August 23, 2015 | Leave a comment दशरथकृत शनि स्तोत्र विनियोगः- ॐ अस्य श्रीशनि-स्तोत्र-मन्त्रस्य कश्यप ऋषिः, त्रिष्टुप् छन्दः, सौरिर्देवता, शं बीजम्, निः शक्तिः, कृष्णवर्णेति कीलकम्, धर्मार्थ-काम-मोक्षात्मक-चतुर्विध-पुरुषार्थ-सिद्धयर्थे जपे विनियोगः। कर-न्यासः- शनैश्चराय अंगुष्ठाभ्यां नमः। मन्दगतये तर्जनीभ्यां नमः। अधोक्षजाय मध्यमाभ्यां नमः। कृष्णांगाय अनामिकाभ्यां नमः। शुष्कोदराय कनिष्ठिकाभ्यां नमः। छायात्मजाय करतल-कर-पृष्ठाभ्यां नमः। हृदयादि-न्यासः- शनैश्चराय हृदयाय नमः। मन्दगतये शिरसे स्वाहा। अधोक्षजाय शिखायै वषट्। कृष्णांगाय कवचाय हुम्। शुष्कोदराय नेत्र-त्रयाय वौषट्। छायात्मजाय अस्त्राय फट्। दिग्बन्धनः- “ॐ भूर्भुवः स्वः” पढ़ते हुए चारों दिशाओं में चुटकी बजाएं। ध्यानः- नीलद्युतिं शूलधरं किरीटिनं गृध्रस्थितं त्रासकरं धनुर्धरम्। चतुर्भुजं सूर्यसुतं प्रशान्तं वन्दे सदाभीष्टकरं वरेण्यम्।। अर्थात् नीलम के समान कान्तिमान, हाथों में धनुष और शूल धारण करने वाले, मुकुटधारी, गिद्ध पर विराजमान, शत्रुओं को भयभीत करने वाले, चार भुजाधारी, शान्त, वर को देने वाले, सदा भक्तों के हितकारक, सूर्य-पुत्र को मैं प्रणाम करता हूँ। रघुवंशेषु विख्यातो राजा दशरथः पुरा। चक्रवर्ती स विज्ञेयः सप्तदीपाधिपोऽभवत्।।१ कृत्तिकान्ते शनिंज्ञात्वा दैवज्ञैर्ज्ञापितो हि सः। रोहिणीं भेदयित्वातु शनिर्यास्यति साम्प्रतं।।२ शकटं भेद्यमित्युक्तं सुराऽसुरभयंकरम्। द्वासधाब्दं तु भविष्यति सुदारुणम्।।३ एतच्छ्रुत्वा तु तद्वाक्यं मन्त्रिभिः सह पार्थिवः। व्याकुलं च जगद्दृष्टवा पौर-जानपदादिकम्।।४ ब्रुवन्ति सर्वलोकाश्च भयमेतत्समागतम्। देशाश्च नगर ग्रामा भयभीतः समागताः।।५ पप्रच्छ प्रयतोराजा वसिष्ठ प्रमुखान् द्विजान्। समाधानं किमत्राऽस्ति ब्रूहि मे द्विजसत्तमः।।६ प्राजापत्ये तु नक्षत्रे तस्मिन् भिन्नेकुतः प्रजाः। अयं योगोह्यसाध्यश्च ब्रह्म-शक्रादिभिः सुरैः।।७ तदा सञ्चिन्त्य मनसा साहसं परमं ययौ। समाधाय धनुर्दिव्यं दिव्यायुधसमन्वितम्।।८ रथमारुह्य वेगेन गतो नक्षत्रमण्डलम्। त्रिलक्षयोजनं स्थानं चन्द्रस्योपरिसंस्थिताम्।।९ रोहिणीपृष्ठमासाद्य स्थितो राजा महाबलः। रथेतुकाञ्चने दिव्ये मणिरत्नविभूषिते।।१० हंसवर्नहयैर्युक्ते महाकेतु समुच्छिते। दीप्यमानो महारत्नैः किरीटमुकुटोज्वलैः।।११ ब्यराजत तदाकाशे द्वितीये इव भास्करः। आकर्णचापमाकृष्य सहस्त्रं नियोजितम्।।१२ कृत्तिकान्तं शनिर्ज्ञात्वा प्रदिशतांच रोहिणीम्। दृष्टवा दशरथं चाग्रेतस्थौतु भृकुटीमुखः।।१३ संहारास्त्रं शनिर्दृष्टवा सुराऽसुरनिषूदनम्। प्रहस्य च भयात् सौरिरिदं वचनमब्रवीत्।।१४ प्राचीन काल में रघुवंश में दशरथ नामक प्रसिद्ध चक्रवती राजा हुए, जो सातों द्वीपों के स्वामी थे। उनके राज्यकाल में एक दिन ज्योतिषियों ने शनि को कृत्तिका के अन्तिम चरण में देखकर राजा से कहा कि अब यह शनि रोहिणी का भेदन कर जायेगा। इसको ‘रोहिणी-शकट-भेदन’ कहते हैं। यह योग देवता और असुर दोनों ही के लिये भयप्रद होता है तथा इसके पश्चात् बारह वर्ष का घोर दुःखदायी अकाल पड़ता है। ज्योतिषियों की यह बात मन्त्रियों के साथ राजा ने सुनी, इसके साथ ही नगर और जनपद-वासियों को बहुत व्याकुल देखा। उस समय नगर और ग्रामों के निवासी भयभीत होकर राजा से इस विपत्ति से रक्षा की प्रार्थना करने लगे। अपने प्रजाजनों की व्याकुलता को देखकर राजा दशरथ वशिष्ठ ऋषि तथा प्रमुख ब्राह्मणों से कहने लगे- ‘हे ब्राह्मणों ! इस समस्या का कोई समाधान मुझे बताइए।’।।१-६ इस पर वशिष्ठ जी कहने लगे- ‘प्रजापति के इस नक्षत्र (रोहिणी) में यदि शनि भेदन होता है तो प्रजाजन सुखी कैसे रह सकते हें। इस योग के दुष्प्रभाव से तो ब्रह्मा एवं इन्द्रादिक देवता भी रक्षा करने में असमर्थ हैं।।७।। विद्वानों के यह वचन सुनकर राजा को ऐसा प्रतीत हुआ कि यदि वे इस संकट की घड़ी को न टाल सके तो उन्हें कायर कहा जाएगा। अतः राजा विचार करके साहस बटोरकर दिव्य धनुष तथा दिव्य आयुधों से युक्त होकर रथ को तीव्र गति से चलाते हुए चन्द्रमा से भी तीन लाख योजन ऊपर नक्षत्र मण्डल में ले गए। मणियों तथा रत्नों से सुशोभित स्वर्ण-निर्मित रथ में बैठे हुए महाबली राजा ने रोहिणी के पीछे आकर रथ को रोक दिया। सफेद घोड़ों से युक्त और ऊँची-ऊँची ध्वजाओं से सुशोभित मुकुट में जड़े हुए बहुमुल्य रत्नों से प्रकाशमान राजा दशरथ उस समय आकाश में दूसरे सूर्य की भांति चमक रहे थे। शनि को कृत्तिका नक्षत्र के पश्चात् रोहिनी नक्षत्र में प्रवेश का इच्छुक देखकर राजा दशरथ बाण युक्त धनुष कानों तक खींचकर भृकुटियां तानकर शनि के सामने डटकर खड़े हो गए। अपने सामने देव-असुरों के संहारक अस्त्रों से युक्त दशरथ को खड़ा देखकर शनि थोड़ा डर गया और हंसते हुए राजा से कहने लगा।।८-१४ शनि उवाच- पौरुषं तव राजेन्द्र ! मया दृष्टं न कस्यचित्। देवासुरामनुष्याशऽच सिद्ध-विद्याधरोरगाः।।१५ मयाविलोकिताः सर्वेभयं गच्छन्ति तत्क्षणात्। तुष्टोऽहं तव राजेन्द्र ! तपसापौरुषेण च।।१६ वरं ब्रूहि प्रदास्यामि स्वेच्छया रघुनन्दनः ! शनि कहने लगा- ‘ हे राजेन्द्र ! तुम्हारे जैसा पुरुषार्थ मैंने किसी में नहीं देखा, क्योंकि देवता, असुर, मनुष्य, सिद्ध, विद्याधर और सर्प जाति के जीव मेरे देखने मात्र से ही भय-ग्रस्त हो जाते हैं। हे राजेन्द्र ! मैं तुम्हारी तपस्या और पुरुषार्थ से अत्यन्त प्रसन्न हूँ। अतः हे रघुनन्दन ! जो तुम्हारी इच्छा हो वर मां लो, मैं तुम्हें दूंगा।।१५-१६।। दशरथ उवाच- प्रसन्नोयदि मे सौरे ! एकश्चास्तु वरः परः।।१७ रोहिणीं भेदयित्वा तु न गन्तव्यं कदाचन्। सरितः सागरा यावद्यावच्चन्द्रार्कमेदिनी।।१८ याचितं तु महासौरे ! नऽन्यमिच्छाम्यहं। एवमस्तुशनिप्रोक्तं वरलब्ध्वा तु शाश्वतम्।।१९ प्राप्यैवं तु वरं राजा कृतकृत्योऽभवत्तदा। पुनरेवाऽब्रवीत्तुष्टो वरं वरम् सुव्रत ! ।।२० दशरथ ने कहा- हे सूर्य-पुत्र शनि-देव ! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मैं केवल एक ही वर मांगता हूँ कि जब तक नदियां, सागर, चन्द्रमा, सूर्य और पृथ्वी इस संसार में है, तब तक आप रोहिणी शकट भेदन कदापि न करें। मैं केवल यही वर मांगता हूँ और मेरी कोई इच्छा नहीं है।’ तब शनि ने ‘एवमस्तु’ कहकर वर दे दिया। इस प्रकार शनि से वर प्राप्त करके राजा अपने को धन्य समझने लगा। तब शनि ने कहा- ‘मैं पुमसे परम प्रसन्न हूँ, तुम और भी वर मांग लो।।१७-२० प्रार्थयामास हृष्टात्मा वरमन्यं शनिं तदा। नभेत्तव्यं न भेत्तव्यं त्वया भास्करनन्दन।।२१ द्वादशाब्दं तु दुर्भिक्षं न कर्तव्यं कदाचन। कीर्तिरषामदीया च त्रैलोक्ये तु भविष्यति।।२२ एवं वरं तु सम्प्राप्य हृष्टरोमा स पार्थिवः। रथोपरिधनुः स्थाप्यभूत्वा चैव कृताञ्जलिः।।२३ ध्यात्वा सरस्वती देवीं गणनाथं विनायकम्। राजा दशरथः स्तोत्रं सौरेरिदमथाऽकरोत्।।२४ तब राजा ने प्रसन्न होकर शनि से दूसरा वर मांगा। तब शनि कहने लगे- ‘हे सूर्य वंशियो के पुत्र तुम निर्भय रहो, निर्भय रहो। बारह वर्ष तक तुम्हारे राज्य में अकाल नहीं पड़ेगा। तुम्हारी यश-कीर्ति तीनों लोकों में फैलेगी। ऐसा वर पाकर राजा प्रसन्न होकर धनुष-बाण रथ में रखकर सरस्वती देवी तथा गणपति का ध्यान करके शनि की स्तुति इस प्रकार करने लगा।।२१-२४ दशरथकृत शनि स्तोत्र नम: कृष्णाय नीलाय शितिकण्ठ निभाय च। नम: कालाग्निरूपाय कृतान्ताय च वै नम: ।।२५।। नमो निर्मांस देहाय दीर्घश्मश्रुजटाय च । नमो विशालनेत्राय शुष्कोदर भयाकृते।।२६ नम: पुष्कलगात्राय स्थूलरोम्णेऽथ वै नम:। नमो दीर्घाय शुष्काय कालदंष्ट्र नमोऽस्तु ते।।२७ नमस्ते कोटराक्षाय दुर्नरीक्ष्याय वै नम: । नमो घोराय रौद्राय भीषणाय कपालिने।।२८ नमस्ते सर्वभक्षाय बलीमुख नमोऽस्तु ते। सूर्यपुत्र नमस्तेऽस्तु भास्करेऽभयदाय च ।।२९ अधोदृष्टे: नमस्तेऽस्तु संवर्तक नमोऽस्तु ते। नमो मन्दगते तुभ्यं निस्त्रिंशाय नमोऽस्तुते ।।३० तपसा दग्ध-देहाय नित्यं योगरताय च । नमो नित्यं क्षुधार्ताय अतृप्ताय च वै नम: ।।३१ ज्ञानचक्षुर्नमस्तेऽस्तु कश्यपात्मज-सूनवे । तुष्टो ददासि वै राज्यं रुष्टो हरसि तत्क्षणात् ।।३२ देवासुरमनुष्याश्च सिद्ध-विद्याधरोरगा:। त्वया विलोकिता: सर्वे नाशं यान्ति समूलत:।।३३ प्रसाद कुरु मे सौरे ! वारदो भव भास्करे। एवं स्तुतस्तदा सौरिर्ग्रहराजो महाबल: ।।३४ जिनके शरीर का वर्ण कृष्ण नील तथा भगवान् शंकर के समान है, उन शनि देव को नमस्कार है। जो जगत् के लिए कालाग्नि एवं कृतान्त रुप हैं, उन शनैश्चर को बार-बार नमस्कार है।।२५ जिनका शरीर कंकाल जैसा मांस-हीन तथा जिनकी दाढ़ी-मूंछ और जटा बढ़ी हुई है, उन शनिदेव को नमस्कार है। जिनके बड़े-बड़े नेत्र, पीठ में सटा हुआ पेट और भयानक आकार है, उन शनैश्चर देव को नमस्कार है।।२६ जिनके शरीर का ढांचा फैला हुआ है, जिनके रोएं बहुत मोटे हैं, जो लम्बे-चौड़े किन्तु सूके शरीर वाले हैं तथा जिनकी दाढ़ें कालरुप हैं, उन शनिदेव को बार-बार प्रणाम है।।२७ हे शने ! आपके नेत्र कोटर के समान गहरे हैं, आपकी ओर देखना कठिन है, आप घोर रौद्र, भीषण और विकराल हैं, आपको नमस्कार है।।२८ वलीमूख ! आप सब कुछ भक्षण करने वाले हैं, आपको नमस्कार है। सूर्यनन्दन ! भास्कर-पुत्र ! अभय देने वाले देवता ! आपको प्रणाम है।।२९ नीचे की ओर दृष्टि रखने वाले शनिदेव ! आपको नमस्कार है। संवर्तक ! आपको प्रणाम है। मन्दगति से चलने वाले शनैश्चर ! आपका प्रतीक तलवार के समान है, आपको पुनः-पुनः प्रणाम है।।३० आपने तपस्या से अपनी देह को दग्ध कर लिया है, आप सदा योगाभ्यास में तत्पर, भूख से आतुर और अतृप्त रहते हैं। आपको सदा सर्वदा नमस्कार है।।३१ ज्ञाननेत्र ! आपको प्रणाम है। काश्यपनन्दन सूर्यपुत्र शनिदेव आपको नमस्कार है। आप सन्तुष्ट होने पर राज्य दे देते हैं और रुष्ट होने पर उसे तत्क्षण हर लेते हैं।।३२ देवता, असुर, मनुष्य, सिद्ध, विद्याधर और नाग- ये सब आपकी दृष्टि पड़ने पर समूल नष्ट हो जाते हैं।।३३ देव मुझ पर प्रसन्न होइए। मैं वर पाने के योग्य हूँ और आपकी शरण में आया हूँ।।३४ एवं स्तुतस्तदा सौरिर्ग्रहराजो महाबलः। अब्रवीच्च शनिर्वाक्यं हृष्टरोमा च पार्थिवः।।३५ तुष्टोऽहं तव राजेन्द्र ! स्तोत्रेणाऽनेन सुव्रत। एवं वरं प्रदास्यामि यत्ते मनसि वर्तते।।३६ राजा दशरथ के इस प्रकार प्रार्थना करने पर ग्रहों के राजा महाबलवान् सूर्य-पुत्र शनैश्चर बोले- ‘उत्तम व्रत के पालक राजा दशरथ ! तुम्हारी इस स्तुति से मैं अत्यन्त सन्तुष्ट हूँ। रघुनन्दन ! तुम इच्छानुसार वर मांगो, मैं अवश्य दूंगा।।३५-३६ दशरथ उवाच- प्रसन्नो यदि मे सौरे ! वरं देहि ममेप्सितम्। अद्य प्रभृति-पिंगाक्ष ! पीडा देया न कस्यचित्।।३७ प्रसादं कुरु मे सौरे ! वरोऽयं मे महेप्सितः। राजा दशरथ बोले- ‘प्रभु ! आज से आप देवता, असुर, मनुष्य, पशु, पक्षी तथा नाग-किसी भी प्राणी को पीड़ा न दें। बस यही मेरा प्रिय वर है।।३७ शनि उवाच- अदेयस्तु वरौऽस्माकं तुष्टोऽहं च ददामि ते।।३८ त्वयाप्रोक्तं च मे स्तोत्रं ये पठिष्यन्ति मानवाः। देवऽसुर-मनुष्याश्च सिद्ध विद्याधरोरगा।।३९ न तेषां बाधते पीडा मत्कृता वै कदाचन। मृत्युस्थाने चतुर्थे वा जन्म-व्यय-द्वितीयगे।।४० गोचरे जन्मकाले वा दशास्वन्तर्दशासु च। यः पठेद् द्वि-त्रिसन्ध्यं वा शुचिर्भूत्वा समाहितः।।४१ न तस्य जायते पीडा कृता वै ममनिश्चितम्। प्रतिमा लोहजां कृत्वा मम राजन् चतुर्भुजाम्।।४२ वरदां च धनुः-शूल-बाणांकितकरां शुभाम्। आयुतमेकजप्यं च तद्दशांशेन होमतः।।४३ कृष्णैस्तिलैः शमीपत्रैर्धृत्वाक्तैर्नीलपंकजैः। पायससंशर्करायुक्तं घृतमिश्रं च होमयेत्।।४४ ब्राह्मणान्भोजयेत्तत्र स्वशक्तया घृत-पायसैः। तैले वा तेलराशौ वा प्रत्यक्ष व यथाविधिः।।४५ पूजनं चैव मन्त्रेण कुंकुमाद्यं च लेपयेत्। नील्या वा कृष्णतुलसी शमीपत्रादिभिः शुभैः।।४६ दद्यान्मे प्रीतये यस्तु कृष्णवस्त्रादिकं शुभम्। धेनुं वा वृषभं चापि सवत्सां च पयस्विनीम्।।४७ एवं विशेषपूजां च मद्वारे कुरुते नृप ! मन्त्रोद्धारविशेषेण स्तोत्रेणऽनेन पूजयेत्।।४८ पूजयित्वा जपेत्स्तोत्रं भूत्वा चैव कृताञ्जलिः। तस्य पीडां न चैवऽहं करिष्यामि कदाचन्।।४९ रक्षामि सततं तस्य पीडां चान्यग्रहस्य च। अनेनैव प्रकारेण पीडामुक्तं जगद्भवेत्।।५० शनि ने कहा- ‘हे राजन् ! यद्यपि ऐसा वर मैं किसी को देता नहीं हूँ, किन्तु सन्तुष्ट होने के कारण तुमको दे रहा हूँ। तुम्हारे द्वारा कहे गये इस स्तोत्र को जो मनुष्य, देव अथवा असुर, सिद्ध तथा विद्वान आदि पढ़ेंगे, उन्हें शनि बाधा नहीं होगी। जिनके गोचर में महादशा या अन्तर्दशा में अथवा लग्न स्थान, द्वितीय, चतुर्थ, अष्टम या द्वादश स्थान में शनि हो वे व्यक्ति यदि पवित्र होकर प्रातः, मध्याह्न और सायंकाल के समय इस स्तोत्र को ध्यान देकर पढ़ेंगे, उनको निश्चित रुप से मैं पीड़ित नहीं करुंगा।।३८-४१ हे राजन ! जिनको मेरी कृपा प्राप्त करनी है, उन्हें चाहिए कि वे मेरी एक लोहे की प्रतिमा बनाएं, जिसकी चार भुजाएं हो और उनमें धनुष, भाला और बाण धारण किए हुए हो।* इसके पश्चात् दस हजार की संख्या में इस स्तोत्र का जप करें, जप का दशांश हवन करे, जिसकी सामग्री काले तिल, शमी-पत्र, घी, नील कमल, खीर, चीनी मिलाकर बनाई जाए। इसके पश्चात् घी तथा दूध से निर्मित पदार्थों से ब्राह्मणों को भोजन कराएं। उपरोक्त शनि की प्रतिमा को तिल के तेल या तिलों के ढेर में रखकर विधि-विधान-पूर्वक मन्त्र द्वारा पूजन करें, कुंकुम इत्यादि चढ़ाएं, नीली तथा काली तुलसी, शमी-पत्र मुझे प्रसन्न करने के लिए अर्पित करें। काले रंग के वस्त्र, बैल, दूध देने वाली गाय- बछड़े सहित दान में दें। हे राजन ! जो मन्त्रोद्धारपूर्वक इस स्तोत्र से मेरी पूजा करता है, पूजा करके हाथ जोड़कर इस स्तोत्र का पाठ करता है, उसको मैं किसी प्रकार की पीड़ा नहीं होने दूंगा। इतना ही नहीं, अन्य ग्रहों की पीड़ा से भी मैं उसकी रक्षा करुंगा। इस तरह अनेकों प्रकार से मैं जगत को पीड़ा से मुक्त करता हूँ।।।४२-५० * (टीन के डिब्बे या कनस्तर को कैंची से काटकर ऐसी प्रतिमा घर पर ही बनाई जा सकती है। इसके ऊपर काला पेण्ट या तेल में काजल मिलाकर काला रंग कर देना चाहिए) Related