June 24, 2025 | aspundir | Leave a comment अग्निपुराण – अध्याय 153 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ एक सौ तिरपनवाँ अध्याय संस्कारों का वर्णन और ब्रह्मचारी के धर्म का वर्णन ब्रह्मचर्याश्रमधर्मः पुष्कर कहते हैं — परशुरामजी ! अब मैं आश्रमी पुरुषों के धर्म का वर्णन करूँगा; सुनो! यह भोग और मोक्ष प्रदान करने वाला है। स्त्रियों के ऋतुधर्म की सोलह रात्रियाँ होती हैं, उनमें पहले की तीन रातें निन्दित हैं। शेष रातों में जो युग्म अर्थात् चौथी, छठी, आठवीं और दसवीं आदि रात्रियाँ हैं, उनमें ही पुत्र की इच्छा रखने वाला पुरुष स्त्री- समागम करे। यह ‘गर्भाधान संस्कार’ कहलाता है। ‘गर्भ’ रह गया — इस बात का स्पष्टरूप से ज्ञान हो जाने पर गर्भस्थ शिशु के हिलने-डुलने से पहले ही ‘पुंसवन संस्कार’ होता है। तत्पश्चात् छठे या आठवें मास में ‘सीमन्तोन्नयन’ किया जाता है। उस दिन पुल्लिङ्ग नामवाले नक्षत्र का होना शुभ है। बालक का जन्म होने पर नाल काटने के पहले ही विद्वान् पुरुषों को उसका ‘जातकर्म – संस्कार’ करना चाहिये। सूतक निवृत्त होने पर ‘नामकरण- संस्कार’ का विधान है। ब्राह्मण के नाम के अन्त में ‘शर्मा’ और क्षत्रिय के नाम के अन्त में ‘वर्मा’ होना चाहिये । वैश्य और शूद्र के नामों के अन्त में क्रमशः ‘गुप्त’ और ‘दास’ पद का होना उत्तम माना गया है। उक्त संस्कार के समय पत्नी स्वामी की गोद में पुत्र को दे और कहे — ‘यह आपका पुत्र है ‘ ॥ १-५ ॥‘ फिर कुलाचार के अनुरूप ‘चूडाकरण’ करे। ब्राह्मण-बालक का ‘उपनयन संस्कार’ गर्भ अथवा जन्म से आठवें वर्ष में होना चाहिये। गर्भ से ग्यारहवें वर्ष में क्षत्रिय बालक का तथा गर्भ से बारहवें वर्ष में वैश्य- बालक का उपनयन करना चाहिये। ब्राह्मण- बालक का उपनयन सोलहवें, क्षत्रिय बालक का बाईसवें और वैश्य – बालक का चौबीसवें वर्ष से आगे नहीं जाना चाहिये। तीनों वर्णों के लिये क्रमशः मूँज प्रत्यञ्चा तथा वल्कल की मेखला बतायी गयी है। इसी प्रकार तीनों वर्णों के ब्रह्मचारियों के लिये क्रमशः मृग, व्याघ्र तथा बकरे के चर्म और पलाश, पीपल तथा बेल के दण्ड धारण करने योग्य बताये गये हैं। ब्राह्मण का दण्ड उसके केश तक, क्षत्रिय का ललाट तक और वैश्य का मुख तक लंबा होना चाहिये। इस प्रकार क्रमशः दण्डों की लंबाई बतायी गयी है। ये दण्ड टेढ़े-मेढ़े न हों। इनके छिलके मौजूद हों तथा ये आग में जलाये न गये हों ॥ ६-९ ॥ उक्त तीनों वर्णों के लिये वस्त्र और यज्ञोपवीत क्रमशः कपास (रुई), रेशम तथा ऊन के होने चाहिये। ब्राह्मण ब्रह्मचारी भिक्षा माँगते समय वाक्य के आदि में ‘भवत्’ शब्द का प्रयोग करे।[ जैसे माता के पास जाकर कहे ‘भवति भिक्षां मे देहि मातः।’ पूज्य माताजी! मुझे भिक्षा दें ।] इसी प्रकार क्षत्रिय ब्रह्मचारी वाक्य के मध्य में तथा वैश्य ब्रह्मचारी वाक्य के अन्त में ‘भवत्’ शब्द का प्रयोग करे। (यथा- क्षत्रिय – भिक्षां भवति मे देहि । वैश्य – भिक्षां मे देहि भवति ।) पहले वहीं भिक्षा माँगे, जहाँ भिक्षा अवश्य प्राप्त होने की सम्भावना हो । स्त्रियों के अन्य सभी संस्कार बिना मन्त्र के होने चाहिये; केवल विवाह- संस्कार ही मन्त्रोच्चारणपूर्वक होता है। गुरु को चाहिये कि वह शिष्य का उपनयन (यज्ञोपवीत) संस्कार करके पहले शौचाचार, सदाचार, अग्निहोत्र तथा संध्योपासना की शिक्षा दे ॥ १०-१२ ॥ जो पूर्व की ओर मुँह करके भोजन करता है, वह आयुष्य भोगता है, दक्षिण की ओर मुँह करके खाने वाला यश का, पश्चिमाभिमुख होकर भोजन करने वाला लक्ष्मी (धन) का तथा उत्तर की ओर मुँह करके अन्न ग्रहण करने वाला पुरुष सत्य का उपभोग करता है। ब्रह्मचारी प्रतिदिन सायंकाल और प्रातः काल अग्निहोत्र करे। अपवित्र वस्तु का होम निषिद्ध है। होम के समय हाथ की अङ्गुलियों को परस्पर सटाये रहे। मधु, मांस, मनुष्यों के साथ विवाद, गाना और नाचना आदि छोड़ दे। हिंसा, परायी निन्दा तथा विशेषतः अश्लील चर्चा (गाली- गलौज आदि) का त्याग करे। दण्ड आदि धारण किये रहे। यदि वह टूट जाय तो जल में उसका विसर्जन कर दे और नवीन दण्ड धारण करे। वेदों का अध्ययन पूरा करके गुरु को दक्षिणा देने के पश्चात् व्रतान्त-स्नान करे; अथवा नैष्ठिक ब्रह्मचारी होकर जीवनभर गुरुकुल में ही निवास करता रहे ॥ १३-१६ ॥ ॥ इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘ब्रह्मचर्याश्रम-वर्णन’ नामक एक सौ तिरपनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १५३ ॥ Content is available only for registered users. Please login or register Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. Type your email… Subscribe