July 3, 2025 | aspundir | Leave a comment अग्निपुराण – अध्याय 217 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ दो सौ सत्रहवाँ अध्याय गायत्री से निर्वाण की प्राप्ति वसिष्ठकृत लिंगमूर्ति स्तुति अथवा श्रीपरमेश्वरस्तोत्र गायत्रीनिर्वाणं अग्निदेव कहते हैं — वसिष्ठ! किसी अन्य वसिष्ठ ने गायत्री जपपूर्वक लिङ्गमूर्ति शिव की स्तुति करके भगवान् शंकर से निर्वाणस्वरूप परब्रह्म की प्राप्ति की ॥ १ ॥ वसिष्ठ ने कहा — कनकलिङ्ग को नमस्कार, वेदलिङ्ग को नमस्कार, परमलिङ्ग को नमस्कार और आकाशलिङ्ग को नमस्कार है। मैं सहस्रलिङ्ग, वह्निलिङ्ग, पुराणलिङ्ग और वेदलिङ्ग शिव को बारंबार नमस्कार करता हूँ। पाताललिङ्ग, ब्रह्मलिङ्ग, सप्तद्वीपोर्ध्वलिङ्ग को बारंबार नमस्कार है। मैं सर्वात्मलिङ्ग, सर्वलोकाङ्गलिङ्ग, अव्यक्तलिङ्ग, बुद्धिलिङ्ग, अहंकारलिङ्ग, भूतलिङ्ग, इन्द्रियलिङ्ग, तन्मात्रलिङ्ग, पुरुषलिङ्ग, भावलिङ्ग, रजोध्र्ध्वलिङ्ग सत्त्वलिङ्ग, भवलिङ्ग, त्रैगुण्यलिङ्ग, अनागतलिङ्ग, तेजोलिङ्ग, वायूर्ध्वलिङ्ग, श्रुतिलिङ्ग, अथर्वलिङ्ग, समलिङ्ग, यज्ञाङ्गलिङ्ग, यज्ञलिङ्ग, तत्त्वलिङ्ग और देवानुगतलिङ्गरूप आप शंकर को बारंबार नमस्कार करता हूँ। प्रभो! आप मुझे परमयोग का उपदेश कीजिये और मेरे समान पुत्र प्रदान कीजिये। भगवन्! मुझे अविनाशी परब्रह्म एवं परमशान्ति की प्राप्ति कराइये। मेरा वंश कभी क्षीण न हो और मेरी बुद्धि सदा धर्म में लगी रहे ॥ २-१२ ॥’ अग्निदेव कहते हैं — प्राचीन काल में श्री शैल पर वसिष्ठ के इस प्रकार स्तुति करने पर भगवान् शंकर प्रसन्न हो गये और वसिष्ठ को वर देकर वहीं अन्तर्धान हो गये ॥ १३ ॥ ॥ इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘गायत्री निर्वाण का कथन’ नामक दो सौ सत्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २१७ ॥ Content is available only for registered users. Please login or register Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. Type your email… Subscribe