ब्रह्मवैवर्तपुराण-गणपतिखण्ड-अध्याय 09
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
नौवाँ अध्याय
श्रीहरि के अन्तर्धान हो जाने पर शिव-पार्वती द्वारा ब्राह्मण की खोज, आकाशवाणी के सूचित करने पर पार्वती का महल में जाकर पुत्र को देखना और शिवजी को बुलाकर दिखाना, शिव-पार्वती का पुत्र को गोद में लेकर आनन्द मनाना

श्रीनारायण कहते हैं — मुने! इस प्रकार जब श्रीहरि अन्तर्धान हो गये, तब दुर्गा और शंकर ब्राह्मणकी खोज करते हुए चारों ओर घूमने लगे ।

उस समय पार्वतीजी कहने लगीं — हे विप्रवर! आप तो अत्यन्त वृद्ध और भूख से व्याकुल थे । हे तात! आप कहाँ चले गये ? विभो ! मुझे दर्शन दीजिये और मेरे प्राणों की रक्षा कीजिये । शिवजी ! शीघ्र उठिये और उन ब्राह्मणदेव की खोज कीजिये । वे क्षणमात्र के लिये उदास मन वाले हम लोगों के सामने आये थे । परमेश्वर ! यदि भूख से पीड़ित अतिथि गृहस्थ के घर से अपूजित होकर चला जाता है तो क्या उस गृहस्थ का जीवन व्यर्थ नहीं हो जाता ? यहाँ तक कि उसके पितर उसके द्वारा दिये गये पिण्डदान और तर्पण को नहीं ग्रहण करते तथा अग्नि उसकी दी हुई आहुति और देवगण उसके द्वारा निवेदित पुष्प एवं जल नहीं स्वीकार करते। उस अपवित्र का हव्य, पुष्प, जल और द्रव्य – सभी मदिरा के तुल्य हो जाता है। उसका शरीर मल-सदृश और स्पर्श पुण्यनाशक हो जाता है ।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

इसी बीच वहाँ आकाशवाणी हुई, जिसे शोक से आतुर तथा विकलता से युक्त दुर्गा ने सुना ।

(आकाशवाणी ने कहा —) जगन्माता ! शान्त हो जाओ और मन्दिर में अपने पुत्र की ओर दृष्टिपात करो। वह साक्षात् गोलोकाधिपति परिपूर्णतम परात्पर श्रीकृष्ण है तथा सुपुण्यक-व्रत-रूपी वृक्ष का सनातन फल है। योगी लोग जिस अविनाशी तेज का प्रसन्नमन से निरन्तर ध्यान करते हैं; वैष्णवगण तथा ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदि देवता जिसके ध्यान में लीन रहते हैं; प्रत्येक कल्प में जिस पूजनीय की सर्वप्रथम पूजा होती है, जिसके स्मरणमात्र से समस्त विघ्न नष्ट हो जाते हैं, तथा जो पुण्य की राशिस्वरूप है, मन्दिर में विराजमान अपने उस पुत्र की ओर तो दृष्टि डालो । प्रत्येक कल्प में तुम जिस सनातन ज्योति रूप का ध्यान करती हो, वही तुम्हारा पुत्र है । यह मुक्तिदाता तथा भक्तों के अनुग्रह का मूर्त रूप है। जरा उसकी ओर तो निहारो। जो तुम्हारी कामनापूर्ति का बीज, तपरूपी कल्पवृक्ष का फल और लावण्यता में करोड़ों कामदेवों की निन्दा करनेवाला है, अपने उस सुन्दर पुत्र को देखो । दुर्गे! तुम क्यों विलाप कर रही हो? अरे, यह क्षुधातु ब्राह्मण नहीं है, यह तो विप्रवेष में जनार्दन हैं। अब कहाँ वह वृद्ध और कहाँ वह अतिथि ?

 नारद! यों कहकर सरस्वती चुप हो गयीं । तब उस आकाशवाणी को सुनकर सती पार्वती भयभीत हो अपने महल में गयीं। वहाँ उन्होंने पलंग पर सोये हुए बालक को देखा। वह आनन्दपूर्वक मुस्कराते हुए महल की छत के भीतरी भाग को निहार रहा था। उसकी प्रभा सैकड़ों चन्द्रमाओं के तुल्य थी। वह अपने प्रकाश-समूह से भूतल को प्रकाशित कर रहा था। हर्षपूर्वक स्वेच्छानुसार इधर-उधर देखते हुए शय्या पर उछल-कूद रहा था और स्तनपान की इच्छा से रोते हुए ‘उमा’ ऐसा शब्द कर रहा था । उस अद्भुत रूप को देखकर सर्वमङ्गला पार्वती त्रस्त हो शंकरजी के संनिकट गयीं और उन प्राणेश्वर से मङ्गल-वचन बोलीं ।

पार्वती ने कहा — प्राणपति ! घर चलिये और मन्दिर के भीतर चलकर प्रत्येक कल्प में आप जिसका ध्यान करते हैं तथा जो तपस्या का फलदाता है, उसे देखिये । जो पुण्य का बीज, महोत्सवस्वरूप, ‘पुत्’ नामक नरक से रक्षा करने का कारण और भवसागर से पार करने वाला है, शीघ्र ही उस पुत्र के मुख का अवलोकन कीजिये; क्योंकि समस्त तीर्थों में स्नान तथा सम्पूर्ण यज्ञों में दीक्षा-ग्रहण का पुण्य इस पुत्रदर्शन के पुण्य की सोलहवीं कला की समानता नहीं कर सकता । सर्वस्व दान कर देने से जो पुण्य होता है तथा पृथ्वी की प्रदक्षिणा करने से जिस पुण्य की प्राप्ति होती है, वे सभी इस पुत्रदर्शन जन्य पुण्य के सोलहवें अंश के भी बराबर नहीं हैं ।

पार्वती के ये वचन सुनकर शिवजी का मन हर्षमग्न हो गया। वे तुरंत ही अपनी प्रियतमा के साथ अपने घर आये । वहाँ उन्होंने शय्या पर अपने पुत्र को देखा। उसकी कान्ति तपाये हुए स्वर्ण के समान उद्दीप्त थी । ( फिर सोचने लगे – ) मेरे हृदय में जो अत्यन्त मनोहर रूप विद्यमान था, यह तो वही है। तत्पश्चात् दुर्गा ने उस पुत्र को शय्या पर से उठा लिया और उसे छाती से लगाकर वे उसका चुम्बन करने लगीं।

स समय वे आनन्द -सागर में निमग्न होकर यों कहने लगीं — ‘बेटा! जैसे दरिद्र का मन सहसा उत्तम धन पाकर संतुष्ट हो जाता है, उसी तरह तुझ सनातन अमूल्य रत्न की प्राप्ति से मेरा मनोरथ पूर्ण हो गया। जैसे चिरकाल से प्रवासी हुए प्रियतम के घर लौटने पर स्त्री का मन पूर्णतया हर्षमन हो जाता है, वही दशा मेरे मन की भी हो रही है । वत्स! जैसे एक पुत्र वाली माता चिरकाल से बाहर गये हुए अपने इकलौते पुत्र को आया हुआ देखकर परितुष्ट होती है, वैसे ही इस समय मैं भी संतुष्ट हो रही हूँ। जैसे मनुष्य चिरकाल से नष्ट हुए उत्तम रत्न को तथा अनावृष्टि के समय उत्तम वृष्टि को पाकर हर्ष से फूल उठता है, उसी प्रकार तुझ पुत्र को पाकर मैं भी हर्ष-गद्गद हो रही हूँ । जैसे चिरकाल के पश्चात् आश्रयहीन अंधे का मन परम निर्मल नेत्र की प्राप्ति से प्रसन्न हो जाता है, वही अवस्था ( तुझे पाकर) मेरे मन की भी हो रही है । जैसे दुस्तर अगाध सागर में गिरे हुए अथवा विपत्ति में फँसे हुए नौका आदि साधनविहीन मनुष्य का मन नौका को पाकर आनन्द से भर जाता है, वैसे ही मेरा मन भी आनन्दित हो रहा है। जैसे प्यास से सूखे हुए कण्ठवाले मनुष्यों का मन चिरकाल के पश्चात् अत्यन्त शीतल एवं सुवासित जल को पाकर प्रसन्न हो जाता है, वही दशा मेरे मन की भी है। जैसे दावाग्नि से घिरे हुए को अग्नि-रहित स्थान और आश्रयहीन को आश्रय मिल जाने से मन की इच्छा पूरी हो जाती है, उसी प्रकार मेरी भी इच्छापूर्ति हो रही है । चिरकाल से व्रतोपवास करने वाले भूखे मनुष्यों का मन जैसे सामने उत्तम अन्न देखकर प्रसन्न हो उठता है, उसी तरह मेरा मन भी हर्षित हो रहा है। ‘

यों कहकर पार्वती ने अपने बालक को गोद में लेकर प्रेम के साथ उसके मुख में अपना स्तन दे दिया। उस समय उनका मन परमानन्द में निमग्न हो रहा था। तत्पश्चात् भगवान् शंकर ने भी प्रसन्नमन से उस बालक को अपनी गोद में उठा लिया।     (अध्याय ९)

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराण तृतीये गणपति खण्डे नारदनारायणसंवादे बालगणेशदर्शनं नाम नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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