अग्निपुराण – अध्याय 141
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
एक सौ इकतालीसवाँ अध्याय
छत्तीस कोष्ठों में निर्दिष्ट ओषधियों के वैज्ञानिक प्रभाव का वर्णन
षट्त्रिंशत्पदकज्ञानम्

महादेवजी कहते हैं — स्कन्द ! अब मैं छत्तीस पदों (कोष्ठकों) में स्थापित की हुई ओषधियों का फल बताता हूँ। इन ओषधियों के सेवन से मनुष्यों का अमरीकरण होता है। ये औषध ब्रह्मा, रुद्र तथा इन्द्र के द्वारा उपयोग में लाये गये हैं ॥ १ ॥

हरीतकी (हरे), अक्षधात्री (आँवला), मरीच (गोलमिर्च), पिप्पली, शिफा (जटामांसी), वह्नि (भिलावा), शुण्ठी (सोंठ), पिप्पली, गुडुची (गिलोय), वच, निम्ब, वासक (अडूसा), शतमूली(शतावरी), सैंधव (सेंधानमक), सिन्धुवार, कण्टकारि (कटेरी), गोक्षुर (गोखरू), बिल्व (बेल), पुनर्नवा (गदहपूर्णा), बला (बरियारा), रेंड़, मुण्डी, रुचक (बिजौरा नीबू), भृङ्ग (दालचीनी), क्षार (खारा नमक या यवक्षार), पर्पट (पित्तपापड़ा), धन्याक (धनिया), जीरक (जीरा), शतपुष्पी (सौंफ), यवानी (अजवाइन ), विडङ्ग (वायविडंग), खदिर (खैर), कृतमाल (अमलतास), हल्दी, वचा, सिद्धार्थ (सफेद सरसों) — ये छत्तीस पदों में स्थापित औषध हैं ॥ २-५ ॥’

क्रमशः एक-दो आदि संख्यावाले ये महान् औषध समस्त रोगों को दूर करने वाले तथा अमर बनाने वाले हैं; इतना ही नहीं, पूर्वोक्त सभी कोष्ठों के औषध शरीर में झुर्रियाँ नहीं पड़ने देते और बालों का पकना रोक देते हैं। इनका चूर्ण या इनके रस से भावित बटी, अवलेह, कषाय (काढ़ा), लड्डू या गुडखण्ड यदि घी या मधु के साथ खाया जाये, अथवा इनके रस से भावित घी या तेल का जिस किसी तरह से भी उपयोग किया जाय, वह सर्वथा मृतसंजीवन (मुर्दे को भी जिलाने वाला) होता है। आधे कर्ष या एक कर्षभर अथवा आधे पल या एक पल के तोल में इसका उपयोग करने वाला पुरुष यथेष्ट आहार-विहार में तत्पर होकर तीन सौ वर्षों तक जीवित रहता है। मृतसंजीवनी कल्प में इससे बढ़कर दूसरा योग नहीं है ॥ ६-१० ॥

(नौ-नौ औषधों के समुदाय को एक ‘नवक’ कहते हैं। इस तरह उक्त छत्तीस औषधों में चार नवक होते हैं।) प्रथम नवक के योग से बनी हुई ओषधि का सेवन करने से मनुष्य सब रोगों से छुटकारा पा जाता है, इसी तरह दूसरे, तीसरे और चौथे नवक के योग का सेवन करने से भी मनुष्य रोगमुक्त होता है। इसी प्रकार पहले, दूसरे, तीसरे, चौथे, पाँचवें और छठें षट्क 1  के सेवनमात्र से भी मनुष्य नीरोग हो जाता है। उक्त छत्तीस ओषधियों में नौ चतुष्क होते हैं। उनमें से किसी एक चतुष्क 2  के सेवन से भी मनुष्य के सारे रोग दूर हो जाते हैं। प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ, पञ्चम, षष्ठ, सप्तम और अष्टम कोष्ठ की ओषधियों के सेवन से वात दोष से छुटकारा मिलता है। तीसरी, बारहवीं, छब्बीसवीं और सत्ताईसवीं ओषधियों के सेवन से पित्त दोष दूर होता है तथा पाँचवीं, छठी, सातवीं, आठवीं और पंद्रहवीं ओषधियों के सेवन से कफ दोष की निवृत्ति होती है। चौंतीसवें, पैंतीसवें और छत्तीसवें कोष्ठ की औषधों को धारण करने से वशीकरण की सिद्धि होती है तथा ग्रहबाधा, भूतबाधा आदि से लेकर निग्रहपर्यन्त सारे संकटों से छुटकारा मिल जाता है ॥ ११-१४१/२

प्रथम, द्वितीय, तृतीय, षष्ठ, सप्तम, अष्टम, नवम, एकादश संख्यावाली ओषधियों तथा बत्तीसवीं, पंद्रहवीं एवं बारहवीं संख्यावाली ओषधियों को धारण करने से भी उक्त फल की प्राप्ति ( वशीकरण की सिद्धि एवं भूतादि बाधा की निवृत्ति) होती है। इसमें कोई अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये। छत्तीस कोष्ठों में निर्दिष्ट की गयी इन ओषधियों का ज्ञान जैसे-तैसे हर व्यक्ति को नहीं देना चाहिये ॥ १५-१६ ॥

॥ इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘छत्तीस कोठों के भीतर स्थापित ओषधियों के विज्ञान का वर्णन ‘ नामक एक सौ इकतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १४१ ॥

1.2.  छ: ओषधियों के समुदाय को ‘षट्क’ और चार ओषधियों के समुदाय को ‘चतुष्क’ कहते हैं।

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