June 14, 2025 | aspundir | Leave a comment अग्निपुराण – अध्याय 078 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ अठहत्तरवाँ अध्याय पवित्राधिवासन की विधि पवित्राधिवासनकथनम् भगवान् महेश्वर कहते हैं — स्कन्द ! अब मैं पवित्रारोहण का वर्णन करूँगा, जो क्रिया, योग तथा पूजा आदि में न्यूनता की पूर्ति करने वाला है। जो पवित्रारोहण कर्म नित्य किया जाता है, उसे ‘नित्य’ कहा गया है तथा दूसरा, जो विशेष निमित्त को लेकर किया जाता है, उसे ‘नैमित्तिक’ कहते हैं। आषाढ़ मास की आदि चतुर्दशी को तथा श्रावण और भाद्रपद मासों की शुक्ल कृष्ण उभय- पक्षीय चतुर्दशी एवं अष्टमी तिथियों में पवित्रारोहण या पवित्रारोपण कर्म करना चाहिये। अथवा आषाढ़ मास की पूर्णिमा से लेकर कार्तिक मास की पूर्णिमा तक प्रतिपदा आदि तिथियों को विभिन्न देवताओं के लिये पवित्रारोहण करना चाहिये। प्रतिपदा को अग्नि के लिये, द्वितीया को ब्रह्माजी के लिये, तृतीया को पार्वती के लिये, चतुर्थी को गणेश के लिये, पञ्चमी को नागराज अनन्त के लिये, षष्ठी को स्कन्द के अर्थात् तुम्हारे लिये, सप्तमी को सूर्य के लिये, अष्टमी को शूलपाणि अर्थात् मेरे लिये, नवमी को दुर्गा के लिये, दशमी को यमराज के लिये, एकादशी को इन्द्र के लिये, द्वादशी को भगवान् गोविन्द के लिये, त्रयोदशी को कामदेव के लिये, चतुर्दशी को मुझ शिव के लिये तथा पूर्णिमा को अमृतभोजी देवताओं के लिये पवित्रारोपण कर्म करना चाहिये ॥ १-३१/२ ॥’ सत्ययुग आदि तीन युगों में क्रमश: सोने, चाँदी और ताँबे के पवित्रक अर्पित किये जाते हैं, किंतु कलियुग में कपास के सूत, रेशमी सूत अथवा कमल आदि के सूत का पवित्रक अर्पित करने का विधान है। प्रणव, चन्द्रमा, अग्नि, ब्रह्मा, नागगण, स्कन्द, श्रीहरि, सर्वेश्वर तथा सम्पूर्ण देवता — ये क्रमशः पवित्रक के नौ तन्तुओं के देवता हैं। उत्तम श्रेणी का पवित्रक एक सौ आठ सूत्रों से बनता है। मध्यम श्रेणी का चौवन तथा निम्न श्रेणी का सत्ताईस सूत्रों से निर्मित होता है। अथवा इक्यासी, पचास या अड़तीस सूत्रों से उसका निर्माण करना चाहिये। जो पवित्रक जितने नवसूत्री से बनाया जाय, उसमें बीच में उतनी ही गाँठें लगनी चाहिये। पवित्रकों का व्यास मान या विस्तार बारह अङ्गुल, आठ अङ्गुल अथवा चार अङ्गुल का होना चाहिये। यदि शिवलिङ्ग के लिये पवित्रक बनाना हो तो उस लिङ्ग के बराबर ही बनाना चाहिये ॥ ४-८ ॥ (इस प्रकार तीन तरह के पवित्रक बताये गये। इसी तरह एक चौथे प्रकार का भी पवित्रक बनता है, जो सभी देवताओं के उपयोग में आता है। वह उनकी पिण्डी या मूर्ति के बराबर का बनाया जाना चाहिये। इस तरह बने हुए पवित्रक को ‘गङ्गावतारक’ कहते हैं। इसे सद्योजात-मन्त्र ॐ सद्योजातं प्रपद्यामि सद्योजाताय वै नमो नमः । भवे भवे नातिभवे भवस्व मां भवोद्भवाय नमः ॥ के द्वारा भलीभाँति धोना चाहिये। इसमें वामदेव मन्त्र ॐ वामदेवाय नमो ज्येष्ठाय नमः श्रेष्ठाय नमो रुद्राय नमः कालाय नमः कलविकरणाय नमो बलविकरणाय नमो बलाय नमो बल-प्रमथनाय नमः सर्वभूतदमनाय नमो मनोन्मनाय नमः ॥ से ग्रन्थि लगावे अघोर- मन्त्र ॐ अघोरेभ्योऽथ घोरेभ्यो घोरघोरतरेभ्यः। सर्वेभ्यः सर्वशर्वेभ्यो नमस्तेऽस्तु रुद्ररूपेभ्यः ॥ से इसकी शुद्धि करे तथा तत्पुरुष-मन्त्र ॐ तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि। तन्नो रुद्रः प्रचोदयात् ॥ से रक्तचन्दन एवं रोली द्वारा इसको रँगे। अथवा कस्तूरी, गोरोचना, कपूर, हल्दी और गेरू आदि से मिश्रित रंग के द्वारा पवित्रक मात्र को रँगना चाहिये। सामान्यतः पवित्रक में दस गाँठें लगानी चाहिये अथवा तन्तुओं की संख्या के अनुसार उसमें गाँठें लगावे। एक गाँठ से दूसरी गाँठ में एक, दो या चार अङ्गुल का अन्तर रखे। अन्तर उतना ही रखना चाहिये, जिससे उसकी शोभा बनी रहे। प्रकृति (क्रिया), पौरुषी, वीरा, अपराजिता, जया, विजया, अजिता, सदाशिवा, मनोन्मनी तथा सर्वतोमुखी — ये दस ग्रन्थियों की अधिष्ठात्री देवियाँ हैं। अथवा दस से अधिक भी सुन्दर गाँठें लगानी चाहिये। पवित्रक के चन्द्रमण्डल, अग्निमण्डल तथा सूर्य मण्डल से युक्त होने की भावना करके, उसे साक्षात् भगवान् शिव के तुल्य मानकर हृदय में धारण करे-मन ही मन उसके दिव्य स्वरूप का चिन्तन करे। शिवरूप से भावित अपने स्वरूप को, पुस्तक को तथा गुरुगण को एक- एक पवित्रक अर्पित करे ॥ ९-१४ ॥ इसी प्रकार द्वारपाल, दिक्पाल और कलश आदि पर भी एक-एक पवित्रक चढ़ाना चाहिये। शिवलिङ्गों के लिये एक हाथ से लेकर नौ हाथ तक का पवित्रक होता है। एक हाथ वाले पवित्रक में अट्ठाईस गाँठें होती हैं। फिर क्रमशः दस-दस गाँठें बढ़ती जाती हैं। इस तरह नौ हाथ वाले पवित्रक में एक सौ आठ गाँठें होती हैं। ये ग्रन्थियाँ क्रमशः एक या दो-दो अङ्गुल के अन्तर पर रहती हैं। इनका मान भी लिङ्ग के विस्तार के अनुरूप हुआ करता है। जिस दिन पवित्रारोपण करना हो, उससे एक दिन पूर्व अर्थात् सप्तमी या त्रयोदशी तिथि को उपासक नित्यकर्म करके पवित्र हो सायंकाल में पुष्प और वस्त्र आदि से याग- मन्दिर (पूजा – मण्डप) को सजावे। नैमित्ति की संध्योपासना करके, विशेषरूप से तर्पण – कर्म का सम्पादन करने के पश्चात् पूजा के लिये निश्चित किये हुए पवित्र भूभाग में सूर्यदेव का पूजन करे ॥ १५-१८१/२ ॥ आचार्य को चाहिये कि वह आचमन एवं सकलीकरण की क्रिया करके प्रणव के उच्चारणपूर्वक अर्घ्यपात्र हाथ में लिये अस्त्र-मन्त्र (फट्) बोलकर पूर्वादि दिशाओं के क्रम से सम्पूर्ण द्वारों का प्रोक्षण करके उनका पूजन करे । ‘हां शान्तिकला-द्वाराय नमः ।’ ‘हां विद्याकलाद्वाराय नमः ।’ ‘हां निवृतिकलाद्वाराय नमः ।’ ‘हां प्रतिष्ठाकलाद्वाराय नमः ।’ — इन मन्त्रों पूर्वादि चारों द्वारों का पूजन करना नाहिये । प्रत्येक द्वार की दक्षिण और वाम शाखाओं पर दो-दो द्वारपालों का पूजन करे । पूर्व में ‘नन्दिने नमः ।” ‘ महाकालाय नमः ।” इन मन्त्रों से नन्दी और महाकाल का, दक्षिण में ‘भृङ्गिणे नमः।” ‘ गणाय नमः ।” — इन मन्त्रों से भृङ्गी और गण का, पश्चिम में ‘वृषभाय नमः ।” ‘स्कन्दाय नमः ।”—इन मन्त्रों से नन्दिकेश्वर वृषभ तथा स्कन्द का तथा उत्तर दिशा में देव्यै नमः।” ‘ चण्डाय नमः ।” — इन मन्त्रों से देवी तथा चण्ड नामक द्वारपाल का क्रमशः पूजन करे ॥ १९-२२ ॥ इस प्रकार द्वारपाल आदि की ‘नित्य पूजा करके पश्चिम द्वार से होकर याग- मन्दिर में प्रवेश करे। फिर वास्तुदेवता का पूजन करके भूतशुद्धि करे । तत्पश्चात् विशेषार्ध्य हाथ में लेकर अपने में शिवस्वरूप की भावना करते हुए पूजा सामग्री का प्रोक्षण आदि करके यज्ञभूमि का संस्कार करे। फिर कुश, दूर्वा और फूल आदि हाथ में लेकर ‘नमः’ आदि के उचारणपूर्वक उसे अभिमन्त्रित करे। इस प्रकार शिवहस्त का विधान करके उसे अपने सिर पर रक्खे और यह भावना करे कि मैं सबका आदि कारण सर्वज्ञ शिव हूँ तथा यज्ञ में मेरी ही प्रधानता है। इस प्रकार आचार्य भगवान् शिव का अत्यन्त ध्यान करे और ज्ञानरूपी खड्ग हाथ में लिये नैर्ऋत्य दिशा में जाकर उत्तराभिमुख हो अर्ध्य का जल छोड़े तथा यज्ञ मण्डप में चारों ओर पचगव्य छिड़के। चतुष्पथान्त संस्कार और उत्तम संस्कारयुक्त वीक्षण आदि के द्वारा वहाँ सब ओर गौर सर्षप आदि बिखरने योग्य वस्तुओं को बिखेरकर कुशनिर्मित कूर्च के द्वारा उनका उपसंहार करे । फिर उनके द्वारा ईशानकोण में वर्धनी एवं कलश की स्थापना के लिये आसन की कल्पना करें ॥ २३-२८ ॥ तत्पश्चात् नैर्ऋकोण में वास्तुदेवता का तथा द्वार पर लक्ष्मी का पूजन करे। फिर पश्चिमाभिमुख कलश को सप्तधान्य के ऊपर स्थापित करके प्रणव के उच्चारणपूर्वक यह भावना करे कि ‘यह शिवस्वरूप कलश नन्दिकेश्वर वृषभ के ऊपर आरूढ़ है। साथ ही वर्धनी सिंह के ऊपर स्थित है, ऐसी भावना करे। कलश पर सार्ङ्ग भगवान् शिव की और वर्धनी में अस्त्र की पूजा करे। इसके बाद पूर्वादि दिशाओं में इन्द्र आदि दिक्पालों का तथा मण्डप के मध्यभाग में ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव आदि का पूजन करे । तत्पश्चात् कलश के पृष्ठभाग का अनुसरण करने वाली वर्धनी को भलीभांति हाथ में लेकर मन्त्रज्ञ गुरु भगवान शिव का आज्ञा सुनावे। फिर पूर्व से लेकर प्रदक्षिणक्रम से चलते हुए ईशानकोणतक जल की अविच्छिन्न धारा गिरावे और मूलमन्त्र का उच्चारण करे । शस्त्ररूपिणी वर्धनी को यज्ञमण्डप के रक्षा लिये उसके चारों ओर घुमावे । पहले कलश को आरोपित करके उसके वामभाग में शस्त्र के लिये वर्धनी को स्थापित करे ॥ २९-३३ ॥ उत्तम एवं सुस्थिर आसनवाले कलश पर भगवान शंकर का तथा प्रणव पर स्थित हुई वर्धनी में उनके आयुध का पूजन करे । तदनन्तर उन दोनों का लिङ्गमुद्रा के द्वारा परस्पर संयोग कराकर भगलिङ्ग संयोग का सम्पादन करें । कलश पर ज्ञानरूपी खड्ग अर्पित करके मूलमन्त्र का जप करें। उस जप के दशांश होम से वर्धनी में रक्षा शोषित करे। फिर वायव्यकोण में गणेशजी की पूजा करके पञ्चामृत आदि से भगवान् शिव को स्नान करावे और पूर्ववत् पूजन करके कुण्ड में शिवस्वरूप अग्नि की पूजा करे । इसके बाद विधिपूर्वक चरु तैयार करके उसे सम्पाताहुति की विधि शोधित करे । तदनन्तर भगवान् शिव, अग्नि और आत्मा के भेद से तीन अधिकारियों के लिये चम्मच से उस चरु के तीन भाग करे तथा अग्निकुण्ड में शिव एवं अग्नि का भाग देकर शेष भाग आत्मा के लिये सुरक्षित रखे ॥ ३४-३८ ॥ तत्पुरुष- मन्त्र के साथ ‘हूँ’ जोड़कर उसके उच्चारणपूर्वक पूर्व दिशा में इष्टदेव के लिये दन्तधावन- अर्पित करे। अघोर मन्त्र के अन्त में ‘वषट्’ जोड़कर उसके उच्चारणपूर्वक उत्तर दिशा में आँवला अर्पित करे। वामदेव-मन्त्र के अन्त में ‘स्वाहा’ जोड़कर उसका उच्चारण करते हुए जल निवेदन करे। ईशान- मन्त्र ॐ ईशानः सर्वविद्यानामीश्वरः सर्वभूतानां ब्रह्माधिपतिर्ब्रह्मणो ब्रह्मा शिवो मेऽस्तु सदा शिवोम् ॥ से ईशानकोण में सुगन्धित जल समर्पित करे । पञ्चगव्य और पलाश आदि के दोने सब दिशाओं में रखे। ईशानकोण में पुष्प, अग्निकोण में गोरोचन, नैर्ऋत्यकोण में अगुरु तथा वायव्यकोण में चतुःसम 1 समर्पित करे तुरंत के पैदा हुए कुशों के साथ समस्त होमद्रव्य भी अर्पित करे। दण्ड, अक्षसूत्र, कौपीन तथा भिक्षापात्र भी देवविग्रह को अर्पित करे। काजल, कुङ्कुम, सुगन्धित तेल, केशों को शुद्ध करनेवाली कंघी, पान, दर्पण तथा गोरोचन भी उत्तर दिशा में अर्पित करे। तत्पश्चात् आसन, खड़ाऊँ, पात्र, योगपट्ट और छत्र- ये वस्तुएँ भगवान् शंकर की प्रसन्नता के लिये ईशानकोण में ईशान- मन्त्र से ही निवेदन करे ॥ ३९-४४१/२ ॥ पूर्व दिशा में घी सहित चरु तथा गन्ध आदि भगवान् तत्पुरुष को अर्पित करे। तदनन्तर अर्घ्यजल से प्रक्षालित तथा संहिता मन्त्र से शोधित पवित्रकों को लेकर अग्नि के निकट पहुँचावे। कृष्ण मृगचर्म आदि से उन्हें ढककर रखे। उनके भीतर समस्त कर्मो के साक्षी और संरक्षक संवत्सरस्वरूप अविनाशी भगवान् शिव का चिन्तन करे। फिर ‘स्वा’ और’हा’ का प्रयोग करते हुए मन्त्र-संहिता के पाठपूर्वक इक्कीस बार उन पवित्रकों का शोधन करे। तत्पश्चात् गृह आदि को सूत्रों से वेष्टित करे। सूर्यदेव को गन्ध, पुष्प आदि चढ़ावे। फिर पूजित हुए सूर्यदेव को आचमनपूर्वक अर्घ्य दे । न्यास करके नन्दी आदि द्वारपालों को और वास्तुदेवता को भी गन्धादि समर्पित करे। तदनन्तर यज्ञ मण्डप के भीतर प्रवेश करके शिव कलश पर उसके चारों ओर इन्द्रादि लोकपालों और उनके शस्त्रों की अपने- अपने नाम मन्त्रों से पूजा करे ॥ ४५-५० ॥ इसके बाद वर्धनी में विघ्नराज, गुरु और आत्मा का पूजन करे। इन सबका पूजन करने के अनन्तर सर्वोषधि से लिप्त, धूप से धूपित तथा पुष्प, दूर्वा आदि से पूजित पवित्रक को दोनों अञ्जलियों के बीच में रख ले और भगवान् शिव को सम्बोधित करते हुए कहे — ‘सबके कारण तथा जड़ और चेतन के स्वामी परमेश्वर! पूजन की समस्त विधियों में होनेवाली त्रुटि की पूर्ति के लिये मैं आपको आमन्त्रित करता हूँ। आपसे अभीष्ट मनोरथ की प्राप्ति करानेवाली सिद्धि चाहता हूँ। आप अपनी आराधना करनेवाले इस उपासक के लिये उस सिद्धि का अनुमोदन कीजिये। शम्भो ! आपको सदा और सब प्रकार से मेरा नमस्कार है। आप मुझ पर प्रसन्न होइये। देवेश्वर! आप देवी पार्वती तथा गणेश्वरों के साथ आमन्त्रित हैं। मन्त्रेश्वरों, लोकपालों तथा सेवकों सहित आप पधारें। परमेश्वर! मैं आपको सादर निमन्त्रित करता हूँ। आपकी आज्ञा से कल प्रातः काल पवित्रारोपण तथा तत्सम्बन्धी नियम का पालन करूंगा’ ॥ ५१-५५१/२ ॥ इस प्रकार महादेवजी को आमन्त्रित करके रेचक प्राणायाम के द्वारा अमृतीकरण की क्रिया सम्पादित करते हुए शिवान्त मूल मन्त्र का उच्चारण एवं जप करके उसे भगवान् शिव को समर्पित करे। जप, स्तुति एवं प्रणाम करके भगवान् शंकर से अपनी त्रुटियों के लिये क्षमा-प्रार्थना करे। तत्पश्चात् चरु के तृतीय अंश का होम करे। उसे शिवस्वरूप अग्नि को, दिग्वासियों को, दिशाओं के अधिपतियों को, भूतगणों को, मातृगणों को, एकादश रुद्रों को तथा क्षेत्रपाल आदि को उनके नाममन्त्र के साथ ‘नमः स्वाहा’ बोलकर आहुति के रूप में अर्पित करे। इसके बाद इन सबका चतुर्थ्यन्त नाम बोलकर ‘अयं बलिः’ कहते हुए बलि समर्पित करे। पूर्वादि दिशाओं में दिग्गजों आदि के साथ दिक्पालों को, क्षेत्रपाल को तथा अग्नि को भी बलि समर्पित करनी चाहिये। बलि के पश्चात् आचमन करके विधिच्छिद्रपूरक 2 होम करे। फिर पूर्णाहुति और व्याहृति- होम करके अग्निदेव को अवरुद्ध करे ॥ ५६-६० ॥ तदनन्तर ॐ अग्नये स्वाहा।’ ‘ॐ सोमाय स्वाहा।’ ‘ॐ अग्नीषोमाभ्यां स्वाहा।’ ‘ॐ अग्नये स्विष्टकृते स्वाहा ।’ — इन चार मन्त्रों से चार आहुतियाँ देकर भावी कार्य की योजना करे। अग्निकुण्ड में पूजित हुए आराध्यदेव भगवान् शिव को पूजामण्डल में पूजित कलशस्थ शिव में नाड़ीसंधानरूप विधि से संयोजित करे। फिर बाँस आदि के पात्र में ‘फट्’ और ‘नमः’ के उच्चारणपूर्वक अस्त्रन्यास और हृदयन्यास करके उसमें सब पवित्रकों को रख दे। इसके बाद ‘शान्तिकलात्मने नमः ।’ ‘विद्याकलात्मने नमः ।” निवृत्तिकलात्मने नमः ।’प्रतिष्ठकलात्मने नमः ।’ ‘शान्त्यतीतकलात्मने नमः ।’ — इन कला- मन्त्र द्वारा उन्हें अभिमन्त्रित करे। फिर प्रणव मन्त्र अथवा मूल मन्त्र से षडङ्गन्यास करके ‘नमः’, ‘हुँ’, एवं ‘फट्’ का उच्चारण करके उनमें क्रमशः हृदय, कवच एवं अस्त्र की योजना करे ॥ ६१–६४ ॥ यह सब करके उन पवित्रकों को सूत्रों से आवेष्टित करे। फिर ‘नमः’, ‘स्वाहा’, ‘वषट्’, ‘हुं’, ‘वौषट्’, तथा ‘फट्’ इन अङ्ग सम्बन्धी मन्त्रों द्वारा उन सबका पूजन करके उनकी रक्षा के लिये भक्तिभाव से नम्र हो, उन्हें जगदीश्वर शिव को समर्पित करे। इसके बाद पुष्प, धूप आदि से पूजित सिद्धान्त-ग्रन्थ पर पवित्रक अर्पित करके गुरु के चरणों के समीप जाकर उन्हें भक्तिपूर्वक पवित्रक दे। फिर वहाँ से बाहर आकर आचमन करे और गोबर से लिपे पुते मण्डलत्रय में क्रमशः पञ्चगव्य, चरु एवं दन्तधावन का पूजन करे ॥ ६५- ६७ ॥ तदनन्तर भलीभाँति आचमन करके मन्त्र से आवृत एवं सुरक्षित साधक रात्रि में संगीत की व्यवस्था करके जागरण करे। आधी रात के बाद भोग- सामग्री की इच्छा रखनेवाला पुरुष मन ही मन भगवान् शंकर का स्मरण करता हुआ कुश की चटाई पर सोये। मोक्ष की इच्छा रखनेवाला पुरुष भी इसी प्रकार जागरण करके उपवासपूर्वक एकाग्रचित हो केवल भस्म की शय्या पर सोवे ॥ ६८-६९ ॥ ॥ इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘पवित्राधिवासन की विधि का वर्णन’ नामक अठहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ७८ ॥ 1. एक गन्धद्रव्य, जिसमें दो भाग कस्तूरी, चार भाग चन्दन, तीन भाग कुङ्कुम और तीन भाग कपूर रहता है। 2. विधि के पालन या सम्पादन में जो त्रुटि रह गयी हो, उसकी पूर्ति करनेवाला। Content is available only for registered users. 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