June 21, 2025 | aspundir | Leave a comment अग्निपुराण – अध्याय 134 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ एक सौ चौंतीसवाँ अध्याय त्रैलोक्यविजया विद्या त्रैलोक्यविजया विद्या भगवान् महेश्वर कहते हैं — देवि ! अब मैं समस्त यन्त्र-मन्त्रों को नष्ट करनेवाली ‘त्रैलोक्यविजया- विद्या’का वर्णन करता हूँ ॥ १ ॥ अथ त्रैलोक्य विजय विद्या मन्त्र ॐ ह्रूं क्षूं ह्रूं, ॐ नमो भगवति दंष्ट्रिणि भीमवक्त्रे महोग्ररूपे हिलि हिलि, रक्तनेत्रे किलि किलि, महानिस्वने कुलु ॐ विद्युज्जिह्वे कुलु ॐ निर्मासे कट कट गोनसाभरणे चिलि चिलि, शवमालाधारिणि द्रावय, ॐ महारौद्रि सार्द्रचर्मकृताच्छदे विजृम्भ, ॐ नृत्यासिलता-धारिणि भृकुटीकृतापाङ्गे विषमनेत्रकृतानने वसामेदोविलिप्तगात्रे कह कह, ॐ हस हस क्रुध्य क्रुध्य, ॐ नीलजीमूतवर्णेऽभ्रमालाकृताभरणे विस्फुर, ॐ घण्टारवाकीर्णदेहे, ॐ सिंसिस्थेऽरुणवर्णे, ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं रौद्ररूपे ह्रूं ह्रीं क्लीं ॐ ह्रीं ह्रूं मोमाकर्ष, ॐ धून धून, ॐ हे हः स्वः खः, वज्रिणि हूं क्षूं क्षां क्रोधरूपिणि प्रज्वल प्रज्वल, ॐ भीमभीषणे भिन्द, ॐ महाकाये छिन्द, ॐ करालिनि किटि किंटि, महाभूतमातः सर्वदुष्टनिवारिणि जये, ॐ विजये ॐ त्रैलोक्यविजये हुं फट् स्वाहा ॥‘ ॐ ह्रूं क्षूं ह्रूं, ॐ बड़ी-बड़ी दाढ़ों से जिनकी आकृति अत्यन्त भयंकर है, उन महोग्ररूपिणी भगवती को नमस्कार है। वे रणाङ्गण में स्वेच्छापूर्वक क्रीड़ा करें, क्रीड़ा करें। लाल नेत्रोंवाली ! किलकारी कीजिये, किलकारी कीजिये । भीमनादिनि कुलु । ॐ विद्युजिह्वे ! कुलु । ॐ मांसहीने ! शत्रुओं को आच्छादित कीजिये, आच्छादित कीजिये । भुजङ्गमालिनि ! वस्त्राभूषणों से अलंकृत होइये, अलंकृत होइये। शवमालाविभूषिते । शत्रुओं को खदेड़िये । ॐ शत्रुओं के रक्त से सने हुए चमड़े के वस्त्र धारण करनेवाली महाभयंकरि ! अपना मुख खोलिये। ॐ ! नृत्य मुद्रा में तलवार धारण करनेवाली !! टेढ़ी भाँहों से युक्त तिरछे नेत्रों से देखनेवाली ! विषम नेत्रों से विकृत मुखवाली !! आपने अपने अङ्गों में मज्जा और मेदा लपेट रखा है। ॐ अट्टहास कीजिये, अट्टहास कीजिये । हँसिये हँसिये क्रुद्ध होइये, क्रुद्ध होइये । ॐ नील मेघ के समान वर्णवाली! मेघमाला को आभरण रूप में धारण करनेवाली !! विशेषरूप से प्रकाशित होइये। ॐ घण्टा की ध्वनि से शत्रुओं के शरीरों की धज्जियाँ उड़ा देनेवाली! ॐ सिंसिस्थिते! रक्तवर्णे! ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं रौद्ररूपे ! ह्रूं ह्रीं क्लीं ॐ ह्रीं ह्रूं ॐ शत्रुओं का आकर्षण कीजिये, उनको हिला डालिये, कँपा डालिये। ॐ हे हः स्व खः वज्रहस्ते! ह्रूं क्षूं क्षां क्रोधरूपिणि! प्रज्वलित होइये, प्रज्वलित होइये । ॐ महाभयंकर को डरानेवाली । उनको चीर डालिये। ॐ विशाल शरीरवाली देवि! उनको काट डालिये। करालरूपे ! शत्रुओं को डराइये, डराइये। महाभयंकर भूतों की जननि! समस्त दुष्टों का निवारण करनेवाली जये !! ॐ विजये !!! ॐ त्रैलोक्यविजये हुं फट् स्वाहा ॥ २ ॥ विजय के उद्देश्य से नीलवर्णा, प्रेताधिरूढ़ा त्रैलोक्यविजया-विद्या की बीस हाथ ऊँची प्रतिमा बनाकर उसका पूजन करे। पञ्चाङ्गन्यास करके रक्तपुष्पों का हवन करे। इस त्रैलोक्यविजया- विद्या पठन से समरभूमि में शत्रु की सेनाएँ पलायन कर जाती हैं ॥ ३ ॥ ॐ नमो बहुरूपाय स्तम्भय स्तम्भय ॐ मोहय ॐ सर्वशत्रून् द्रावय, ॐ ब्रह्माणमाकर्षय, ॐ विष्णुमाकर्षय, ॐ महेश्वरमाकर्षय, ॐ इन्द्रं टालय, ॐ पर्वतांश्चालय, ॐ सप्तसागराञ्शोषय, ॐ च्छिन्द च्छिन्द बहुरूपाय नमः॥ ४ ॥ ॐ अनेकरूप को नमस्कार है। शत्रु का स्तम्भन कीजिये, स्तम्भन कीजिये। ॐ सम्मोहन कीजिये । ॐ सब शत्रुओं को खदेड़ दीजिये । ॐ ब्रह्मा का आकर्षण कीजिये । ॐ विष्णु का आकर्षण कीजिये। ॐ महेश्वर का आकर्षण कीजिये। ॐ इन्द्र को भयभीत कीजिये। ॐ पर्वतों को विचलित कीजिये । ॐ सातों समुद्रों को सुखा डालिये। ॐ काट डालिये, काट डालिये। अनेकरूप को नमस्कार है ॥ ४ ॥ मिट्टी की मूर्ति बनाकर उसमें शत्रु को स्थित हुआ जाने, अर्थात् उसमें शत्रु के स्थित होने की भावना करे। उस मूर्ति में स्थित शत्रु का ही नाम भुजंग है; ॐ बहुरूपाय’ इत्यादि मन्त्र से अभिमन्त्रित करके उस शत्रु के नाश के लिये उक्त मन्त्र का जप करे। इससे शत्रु का अन्त हो जाता है ॥ ५ ॥ ॥ इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में युद्धजयार्णव के अन्तर्गत ‘त्रैलोक्यविजया विद्या का वर्णन’ नामक एक सौ चौंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १३४ ॥ Content is available only for registered users. Please login or register Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. Type your email… Subscribe