February 13, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण-गणपतिखण्ड-अध्याय 19 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ उन्नीसवाँ अध्याय ब्रह्मा द्वारा माली-सुमाली को सूर्य के कवच और स्तोत्र की प्राप्ति तथा सूर्य की कृपा से उन दोनों का नीरोग होना नारदजी के पूछने पर नारायण बोले — नारद! मैं श्रीसूर्य के पूजन का क्रम तथा सम्पूर्ण पापों और व्याधियों से विमुक्त करने वाले कवच और स्तोत्र का वर्णन करता हूँ, सुनो। जब माली और सुमाली — ये दोनों दैत्य व्याधिग्रस्त हो गये, तब उन्होंने स्तवन करने के लिये शिव-मन्त्र प्रदान करने वाले ब्रह्मा का स्मरण किया । ब्रह्मा ने वैकुण्ठ में जाकर कमलापति विष्णु से पूछा । उस समय शिव भी वहीं श्रीहरि के संनिकट विराजमान थे । ब्रह्मा बोले — हरे ! माली और सुमाली दोनों दैत्य व्याधिग्रस्त हो गये हैं, अतः उनके रोग के विनाश का कौन-सा उपाय है — यह बतलाइये । विष्णु ने कहा — ब्रह्मन् ! वे दोनों पुष्कर में जाकर वर्षभर तक मेरे अंशभूत व्याधिहन्ता सूर्य की सेवा करें, इससे वे रोगमुक्त हो जायँगे । ॐ नमो भगवते वासुदेवाय शंकर ने कहा — जगदीश्वर ! उन दोनों को रोगनाशक महात्मा सूर्य का स्तोत्र, कवच और मन्त्र, जो कल्प-तरु के समान है, प्रदान कीजिये । ब्रह्मन् ! स्वयं श्रीहरि तो सर्वस्व प्रदान करने वाले हैं और सूर्य रोगनाशक हैं। जिसका जो-जो विषय है, अपने विषय में ये दोनों सम्पत्ति प्रदायक हैं। इस प्रकार विष्णु और शिव की अनुमति पाकर ब्रह्मा उन दैत्यों के घर गये। तब दैत्यों ने उन्हें प्रणाम करके कुशल- समाचार पूछा और बैठने के लिये आसन दिया। उन दैत्यों का शरीर गल गया था, उसमें से पीब और दुर्गन्ध निकल रही थी । आहार-रहित होने के कारण वे चलने-फिरने में असमर्थ हो गये थे। तब स्वयं दयालु ब्रह्मा ने उन दोनों से कहा । ब्रह्मा बोले — वत्सो ! तुम दोनों कवच, स्तोत्र और पूजा की विधि का क्रम ग्रहण करके पुष्कर में जाओ और वहाँ विनम्र-भाव से सूर्य का भजन करो । उन दोनों ने कहा — ब्रह्मन् ! किस विधि से और किस मन्त्र से हम सूर्य का भजन करें, उनका स्तोत्र कौन-सा है और कवच क्या है – वह सब हमें प्रदान कीजिये । ब्रह्मा ने कहा — वत्स ! वहाँ त्रिकाल स्नान करके इस मन्त्र से भक्तिपूर्वक भास्कर की भली-भाँति सेवा करने पर तुम लोग नीरोग हो जाओगे। (वह मन्त्र इस प्रकार है— ‘ॐ ह्रीं नमो भगवते सूर्याय परमात्मने स्वाहा’ — इस मन्त्र से सावधानतया सूर्य का पूजन करके उन्हें भक्तिपूर्वक सोलह उपहार प्रदान करना चाहिये । यों ही पूरे वर्षभर तक करना होगा। इससे तुम लोग निश्चय ही रोगमुक्त हो जाओगे । पूर्वकाल में अहल्या का हरण करने के कारण गौतम शाप से जब इन्द्र के शरीर में सहस्र भग हो गये थे, उस संकट-काल में बृहस्पतिजी ने प्रेमपूर्वक पापयुक्त इन्द्र को जो कवच दिया था, वही अपूर्व सूर्यकवच मैं तुम लोगों को प्रदान करता हूँ । ॥ जगद्विलक्षण सूर्य-कवच ॥ ॥ बृहस्पतिरुवाच ॥ इन्द्र शृणु प्रवक्ष्यामि कवचं परमाद्भुतम् । यद्धृत्वा मुनयः पूता जीवन्मुक्ताश्च भारते ॥ १९ ॥ कवचं बिभ्रतो व्याधिर्न भिया याति सन्निधिम् । यथा दृष्ट्वा वैनतेयं पलायन्ते भुजङ्गमाः ॥ २० ॥ शुद्धाय गुरुभक्ताय स्वशिष्याय प्रकाशयेत् । खलाय परशिष्याय दत्त्वा मृत्युमवाप्नुयात् ॥ २१ ॥ जगद्विलक्षणस्यास्य कवचस्य प्रजापतिः । ऋषिश्छन्दश्च गायत्री देवो दिनकरः स्वयम् । व्याधिप्रणाशे सौन्दर्य्ये विनियोगः प्रकीर्त्तितः ॥ २२ ॥ सद्योरोगहरं सारं सर्वपापप्रणाशनम् । ॐ क्लीं ह्रीं श्रीं श्रीसूर्य्याय स्वाहा मे पातु मस्तकम् ॥ २३ ॥ अष्टादशाक्षरो मन्त्रः कपालं मे सदाऽवतु । ॐ ह्रीं ह्रीं श्रीं श्रीं सूर्य्याय स्वाहा मे पातु नासिकाम् ॥ २४ ॥ चक्षुर्मे पातु सूर्यश्च तारकां च विकर्तनः । भास्करो मेऽधरं पातु दन्तान्दिनकरः सदा ॥ २५ ॥ प्रचण्डः पातु गण्डं मे मार्तण्डः कर्णमेव च । मिहिरश्च सदा स्कन्धे जंघे पूषा सदाऽवतु ॥ २६ ॥ वक्षः पातु रविः शश्वन्नाभिं सूर्य्यः स्वयं सदा । कंकालं मे सदा पातु सर्वदेवनमस्कृतः ॥ २७ ॥ करौ पातु सदा ब्रध्नः पातु पादौ प्रभाकरः । विभाकरो मे सर्वांगं पातु सन्ततमीश्वरः ॥ २८ ॥ इति ते कथितं वत्स कवचं सुमनोहरम् । जगद्विलक्षणं नाम त्रिजगत्सु सुदुर्लभम् ॥ २९ ॥ पुरा दत्तं च मनवे पुलस्त्येन तु पुष्करे । मया दत्तं च तुभ्यं तद्यस्मै कस्मै न देहि भोः ॥ ३० ॥ व्याधितो मुच्यसे त्वं च कवचस्य प्रसादतः । भवानरोगी श्रीमांश्च भविष्यति न संशयः ॥ ३१ ॥ लक्षवर्षहविष्येण यत्फलं लभते नरः । तत्फलं लभते नूनं कवचस्यास्य धारणात् ॥ ३२ ॥ इदं कवचमज्ञात्वा यो मूढो भास्करं यजेत् । दशलक्षप्रजप्तोऽपि मन्त्रसिद्धिर्न जायते ॥ ३३ ॥ बृहस्पति ने कहा — इन्द्र ! सुनो। मैं उस परम अद्भुत कवचका वर्णन करता हूँ जिसे धारण करके मुनिगण पवित्र हो भारतवर्षमें जीवन्मुक्त हो गये। इस कवचके धारण करनेवाले के सन्निकट व्याधि भय के मारे उसी प्रकार नहीं जाती है, जैसे गरुड़ को देखकर साँप दूर भाग जाते हैं । इसे अपने शिष्य को, जो गुरुभक्त और शुद्ध हो, बतलाना चाहिये परंतु जो दूसरे के दुष्ट स्वभाव वाले शिष्य को देता है, वह मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। इस जगद्विलक्षण कवच के प्रजापति ऋषि हैं, गायत्री छन्द है और स्वयं सूर्य देवता हैं । व्याधिनाश तथा सौन्दर्य के लिये इसका विनियोग किया जाता है। यह सारस्वरूप कवच तत्काल ही पवित्र करनेवाला और सम्पूर्ण पापोंका विनाशक है । ‘ॐ क्लीं ह्रीं श्रीं श्रीसूर्याय स्वाहा’ मेरे मस्तक की रक्षा करे । अष्टादशाक्षर’- – मन्त्र सदा मेरे कपाल को बचावे। ‘ॐ ह्रीं ह्रीं श्रीं श्रीं सूर्याय स्वाहा’ मेरी नासिका को सुरक्षित रखे। सूर्य मेरे नेत्रों की, विकर्तन पुतलियों की, भास्कर ओठों की और दिनकर दाँतों की रक्षा करें। प्रचण्ड मेरे गण्डस्थल का, मार्तण्ड कानों का, मिहिर स्कन्धों का और पूषा जंघाओं का सदा पालन करें। रवि मेरे वक्षःस्थल की, स्वयं सूर्य नाभि की और सर्वदेवनमस्कृत कङ्काल की सदा देख-रेख करें । ब्रध्न हाथों को, प्रभाकर पैरों को और सामर्थ्यशाली विभाकर मेरे सारे शरीर को निरन्तर सुरक्षित रखें । वत्स ! यह ‘जगद्विलक्षण’ नामक कवच अत्यन्त मनोहर तथा त्रिलोकी में परम दुर्लभ है । इसे मैंने तुम्हें बतला दिया । पूर्वकाल में पुलस्त्य ने पुष्करक्षेत्र में प्रसन्न होकर इसे मनु को दिया था, वही मैं तुम्हें दे रहा हूँ । इसे तुम जिस-किसी को मत दे देना। इस कवच की कृपा से तुम्हारा रोग नष्ट हो जायगा और तुम नीरोग तथा श्रीसम्पन्न हो जाओगे — इसमें संशय नहीं है। एक लाख वर्ष तक हविष्य-भोजन से मनुष्य को जो फल मिलता है, वह फल निश्चय ही इस कवच के धारण से प्राप्त हो जाता है । इस कवच को जाने बिना जो मूर्ख सूर्य की भक्ति करता है, उसे दस लाख जप करने पर भी मन्त्रसिद्धि नहीं प्राप्त होती । ॥ व्याधि-मोचन सूर्य-स्तोत्र ॥ ॥ ब्रह्मोवाच ॥ तं ब्रह्म परमं धाम ज्योतीरूपं सनातनम् । त्वामहं स्तोतुमिच्छामि भक्तानुग्रहकारकम् ॥ ३६ ॥ त्रैलोक्यलोचनं लोकनाथं पापविमोचनम् । तपसां फलदातारं दुःखदं पापिनां सदा ॥ ३७ ॥ कर्मानुरूपफलदं कर्मबीजं दयानिधिम् । कर्मरूपं क्रियारूपमरूपं कर्मबीजकम् ॥ ३८ ॥ ब्रह्मविष्णुमहेशानामंशं च त्रिगुणात्मकम् । व्याधिदं व्याधिहन्तारं शोकमोहभयापहम् । सुखदं मोक्षदं सारं भक्तिदं सर्वकामदम् ॥ ३९ ॥ सर्वेश्वरं सर्वरूपं साक्षिणं सर्वकर्मणाम् । प्रत्यक्षं सर्वलोकानामप्रत्यक्षं मनोहरम् ॥ ४० ॥ शश्वद्रसहरं पश्चाद्रसदं सर्वसिद्धिदम् । सिद्धि स्वरूपं सिद्धेशं सिद्धानां परमं गुरुम् ॥ ४१ ॥ स्तवराजमिदं प्रोक्तं गुह्याद्गुह्यतरं परम् । त्रिसन्ध्यं यः पठेन्नित्यं व्याधिभ्यस्स प्रमुच्यते ॥ ४२ ॥ आन्ध्यं कुष्ठं च दारिद्र्यं रोगः शोको भयं कलिः । तस्य नश्यति विश्वेश श्रीसूर्य्यकृपया ध्रुवम् ॥ ४३ ॥ महाकुष्ठी च गलितश्चक्षुर्हीनो महाव्रणी । यक्ष्मग्रस्तो महाशूली नानाव्याधियुतोऽसि वा ॥ ४४ ॥ मासं कृत्वा हविष्यान्नं श्रुत्वाऽतो मुच्यते ध्रुवम् । स्नानं च सर्वतीर्थानां लभते नात्र संशयः ॥ ४५ ॥ पुष्करं गच्छतं शीघ्रं भास्करं भजतं सुतौ । इत्येवमुक्त्वा स विधिर्जगाम स्वालयं मुदा ॥ ४६ ॥ तौ निषेव्य दिनेशं तं नीरुजौ संबभूवतुः । इत्येवं कथितं वत्स किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ ४७ ॥ सर्वविघ्नहरं सारं विघ्नेशं विघ्ननाशनम् । स्तोत्रेणानेन तं स्तुत्वा मुच्यते नात्र संशयः ॥ ४८ ॥ ब्रह्मा ने कहा — वत्स ! इस कवच को धारण करके सूर्य का स्तवन करने पर तुम लोग रोग मुक्त हो जाओगे – यह निश्चित है। सूर्य-स्तवन का वर्णन सामवेद में हुआ है । यह व्याधिविनाशक, सर्वपापहारी, परमोत्कृष्ट, साररूप और श्री तथा आरोग्य को देनेवाला है । भगवन्! जो सनातन ब्रह्म, परमधाम, ज्योतीरूप, भक्तों पर अनुग्रह करने वाले, त्रिलोकी के नेत्ररूप, जगन्नाथ, पापनाशक, तपस्याओं के फलदाता, पापियों को सदा दुःखदायी, कर्मानुरूप फल प्रदान करने वाले, कर्म के बीजस्वरूप, दयासागर, कर्मरूप, क्रियारूप, रूपरहित, कर्मबीज, ब्रह्मा, विष्णु और महेश के अंशरूप, त्रिगुणात्मक, व्याधिदाता, व्याधिहन्ता, शोक-मोह -भय के विनाशक, सुखदायक, मोक्षदाता, साररूप, भक्तिप्रद, सम्पूर्ण कामनाओं के दाता, सर्वेश्वर, सर्वरूप, सम्पूर्ण कर्मोंके साक्षी, समस्त लोकों के दृष्टिगोचर, अप्रत्यक्ष, मनोहर, निरन्तर रस को हरने वाले, तत्पश्चात् रसदाता, सर्वसिद्धिप्रद, सिद्धिस्वरूप, सिद्धेश और सिद्धों के परम गुरु हैं, उन आपकी मैं स्तुति करना चाहता हूँ । वत्स ! मैंने इस स्तवराज का वर्णन कर दिया । यह गोपनीय से भी परम गोपनीय है। जो नित्य तीनों काल इसका पाठ करता है, वह समस्त व्याधियों से मुक्त हो जाता है। उसके अंधापन, कोढ़, दरिद्रता, रोग, शोक, भय और कलह- ये सभी विश्वेश्वर श्रीसूर्य की कृपा से निश्चय ही नष्ट हो जाते हैं। जो भयंकर कुष्ठ से दुःखी, गलित अङ्गों वाला, नेत्रहीन, बड़े-बड़े घावों से युक्त, यक्ष्मा से ग्रस्त, महान् शूलरोग से पीड़ित अथवा नाना प्रकार की व्याधियों से युक्त हो, वह भी यदि एक मास तक हविष्यान्न भोजन करके इस स्तोत्र का श्रवण करे तो निश्चय ही रोगमुक्त हो जाता है और उसे सम्पूर्ण तीर्थों में स्नान करने का फल प्राप्त होता है – इसमें तनिक भी संदेह नहीं है । अतः पुत्रो ! तुम लोग शीघ्र ही पुष्कर में जाओ और वहाँ सूर्य का भजन करो। यों कहकर ब्रह्मा आनन्दपूर्वक अपने भवन को चले गये। इधर वे दोनों दैत्य सूर्य की सेवा करके नीरोग हो गये । वत्स नारद! इस प्रकार मैंने तुम्हारे पूछे हुए विघ्नेश्वर के विघ्न का कारण तथा सर्वविघ्नहर सूर्यकवच और सूर्यस्तवादि सुना दिये । अब तुम्हारी और क्या सुननेकी इच्छा है ? (अध्याय १९) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे तृतीये गणपतिखण्डे नारदनारायणसंवादे विघ्नकारणकथनं नामैकोनविंशतितमोऽध्यायः ॥ १९ ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. Please login or register Please follow and like us: Related