनं कुरु स्वाहा ॥ २ ॥

हे अग्निदेव ! आप मुझे आज उस मेधा के द्वारा मेधावी बनाइये, जिस मेधा का देव-समूह और पितृ-गण सेवन करते हैं । आपके लिये यह श्रेष्ठ आहुति समर्पित है ॥ २ ॥

मेधां मे वरुणो ददातु मेधामग्निः प्रजापतिः ।
मेधामिन्द्रश्च वायुश्च मेधां धाता ददातु मे स्वाहा ॥ ३ ॥

वरुणदेव मुझे तत्त्वज्ञान को समझने में समर्थ मेधा पर्दान करें, अग्नि और प्रजापति मुझे मेधा प्रदान करें, इन्द्र और वायु मुझे मेधा प्रदान करें । हे धाता ! आप मुझे मेधा प्रदान करें । आप सब देवताओं के लिये मेरी यह श्रेष्ठ आहुति समर्पित है ॥ ३ ॥

इदं मे ब्रह्म च क्षत्रं चोभे श्रियमश्नुताम् ।
मयि देवा दधतु श्रियमुत्तमां तस्यै ते स्वाहा ॥ ४ ॥

ब्राह्मण एवं क्षत्रिय – दोनों मेरी सम्पत्ति का उपभोग करें । देवगण मुझे उत्तम लक्ष्मी प्रदान करें । लक्ष्मी के निमित्त मेरे द्वारा दी गयी यह श्रेष्ठ आहुति समर्पित हो ॥ ४ ॥
(शुक्ल यजुर्वेद ३२ । १३-१६)

मेधासूक्त (ख)

मेधादेवी जुषमाणा न आगाद्विश्वाची भद्रा सुमनस्य माना ।
त्वया जुष्टा नुदमाना दुरुक्तान् बृहद्वदेम विदथे सुवीराः ।
त्वया जुष्ट ऋषिर्भवति देवि त्वया ब्रह्माऽऽगतश्रीरुत त्वया ।
त्वया जुष्टश्चित्रं विन्दते वसु सा नो जुषस्व द्रविणो न मेधे ॥ १ ॥

प्रसन्न होती हुई देवी मेधा और सुन्दर मनवाली कल्याणकारिणी देवी विश्वाची हमारे पास आयें । आपसे अनुगृहित तथा प्रेरित होते हुए हम असद्भाषीजनों से श्रेष्ठ वचन बोलें और महापराक्रमी बनें । हे देवि ! आपका कृपा-पात्र व्यक्ति ऋषि (मन्त्र-द्रष्टा) हो जाता है, वह ब्रह्न-ज्ञानी और श्री-सम्पन्न हो जाता है । आप जिस पर कृपा करती हैं, उसे अद्भुत सम्पत्ति प्राप्त हो जाती है । ऐसी हे मेधे ! आप हम पर प्रसन्न होवो और हमें द्रव्य से सम्पन्न करें ॥ १ ॥

मेधां म इन्द्रो दधातु मेधां देवी सरस्वती ।
मेधां मे अश्विनावुभावाधत्तां पुष्करस्रजा ।
अप्सरासु च या मेधा गन्धर्वेषु च यन्मनः ।
दैवीं मेधा सरस्वती सा मां मेधा सुरभिर्जुषतां स्वाहा ॥ २ ॥

इन्द्र हमें मेधा प्रदान करें, देवी सरस्वती हमें मेधा-सम्पन्न करें, कमल की माला धारण करने वाले दोनों अश्विनीकुमार हमें मेधा-युक्त करें । अप्सराओं में जो मेधा प्राप्त होती है, गन्धर्वों के चित्त में जो मेधा प्रकाशित होती है, सुगन्ध की तरह व्यापिनी भगवती सरस्वती की वह दैवी मेधा-शक्ति मुझपर प्रसन्न हों ॥ २ ॥

आ मां मेधा सुरभिर्विश्वरुपा हिरण्यवर्णा जगती जगम्या ।
ऊर्जस्वती पयसा पिन्वमाना सा मां मेधा सुप्रतीका जुषन्ताम् ॥ ३ ॥

अनेक रुपों में प्रकट सुरभि-रुपिणी, स्वर्ण के समान तेजोमयी, जगत् में सर्व-व्यापिनी, ऊर्जा-मयी और सुन्दर चिह्नों से सुसज्जित देवी मेधा ज्ञानरुपी दुग्ध का पान कराती हुई मुझपर प्रसन्न हों ॥ ३ ॥

( कृष्णयजुर्वेदीय महानारायणोपनिषद्)

प्रज्ञा विवर्द्धन हेतु भगवान् कार्तिकेय का यह स्तोत्र अमोघ माना गया है । प्रतिदिन स्तोत्र के 11 पाठ तथा मंत्र के 108 जप करने से बुद्धि में सुधार, ज्ञान में वृद्धि तथा हर परीक्षा में उत्तम परिणाम की प्राप्ति होती है । एतदर्थ प्रस्तुत है –

॥ श्री प्रज्ञाविवर्धन स्तोत्रम् ॥
विनियोग — ‘ॐ अस्य श्री प्रज्ञाविवर्धन स्तोत्र मंत्रस्य सनत् कुमार ऋषिः स्वामी कार्तिकेयो देवता अनुष्टुप् छन्दः । मम सकल विद्या सिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः ।

॥ श्री गणेशाय नमः ॥
॥ श्री स्कंद उवाच ॥
योगीश्वरो महासेनः कार्तिकेयोऽग्निनंदनः ।
स्कन्दः कुमारः सेनानी स्वामी शंकरसंभवः ॥
गाङ्गेयस्ताम्रचूडश्च ब्रह्मचारी शिखिध्वजः ।
तारकारिरुमापुत्रः क्रौञ्चारिस्च षडाननः ॥
शब्दब्रह्म समुद्रश्च सिद्धः सारस्वतो गुहः ।
सनत्कुमारो भगवान् भोग मोक्ष फलप्रदः ॥
शरजन्मा गुणादीशः पूर्वजो मुक्ति मार्गकृत् ।
सर्वागम प्रणेता च वांछितार्थ प्रदर्शनः ॥

॥ फलश्रुति ॥
अष्‍टाविंशतिनामानि मदीयानीति यः पठेत् ।
प्रत्यूषं श्रद्धया युक्‍तो मूको वाचस्पतिर्भवेत् ॥
महामंत्रमया नीति मम नामानुकीर्तनम् ।
महाप्रज्ञामवाप्नोति नात्र कार्या विचारणा ॥
पुष्यनक्षत्रमारभ्य दशवारं पठेन्नरः ।
पुष्यनक्षत्र पयंताश्वत्थमुले दिने दिने ॥
पुरश्‍चरणमात्रेण सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥

॥ इति श्री रुद्रयामले प्रज्ञाविवर्धनाख्याम् श्रीमत्कार्तिकेयस्तोत्रम् संपुर्णम् ॥
॥ श्रीकार्तिकेयार्पणमस्तु ॥


॥ मंत्रः ॥

“नमस्ते शारदे देवि सरस्वति मतिप्रदे ।
वस त्वं मम जिह्वाग्रे सर्वविद्याप्रदा भव ॥”

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