September 30, 2015 | Leave a comment पीताम्बरा अष्टक ध्यावत धनेश-अमरेश हू रमेश नित्य, पूजत प्रजेश पद-कञ्ज शम्भु-रानी के । गावत गजानन षडानन अनन्त वेद, पावन दयाल मातु गुन वर-दानी के । पावत परम पुरषारथ प्रसाद जन, लावत ललकि उर ध्यान दया-धानी के । भावत ‘सरोज’ बल-वैभव अपार, अरि-नाशक समृद्ध सदा बगला भवानी के ।। १ सोहत सुधाब्धि-मध्य मणि-मय मण्डप मो, कनक-सिंहासन पै बगला भवानी है । पीत-पट-माल-अंग-राग-रंग इन्दु भाल, अरि-जीभ गदा-पाश-वज्र की दधानी है । कुण्डल-किरीट-हार ललित मुखाम्बुज की, मोहक अनूप छवि सोहत अमानी है । सिद्ध-सुर-साधक-समूह की ‘सरोज’ सदा, भुक्ति-मुक्ति-दायक सहायक शिवानी है ।। २ नाम लेत धावत न लावत विलम्ब अम्ब, आवत नसावत दुरन्त दुख-दीनता । साजत सुजस सुख-सौरभ अपार अति, देत रिद्धि-सिद्धि सदा राखत न छीनता । पौरुष परम पुरषारथ प्रदान करै, जारै जन-मन की समूल हू मलीनता । पीत-पटवारी गदा-पाश-वज्र-धारी सदा, सेवक ‘सरोज’ की सुधारत प्रवीनता ।। ३ ममता-मयी हौ-छमता की है न ओर-छोर, चाहौ जौन बरजोर रचना रचाती हौ । सुर-नर असुर चराचर की चर्चा कौन, चतुर चलावै जब ब्रह्म कौ नचाती हौ । पालन-सृजन-बिनसन बहु रुप-रंग, कौतुक कलित कहूँ प्रलय मचाती हौ । शंकर भयंकर ‘सरोज’ जगदम्ब ! तुमहीं, चण्ड ह्वै चबाती कहूँ दौरि कै बचाती हौ ।। ४ माँगौ कर जोरि गहि पद-कञ्ज मातु ! तोहि, बगला भवानी वर-दानी ! यही वर दे । कुटिल-कुचाली-दुष्ट देश-द्रोहियों के दल, सकल समेटि हठि चूर-चूर कर दे । भ्रष्टाचार-अनाचार-व्यभिचार का प्रसार, है अपार ताहि करि करुणा कुचर दे । भूले भारतीय जनता के मञ्जु मानस में, आतमीय भव्य भावना के भाव भर दे ।। ५ अस्त्र-शस्त्र अन्न-वस्त्र यन्त्र-तन्त्र पूत मन्त्र, धातु उप-धातु के भँडार भूरि भर दे । औरन की आस-विसवास त्यागि अम्ब! आशु, देश को पुरातन सिंहासन पै धर दे । जागै जन-जन में स्वदेश-अनुराग-जोति, पूर्व-इतिहास का विकास मातु ! कर दे । हेकड़ हठीले गरबीले वैरि दल-बल, हेरि-हेरि घेरि-घेरि दौरि-दौरि दर दे ।। ६ रघु-पति राम घनश्याम वीर यदु-पति, द्विज-पति राम बलराम हू बनाय दे । हनुमत महा-वीर रण-धीर भीम बली, वीर-व्रती महा-रथी पारथ जनाय दे । देश-धर्म-मानी अभिमानी परताप शिवा, नानक गोविन्द गुण-गौरव गनाय दे । वल्लभ जवाहर सुभाष आदि वीरन के, वीरता-वितान विश्व-नभ में तनाय दे ।।७ रामकृष्ण गोरख विवेकानन्द अरविन्द, मोतीलाल स्वामी सिद्ध सुकुल हगाय दे । देश-हित साधना में शाक्त साधकों को अम्ब ! अविलम्ब अवलम्ब वनि कै लगाय दे । व्यापक परम ब्रह्म विश्व में विराजै एक, साजै सुख-साज भैद-भावना भगाय दे । दुष्ट-दुराचारी दैत्य दानव-रुप मानवों को, मानवीय प्रीति-रीति-रस में पगाय दे ।। ८ (प॰ काशीप्रसाद शुक्ल) Related